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लेख
ज़रूरी काम में भी मन नहीं लगता? (Attention, Concentration, Focus) || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! ये तीन वर्ड्स (शब्द) हैं — अटेंशन (ध्यान), फोकस (केंद्रित करना) और कॉन्सेंट्रेशन (एकाग्रता)। ये बहुत ही सुनने में आते हैं। और तीनों के हमारे लिए बड़ी इम्पोर्टेंस (महत्त्व) है। मुझें लगता हैं कि ये तीनों अटेंशन, कॉन्सेंट्रेशन और फोकस एकदम अलग-अलग बातें हैं।

मैं एक युवा व्यक्ति हूँ तो बहुत चीज़ें होती हैं जिसके प्रति मैं अट्रैक्ट (आकर्षित) हो जाता हूँ। और मैं कौन से चीज़ों पर कंसंट्रेट करूँ? और कंसंट्रेशन में और अटेंशन में फ़र्क होता है या नहीं होता है? मुझें लगता है कि मेरे जैसे बहुत से युवाओं के लिए ये बहुत ज़रूरी सवाल है। आप कृपया इसपर रोशनी डालें।

आचार्य प्रशांत: अटेंशन का बड़ा सरल अर्थ होता है, अच्छे से समझ लीजिए। आप जीवित हैं, हर समय आपके पास कोई विषय होता है, ऑब्जेक्ट होता है। ठीक है? आपके सामने होता है कभी स्थूल रूप से। कभी मानसिक होता है, भीतर होता है, सूक्ष्म रूप से। पर ऐसा कभी नहीं होता है कि आपके पास कुछ नहीं है, कुछ भी नहीं है।

अटेंशन का अर्थ होता है कि ये पूछने से पहले कि वो मुझें क्या दे सकता है, मैं पूछूँगा कि मुझें क्या चाहिए। ये पूछने से पहले कि वो मुझे क्या दे सकता है या इस बात से आकर्षित होने से पहले कि वो मुझे क्या दे रहा है, मैं देखूँगा मुझे क्या चाहिए। ये अटेंशन है।

अटेंशन और अट्रैक्शन में यहीं अंतर है। अटेंशन में आपके लिए सर्वोपरि होते हैं आप, आपका सत्य। और अट्रैक्शन में आपके लिए क़ीमती हो जाता है सामने वाला विषय, *ऑब्जेक्ट*।

जब आप डिस-अटेंशन में होते हैं उस समय आप अपनेआप को पूरी तरह भूल जाते हैं या ऐसे कह दीजिए कि आप अपनेआप को एक झूठा रूप दे देते हैं, अपनी एक झूठी छवि पकड़ लेते हैं। आप इस बात से बिलकुल नावाकिफ़ हो जाते हैं, अपरिचित हो जाते हैं, अनभिज्ञ; कि इस स्थिति में मैं कौन हूँ। उस स्थिति को आप अपने ऊपर हावी होने देते हैं।

जो अटेंशन शब्द हैं इसी में, आप अगर पैठेंगे तो अटेंड करने का अर्थ होता है सेवा करना। सेवा करने से आशय है कि आप किसको ऊपर रख रहे हो। तो अटेंशन का अर्थ होता है अटेंडिंग ओनली तो द ट्रुथ (केवल सत्य की सेवा करना)। मैं जिस भी स्थिति में हूँ, उसमें वो स्थिति महत्त्वपूर्ण नहीं है; सत्य महत्त्वपूर्ण है। हमारे लिए स्थितियाँ बहुत भारी हो जाती हैं। कभी हम कहते हैं अच्छी स्थिति चल रही हैं, कभी कहते हैं बुरी स्थिति चल रही हैं। जो कुछ भी चल रहा हैं उसमें आप कहाँ हो। ये अटेंशन है।

नॉट द एक्सपीरियंस विथ रेस्पेक्ट टू एन ऑब्जेक्ट; बट द स्टेट ऑफ़ द एक्सपेरियंसर (किसी वस्तु के सापेक्ष में अनुभव नहीं; बल्कि अनुभोक्ता की स्थिति)। ये मेरी प्रायोरिटी (प्राथमिकता) बनेगी।

हमें एक्सपेरिएंसेस (अनुभव) बहा ले जाते हैं। जब हम कहीं भी होते हैं, किसी भी अवस्था में होते हैं, किसी भी विषय, ऑब्जेक्ट के साथ होते हैं तो उसके साथ हमें जो अनुभव हो रहा होता है वो अनुभव हमारे सिर पर चढ़ जाता है। अटेंशन का मतलब होता है— जो हो रहा है उसपर नज़र रखना, उसकी सच्चाई जानते रहना। ये अटेंशन है। बह नहीं जाना!

अब जब मैंने कहा, 'बह नहीं जाना,' वो धारा बह रही है प्रकृति की, मैं उसका दृष्टा हूँ। और अगर मैं उसका दृष्टा नहीं हूँ तो उसके साथ-साथ मैं भी बहने लगूँगा। वो तो बह ही रहा है, मैं भी बहने लगूँगा।

प्र२: फोकस और अटेंशन में फिर फ़र्क क्या है?

आचार्य: फोकस आप उस चीज़ पर करेंगे जो चीज़ आपको लुभाएगी। आप भूखे हों और यहाँ मेज़ पर रसगुल्ले रख दिए जाए, आपका सारा फोकस मुझसे हट कर वहाँ रसगुल्ले पर चला जाएगा। दो तरह के लोग होंगे। जो अटेंटिव होंगे वो मुझपर 'ध्यान' देंगे। और जो अपनेआप को भूखा कह देंगे वो रसगुल्ले पर 'फोकस' करेंगे।

तो अटेंशन में आत्मज्ञान होता है और फोकस में, फोकस क्या होता है? कि आपकी कामना कहीं जाकर केंद्रित हो गयी है। कामना का केंद्रित हो जाना, यही तो कहलाता है न फोकस माने उसका केंद्रित हो जाना। एक जगह जाकर के कनवर्ज (केंद्रित) कर जाना। सौ चीज़ें चाहिए थीं; नहीं, अभी तो मुझे भाई फोकस चल रहा है एक चीज़ पर। और जिस एक चीज़ पर फोकस्ड होते हैं वो सत्य तो नहीं ही होती है। जिसका जीवन में जो भी फोकस है, आप पाएँगे कोई विरला ही मिलेगा जो कह दे कि मैं लिबरेशन (मुक्ति) पर फोकस्ड हूँ। फोकस्ड तो हम रसगुल्ले पर ही होते हैं।

अटेंशन में आपको जानना है और फोकस में आपको भोगना है; ये अंतर है। और जो बात मैंने फोकस के लिए कही, उसमें फोकस को हटा करके आप कंसंट्रेशन शब्द का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। तो कंसंट्रेशन और अटेंशन में ये अंतर होता है।

कॉन्सेंट्रेशन इज़ ऑलवेज फ्रॉम द पॉइंट ऑफ़ डिजायर (एकाग्रता सदैव कामना के बिंदु से होती है)। आपकी जो कामना शक्ति है उसको आपने किसी एक जगह पर बिलकुल कन्वर्ज कर दिया, घनीभूत कर दिया। आप कह रहे हो मुझें यही चाहिए। मुझें ये चाहिए। और जो आपको चाहिए वो क्या है, ये आप वास्तव में जानते नहीं। पर आप कंसन्ट्रेटेड पूरे तरीक़े से हो।

अटेंशन में आपको पता होता हैं वो चीज़ क्या है, मैं कौन हूँ, मुझे चाहिए क्या, वो चीज़ मुझें क्या दे सकती है; ये अटेंशन है। दोनों में अंतर कामना का बड़ा है। कामना नचाए तो कंसंट्रेशन या *फोकस*। और सत्य बुलाए तो ध्यान या *अटेंशन*।

अटेंशन में, ध्यान में ध्येय होता है सत्य; मुझे सच्चाई जाननी है। इसलिए नहीं जाननी कि कोई सिद्धांत है, इसलिए क्योंकि उसके बिना बात बनती नहीं है। और कंसंट्रेशन में क्या चाहिए? रसगुल्ला। तगड़ा कंसंट्रेशन है! अभी सोचिए, यहाँ रख दिया गया पूरा ढेर रसगुल्लों का, ऐसा ख़तरनाक कंसंट्रेशन बनेगा कई लोगों का! और देख इधर को ही रहे होंगे, तो कोई और उनको उधर से ऐसे देखे तो कहेगा, “देखो, कैसे ये एकदम अचल, अपलक दृष्टि से आचार्य जी को देख रहे हैं। पलक भी नहीं झपक रही है।” अब वो आपने ठीक से देखा नहीं कि एंगल (कोण) इधर को है या ज़रा सा उधर रसगुल्ला की तरफ़! है न?

कंसंट्रेशन अच्छा हो सकता है अगर उसका विषय थोड़ा-बहुत भी आपको सत्य की ओर ले जाता है। इसीलिए जो अष्टांग योग है, उसमें ध्यान से पहले धारणा आता है। वहाँ कंसंट्रेशन का भी महत्त्व रखा गया है। लेकिन वहाँ यह मान के रखा गया है कि आप किसी उल-जुलूल चीज़ पर नहीं कर रहे हो *कंसन्ट्रेट*। ये बहुत बड़ी मान्यता है।

आमतौर पर यह जो फोकस या कंसंट्रेशन होता है वो किसी न किसी सांयोगिक, प्राकृतिक चीज़ पर ही बनता है। जिसको यदि आप पा भी लेंगे तो उससे कोई आत्मिक लाभ होने वाला है नहीं।

(आचार्य जी स्वयंसेवियों को कुछ पंक्तियाँ सुनाने का इशारा करते हैं।) (स्वयंसेवी गाते हैं) “होशियार रहना रे, नगर में चोर आवेगा। जाग्रत रहना रे, नगर में चोर आवेगा। चोर आवेगा रे एक दिन, काल आवेगा होशियार रहना रे, नगर में चोर आवेगा। तीर तोप तलवार ना बरछी, न बंदुक चलावेगा। हो आवत जावत नजर नहीं आवे, भीतर घूम घुमावेगा। होशियार रहना रे, नगर में चोर आवेगा।”

आचार्य: नगर! ये जो पूरा नगर है, इसी को प्रकृति कहते हैं। नगर को ही पुर कहते हैं न, रामपुर, कानपुर, नागपुर। वो जो पूरा पुर है, वही नगर है, वही प्रकृति है। वो जो पूरा एक शहर बसा हुआ है। लम्बा-चौड़ा शहर बसा हुआ है। और उस शहर के बीचों-बीच जो फँसा हुआ है उसको बोलते हैं 'पुरुष'। पुर के भीतर जो फँस गया है उसको बोलते हैं?

श्रोतागण: पुरुष।

आचार्य: और उसको मुक्ति किससे चाहिए?

श्रोतागण: पुर से।

आचार्य: पुर से ही उसको मुक्ति चाहिए। तो जब तक वो बेहोश है उसके लिए वो सब कुछ जो बसा हुआ है, वो क्या है? नगर। 'अरे वाह! क्या रोशनियाँ हैं। क्या घर हैं, बाज़ारें हैं, क्या सहूलियतें यहाँ पर मिलती हैं। क्या बढ़िया पुर हैं।'

लेकिन जैसे ही जाग्रत होता है, कहा न "जाग्रत रहना," जैसे ही जाग्रत होता है वैसे ही कहता है "अरे! ये इतना बड़ा पुर नहीं है, ये तिहाड़ है।" है तो बहुत बड़ा और मैं इसमें बसा भी हुआ हूँ। लेकिन ये कोई मेरा शहर नहीं है; ये मेरी जेल है। और उसी से मुक्ति चाहिए।

'नगर में चोर आवेगा,' इससे क्या आशय है? यहाँ पर किस चोर की बात करी जा रही है? दो तल हैं। साधारण आदमी सुनेगा तो कहेगा यहाँ पर बात मृत्यु की हो रही है, ठीक है? कि काल का झोंका आएगा और आपने अपना जो पूरा संसार बसा रखा है, उसमें से कुछ चुरा ले जाएगा। हो सकता है आपके प्राण ही चुरा ले जाए। लेकिन थोड़ा और ऊपर उठकर देखेंगे तो?

श्रोता: बोध।

आचार्य: बहुत बढ़िया। थोड़ा और उठकर देखेंगे तो यहाँ जिस चोर की बात हो रही है, वो वो भी हो सकता है जो आपको उस नगर से बाहर ही निकाल दे। लेकिन वो आपको तभी मिलेगा जब आप जाग्रत हों।

इसको ऐसे भी सुना जा सकता है— जाग्रत रहना, तभी वो जो आपको वहाँ से छुड़ाने आएगा, वह आपके काम आ सकता है। नहीं तो वह छुड़ाने आ भी गया, आप जाग्रत नहीं हो तो खड़ा यहीं कहता रहेगा, "अरे चलो, चलो, चलो; मैं आया हूँ, मैं आया हूँ।" आप सो रहे हो, अब वो आपको कैसे लेकर जाएगा! समझ में आ रही है बात?

प्र३: मेरा अवेयरनेस (जागरूकता) मुझे चोइसलेस (निर्विकल्प) कभी लगता नहीं है। हमेशा लगता है कि जब भी देखता हूँ तो ऑटोमेटिकली (स्वतः) कुछ-न-कुछ लाइक-डिसलाइक (पसंद-नापसंद) या फिर ओपिनियन (राय) आ ही जाता है अगर मैं न भी चाहूँ तो। मैंने बहुत कोशिश किया है कि मैं कुछ देखूँ तो उसको मैं जैसे ऋषिकेश में पहाड़, गंगा इसको देख रहा था कल, तो ऐसा अंदर से फीलिंग (अनुभूति) आ रहा था कि बहुत सुन्दर है। वर्ड्स (शब्दों) में नहीं आ रहा था, लेकिन मुझे पता है कि अंदर एक आ रहा था। तो यह चोइसलेस कैसे हो सकते हैं? चॉइस के बिना तो हम एक पल भी…..

आचार्य: इसको दूसरे तरह से अगर सुनेंगे तो एकदम साफ़ हो जाएगा। वो जो बाईं तरफ का खम्भा है (आचार्य जी ने अहम् और प्रकृति के बीच सम्बन्ध को समझाने के लिए बोर्ड पर खंभों को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया है। जिसमें एक मूल बिंदु से निकले दो खंभे हैं। मूल बिंदु अद्वैत सत्य का प्रतीक है। बाईं ओर का खंभा अहम् को और दाईं ओर का खंभा प्रकृति को दर्शाता है)। हमारी सारी चॉइसेस वहाँ से होती हैं। तो कौन चुन रहा हैं लगातार?

प्र३: अहम्।

आचार्य: अहम् चुन रहा है। चॉइसलेस अवेयरनेस का मतलब है कि आप वहाँ से न चुनें। वहाँ से जो भी चॉइस हो रही थी, उसको हटा लीजिए। ठीक है? उसके बाद जो भी चॉइसेस होनी होंगी वो स्वतः होंगी।

आप वहाँ बैठ जाइए, नीचे। कहाँ? ओरिजिन (मूल बिंदु) पर। अब ओरिजिन पर बैठना बड़ी कल्पना की बात हो सकती है। तो उसको आप बस इतना ही पकड़ लीजिए कि आमतौर पर जो बन कर मैं जीवन के निर्णय और चुनाव, चॉइसेस करता हूँ, वो रह करके नहीं चुनना है। और अगर वैसी चॉइसेस हो रही हैं तो मैं उनपर बार-बार सवाल उठाऊँगा। मुझे पता है कि वो जो चॉइस है वो कितनी कंडिशन्ड चॉइस है। आपको अगर यह पता है तो आपके लिए यही चॉइसलेस अवेयरनेस है।

अन्यथा चॉइसलेस अवेयरनेस अगर विशुद्ध रूप में पूछेंगे तो वो तो यह है कि आप ऐसी जगह बैठ गए हैं जहाँ पूर्ण निर्विकल्पता है। चोइसलेस होने का अर्थ है कि आप बिलकुल आत्मा पर आसित हो गए हैं। वो हमारे लिए थोड़ी काल्पनिक बात हो जाती है। तो उसकी अपेक्षा बेहतर है कि उसको ऐसे समझिए कि जैसी हमारी आमतौर पर चॉइसेस होती हैं, वैसी नहीं करनी है, वो रह कर नहीं करनी है।

प्र३: उत्तर मिल गया। *थैंक्यू सो मच*।

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