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लेख
यूँ ही मत बिताओ ज़िन्दगी || नीम लड्डू
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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जितनी ज़िन्दगी जी चुके हैं ये देखा है कैसे पालक झपकते बीत गयी है? अभी स्कूल में थे, कॉलेज में थे, और अभी बच्चे थे आप, यूँ ही मैदान में, गलियों में दौड़-भाग रहे थे। अभी-अभी! ये जो समय बीता है ये कैसे बीता है? ये चुटकी बजाते बीता है। तो जो शेष है समय वो भी कैसे बीतेगा?

और अगर पैदा होने का क्षण बहुत पीछे की बात नहीं है तो चिता पर लेटने का क्षण भी बहुत आगे की बात नहीं है। अब क्या करना है इस एक पल का? एक ज़रा-से समय का जो उपलब्ध है जीने के लिए? मजबूरी में गुज़ार देना है? शिक़ायतों में गुज़ार देना है? मुँह लटकाए-लटकाए गुज़ार देना है? उलझ-उलझ कर, चिढ़-चिढ़ कर, चोट-खरोंचे और घाव खा-खा कर गुज़ार देना है?

या कुछ और उद्देश्य हो सकता है इस समय का, जीवन का?

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