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लेख
योग है अपनी बेड़ियों को अपनी ही ज्वाला में गलाना || आचार्य प्रशांत, शिव सूत्र पर (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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विस्मयो योगभूमिका :

अ सेंस ऑफ़ वंडर इज़ द फाउंडेशन ऑफ़ योग

वक्ता: विस्मय, अचरज, कौतुक – योग की पृष्ठभूमि है। विस्मय, वो आरम्भ है जिसका अंत योग में होता है। योग क्या? योग वो, जो हम सबको चाहिए। योग वो, जो हम सबकी मांग है। किसी और नाम से है, किसी और विषय वस्तु के प्रति है, पर हम सबके पास कोई न कोई मांग है ज़रूर। योग का अर्थ होता है, उससे मिल जाना जो तुम्हारी गहरी से गहरी मांग है। योग का अर्थ होता है, उसे प्राप्त कर लेना जिसे तुमने लगातार चाहा है। योग का अर्थ होता है कि अब तरस नहीं रहे। अब मन आधा-अधूरा नहीं है।

ये योग है।

ऋषि हमसे कहते हैं, विस्मयो योगभूमिका : , कि योग की शुरुआत ही विस्मय है, ताज्जुब है। जिसे ये अचरज ना उठता हो, कि ये सब चल क्या रहा है? जिसके भीतर ये प्रश्न ही ना हो, उसके लिए योग की कोई संभावना नहीं है। बात सीधी है, हम में से अधिकाँश जीवन को आदतों के पीछे से देखते हैं। हम जीवन से इतने एक हो चुके होते हैं, इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि जो भी चल रहा होता है, हमें सहज ही लगता है। कुछ भी हमें चौंकाता नहीं है। जो भी हमारे सामने आता है, हम कहते हैं, ऐसा ही तो होता है, यही तो जीवन है; दुनिया ऐसी ही तो है, संसार ऐसे ही तो चला है और चलेगा। हम में किसी प्रकार का विरोध उठना तो छोड़िये, सवाल भी नहीं उठता। बोध तो छोड़िये, जिज्ञासा भी नहीं उठती। हम बस स्वीकार किये जाते हैं और ये स्वीकार, अप्रतिरोध नहीं है। क्योंकि जो स्वतंत्र चैतन्य प्रतिरोध कर सके, वो हमारे पास होता ही नहीं है। जो मन, होनी पर सवाल उठा सके, वो मन हमने कहीं दबा दिया होता है। तो निष्पत्ति ये होती है कि खौफ़नाक से खौफ़नाक मंज़र भी हमें साधारण लगता है। और साधारण वैसे नहीं लगता जैसा किसी ज्ञानी को लगे, साधारण ऐसे लगता है कि, खौफ़ तो जीने का तरीका है ही ना। इसी को तो जीवन बोलते हैं, तो अचम्भा कैसा?

हम देखे जाते हैं कि जीवन में शान्ति के लिए, आनंद के लिए, समर्पण के लिए कोई स्थान नहीं है। हमें कोई ताज्जुब हो नहीं होता। हम पढ़े जाते हैं कि प्रेम स्वभाव है हमारा, बोध स्वभाव है हमारा, पर भीतर योगदेखते हैं और बाहर देखते हैं तो मात्र अबोध, मात्र अप्रेम, मात्र हिंसा ही दिखाई देती है और भीतर से कोई पूछता ही न

सहजताहीं है, कि यदि प्रेम स्वभाव है, तो ये सब चल क्या रहा है बाहर? कि यदि आत्मा बोध है, तो इतना अँधेरा क्यों? कि यदि

सहजमन को प्रेम खींचता है, तो मुझे उस प्रेम की आहट भी क्यों नहीं सुनाई देती? हम ये सवाल भी नहीं पूछते। और हम तो

तों की तरह नाम भर रटे जाते हैं, शान्ति, मुक्ति, विरक्ति, सत्य। और विस्मय नहीं होता हमें कि जिन्होंने ये जाना और जान कर के उद्घोषित किया, उन्होने कैसे कर दिया? मुझे अनुभव में ही नहीं आती। और ऐसा भी कोई था, जो अनुभव के पार जा कर जान आया, और जानने के बाद, संसार को बता भी पाया, ये हुआ कैसे? और हमें कोई कौतुहल नहीं हुआ अपने बदलते रंगों को, अपने अनगिनत चेहरों को देख कर के। हम बिलकुल चौंक नहीं पड़ते, अपने ही कर्मों, और अपने ही रूपों को देख कर के। हम जा रहे हैं, और अचानक क्रोध उबल पड़ता है हमारे अंदर, किसी छोटी सी बात पर। और हम पूछते ज़रा भी नहीं, कि ये आ कहाँ से गया? कोई विस्मय नहीं। हम मान्यताएं रखते हैं, रिश्ते रखते हैं, भावनाएं रखते हैं, दुनिया का एक पूरा चित्र है हमारे पास। और उन मान्यताओं, उन विश्वासों, उन संबंधों की खातिर हम कुछ भी करने को तैयार हो सकते हैं। और कभी प्रश्न नहीं उठता हमारे भीतर कि ये सब आ कहाँ से गए? और ये सब चले कहाँ को जाते हैं? अब तो असंभव ही है, कि किसी प्रकार का कोई समाधान हमें मिले।

‘समाधि’ शब्द, समाधान के बहुत निकट है। और समाधान की बात ही तब उठती है, जब पहले कोई ठोस प्रश्न आकार ले। अगर संसार को देख कर के, और अपनी दिनचर्या को देख कर के, हमारे भीतर प्रश्न जैसा कुछ उठता ही नहीं है या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं अपने प्रति कि उठते प्रश्नों का गला ही घोंट देते हैं, तो शुरू में ही हमें अपात्र घोषित कर दिया गया है कि तुम, योग के पथ पर चलो ही मत। क्योंकि पहला कदम, उठाने के लिए ही जो पात्रता चाहिए, वो तुम्हारे पास है नहीं। अगर तुम एक समझदार, सुलझे हुए संसारी हो, तो फिर रखो अपनी समझदारी अपने पास, तुम तो सुलझे हुए हो ही। तुम करोगे क्या, योग का? तुम्हें तो लगता है कि तुम्हें मिला हुआ है ही। तुम्हें कैसी चाहत, तुम्हारे लिए कैसा योग? तुम्हें तो लगता है कि तुम जानते ही हो और जान सकते ही हो, तो तुम्हारे लिए कैसा बोध? तुम तो जाओ अभी अपने रास्ते। शिव का रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। तुम अपने ही रास्ते चलो।

ऋषि स्पष्ट किये दे रहे हैं, कि योग तो सिर्फ उनके लिए है, जिनके पास पहले अपनी बेचैनी हो।

जिनको अपनी बेचैनी का कुछ अंदाज़ा नहीं; जो लगातार, एक हँसता, मुस्कुराता, गुनगुनाता सा नक़ाब पहने रहते हों, उनको तो नक़ाब ही मुबारक़ हो। योग तो उनके लिए है, जिन्हें प्रश्न कचोट रहे हैं, जिन्हें कौतुहल काट रहा है, जो देख रहे हैं, और समझ नहीं पा रहे, जिन्हें अचम्भा भारी पड़ रहा है। जिनके प्रश्न अब इतने सरल हो गए हैं कि उनका कोई उत्तर ही नहीं मिलता। योग सिर्फ उनके लिए है।

आप सब लोग यहाँ बैठे हैं, ये परखें थोड़ा, कि जीवन क्या है आपके लिए? अगर एक परिचित सी, जानी हुई कहानी है, तो कहानी अपने तयशुदा रास्ते पर ही चलती रहेगी। अगर एक ढर्रा है, तो ढर्रा तो ढर्रा होता है। उसमें न कोई सवाल है, न कोई जवाब है। न कोई चेतना है, न कुछ जानना है।

जीवन है क्या आपके लिए?

कितनी आसानी से आप कहते हैं, कि आप ज़िन्दगी को जानते हैं । कितने आश्वस्त हैं आप, कि आपको पता है कि क्या चल रहा है। बड़ी से बड़ी, और छोटी से छोटी बात में क्या आपको वाक़ई विश्वास है? या संदेह बुलाता ही रहता है कहीं पीछे से? क्या कुछ भी ऐसा है, जिसे दृढ़ता पूर्वक हृदय से कह सकें, कि सच्चा है या सब कुछ संदेहयुक्त ही है? कुछ भी है ऐसा, जिस पर आप किसी भी स्थिति में, कभी भी शक़ न कर पायें?

ये सवाल पूछने ज़रूरी हैं, क्योंकि जिसको ये सवाल नहीं उठ रहे हैं, उसने अपनेआप को करीब-करीब मुर्दों की सी हालत में डाल लिया है। जो व्यक्ति सुबह उठता है और सूरज को देखता है, और अचंभित नहीं हो जाता, क्योंकि उसकी एक तयशुदा दिनचर्या है। वो देख रहा है सूरज को, और ख्याल कर रहा है समय का, उसके ऊपर पड़ रही हैं प्रातः की किरणे, पर उसका मन उड़ चुका है, दिन की व्यवस्था देखने के लिए । अपना समस्त कार्यक्रम, मायाजाल देखने के लिए, उसके लिए कुछ नहीं है। ये तो उनके लिए है, जो एक बार ठोकर खाएं, दो बार ठोकर खाएं, और फिर कदम ही ना आगे बढ़ायें। कहें, कि जब पहली बार ठोकर लगी, तब भी यही कहा था कि आगे से नहीं लगेगी। पहली ही बार ठोकर लगना बड़े अचरज की बात थी, जब कि मैं तो यही मानता रहता हूँ कि आँख खोल के चल रहा हूँ। और जब दूसरी बार लगे, तो संदेह से और प्रश्न से, बिलकुल जकड़ ही जाएँ। फिर पाँव आगे ही ना बढ़ाएं, फिर ये ना कहें कि, ‘’मैं अपने आप को जानता हूँ, और इस रास्ते को जानता हूँ। मुझे पता है कि ज़िन्दगी क्या है, मुझे पता है मैं कौन हूँ, मुझे आगे बढ़ने दो।‘’ वो फिर वहीं बिलकुल अचकचा कर खड़े हो जाएँ, कहें, ‘’ये हो क्या रहा है?’’ एक बार चोट खायी, पर दोबारा खा गया?

योग उनके लिए है।

योग उन करोड़ों, अरबों, के लिए नहीं है जो रोज़ चोट खाते हैं फिर भी आँख बंद किये चलते चले जाते हैं । योग उनके लिए है जिन्हें चोट खाना और तड़पना मंज़ूर नहीं। योग उनके लिए है, जिन्होंने उदासी को, बेचैनी को, अपना स्वभाव नहीं बना लिया है। जो यदि उदास होते हैं, तो उदास तो होते ही हैं, साथ ही साथ अचंभित भी हो जाते हैं कि ये क्या चीज़, जो रोज़ आ जा रही है? जिसको सिर्फ उदासी होती हो, और उदासी के विषय में कौतुहल ना होता हो, उसकी उदासी बड़ी यंत्रवत उदासी है, बड़ी मशीनी उदासी है, वो चलेगी, रोज़ चलेगी। वास्तव में, यदि आप अपनेआप को बड़े लम्बे समय से उदास ही पा रहे हैं, या आप किसी को जानते हैं जिसने आदत ही बना ली है, चोट खाने की, भ्रमित रहने की, दुःख में रहने की तो ये मत समझियेगा कि उसने अब इतनी चोटें खा ली हैं कि उसकी जागृति आसान हो जानी है। ना। आप यदि लगातार चोटें खाये ही जा रहे हैं, तो ये लक्षण है इस बात का कि आपकी जाग्रति बड़ी मुश्किल है। आप दो साल से रोज़ पत्र लिखते हों, या डायरी लिखते हों, और रोज़ाना जब लिखते हों, तो उसमें अपनी व्यथा ही लिखते हैं। ऐसा यदि आप देखें तो समझ जाएँ, कि आपका किस्सा बड़ी नाउम्मीदी का होता जा रहा है। बंधन यदि आपको तोड़ने होते, दुःख पर यदि आपको विराम लगाना होता तो आपने पांच बार, सात बार, दस बार में लगा दिया होता । आप सैंकड़ों बार एक ही किस्सा दोहराते हो और दोहराये चले जाते हो, तो बात सीधी है कि उस किस्से को दोहराने में आपको सुख आने लगा है। उस किस्से के प्रति अब किसी तरह का विरोध नहीं है आपके पास। अब उदासी को आपने करीब-करीब अपना स्वभाव बना लिया है।

बेचैनी से आपको अब कोई बेचैनी है ही नहीं। नहीं तो रोज़ उन पन्नों पर आप बेचैनी उड़ेल कर भी जी ही कैसे पाते? बेचैनी को लिखना, बेचैनी को टाइप करना तो एक विधि होती है बेचैनी के प्रति विद्रोह की कि स्पष्ट देखोगे कि दुःख में हो, तो दुःख के खिलाफ खड़े हो जाओगे। स्पष्ट देखोगे कि फंसे हुए हो, तो बंधन तोड़ने को आतुर हो जाओगे। पर जो रोज़ मंत्र समान, बस दोहराता हो – दुःख में हूँ, फंसा हुआ हूँ, दुःख में हूँ, फंसा हुआ हूँ, उसका किस्सा तो अब बड़ा दयनीय हो चुका है। उसको अब दोहराने में, किसी प्रकार का क्षोभ बचा नहीं। एक तरह की बेशर्मी है कि दोहराये जाते हैं, कि हम मूर्ख हैं, मूर्ख हैं, मूर्ख हैं, लजाते नहीं।

ये हाल अधिकाँश जगत का हो चुका है।

अनंत बार आपने शिकायत की है, या ऐसा लगा है कि शिकायत की है। कभी कहा है, कभी कहा नहीं है, सिर्फ अनुभव किया है, कि कुछ ऐसा है जो आपको नहीं ठीक लग रहा। लेकिन जो नहीं ठीक लग रहा, आपने उससे इतने तार जोड़ लिए हैं, इतने बंधन साध लिए हैं कि उस पर सवाल उठाना आपको यूँ लगता है कि जैसे आपकी अस्मिता पर कोई सवाल उठा रहा हो। तो अब तो बस यही है कि ज़िंदगी जैसी चल रही है, चलती रहे।

आवश्यक था, कि मैं आरम्भ में ही इस सूत्र को लूँ, क्योंकि मुझे उनमें कोई विशेष दिलचस्पी नहीं, जो अपने रंग – ढंग से, सुव्यवस्थित हैं, समायोजित हैं। जिनकी चक्की चले जा रही है, और जो चलती चक्की को देख कर, हर्षाए भी जा रहे हैं।

मेरा ध्येय तो वो लोग हैं, जो इस दुःख चक्र को देख कर के, कम्पित ह्रदय हो जाते हैं। जो तड़प उठते हैं, जो कहते हैं कि, ना, ऐसे तो नहीं जीना। यही जीवन है, तो मृत्यु भली।

मेरा लक्ष्य तो वो लोग हैं, जो डरते नहीं हैं, ये व्यक्त करने में कि वो अप्रसन्न हैं। असंतोष को व्यक्त करना, बड़ी ज़िम्मेदारी होती है क्योंकि अगर कह रहे हो कि कुछ ठीक नहीं लगता, तो ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है कि ठीक भी

करो। हममें से अधिकांश लोग ठीक करने से बचना चाहते हैं, इसलिए ये कभी कहते ही नहीं कि कुछ गड़बड़ है ।

असंतोष की कली खिले, आंतरिक महाक्रांति का फूल बने, इससे पहले ही ये उस कली को मसल देते हैं। क्यों मानूँ कि असंतोष है क्योंकि मैंने पहले से ही तय कर रखा है कि फूल क्या फूल खिलायेगा । मुझे पता है कि अगर अगर वो फूल खिला, तो क्या अंजाम होगा। और जो अंजाम होगा, उससे आप अपनी वर्तमान अवस्था में बड़ा डरते हो। तो आप मसल हो देते हो कली को।

ऐसों से मेरा कोई वास्ता नहीं, ऐसों का, ऐसी किसी सभा में कोई स्थान भी नहीं। उनको तो अपनी रंग रंगीली दुनिया में ही होना चाहिए, जहाँ से उनको सुविधाएँ मिलती हैं, जहाँ से उनका सहारा है, जहाँ उनके सारे सूत्र हैं। अपनेआप को धोखे में मत रखिये। आध्यात्मिकता इसलिए नहीं होती है कि आप अपने ज़ख्मों को अलंकृत कर सकें, कि आप अपने घावों का रंग रोगन कर के उन्हें सजा सकें।

बीते दिनों मैं ऋषिकेश में था, और एक बात वहाँ बड़ी स्पष्ट थी कि लोग वहाँ पर अपने संवर्धन के लिए आ रहे थे। अधिक से अधिक, रूपांतरण के लिए आ रहे थे पर रूपों का समस्त परित्याग, किसी का भी लक्ष्य नहीं था। लोग इसलिए आ रहे थे कि उनका जीवन ज़रा और बेहतर, सुमधुर, सुचारु रूप से चले। वही जीवन जो चल रहा है, चले वही पर ज़रा बेहतर चले। वहाँ इसलिए नहीं आ रहे थे कि जो चल रहा है, वो बंद हो क्योंकि चलने मात्र से हमें अब आपत्ति है। जो चल रहा है, हमें उसे अब और सुचारु नहीं बनाना है। जो चल रहा है, हमें उसका चलना ही रोकना है। ऐसा, ना वहाँ कोई चाह रहा था, और ऐसा ना वहाँ कोई कह रहा था।

ना खरीददार थे, ना दुकानदार थे।

*जब आपके पास आपके ज्वलंत प्रश्न होते हैं, तब, और सिर्फ तब, शास्त्र और गुरु आपकी ही आंतरिक ज्वाला को एक अंतरदिशा दे पाते हैं, ताकि आपके बंधन आपकी ही ज्वाला से गला सकें।*

बंधन आपके हैं, तो बाहर का कोई भी कारक उन्हें तोड़ नहीं सकता। मुक्ति का, यह प्रथम सूत्र है कि जिसके बंधन हैं, उसी की आग से वो गलेंगे।

*तुम जलोगे, तब तुम्हारी ही आग से तुम्हारे बंधन गलेंगे।*

तुम्हें बचाते हुए, तुम्हें सुरक्षित रखते हुए, तुम्हारे बंधनों को काटने का, या गलाने का कोई उपाय नहीं है।

तो पहले जलो तुम। पहले ज्वाला होनी चाहिए, पहले तड़प होनी चाहिए। पहले जलन होनी चाहिए।

तब शास्त्र सामने आता है, वो कहता है कि ये सच्चा प्रार्थी है। ये पूरी तरह जल रहा है, ये उस हद पर पहुँच चुका है जिसके आगे अब ये स्वयं नहीं जा सकता। पूर्ण प्रयास कर लिया इसने। इसकी अपनी हस्ती जितना कर सकती थी इसने किया, और अब इसने आखिरी बात भी कर ली कि जला ही डाला अपनेआप को, इससे अधिक क्या करे ये?

*जब आप अपने पूर्ण प्रयास की सीमा तक जा चुके होते हैं, तब सहारा उतरता है।*

और याद रखियेगा, वो सहारा अपने साथ कुछ ले करके नहीं आता। वो आपकी ही ज्वाला को एक अन्तर्दिशा देता है। आप जल रहे होते हैं, और आपका विद्रोह बहिर्गामी होता है, आप कहते हैं कि दुनिया, संसार, लोक, समाज, ईश्वर, इन्होनें आपको दुःख दिया तो आपके भीतर से जो आग उठ रही होती है, वो दुनिया को जलाने के लिए व्याकुल होती है। सुना है ना, “जला दो ये दुनिया, मिटा दो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा दो ये दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।” जब आप वहाँ पर खड़े होते हैं, जब आप कहते हो कि, ‘’मुझे दुनिया से अब पूरी हताशा है,’’ तब शास्त्र का काम बस इतना होता है कि दुनिया को मत जलाओ, अपनेआप को जला दो। दुनिया तुम्हारे सामने से तब तक नहीं हटेगी, जब तक तुम्हारी आँखें सामने की और खुल रही हैं। तो ज़रा सा इशारा देता है बस वो, ज़रा सा दिशा परिवर्तन। जो होगा, वो तुमसे ही और तुम्हारे ही माध्यम से होगा।

पर जो अभी कह ही नहीं रहा, कि ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, उसको तो अभी और, और, और ज़्यादा दुनिया ही मिलेगी। उसे तब तक मिलेगी, और मिलती रहेगी, जब तक कि वो आँखें खोल कर स्वीकार ना कर ले कि, “ना, नहीं चाहिए, बिलकुल नहीं चाहिए।”

यदि आपके लिए, आपके जीवन के प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं हैं, तो शिव सूत्र कहाँ से महत्वपूर्ण हो जाएंगे? ये क्या मज़ाक चल रहा है? जिस आदमी को अपनी ज़िंदगी का तथ्य नहीं पता, उसे शिव का सत्य पता चलेगा? हम किसे सांत्वना दे रहे हैं?

जो दो और दो चार नहीं कर सकता, वो दो और दो पांच क्या करेगा?

श्रोता : आपने अभी बोला, जला दो ये दुनिया, हटा दो ये दुनिया, जब उस मुक़ाम पर पहुँच जाओ, तो उसके बाद शास्त्र आपकी मदद कर सकते हैं। इस बिंदु पर तो वो इंसान भी पहुँचता है, जो आत्महत्या करता है। उसके लिए ज़िन्दगी की हर रूचि खत्म हो जाती है, तब वो उस मुक़ाम पर आता है। तो उसमें क्यों नहीं प्रेरणा उठती, क्यों नहीं वो किसी सहारे को लेकर उस स्थिति में से निकल जाता?

वक्ता : जिसे आत्महत्या करनी है, उसे अब कोई उम्मीद नहीं बची। क्या वाक़ई उसे कोई उम्मीद नहीं बची है?

श्रोता : एक उम्मीद है, कि मरने के बाद चैन मिलेगा।

वक्ता : मरने से तो उम्मीद बची है ना अभी। तो अभी तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि मरने से तुम्हें उम्मीद बची है, मरने से। तुमने सबको व्यर्थ जान लिया, पर अपने इस संकल्प को व्यर्थ नहीं जाना कि मुझे आत्महत्या करनी है। ये भावना, ये विचार, ये इच्छा किसकी थी? तुम्हारी ही थी ना? तुम्हें दिख गया कि तुम्हारी सारी इच्छाएं मूर्खतापूर्ण हैं, पर अभी भी तुम अपनी ही इच्छा पर चल रहे हो? ये आखिरी इच्छा भी थी किसकी? अगर तुम्हें दिख ही गया होता कि तुम्हारी सारी इच्छाएं तुम्हें उलटी ही पड़ी हैं, तो तुम होनी इस इच्छा पर भी कैसे चलते? यदि तुमने वास्तव में सब कुछ हटा दिया होता मन से, तुमने पूर्ण व्यर्थता देख ली होती, तो तुम उसको भी तो हटा देते ना जो ये इच्छा और कामना कर रहा है? जब आत्महत्या करने चलते हो, तो किसी को मार रहे हो, है ना? जिसको मार रहे हो, यानी उसको अभी तक ज़िंदा रखा हुआ था। उससे निराश नहीं हुए थे तुम। जो पूर्ण निराश हो गया हो, वो कहेगा अब मरने के लिए भी कौन बचा है? सब कुछ तो पहले ही मार डाला, अब किसको मारें?

पूर्ण निराशा का मतलब होता है, इस संकल्प के प्रति भी निराश हो जाना कि मौत किसी तरह की निजाद दे सकती है । ‘’अब वो भ्रम भी नहीं रहा। तो अब मर के भी क्या करेंगे?’’

बात ज़रा आगे की है। जो अभी मौत इत्यादि में समाधान ढूंढते हो, वो बड़े शरीर से बंधे हुए लोग हैं। वो शायद ये सोच रहे हैं कि शरीर, दुःख का कारण है। शरीर को ही तो मार रहे हैं ना? दोषी कोई और, मार किसी और को दिया, बड़े होशियार।

नाउम्मीदी की उस हद पर पहुँच जाना होता है, जहाँ अपना प्रत्येक संकल्प, अपने भीतर से उठती हुई हर इच्छा, का भोंदापन, व्यर्थता, मूर्खता, बिलकुल स्पष्ट दिखाई दे। तब उतरती है अनुकम्पा। आत्महत्या करने वाले को अभी परमात्मा से क्या काम है? वो तो अपने मालिक खुद है। वो कह रहा है, मुझे कष्ट था, मैंने इलाज ढूंढ लिया। वो ये थोड़े ही ना कह रहा है कि अपने मारे तो हम मर भी ना पाएंगे। खूब कर्ताभाव ले कर के चल रहा है। जिसे जगत के यथार्थ का ज्ञान हो चुका होता है, वो कहता है, अपने मारे मर भी कहाँ पाएंगे? अपने चलाये जब जी नहीं पाए, तो अपने मारे मर पाएंगे क्या? वो छोड़ता है, वो समर्पण करता है ।

आत्महत्या को प्रेरित व्यक्ति, समर्पित मन थोड़े ही है? आप कभी किसी की हत्या कर रहे हो, कभी किसी की हत्या कर रहे हो, एक दिन खोपड़ा घूमता है, अपनी ही कर लेते हो। क्या अंतर है? हो तो आप अभी भी वही जो सोच रहा था, कि हत्या होती है। हो तो अभी भी वही, जो सोचता है कि हत्यारा होता है कोई। कुछ बदल नहीं गया। आत्महत्या सिर्फ उसी के लिए विलक्षण बात है, जिसका शरीर से बड़ा तादात्म्य हो। नहीं तो तमाम तरह की हिंसा आप रोज़ाना करते ही हो। आत्महत्या उनसे बढ़ कर कोई हिंसा नहीं है । आप मांसभक्षी हो, रोज़ तमाम तरह के जानवरों को खा रहे हो । कभी मुर्गे को मारते थे, कभी बकरे को, एक दिन थोड़ा और पगला गए तो अपना ही गला रेत लिया। कोई बड़ी बात नहीं। आज ‘आप बिरयानी’ खाओ। कई तरह की होती हैं, एक मुर्गा बिरयानी, बकरा बिरयानी, कुत्तिया बिरयानी, एक ‘आप बिरयानी’।

(श्रोतागण हँसते हैं)

रसोईये तो अभी भी तुम ही हो। रस तुम्हें अपने पकाए हुए से ही मिलेगा, इसी में यक़ीन है तुम्हारा। तो पकाए जाते हो, पकाए जाते हो, बड़े पकाऊ हो। पकाओ!

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