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लेख
ज़िन्दगी जीने के दो तरीक़े || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक देव पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि लेखे आवहि भाग। ~ जपुजी साहिब (नितनेम)

आचार्य प्रशांत: फ़्री विल (मुक्त इच्छा) भी एब्सोल्यूट्ली फ़्री (पूर्णत: मुक्त) है। आपकी जो फ़्री विल है, वो भी इस मामले में तो बाउन्डेड (सीमित) है ही कि वो आपकी नहीं है। जो आपकी इच्छा है वो तो सदा ही सीमित है, वो सीमित है अपने सन्दर्भ से और अपने प्रभावों से। जो आपकी इच्छा है, जिसे कहते हो, ‘ये मेरी इच्छा है’ — जो आपकी इच्छा है वो तो वही है जो आपके भीतर डाली गयी है — तो वो सीमित है। और जो वास्तव में मुक्त इच्छा है, अपरिमित इच्छा है, वो आपकी है नहीं। वो आपकी नहीं है, वो पूर्ण की है।

ठीक है?

हम ये तो कह देते हैं कि हमको ये हक़ हासिल है कि हम कब फ़ैसला करें कि स्रोत की तरफ़ जाना है, लेकिन याद रखिएगा स्रोत की तरफ़ जाने का फ़ैसला जब भी होगा, वो आपका नहीं होगा। आप किसी भी बिन्दु पर खड़े होकर के दो फ़ैसले करते हो, हर फ़ैसला वास्तव में दो ही विकल्पों के बीच होता है। एक स्रोत से दूर जाने का, दूसरा उसकी तरफ़ जाने का, चाहे वो छोटे-से-छोटा फ़ैसला हो। चाहे वो यही फ़ैसला क्यों न हो कि जूता कौनसा ख़रीदना है। चाहे वो यही फ़ैसला क्यों न हो कि रिक्शा लेना है या बस लेनी है। पर वो फ़ैसला आप ध्यान से देखेंगे तो फ़ैसला यही है कि स्रोत की तरफ़ जाना है या उससे दूर जाना है। स्रोत से दूर जाने का फ़ैसला आप जब भी ले रहे हैं, वो आपकी अपनी व्यक्तिगत इच्छा है और वो आपकी है नहीं क्योंकि वो आपके ऊपर बड़े प्रभावों से आ रही है, उसका एक सन्दर्भ है, उसके कारण हैं। स्रोत की तरफ़ जाने का फ़ैसला आप जब भी ले रहे हैं, वो आपकी इच्छा है ही नहीं क्योंकि वो स्रोत की इच्छा है।

नहीं समझ रहे हैं?

श्रोता: सर, आज मैंने यही वास्तव में महसूस किया।

आचार्य: तो दोनों ही स्थितियों में आपकी इच्छा आपकी तो नहीं है। एक स्थिति में वो संस्कारों की और समाज की इच्छा है और दूसरी स्थिति में वो स्रोत की इच्छा है, आपकी इच्छा जैसा तो कुछ होता नहीं।

श्रोता: जो इच्छा भी पैदा हो रही है, वो भी तो किसी कारण से ही हो रही है, ऐसा लगता है।

आचार्य: हाँ, जब तक उसका कारण है तो वो शरीर से, समाज से और संस्कार से आ रही है; जब उसका कोई कारण नहीं है, तो वो स्रोत से आ रही है। पर आपकी तो वो दोनों ही स्थितियों में नहीं है। यही बात यहाँ कही जा रही है, “संजोगु विजोगु दुइ कार” दो ही काम होते हैं या तो संयोग के या वियोग के; या तो तुम वियोग की तरफ़ बढ़ते हो या तुम संयोग की तरफ़ बढ़ते हो। वियोग का अर्थ है स्रोत से दूर जाना, संयोग का अर्थ है स्रोत की तरफ़ जाना, संयुक्त होने की दिशा में जाना। “चलावहि लेखे आवहि भाग” इन दोनों ही स्थितियों में “दुइ कार” दोनों ही विकल्पों में तुम्हारे लेखे जो आ रहा है तुम तो वही भुगत रहे हो, तुम्हारा इसमें कुछ नहीं है, अपना मत मान लेना, नियति है। “संजोगु विजोगु दुइ कार, चलावहि लेखे आवहि भाग” भाग्य की बात है, दोनों ही भाग्य की बात है — एक स्थिति में समाज के चलाये चल रहे हो, दूसरी स्थिति में स्रोत के चलाये चल रहे हो — अपना इसमें कुछ न जान लेना, अपना जानने में चूक हो जानी है।

समाज के चलाये जो आदमी चल रहा है अगर उसने ये सोच लिया कि ये तो मेरी इच्छा थी, तो उसकी मुक्ति के रास्ते बन्द हो जाएँगे या यूँ कहिए ज़्यादा उचित होगा कि उसकी मुक्ति के रास्ते कभी खुलेंगे ही नहीं। और स्रोत की इच्छा पर जो चल रहा है अगर उसको ये विचार आ गया कि ये तो मेरी इच्छा है, तो उसका खुला हुआ रास्ता बन्द हो जाएगा। एक स्थिति में रास्ता कभी खुलेगा ही नहीं और दूसरी स्थिति में खुला हुआ रास्ता बन्द हो जाएगा। अत: ये विचार कि इसमें कुछ भी मेरी इच्छा है, ये दोनों ही स्थितियों में घातक ही होना है।

और याद रखो जहाँ तुम हो वहाँ तुम्हें ये मानना ही पड़ेगा कि ये सब मेरा विचार है, मेरी इच्छा है। तो जब ये कहा जा रहा है कि “चलावहि लेखे आवहि भाग” तो मूलतः ये कहा जा रहा है कि ‘मैं’ से मुक्त रहो। ‘मैं’ आया तो अपनी इच्छाओं को साथ लेकर के आएगा और तुम ये दावा कर ही बैठोगे कि ये सब जो हो रहा है वो ‘मैं’ कर रहा है।

ध्यान हो तुम, बोधमात्र हो तुम! फिसले हो और जगा बोध यदि जगा है तो कहोगे, ‘जो फिसला वो मैं था ही नहीं, मैं तो वो हूँ जो जान रहा है कि कोई फिसला।’ अब फिसलने की पीड़ा से मुक्त हो जाओगे क्योंकि जान गये तुम कि तुम क्या हो। तुम बोध मात्र हो, घटना के साक्षी हो। तुम फिसले ही नहीं तो फिसलने का दर्द तुम्हें क्यों होगा? दर्द तो उसे होगा जो फिसला हो, तुम तो फिसलने के साक्षी हो।

श्रोता: अगर ये जान गये तो कर्मफल नहीं मिलेगा?

आचार्य: बिलकुल नहीं मिलेगा। कर्मफल से मुक्ति का सूत्र ही यही है कि तुम वो रहो ही न जो फिसला था। फिसलने से चोट किसे लगती है?

श्रोता: जो फिसला था।

आचार्य: जो फिसला था। फिसलने और चोट लगने के मध्य में अगर फिसलने वाला ही रूपान्तरित हो जाए, तो चोट नहीं लगेगी। तुम्हारे सारे कर्म धुल जाएँगे, कोई फल शेष नहीं रहेगा, न मीठा, न कड़वा। कोई फल शेष नहीं रहेगा अगर तुम ही वो न रहो जिसने कर्म करा था। तुम मुक्त हो गये, सारे कर्मफल से मुक्त हो गये!

हमने कहा था कि जो आत्मरूप हो जाते हैं कर्मफल का सिद्धान्त उन पर लागू नहीं होता। तुम आत्मरूप हो जाओ, कर्मों से मुक्त हो जाओगे। पाप-पुण्य सब धुल जाएँगे, कुछ नहीं बचेगा। पर इसके लिए तुम्हें ध्यान से देखना पड़ेगा कि उन कर्मों के कर्ता तुम थे नहीं, याद रखना कर्म नहीं सताते, कर्मों का कर्तृत्व सताता है।

कोई बोले कि मैं अपने किये की सज़ा भुगत रहा हूँ, तो न, तुम सज़ा भुगत रहे हो अपनेआप को कर्ता मानने की, अपने किये की नहीं, अपने को कर्ता मानने की। तुम इस भाव की सज़ा भुगत रहे हो कि तुमने किया। ‘हुआ’ की सज़ा नहीं भुगत रहे हो, ‘मैंने किया’ की सज़ा भुगत रहे हो। जिस क्षण तुम ये जान गये कि जो हुआ, वो तो “चलावहि लेखे आवहि भाग” था। अरे! उसके अलावा कुछ हो ही नहीं सकता था, मेरा उसमें कोई कर्तृत्व था ही नहीं, उस क्षण तुम पीड़ा से मुक्त हो जाओगे, दुख से मुक्त हो जाओगे, सुख से भी मुक्त होना पड़ेगा।

श्रोता: लेकिन आपने एक दिन कहा था कि अस्तित्व की ओर से आपको पूरी आज़ादी है, आप अच्छे कर्म करो।

आचार्य: मैं उसी की बात कर रहा हूँ जिसको आप पूरी आज़ादी बोलते हो, वो पूरी आज़ादी भी वास्तव में आपकी आज़ादी नहीं है, वो मात्र आज़ादी है। व्हेयर देयर इज़ एब्सोल्यूट फ़्रीडम, देयर इज़ नोबडी लेफ़्ट टू बी फ़्री, दैट्स द आइरनी ऑफ़ इट। (जब पूर्ण मुक्ति होती है तो कोई बचता ही नहीं जिसे मुक्ति चाहिए, ये इसकी विडम्बना है)। पूर्ण मुक्ति में कोई मुक्त जैसा बचता ही नहीं। व्हेयर देयर इज़ एब्सोल्यूट फ़्रीडम, देयर इज़ नोबडी लेफ़्ट टू भी कॉल्ड ऐज़ फ़्री। (जब पूर्ण मुक्ति होती है तो कोई नहीं बचता जिसे मुक्त कहा जाए) जब तक कोई बचा है जो दावा कर रहा है कि मैं फ़्री हूँ तब तक एब्सोल्यूट फ़्रीडम आयी नहीं। तो पूर्ण आज़ादी है, पर आपको नहीं है। जब पूर्ण आज़ादी है, तब मात्र पूर्ण आज़ादी है, आप नहीं हो, तब सिर्फ़ आज़ादी है, मुक्ति है, आप नहीं हो, आज़ाद कोई नहीं है। आज़ादी है, आज़ाद नहीं है।

नहीं समझ में आ रही बात?

“आज़ाद जो होता है — जो इकाई है जो आज़ाद है, वो तो हमेशा सीमित होती है, हमेशा — आज़ादी सीमित नहीं होती, आज़ाद सीमित होता है।”

इसीलिए जब एब्सोल्यूट फ़्रीडम , पूर्ण, असीमित, अनक्वालिफ़ाइड मुक्ति की आप बात करते हैं, तो उसमें आप नहीं रह जाएँगे क्योंकि आपका होना ही उस असीमित को परिमित कर देगा।

समझ रहे हो बात को?

आप जहाँ हो, वहाँ तो सीमा है ही है।

श्रोता: जैसे दो रास्ते हैं, एक रास्ता जो स्त्रोत से दूर ले जा रहा है और दूसरा जो नज़दीक ले आ रहा है, क्या इसमें भी हम कुछ नहीं करते?

आचार्य: संयोग है, खेल है।

श्रोता: ये भी स्रोत का ही खेल है?

आचार्य: कह सकते हो उसी का है और जिसने उस हद तक बात को समझ लिया कि जब खेल उसका रचा हुआ है, तो मैं भी उसकी ओर कब जाऊँगा कि नहीं जाऊँगा ये भी उसी ने तय कर दिया है। अब वो ठीक वहीं बैठ ही गया है, जहाँ वो है, जहाँ स्रोत है।

देखो, जब तुम ये भी कहते हो कि स्रोत बुला रहा है और मुझे उसकी पुकार का जवाब देना है, तब भी तुम वियोग में हो, तब भी तुममें कर्ताभाव शेष है। ‘मुझे क्या करना है? मुझे पुकार का जवाब देना है, वो बुला रहा है, मुझे पुकार का जवाब देना है।’

जब तुम यहाँ पहुँच जाओ कि पुकारने वाला भी वही है और जवाब देने वाला भी वही है, मैं नहीं! तब जवाब देने की कोई ज़रूरत भी नहीं है क्योंकि अब तुम वही हो गये! किसको जवाब दोगे? हाँ, जब तक तुम, ‘तुम’ हो, तब तक तुम्हारे लिए आवश्यक है कि जब वो पुकारे तब तुम जवाब दो। पर अगर तुम्हारी वो स्थिति आ गयी है जहाँ तुम कह रहे हो कि तू पुकार रहा है, तू ही जवाब भी दे ले, मैं हूँ ही नहीं।

‘मैंने तो ऐसा समर्पण किया कि मैं बचा ही नहीं, अब तू पुकार भी किसको रहा है? किसको भेज रहा है तू प्रेम पत्र? मैं बचा ही नहीं। मैं तो ऐसा मिटा कि तुझसे एक हो गया, तो अब तू पुकारता भी किसको है?’

समझ रहे हो बात को?

ये आख़िरी घटना है, ये तब होगी जब पूरे ही मिट जाओ। जब तक पूरे नहीं मिटे हो, तब तक तो ये भ्रम बना ही रहेगा कि मेरे पास मेरी कोई स्वतन्त्र इच्छा, फ़्री विल है — ठीक वैसे जैसे वियोग एक भ्रम है, उसी तरीक़े से फ़्री विल भी भ्रम है — बल्कि ये कहो कि मुक्त इच्छा, स्वतन्त्र इच्छा वियोग के साथ-साथ चलने वाला भ्रम है। वियोग जितना गहरा होगा, फ़्री विल का अनुभव, फ़्री विल की भावना भी उतनी ही गहरी होगी।

श्रोता १: सर, ये बात समझ में नहीं आयी।

श्रोता २: सर, साधारण शब्दों में हम लोग जैसे अभी एक सामान्य इंसान होता है, वो अपनेआप को शरीर मानता है। कर्ताभाव रहता है उसमें, ‘अच्छा कर रहा हूँ मैं कर रहा हूँ, बुरा कर रहा हूँ मैं कर रहा हूँ।’ वो अपनी बुद्धि को ही अपनी समझ का नाम देता है। कहता है, ‘मेरी जो बुद्धि है वही मेरी समझ है। मैं अपनी समझ से अच्छा या बुरा कर रहा हूँ।’ चीज़ों को इस तरह से देखता है। जो व्यक्ति थोड़ा सा ऊपर और उठ गया है, वो कहीं-न-कहीं ये समझता है कि देखने वाला कोई और है। ‘ये शरीर मेरा नहीं है, ये शरीर ख़त्म भी हो जाएगा तो भी मैं इसका साक्षी हूँ।’ तो धीरे-धीरे ऊँची स्थिति में आ रहा है। लेकिन वो भी कहीं-न-कहीं ये मानता है कि जो निर्णय हो रहे हैं, वो मेरी बुद्धि से हो रहे हैं। वो बुद्धि को इंटेलिजेंस (बोध) का नाम देता है, उसको लगता है वही इंटेलिजेंस है। हम किसी की हत्या करें, किसी जीव की भी हत्या करें, तो कहीं-न-कहीं से वो आवाज़ आती है कि ये ग़लत हो रहा है, ये नहीं करना चाहिए।

आपने भी सर कहा था कि कई बार वो आवाज़ आपको संकेत देगा, अस्तित्व आपको बताएगा। कोई लाउडस्पीकर पर आवाज़ नहीं आएगी, अन्दर से आवाज़ आएगी आपको और वो आपके ऊपर है आप उस आवाज़ को सुनें या न सुनें।

आचार्य: मैं जो बोल रहा हूँ आप उसका क्या अर्थ कर रहे हैं, ये दो बड़ी अलग-अलग बातें हैं। मैं आपके मन की, अन्तरात्मा की, कॉन्शियन्स (अन्त:क्रिया) की बात नहीं कर रहा हूँ। आपने जो दो बातें कहीं, वो दोनों ही मैंने कभी कही नहीं। न मैंने कभी ये कहा कि अब मैं मर भी जाऊँगा तो भी मैं रहूँगा, मैं साक्षी हूँ। मैं बिलकुल नहीं कहता हूँ कभी कि आप मर भी जाएँगे, तब आप रहेंगे। न मैं कभी ये कहता हूँ कि आप किसी की हत्या कर रहे होते हैं तो भीतर से आवाज़ आती है, हत्या करते समय आपको जो आवाज़ आती है वो तो समाज द्वारा बैठायी गयी नैतिकता की आवाज़ है। तो मैं कहता कुछ और हूँ आप उसका अर्थ कुछ और करते हैं। मैं उनकी बातें बिलकुल नहीं कर रहा था। मैं कॉन्शियन्स की और मोरैलिटी (नैतिकता) की बातें नहीं कर रहा था।

अस्तित्व आपको संकेत देता है वो बहुत सूक्ष्म बात है। वो उतनी भोथरी बात नहीं है कि मैंने लड्डू चुराकर खाया और मुझे ग्लानि हो गयी। मैं उतनी ग्रॉस (स्थूल) बात नहीं कर रहा हूँ कि मुझे सिखाया गया था कि किसी से झूठ न बोलो, मैंने किसी से झूठ बोला और मेरा मन कचोट रहा है। ये सब बातें नहीं हो रही हैं अभी।

श्रोता: नहीं सर, ये समझ आता है कि ये बस नैतिकता और संस्कार की बातें हैं।

आचार्य: हाँ-हाँ-हाँ!

श्रोता: परन्तु कहीं-न-कहीं ऐसा लगता है कि उस चीज़ के लिए ग्लानि भाव हमारे दिल में आता है कि ये चीज़ ग़लत हुई, तो हम उससे कर्ता भाव जोड़ ही रहे हैं।

आचार्य: वो कर्ताभाव भी क्या है? वो तो पूरा-पूरा संस्कार है जो तुम्हारे भीतर डाला गया है, प्रोग्रामिंग है तुम्हारी।

श्रोता: तो क्या हम इसको ये मानकर चलें कि ये सब तो प्रभु की इच्छा है?

आचार्य: वो प्रभु की इच्छा है ही नहीं न!

श्रोता: तो सर, इसका मतलब मैं अपना निर्णय ले रहा हूँ?

आचार्य: वो तुम भी अपना निर्णय नहीं ले रहे हो, वो तुम्हारे ऊपर चारों तरफ़ से जो हो रहा है वो है। देखो, ‘प्रभु की इच्छा है’ ये कहना ही बड़ी व्यर्थ की बात है क्योंकि प्रभु की इच्छा के अलावा और कुछ होता ही नहीं है। तो तुम बोलो, ‘अच्छा, तो ये प्रभु की इच्छा होगी।’ कह तो ऐसे रहे हो जैसे कुछ ऐसा भी होता हो जो प्रभु की अनिच्छा होती है।

श्रोता: सर, वही बात आती है फिर कि अगर कर्म कुछ ग़लत हो रहा है, हर कर्म का फल तो मिलता ही है?

आचार्य: सही-ग़लत होता ही नहीं है प्रभु की इच्छा में। इसीलिए ये बात कि सब प्रभु की इच्छा है ये बड़ी बेमानी बात है। इसीलिए आमतौर पर तुम्हें ये देखना चाहिए कि भैया मेरा निर्णय किधर को जा रहा है। इच्छा तो सब प्रभु की है, पर उसकी इच्छा कभी तुम्हारी समझ के दायरे में पड़ेगी नहीं न! और उसकी इच्छा में पाप-पुण्य होता नहीं। तुम अभी नीचे उतरो एक ट्रक आकर के तुम्हें कुचल दे, वो बिलकुल उसकी इच्छा थी, पर तुम बिलकुल कभी समझ नहीं पाओगे कि ये कैसी इच्छा थी कि सड़क पर मेरी ऐसी दर्दनाक मौत हुई। उसकी इच्छा कोई अच्छी वाली इच्छा नहीं होती है, उसकी तो बड़ी ख़तरनाक इच्छाएँ होती हैं। बीस की उम्र में कैंसर से मर रहे हो!

वो ये सब इच्छाएँ क्यों करता है? वो तुम्हारे कुछ पाप-पुण्य के हिसाब-किताब देखकर के चलता ही नहीं है। क्यों उसने मौत दे रखी है हर एक को? क्यों राहुल जी को नींद आ जाती है बार-बार? प्रभु की इच्छा है, वो गिरे पड़े हैं वहाँ।

होता क्या है बेटा, तुम बहुत जल्दी अध्यात्म को नैतिकता से मिला देते हो। नैतिकता की भाषा में जो कमीनापन है, वो अध्यात्म में बड़ी सरल बात है। एक पूर्णतया आध्यात्मिक आदमी तुम्हारे शब्दकोष में बहुत हद तक कमीना कहलाएगा। उसके भीतर से कोई आवाज़-उवाज़ नहीं उठती है। एक कृष्ण को हत्या करने में कोई ग्लानि अनुभव नहीं होती। जो तुम्हारी दृष्टि में बड़ा अच्छा आदमी है वो अध्यात्म की दृष्टि में अनाड़ी है और आध्यात्मिक रूप से जो बहुत उन्नत मन है, वो नैतिकता की दृष्टि में कमीना होगा।

ये ग्लानि और मन का कचोटना और अन्तरात्मा की आवाज़ ये अस्तित्व के संकेत नहीं होते हैं। अस्तित्व के संकेत तो हज़ार तरीक़े के होते हैं। जंगल में शेर हिरण का शिकार कर रहा है, ये है अस्तित्व का संकेत, कैसे नहीं है? खुले में पशु खुलकर सम्भोग कर रहे हैं, ये है अस्तित्व का संकेत, कैसे नहीं है? पर तुम इनको नहीं मानोगे कि अन्दर से उठती आवाज़ है, तुम अन्दर से उठती आवाज़ वही मानते हो कि आज मैंने एक भिखारी को भीख नहीं दिया मेरे अन्दर से आवाज़ उठ रही है कि तूने दो रूपये क्यों न दे दिये!

जो ये नैतिकता की मरोड़ होती है तुम इसको ही मानते हो कि ये अन्तरात्मा की आवाज़ है, अन्तरात्मा की आवाज़ ये नहीं हैं; अस्तित्व तो हज़ार तरीक़े से संकेत देता है। दिन हो रहा है, रात हो रही है, ये है अस्तित्व का संकेत, पर इसकी भाषा समझ पाओगे क्या? सिर्फ़ इतने से कि दिन है और फिर रात है। समझो!

तो ये बड़ी भोथरी भूल है ये मत कर बैठना कि तुमने अन्तरात्मा की आवाज़ को आत्मा की आवाज़ बना दिया। अन्तरात्मा तो मन है और उसी में ग्लानि-व्लानि होती है, आत्मा में कोई ग्लानि नहीं उठती और आत्मा की आवाज़ ऐसी होती भी नहीं है कि प्रवीण (श्रोता) अब तू ये कर, प्रवीण अब तू वो कर। ये सब मन के काम हैं, तुम्हारे प्रोग्राम्ड (संस्कारित) मन के। जो तुम कहते हो न कि मैं सुबह-सुबह उठा और फिर मुझे लगा आज ये करना चाहिए, मेरी आत्मा ने कहा। आत्मा ये सब नहीं बोलती, उसे कोई मतलब नहीं है कि तुम आज क्या कर रहे हो, कल क्या कर रहे हो। आत्मा में समय ही नहीं है, तो आज और कल की क्या बात करेगी! और आत्मा तुम्हारी भी नहीं है तो तुमसे क्या बोलेगी! आत्मा की नज़र में तुम हो ही नहीं, तो तुमसे बात क्या करेगी! और तुम्हारी कोई व्यक्तिगत आत्मा है क्या कि मेरी आत्मा, मुझसे बात करेगी? जो तुम्हारी आत्मा है वही तुम्हारे पड़ोसी की आत्मा है। तो आत्मा क्या बात करेगी और किससे करेगी? आत्मा तो स्वयम्भू है और उसके अलावा कुछ है ही नहीं, तो वो किससे बात करे?

आत्मा के अतिरिक्त है क्या? एक आत्मा का विस्तार है सब। तो वो किससे बात करे? अकेली है, अलोन , तो वो किससे बात करेगी? पर हम कुछ इस तरह की ही बात करते हैं, ‘आज मेरी आत्मा ने मुझसे कहा कि आज चाइनीज़ नहीं मुगलई खाना।’ कमाल हो गया यार! तुम्हारी आत्मा और तुम पहले तो ये दो अलग-अलग चीज़ें कहाँ से आयीं और फिर तुम्हारी आत्मा को जीवन में और कोई काम नहीं है कि तुम्हें बताती है कि चाइनीज़ खाओगे तो ग्लानि की बात है, आज मुगलई खाना? ‘और मंगलवार के दिन मैंने मटन खा लिया, आत्मा कचोट रही है।’ तुम्हारी और बकरे की आत्मा अलग-अलग थी कि कचोट रही है? और आत्मा के लिए क्या मंगलवार और क्या बुधवार।

‘आज पाँव दक्षिण को करके सो गया, तो सपने में आवाज़ आयी कि अबे घूम! पाँव ग़लत दिशा में है।’ आत्मा के लिए कोई दिशा ही नहीं है, आत्मा के लिए न आकाश है, न समय है, न संसार है — वो क्योंकर किसी से बात करेगी और क्यों किसी को क्या सन्देश देगी? ये सब बिलकुल मन से निकाल दो, मेरी आत्मा और मरते समय वो आत्मा गुब्बारे की तरह निकलती है — बुक्क! और तुम्हारी आत्मा और किसी और की आत्मा का मिलन हो रहा है। कहे, ‘नहीं, प्रियतमा! ये देह से देह नहीं, आत्मा से आत्मा का मिलन है, ए वन, ए टू।’

एक आत्मा है। जहाँ पर वैभिन्य दिख रहा है वो भ्रम है और वो एक आत्मा न किसी से बात करती है, न बोलती है, न कुछ करती है। वो किससे बात करेगी? अपनेआप से?

श्रोता ३: सर, जिस हिसाब से ये गरुड़ पुराण में लिखा गया है कि आत्मा निकली और फिर ये हुआ, ये सब भ्रम है?

आचार्य: तो और क्या है?

श्रोता: सर, कई बार ऐसा भी होता है कि एक व्यक्ति का जन्म हुआ, जब वो थोड़ा सा समझदार हुआ बालक तो उसको पता होता है कि मैं पिछले जन्म में ये था और वो आस-पास की कुछ बताता है घटनाएँ, तो वो क्या है?

आचार्य: किसी ने ये बताया है मैं जूपिटर पर था पिछले जन्म में?

श्रोता: नहीं जूपिटर में नहीं अगर पृथ्वी पर ही बताते हो?

आचार्य: अरे क्यों बताता है? तुमने कभी ध्यान दिया कि आज तक जितने लोगों ने अपना पुनर्जन्म बताया पृथ्वी पर ही क्यों बताया?

श्रोता: सर, उसमें क्या है?

आचार्य: तुम बताओ न मुझे!

श्रोता ४: नहीं सर, ये रिसर्च अभी आया है जिसमें मैं आपको जो बता रही थी उसमें शी इज़ टेलिंग एंड शी इज़ गेटिंग। आइ डोंट नो! (वो बता रही है कि उसे ऐसा हो रहा है, मैं नहीं जानती), लेकिन ऐसा मैंने पढ़ा है।

आचार्य: मैं ये पूछ रहा हूँ किसी ने कभी ये बताया कि वो किसी और गैलेक्सी में था पहले।

श्रोता: हाँ, बिलकुल ये बोल रहा है।

आचार्य: किसी ने ये बताया कि स्पेस (आकाश) वहाँ पर फ़ाइव डाइमेन्शनल (पंच आयामी) था?

श्रोता: वो नहीं बताया।

आचार्य: कैसे बताएगा, वो वही तो बताएगा न जो कल्पना कर-करके बता सकता है।

श्रोता: नहीं सर, ये कल्पना की बात नहीं है।

आचार्य: अरे भाई, मैं तुमसे पूछ रहा हूँ — कोई ये बताता है, पिछले जन्म में मैं कोई ऐसी स्पीशी (प्रजाति) था जिस स्पीशी का आज तक नाम ही नहीं सुना गया? ऐसा कैसे हो जाता है कि लोग पिछले जन्म में या तो इंसान होते हैं या बिल्ली, घोड़ा और कुत्ता होते हैं जो कि सामान्य जानवर हैं? संसार में अरबों तरह की स्पीशीज़ हैं। तुमने किसी से सुना कि मैं पिछले जन्म में फ़लाना बैक्टीरिया था, सुना क्या? ऐसा बैक्टीरिया जिसका कोई नाम ही न जानता हो। कभी सुना?

श्रोता: सर, फिर ऐसा क्यों होता है?

आचार्य: ऐसा सिर्फ़ इसलिए होता है क्योंकि हम बेवकूफ़ हैं और हमें दूसरों को बेवकूफ़ बनाने में बड़ा मज़ा आता है और हमें खूब प्रचार मिलता है जैसे ही हम घोषणा कर दें — अभी मैं यहाँ चिल्लाने लग जाऊँ, ‘मैं पिछले जन्म में रमण महर्षि था।’ अभी देखो, तुम बिलकुल साष्टांग दंडवत यहीं लेट जाओगे। (श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता: सर, कुछ तो सार्थकता है इस बात में।

आचार्य: तो है तो ठीक है, अच्छी बात है।

श्रोता ५: तो सर, फिर लोग इन बातों को वैलिडेट (मान्य) क्यों करते हैं?

आचार्य: इसलिए वैलिडेट करते हैं ताकि जो हमारा ख़ौफ़ है मौत का, वो शान्त रहे, ‘पूरी तरह कभी नहीं मरूँगा, कुछ बचा रहेगा।’

श्रोता: चार-पाँच साल का बच्चा वो फ़ैक्ट्स कैसे बताने लगता है?

आचार्य: चार-पाँच साल बहुत होता है बेटा! चार-पाँच साल को तुमने क्या समझ रखा है? कितनी बार कह चुका हूँ — आदमी छः-सात साल में अपने सत्तर प्रतिशत संस्कार ग्रहण कर लेता है। चार-पाँच साल के बच्चे को तुमने हल्का समझ रखा है? अपना नहीं याद है?

श्रोता: सर, आपको क्या लगता है कि वो झूठ बोल रहा है या उसे सिखाया गया है?

आचार्य: बेटा! इस कमरे में इस पर कई बार चर्चा हो चुकी है और जब भी उस पर गहराई में गये हैं तो उसमें बात ये निकलकर आयी है कि ये कितनी झूठी बात थी और जिनसे ये निकलकर आयी फिर वो छोड़कर भी चले गये हैं।

श्रोता ६: सर, साल-छः महीने में ये सवाल ज़रूर आता है। एक एग्ज़ाम्पल मेरी एक दोस्त है तो उसके… (आचार्य जी बीच में टोंकते हुए)

आचार्य: मैंने तुमसे जो सवाल पूछे तुम उनमें से किसी एक का जवाब दे पा रहे हो? मैंने पूछा कि जब इतनी योनियाँ हैं, तो ऐसा क्यों नहीं हुआ जितने लोगों ने पुनर्जन्म के क़िस्से बताये हैं उन्होंने — देखो, ऐसा होता है जो घोड़े की लीद होती है गोबर होता है, उसमें कई प्रकार के पिस्सू पाये जाते हैं, जो सिर्फ़ गोबर में होते हैं — पुनर्जन्म के किसी क़िस्से में ये बताया गया कि मैं घोड़े की लीद में पाया जाने वाला पिस्सू था पिछले जन्म में? (श्रोता हॅंसते हुए)

श्रोता: कन्ट्री (देश) भी सेम (एक जैसी) है।

आचार्य: और कन्ट्री भी सेम , कन्ट्री बदल सकती है क्योंकि कन्ट्री सीमित हैं — आप बता सकते हो, ‘ब्राज़ील में था’ — पर ये मैं पूछ रहा हूँ कि कोई कभी ये क्यों नहीं बोलता कि मैं घोड़े की लीद में पाया जाने वाला पिस्सू था? (श्रोतागण हँसते हैं)

बोलो! या कि आदमी की आँत में जो बैक्टीरिया पाया जाता है टट्टी में निकलता है साथ में, मैं वो था। (श्रोतागण हँसते हैं)

श्रोता: सर वो ये नहीं कहना चाहते।

आचार्य: अरे! क्यों नहीं कहना चाहते? मैं जो सवाल पूछ रहा हँ उसका जवाब दो न! मैं जो पूछ रहा हूँ उसका जवाब दो। जब इतनी जब इतनी योनियाँ हैं और आदमी की आत्मा एक योनि से दूसरी योनि में भागती रहती है, तो आँत में पाया जाने वाला बैक्टीरिया क्यों नहीं हो सकता पिछले जन्म में? पर किसी ने नहीं कहा आज तक। क्यों नहीं कहा? सोचो तो कि क्यों नहीं कहा, क्यों नहीं कहा? क्यों पांडे जी (एक श्रोता), क्यों नहीं कहा? बताओ!

श्रोता: अरुण जी (एक श्रोता) को कल के सेशन की बात नहीं करनी, इसलिए वो पिछले जन्म की बात कर रहे हैं।

आचार्य: बात को समझो!

श्रोता: ठीक है सर, हो सकता है आपको स्टुपिड (मूर्खता) लगे।

आचार्य: नहीं, स्टुपिड लगे नहीं, मैंने एक सवाल पूछा तुम उस पर विचार भी कर रहे हो? मैंने एक सवाल पूछा उस पर विचार भी करना चाहते हो? जो सवाल पूछा उस पर विचार करना चाहते हो?

श्रोता: हाँ।

आचार्य: हाँ, तो उस पर साफ़ मन से विचार करो कि आज तक एक भी मामला ऐसा क्यों नहीं सामने आया, बस इस पर विचार करते रहना सब खुल जाएगा, सब खुल जाएगा।

श्रोता ७: सर, अभी आपने एक वाक्य बोला था कि जो गोबर है दिमाग में ये कई जन्मों का है तो ये जो है ये कैसे इकट्ठा हुआ?

आचार्य: डीएनए से बेटा! शरीर पैदा होता है तो अपने साथ गन्दगी लेकर पैदा होता है। तुम इतने से बच्चे थे, तब भी तुम्हारे मन में हिंसा थी। तुम्हें क्या लगा कि आत्मा-वात्मा आ रही है? तुम्हें क्या लगा कि आत्मा-वात्मा लेकर आ रही है? शरीर से, डीएनए से; इतना सा बच्चा पैदा होता है वो हिंसक होता है, उनकी प्रकृति अलग-अलग होती है, पहले दिन का बच्चा है, एक दिन का, उनकी प्रकृति में अन्तर होता है। कुछ शान्त होते हैं, कुछ उधमी होते हैं, कुछ को भूख ज़्यादा लगती है, कुछ रोते ज़्यादा हैं। ये क्या है? डीएनए है और क्या है, इसी को मैं कह रहा हूँ कि ये जन्मों से चला आ रहा है, शरीर का इवोल्यूशन है, शरीर चला आ रहा है।

श्रोता: जो शरीर कर्म करता है तो क्या शरीर के अन्त हो जाने पर कर्म भी ख़त्म हो जाएँगे उसके?

आचार्य: बेटा जितनी सार्थकता शरीर की है उतनी सार्थकता शरीर के द्वारा किये गए कर्मों की है। जहाँ शरीर ख़त्म हुआ, वहाँ कर्म ख़त्म हुआ। जिस हद तक शरीर की वैधता है, उसी हद तक तो कर्म की वैधता होगी न? जिस तल पर शरीर है, उसी तल पर तो कर्म होंगे न?

श्रोता: और अगर मान लीजिए सर कंडिशनिंग (संस्कार) की बात करते हैं, माइंड अगर कंडिशंड (संस्कारित) है वो चाहे हमारे नैतिकता के आधार पर, संस्कारों के आधार पर। हमें किसी कर्म को करने के बाद या करने से पहले अगर ग्लानि महसूस होती है, भले ही हम किसी एक धर्म विशेष में पैदा हुए हों और हमें वैसे ही संस्कार मिले हों, तो उसका क्या समाधान है क्योंकि सर, उसमें बहुत कन्फ़्यूज़न रहता है हमेशा।

आचार्य: समाधान कुछ नहीं है, समाधान यही है कि सबसे पहले उसको आत्मा का नाम देना छोड़ो! जैसे ही ये स्वीकार करोगे कि ये तो मेरी ट्रेनिंग है, तैसे ही उससे मुक्त होना शुरू हो जाओगे। लेकिन जब तक तुम उसको बड़े महिमावान नाम देते रहोगे कि ये तो आत्मा की पुकार है और ये है और वो है, तब तक उससे मुक्त हो नहीं सकते। सबसे पहले कहो, ‘कुछ नहीं है, ट्रेनिंग है मेरी।’

हिन्दू होते थे, जब उनका धन परिवर्तन कराया जाता था तो उनको गाय का माँस खिलाया जाता था सबसे पहले। शुरू में उनको उल्टियाँ आती थीं, उबकाई होती थीं, ‘ये हमारे साथ क्या किया जा रहा है?’ कुछ दिनों में वो बढ़िया बीफ़ पकौड़ा बनाकर के खाते थे। ग्लानि होनी बन्द हो गयी। बात ख़त्म! ट्रेनिंग थी, पहले एक प्रकार की ट्रेनिंग थी, ‘नहीं खानी है’, अब दूसरी ट्रेनिंग आ गयी, ‘खानी है’, बीच में ग्लानि थी। जब पहली बार गोमाँस खिलाया गया था, तब बड़ी उल्टी आयी। उसके बाद पूछो, ‘बीफ़ बिरयानी?’

तुम्हारी जितनी मुगलई डिशेज़ हैं सब माँस से बनती हैं जानवरों को क़त्ल कर-करके। मुगलों के ये जितने खानसामे होते थे उनमें से अधिकांश हिन्दू थे। और तुम्हें सुनकर के हैरत होगी उन्हें महाराज कहा जाता है और महाराज अक्सर ब्राह्मण होता था। आज भी खाना बनाने के लिए ब्राह्मणों को खोजा जाता है, महाराज जितने होते हैं, पता है किसी को? मुगलों के यहाँ भी ये जितने महाराज होते थे सब ब्राह्मण होते थे और बढ़िया एकदम झकाझक व्यंजन बनाते थे। कुछ नहीं है, ट्रेनिंग है।

जो आदमी कल तक कहता था कि ये नहीं खाऊँगा, वो नहीं खाऊँगा, वो अपना धर्म बदल लेता है तो उसके बाद कहता है, ‘जिबह करना तो ज़रूरी है।’ ज़िन्दगी भर उसने अंडा नहीं खाया, अब उसका धर्म बदल गया और वो कह रहा है, ‘जिबह तो करूँगा, ज़रूरी है और नहीं करूँगा तो मेरा दिल कचोटेगा।’ ये दिल क्या है?

श्रोता: ट्रेनिंग है।

आचार्य: तुम कैसे इसको गम्भीरता से ले सकते हो?

श्रोता ८: सर, डेस्टिनी (भाग्य) वगैरह कुछ है क्या? डेस्टिनी में इतना कन्फ़्यूज़न (दुविधा) है कोई बोलता है इट्स नथिंग (ये सब कुछ नहीं है)।

आचार्य: किसकी डेस्टिनी? शरीर की डेस्टिनी है मर जाना। जिसकी डेस्टिनी है, पूछिए कि किसकी डेस्टिनी है, जिसकी है उसकी तो है ही है, तो बात बिलकुल ठीक है।

श्रोता: और जो संयोग की बात करते हैं, सर्कमस्टेन्सेस ऑफ़ लाइफ़ (जीवन की परिस्थितियाँ) तो इज़ इट टू डेस्टिनी? (ये भी भाग्य है)

आचार्य: किसकी डेस्टिनी? किसकी? आप एक उम्र के होते हैं, आपका शरीर एक प्रकार से विकसित होने लगता है। आप एक उम्र के होते हैं, आपका शरीर ढलने लगता है। आप एक वय में पहुँचते हैं, आपका शरीर मरने लगता है। सब संयोग हैं शरीर के, जन्म से लेकर, उम्र से लेकर मृत्यु तक। डेस्टिनी है बिलकुल है, क्यों नहीं है डेस्टिनी। पर किसकी है?

श्रोता: सर, लेकिन लाइफ़ में कुछ-कुछ कर्म मतलब…

आचार्य: लाइफ़ किसकी? जब तक आप इन मूल प्रश्नों पर नहीं जाएँगे, तब तक उलझे रहेंगे। लाइफ़ माने क्या? आप किसको लाइफ़ बोलते हो?

श्रोता: शरीर को।

आचार्य: बस! लाइफ़ आप बोलते ही शरीर को हो, आपके लिए लाइफ़ क्या है? डेट ऑफ़ बर्थ (जन्म के दिन) से लेकर डेट ऑफ़ डेथ (मृत्यु के दिन) तक, तो फिर दिक्क़त होगी न!

श्रोता: और अभी जो हमने थोड़ी देर पहले बात करी जैसे कि अगर हम संयोग में जा रहे हैं या वियोग में जा रहे हैं वो भी क़िस्मत की बात है तो फिर, वो भी तो क़िस्मत की बात आ ही रही है न सर?

आचार्य: अरे यार! किसकी क़िस्मत की बात है? आप किससे अपनेआप को जोड़कर देख रहे हो?

एक वीडियो है थोड़ा उसको देखिएगा ‘एक्सीडेंटल फ़्लो एंड इंसीडेंटल फ़्लो।’ एक तो आप लोग देखते नहीं हो न, आपको फ़ुरसत मिले इधर-उधर का दायें-बायें का देखने से तब तो आप देखो! और डेस्टिनी पर कम-से-कम पाँच नहीं तो दस वीडियो होंगे।

श्रोता: द एसेंशियल?

आचार्य: द एसेंशियल , हाँ-हाँ।

श्रोता: तो मैंने ये वाली वीडियो देखी थी उसमें ये बात थी कि एक्सीडेन्टल तो तुम्हारी कंडिशनिंग है जो मन में चल रही है जिसमें तुम बहे जा रहे हो, जिसमें सब बहे जा रहे हैं और एक है एसेंशियल फ़्लो जिसमें आप अपनी समझ, इंटेलिजेंस की बात करते हैं।

आचार्य: अपनी इंटेलिजेंस (समझ) नहीं, माई इंटेलिजेंस (मेरी समझ) कुछ नहीं होता न, ये बात हम कई बार कर चुके हैं, ‘माई इंटेलिजेंस’ कुछ नहीं, ‘इंटेलिजेंस’ , आत्मा, बस!

श्रोता: सर, आपने एक बार बात बोली थी दो-तीन सेशन पहले ही कि अभी तक हमारी ये कंडीशन (संस्कार) है कि तुम्हारे अन्दर स्ट्रॉंग रेज़िस्टेंस (तीव्र घर्षण) होना चाहिए अन्दर से, एक्सीडेंटल फ़्लो में से निकलने के लिए। सर, जैसे आज हमने बोला कि हर चीज़ वो कर रहा है एसेंशियल की तरफ़ भी वो लेकर जा रहा है, एक्सीडेंटल की तरफ़ भी वही लेकर जा रहा है। तो फिर?

आचार्य: पर क्या तुम — मैं फिर से पूछ रहा हूँ, अभी कुन्दन को मैंने क्या बोला था — क्या तुम उस भाव में बैठ गये हो कि सबकुछ वो कर रहा है या वो तुम्हारा एज़म्प्शन (मान्यता) है?

श्रोता: एज़म्प्शन है।

आचार्य: एज़म्प्शन पर मैं जवाब नहीं देना चाहता। जब तुम यहाँ बैठ ही जाओ कि सबकुछ वो कर रहा है तब हमारी बातचीत ख़त्म हो जाएगी, तब हम फिर क्यों बात करें? अभी तो तुम वहाँ बैठे हो न जहाँ मानते हो कि तुम कर रहे हो। जब तुम मानते हो कि तुम कर रहे हो तब मैं तुम से कहता हूँ कि तुममें रेज़िस्टेंस होना चाहिए। अगर तुम ईमानदारी से वहाँ बैठ ही जाओ जहाँ तुम कहो कि मैं तो कुछ करता ही नहीं, वही करता है; तब तो लग गयी समाधि! फिर मैं तुमसे क्यों बात करूँ?

हमारे साथ होता क्या है — हम किसी ऐसे प्रिंसिपल (सिद्धान्त) को आधार बनाकर निर्णय लेने की कोशिश करते हैं जिस प्रिंसिपल में हम स्थापित ही नहीं होते। उदाहरण के लिए — सबकुछ ईश्वर का है, तो मैं पड़ोसी की तिजोरी उठा लाऊँगा।’ क्यों? ‘सबकुछ किसका है? परमात्मा का है। जब सब परमात्मा का है तो पड़ोसी का थोड़े ही हुआ, तो मैं जाकर के पड़ोसी के पैसे उठा लाया।’

पर क्या तुम वाक़ई मानते हो कि सब परमात्मा का है? अगर तुम वाक़ई मानते होते कि सब परमात्मा का है, तब उठा लो कोई दिक्क़त नहीं है, पर जब तुम्हारा कोई उठाएगा तब तुम क्या दावा करोगे?

श्रोता: मेरा है।

आचार्य: हम किसी ऐसे सूत्र को आधार बनाकर के कर्म करने की कोशिश कर रहे हैं जिस सूत्र को अभी हम मानते ही नहीं, जिसमें हम अभी स्थापित ही नहीं हुए हैं। पर हम अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उस सूत्र को बहाना बना रहे हैं कि सबकुछ ईश्वर का है। कुछ बुरा हो जाएगा तुरन्त — ‘जैसी ईश्वर की मर्ज़ी।’ अब आहें ले रहे हो, ‘जैसी ईश्वर की मर्ज़ी’ — क्या तुम वाक़ई मान रहे हो ईश्वर की मर्ज़ी है? सच तो ये है कि तुम्हें बहुत अफ़सोस हो रहा है। अगर वाक़ई तुम्हें दिख रहा होता कि ईश्वर की मर्ज़ी है तो तुम्हें अफ़सोस कैसे हो रहा होता?

लोगों को देखा है जब वो बोलते हैं, ‘जैसी ईश्वर की मर्ज़ी’? कैसी हालत में बोलते हैं? (दुख भरे स्वर में बोलते हुए) ‘जैसी प्रभु की इच्छा।’ अब चाह तो यही रहे हो कि प्रभु अपनी इच्छा बदल दे। (श्रोतागण हँसते हैं) तुम्हारे बस में होता तो तुम प्रभु की गर्दन ऐंठकर कहते कि बदल इच्छा अपनी! पर हम बड़े बेईमान हैं, जब कोई बस नहीं चलता तो बोलने लग जाते हैं, ‘प्रभु की इच्छा।’

‘जब न कुछ पाप है, न पुण्य है जैसा मुनि अष्टावक्र ने कहा है तो मुर्गे को काट देने में क्या बुराई है, खा लेने में?’

‘नहीं, बिलकुल कोई बुराई नहीं है, कोई पाप नहीं है, कोई पुण्य नहीं है तो शरीर काट देने में कोई बुराई नहीं है। लाओ तुम्हारा भी काटें!’

तब तो तुम नहीं कहोगे, ‘कोई पाप नहीं, कोई पुण्य नहीं है। अगर तुम ऐसे हो जाओ कि अपना शरीर कटवाने को भी उतने ही प्रस्तुत हो जितना मुर्गे का शरीर काटने में, तब मुर्गे को काटने में कोई दिक्क़त नहीं है। पर जब तुम्हारा कटने की बारी आएगी, तब तो तुम भूल जाओगे कि शरीर नश्वर है और मिट्टी है और न पाप है, न पुण्य है। तब तो तुम कहोगे, ‘अरे! क्या करता है रे, खून निकाल दिया! मिट्टी बोला इसको! कंचन सी काया मेरी।’

मुर्गे काटते समय तुम कहोगे, ‘न, शरीर नश्वर है, मिट्टी है, काट दो! कोई पाप नहीं।’

तो सूत्रों को बहाना नहीं बनाना है अपनी वासना पूरी करने का।

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