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लेख
ये सर झुकने के लिए नहीं है || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आतम त्यागि अनातम पूजत मूरख शीश नवाय

~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: “मूरख शीश नवाय।” ये शीश को लेकर के सन्त कबीर बड़े सतर्क रहे हैं। बार-बार शीश की बात करते हैं। “सिर काटे भुई धरे।” कितनी जगह उन्होंने शीश की या सिर की बात करी है। बहुत इसको लेकर सतर्क रहे हैं। ये सिर क्या होता है? शीश से आशय क्या है? अहम्। अहम् पोषण पाता है ग़लत को सम्मान देकर। इसको अच्छे से समझ लीजिए।

एक बार मैंने कहा था कि आपकी सारी ज़िन्दगी इसी बात से तय हो जानी है कि आपको आदर्श या सम्माननीय कौन लगता है। किसको आपने अपना आदर्श, नायक, हीरो बना लिया। उसी से आपकी ज़िन्दगी तय हो जाती है। और मैंने ये भी कहा था कि आप हीरे और कचरे को एक साथ सम्मान नहीं दे सकते। हीरे और कचरे को एक साथ सम्मान देंगे तो हीरे की ज़रूरत क्या है, कचरा काफ़ी है।

ये जो चीज़ें हैं न ऊँची, ये सार्वजनिक नहीं होतीं। ये सर्वसामान्य के लिए नहीं होतीं। प्रेम और सम्मान, इन दो को तो ख़ास तौर से जान लीजिए कि ये सबके लिए नहीं हो सकते। ये बहुत एक्सक्लूसिव होने चाहिए। एक्सक्लूजिव समझते हैं? विशेष। और विशेष मात्र को ही ये समर्पित या सम्बोधित होने चाहिए।

जो सबको सम्मान दे सकता है, वो किसी को सम्मान नहीं दे रहा। जो सबके सामने झुक सकता है, वो अब आकर झुके श्रीराम के, श्रीकृष्ण के आगे, तो उस नमन का कोई अर्थ नहीं। प्रेम का तो अर्थ होता है ऊँचाई की ओर बढ़ना। सबसे प्रेम कैसे कर सकते हो! हाँ, जहाँ पर तुम हो, उससे नीचे जो है, उसके प्रति करुणा रख सकते हो। करुणा सार्वजनिक हो सकती है, प्रेम नहीं। अन्तर समझिएगा।

करुणा का अर्थ होता है कि जो भी कोई है, जो मदद की तलाश में है, सहायता की ज़रूरत में है, मैं उन सबकी बेशर्त सहायता करूँगा। तो करुणा तो बेशर्त माने अनकंडीशनल (बेशर्त) हो सकती है। प्रेम को तो सदा एक कड़ी शर्त होना चाहिए। लव मस्ट बी एक्सक्लूसिव एंड कंडीशनल (प्रेम विशेष और सशर्त होना चाहिए)। प्रेम नहीं सबसे करा जा सकता।

दाम और राम दोनों से प्रेम करोगे तो राम को छोड़ ही दो, राम की क्या ज़रूरत है। इतनी ज़िन्दगियाँ तबाह होती हैं क्योंकि हमें प्रेम का मतलब नहीं पता। हम किसी से भी प्रेम कर लेते हैं और वही बात यहाँ कह रहे हैं, “मूरख शीश नवाय।” इतनी ज़िन्दगियाँ तबाह होती हैं क्योंकि हम किसी के भी आगे सिर झुका देते हैं, हमे कोई भी बहुत ऊँचा लगने लगता है, उसको हम इज़्ज़त दे देते हैं। अभी एक सत्र में हमने कहा था कि जमाने के प्रति आपमें एक स्वस्थ तिरस्कार का, हेल्दी कंटेम्प्ट का भाव होना चाहिए।

एक गाना था पुराना, उसमें बहुत छोटे-छोटे बच्चे होते हैं और जिसमें शम्मी कपूर का किरदार होता है। वो बच्चों का केयर टेकर (देखभाल करने वाला) होता है। तो वो गाता है, मैं गाऊँ तुम सो जाओ।

(सभी हँसते हैं)

श्रोता: 'ब्रह्मचारी’ (फ़िल्म का नाम)।

आचार्य: 'ब्रह्मचारी’, जिसमें गाड़ी को लेकर के वो गाना है, “चक्के पे चक्का, चक्के पे गाड़ी, गाड़ी पे निकली, अपनी सवारी।”

आगे क्या बोलता है? “थोड़े अनाड़ी, थोड़े पिछाड़ी।” (हँसते हुए) कुछ अगाड़ी भी होंगे। अगाड़ी तो ये रहे (ग्रन्थ की तरफ़ इशारा करते हुए)। अगाड़ी से ज़्यादा अनाड़ी ठीक है।

'जगत के प्रति जो आपका डिफॉल्ट भाव होना चाहिए, वो क्या होना चाहिए?'

'तुम हो कौन?’

सिर का झुकना एक अपवाद होना चाहिए, एक्सेप्शन। उसी को मैं कह रहा हूँ कि वो बहुत विरल, एक्सक्लूसिव घटना होनी चाहिए कि आज सिर झुक गया। सिर ऐसा नहीं होना चाहिए कि गर्दन में दर्द है और हमेशा ऐसे ही रहती है (गर्दन झुकाकर दर्शाते हुए)। ज़्यादातर लोग हम ऐसे ही जीते हैं। सिर का झुकना एक बहुत बड़ा, बोलिए क्या होना चाहिए? अपवाद, एक्सेप्शन होना चाहिए।

इसी तरह प्रेम। जगत के प्रति रिश्ता होना चाहिए अवलोकन का और करुणा का। हम जगत के द्रष्टा हैं, और देखते हैं और दुख बहुत पाते हैं तो सहायता कर देंगे। पर प्रेम नहीं ऐसी चीज़ है कि जो दिखा उसी से प्रेम हो गया। प्रेम भी बहुत-बहुत विरल घटना होनी चाहिए, एकदम अपवाद। कि जो दस-बीस-पचास साल में कभी एक बार हो गया तो हो गया, वरना ये भी हो सकता है कि कभी भी नहीं।

आग चाहिए थी हाथ सेकने को, आग नहीं मिलेगी तो क्या राख मलेंगे? कुछ नहीं मलेंगे। हाथ मलते रहेंगे, आगे बढ़ते रहेंगे। राख को मलकर क्या मिलेगा? राख में कौनसी गर्मी है? गन्दे और हो जाओगे।

“मूरख शीश नवाय।”

सिर नहीं झुकना चाहिए तो नहीं झुकना चाहिए। नहीं फ़र्क पड़ता कि किसी की सामाजिक हैसियत क्या है, कौन राजनीति में कितना बड़ा है, कौन सेलिब्रिटी कितनी बड़ी है, पैसा-प्रतिष्ठा किसके पास कितना है, नहीं फ़र्क पड़ना चाहिए। एकदम ही नहीं अन्तर पड़ना चाहिए।

करोड़ों लोग किसी को पूज्य मानते हैं, मानते होंगे। उनकी भावना का हम सम्मान करते हैं। लेकिन आप हमसे कहोगे कि हम भी पूज्य मानें, इतना आसान नहीं है किसी को पूजना कि हम किसी को भी पूज देंगे। आप पूजना चाहते हैं हम आपको रोकेंगे नहीं, लेकिन हम ये नहीं कर सकते कि कहीं भी झुक जाएँ, कहीं भी पूजने लगें। ऐसे नहीं हो सकता। कितनी आत्माएँ होती हैं जहाँ अहम् को समर्पित होना है? कितनी होती हैं?

श्रोता: एक।

आचार्य: हाँ, तो एक ही है जिसको ख़ुद को दिया जाता है, सौ-पचास नहीं होते। ये सौ-पचास को कैसे समर्पित हो सकता है, हो सकता है? और सौ-पचास सारे कहाँ पाये जाते हैं?

श्रोता: प्रकृति में।

आचार्य: प्रकृति में। तो सौ-पचास को समर्पित हो रहे हो, तो आत्मा छोड़ो, हटाओ। वही बात यहाँ कही है, “आतम त्यागि अनातम पूजत।”

आत्मा से तो कोई मतलब ही नहीं है। आत्मा के प्रति आपका नमन, आपका प्रेम है कि नहीं, वो तो इसी से पता चलेगा कि आप कितनों के प्रति आकर्षित हो। पचास, साठ, सौ, इधर-उधर, आवत-जावत जो दिखा उसी से प्रभावित हो गये। तो इसका मतलब आपको कोई अपने जीवन का मूल्य है नहीं। कहीं भी बिकने को तैयार हो।

आम आदमी के पास न प्रेम होता है, न करुणा होती है। उसके पास बस अपना अज्ञान होता है, डर होता है और एक प्राइस टैग (मूल्य पर्ची) होता है कि इतने में बिकूँगा। कहीं बड़ी गाड़ी दिख गयी, तुरन्त प्रभावित हो गये।

मेरे लिए चुटकुले जैसा होता है, जब मैं किसी बड़े होटल में लोगों को बड़ा मर्यादित आचरण करते देखता हूँ। उसकी शक्ल पर लिखा हुआ है कि अन्यथा एकदम बदतमीज़ आदमी है, सुपर गँवार। लेकिन यहाँ जो होटल स्टाफ़ है, उसके सामने ऐसे बात कर रहा है। हाँ, हाँ, (सिर झुकाकर इशारा करते हुए)। मैं अच्छे से जानता हूँ कि अभी ये बाहर निकलेगा और पूरी दुनिया से ये दुर्व्यवहार करेगा, सबसे बदतमीज़ियाँ करेगा ये। लेकिन यहाँ देखो, बड़ा सा ब्रांड देखा, ऊँची इमारत देखी और पता है कि यहाँ पर जो वेटर भी है, वो भी मैनेजमेंट का कोर्स करके आया है। तो एकदम सलीके से बात कर रहा है। ये अध्यात्म का व्यावहारिक पक्ष है।

आध्यात्मिक आदमी के व्यवहार में ये चीज़ दिखाई देती है। वो किसी का भी बुरा नहीं चाहता। वो किसी के प्रति भी कटु नहीं होना चाहता। वो नहीं चाहता कि किसी को मैं ज़बरदस्ती ठेस पहुँचाऊँ। लेकिन वो किसी भी हालत में किसी से भी दबने को तैयार नहीं हो सकता। वो देने को तैयार हमेशा रहता है। आपको कुछ चाहिए तो मैं दे दूँगा, पर मैं आपसे कभी दबूँगा नहीं। न हिंसा करूँगा, न हिंसा सहूँगा।

कितनी सुन्दर बात गुरु नानक देव बोलते हैं — 'निर्भय, निर्वैर।' न मुझे तुमसे कोई बैर है, न मुझे तुमसे कोई भय है। तुम्हारे प्रति मेरे पास सद्भावना है, करुणा है, लेकिन मैं तुमसे डरता नहीं हूँ बिलकुल भी। मैं चाहता हूँ तुम्हारे लिए अच्छे-से-अच्छा हो, सब बढ़िया हो तुम्हारे लिए। करुणा इसी का तो नाम है।

लेकिन मुझे अगर अपनी तोप दिखाकर डराओगे, तो मैं बस मुस्कुरा सकता हूँ। माँग लोगे, मैं देखूँगा तुम्हें ज़रूरत है, तो जितना सम्भव हो सकेगा मैं सब दे दूँगा तुमको। पर दबाओगे-डराओगे तो हमसे कुछ नहीं पाओगे।

और ये तो कर ही मत देना कि प्रभावित कर रहे हो तुम कि तुम बहुत बड़े बादशाह हो और अपनी तुम बड़ी-बड़ी हमको मूर्तियाँ दिखा दो और ये कर दो। और हम उससे कहेंगे, वाह! ये देखो, ऐसे बड़े आज तक हमने सम्राट नहीं देखें। ऐसे हम नहीं तुमसे प्रभावित हो जाने वाले कि तुम दस तरह से हमको अपना चेहरा दिखाओगे और हम बोलेंगे, चक्रवर्ती, चक्रवर्ती। ऐसे हम नहीं करने वाले।

यही बात पैसे पर लागू होती है। तुम हमें पैसे की बारिश दिखा दोगे, बाढ़ दिखा दोगे, तो उससे हम पर कोई असर नहीं पड़ जाना। यही बात रूप पर लागू होती है। तुम हमें अपने शरीर का ऐश्वर्य दिखा दोगे, अपनी सुन्दरता दिखा दोगे, तुम्हें क्या लगता है उससे हम पर कोई फ़र्क पड़ेगा? एक धेले का फ़र्क नहीं पड़ेगा। तुम हमें नहीं जीत पाओगे, ये सब करा कर।

कुछ गँवार होते हैं वो जहाँ चलते हैं, वो वहाँ थूकते चलते हैं, देखे हैं? ये गँवारों की निशानी होती है। उसी तरीक़े से दूसरे गँवार होते हैं, वो जहाँ जाते हैं, उन्हें प्यार हो जाता है। उनका प्यार थूक बराबर ही होता है। और एक तीसरे होते हैं कि वो जहाँ जाते हैं, उनको कुछ-न-कुछ दिख जाता है जिससे वो डर जाते हैं। ‘इम्प्रेस’ होना भी डरने जैसा ही है न? बताना, है कि नहीं है? इम्प्रेस हो जाना डरने जैसा नहीं है थोड़ा-थोड़ा?

बड़ा सा होर्डिंग दिख गया और तुरन्त कहते हैं, 'बड़ा आदमी है!' ये बीमारी होती है जिसमें रीढ़ ऐसी हो जाती है (झुके हुए रीढ़ का संकेत करते हुए), इसे बीमारी ही बोलते हैं। फिर ऐसे पीठ पर क्या निकल आता है? कूबड़। वो हमारी साइकोलॉजिकल पोज़ है। फिज़िकल पोज़ हमारी भले ही ये रहती हो (कमर सीधी करके दर्शाते हुए), पर जो हमारी साइकोलॉजिकल , मानसिक पोज़ है, वो हमेशा क्या रहती है? (आगे की तरफ़ झुककर दिखाते हुए)

हमारा अगर कोई इम्प्रेशनिस्टिक (प्रभावजन्य) चित्र बनाया जाए, तो वो ऐसा ही होगा। जो पूरा इम्प्रेशनिज़्म (प्रभाववाद) था, वो क्या था? कि जो कुछ आपकी हस्ती में बड़ा है, उसको हम बड़ा ही करके दिखाएँगे। तो किसी बाग का अगर मुझे चित्र बनाना हो, उस बाग में मुझे एक फूल ज़्यादा पसन्द आ रहा है। तो जब मैं चित्र बनाऊँगा तो वो फूल इतना बड़ा हो जाएगा और बाक़ी फूल छोटे-छोटे हो जाएँगे, मोटे तौर पर।

वैसे ही अगर हमारा चित्र बनाया जाएगा तो उसमें रीढ़ तो निश्चित रूप से ऐसी ही रहेगी (झुकी हुई) और सिर इतना छोटा सा रहेगा (हाथ से छोटे आकार का संकेत करते हुए), है ही नहीं? जितनी इन्द्रियाँ हैं भोगने वाली, वो बहुत बड़ी-बड़ी रहेंगी। पेट इतना बड़ा रहेगा, खाना है बहुत सारा। ज़ुबान इतनी बड़ी रहेगी। कामेन्द्रियाँ तो अनन्त लम्बी रहेंगी।

ये हमारा चित्र बनेगा। अब देखिये कैसा चित्र है। एक कुबड़ा है जिसका सिर छोटा सा है। ज़ुबान लटकी हुई है, पूरी दुनिया का उसको रस भोगना है। ये ऐसा-ऐसा यहाँ पर है, ये हम हैं। दिख रहा है यहाँ पर? (वर्णित चित्र की काल्पनिक तस्वीर की ओर इशारा करते हुए)

“मूरख शीश नवाय।”

अब मनन करिएगा कौन-कौन से मूरख हैं जिनके सामने आप शीश नवाते रहते हैं। ये करिएगा जीवन में। थोड़ा सा कुछ विद्रोह हो, कुछ मज़ा आये, थोड़ी सनसनी फैले, गर्मी आये। नहीं तो सारी सनसनी टीवी पर ही देखते रहोगे, वो जो गँवार आते हैं टीवी वाले एंकर। सारी सनसनी उनको ही बताने दोगे नकली, या कुछ असली सनसनी अपनी ज़िन्दगी में भी लानी है? ठंडी सी ज़िन्दगी बीत रही है जैसे फ़्रीज़र में।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

~ दुष्यन्त कुमार

“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।” कुछ जले, आग जले, कुछ मज़ा आये। फिर टीवी भी देखना भूल जाओगे। वो तो नकली सनसनी है, वो जो फूहड़ फैलाते हैं। उसमें कुछ सच नहीं होता, आप अच्छे से जानते हो।

और जब अपने ही जीवन में आ जाता है न रोमांच, गर्मी, एडवेंचर (साहस), थ्रिल , तो फिर टीवी वाली सनसनी की ज़रूरत एकदम ख़त्म हो जाती है। बोलता है, ‘ये क्या सनसनी बता रहा है, असली तो इधर है। तू आ तो, देख तो मेरी ज़िन्दगी। इससे ज़्यादा रोमांचक कुछ हो सकता है? और ये सच्चा रोमांच है। तेरी सनसनी एक तो उथली है और उथली होकर भी झूठी है। यहाँ सच्चा रोमांच है, तगड़ा।’ फिर नहीं ज़रूरत पड़ती ये सब की, बोरिंग (ऊब भरा) लगेगा फिर ये सब।

तो मनन करिएगा कि किन मूर्खों के आगे सिर झुका देते हो, कितनी आसानी से सिर झुका देते हो। किसी को भी इज़्ज़त दे देते हो। किसी से भी प्रभावित हो जाते हो। वही जो प्रभाव खाना है, क्या वही नहीं कंडीशनिंग (अनुकूलन) बन जाता, बोलिएगा? बोलिए?

'भव' का मतलब होता है होना। भाव का सम्बन्ध भी होने से है। आपकी एक अलग झूठी हस्ती ही तैयार होने लग जाती है जब आप प्रभावित होने लग जाते हो।

प्रभावित नहीं होना है, एकदम नहीं होना है। और उससे तो ख़ास तौर पर नहीं होना है जो प्रभावित करना चाहता हो। जो प्रभावित नहीं करना चाहता, वहाँ फिर भी सम्भावना है कि वहाँ कुछ ऐसा हो जिससे हम प्रभावित होना स्वीकार कर लें।

और प्रभावित होना हमेशा अपने स्वीकार की बात, अपने चुनाव की बात होनी चाहिए। 'हाँ, मैं चुन रहा हूँ कि मैं इससे प्रभावित होना चाहता हूँ।' छोटी-मोटी बात नहीं है। अनजाने में, बेहोशी में घट जाने वाली घटना नहीं है कि पता भी नहीं था और इम्प्रेस (प्रभावित) हो गये। नहीं, ऐसा नहीं है। मैं किसी से प्रभावित हो रहा हूँ, ये बात मेरी शुद्ध चेतना के चुनाव से आएगी। अनजाने में नहीं हो जाएगा कि अरे! पता भी नहीं था और हो गया। ऐसा नहीं होता।

ज़्यादा प्रभावित होओगे तो संस्कारित हो जाओगे। हम आज जब आधुनिक समय में गुरु-शिष्य की जोड़ी की बात करते हैं, तो सबसे ऊपर हमें ख़याल आता है रामकृष्ण परमहंस और विवेकानन्द का। आपको क्या लगता है, विवेकानन्द इतनी आसानी से शिष्य बन गये थे? थोड़ा पढ़िएगा। सालों लगे थे। मानने को नहीं तैयार थे और फिर इसीलिए जब माने तो पूरा माने।

हमारी हस्ती कोई आसान छोटी चीज़ थोड़ी है कि जल्दी से किसी को बोल दिया, 'गुरुजी, गुरुजी, गुरुजी।' जो मिला उसी को गुरुजी बोल दिया। काहे को गुरुजी-गुरुजी कर रहे हो! मैं इसीलिए एकदम भी अपने लिए पसन्द ही नहीं करता कि कोई गुरुजी बोले। मैं हो सकता हूँ गुरु, पर तुम्हारा थोड़े ही गुरु हूँ, तुम क्यों गुरु बोल रहे हो? ज़बरदस्ती का रिश्ता बना रहे हो। तुम्हारा गुरु कहाँ से हो गया मैं? ये ऐसी सी बात है, कोई आकर के मुझे बोले, ‘पति जी, पति जी!' तुम्हारा कहाँ से हो गया? हो सकता हूँ किसी और का होऊँ, तुम्हारा थोड़े ही हूँ।

आपको अच्छा लगेगा, एक दिन आप जा रहे हो, जा रहे हो, अचानक पीछे से कोई आता है और बोलता है, 'पप्पा'? (सभी श्रोता हँसते)। ये तो इल्ज़ाम जैसा हो गया। और कहीं पत्नी आपकी साथ में हो, फिर क्या होगा? इधर-उधर के दो-चार बच्चे आकर आपको पप्पा-पप्पा बोल रहे हैं, आपका क्या होगा?

ऐसे ही मुझे लगता है जब गुरुजी बोलते हैं। गुरु होना बाप होने जैसा होता है, क्यों गुरुजी बोल रहे हो? मैं किसी का गुरु नहीं हूँ। भई, शिष्य को मर्यादा ये रखनी होती है कि आसानी से शिष्य न बने। यही समझा रहा हूँ तब से। और गुरु को ये रखनी होती है कि आसानी से गुरु न बने।

मैं किसी का गुरु नहीं हूँ। वो एक बहुत ऊँचा, बहुत निजी, बहुत पवित्र रिश्ता होता है। ऐसे ही कोई थोड़ी किसी का गुरु हो जाता है। और ऐसे भी गुरु घूम रहे हैं जिनके करोंड़ो शिष्य हैं। बाज़ारू काम सारा। कौन किसी का गुरु, कौन किसी का शिष्य। क्या कोई रिश्ता है! बेकार, नकली!

'पप्पा!'

'नहीं भइया, नहीं। हम इस बात से पूरी तरह इनकार करते हैं। नॉट गिल्टी, माई लॉर्ड (दोषी नहीं, महोदय)।'

व्यावहारिक कारणों से आप किसी जगह काम करते हैं, वहाँ पर आपको किसी को सर (महोदय) बोलना पड़ रहा है, ठीक है। व्यावहारिक बात है, चलो। नहीं बोलोगे तो उस जगह के काम-काज पर असर पड़ेगा।

आप अदालत में खड़े हो, वहाँ आपको बोलना ही पड़ता है योर ऑनर (महोदय), ठीक है, चलेगा। लेकिन दिल से नहीं मान लेना है कि वो जो वहाँ बैठा है, वो बहुत ऊँचा आदमी है। क्या, कुछ नहीं। ऊँचे तो मेरे राम हैं। और हम किसी को ऊँचा नहीं मानते। बाक़ी तो जगत का व्यवहार है। जगत व्यवहार में किसी को सर बोलना पड़ा, किसी को बॉस बोलना पड़ा, किसी को कुछ बोलना पड़ा, चलेगा। दिल से हम किसी को कुछ नहीं मानते।

भूलिएगा नहीं, बस एक होता है हमारा प्रियतम। पाँच-सात जगह दिल नहीं दिया जाता। जो पाँच-सात जगह दिल दे दे, उसके लिए भाषा में भी गन्दा नाम होता है। अपना मूल्य करने का शायद सबसे व्यावहारिक अर्थ यही होता है कि दो चीज़ें आसानी से हम किसी को नहीं देते — एक इज़्ज़त और एक प्यार। करुणा हमारी सबके लिए है, सहायता सबकी करेंगे।

लेकिन प्रेम तो अनूठी चीज़ है, न्यारी चीज़ है, विशेष है। 'एक्सक्लूसिव’ (सबसे अलग, विशेष) शब्द अंग्रेज़ी का सबसे ठीक बैठता है उस पर। एक्सक्लूसिव, एक्सक्लूड करती है। नेति-नेति है उसमें। एक्सक्लूजन (बहिष्करण) माने नेति-नेति, हटाओ-हटाओ, एक्सक्लूड करो। नेति-नेति, नहीं, इससे भी नहीं हो सकता। नहीं, इससे भी नहीं हो सकता। सर्व-सामान्य के प्रति सद्भावना हो सकती है, सद्भावना बड़ी प्यारी बात है, होनी चाहिए। हम सबका भला चाहते हैं।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, माँगे सब की खैर। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर।।

~ कबीर साहब

हम सबकी खैर माँगते हैं। तेरा भला हो, तेरा भी भला हो। लेकिन प्यार? प्यार नहीं। प्यार नहीं, प्यार तो कबीर को बस राम से होता है। राम हैं, कबीर हैं, यही बस, इनका आपस का है। और जब इन दोनों का आपस का प्यार होता है तो फिर उससे पूरी दुनिया प्रकाशित हो जाती है, ये ऐसा अनूठा प्यार होता है।

आ रही है बात समझ में?

तो एक तो मनन करिएगा कि कहाँ-कहाँ फ़ालतू जगहों पर सिर झुकाते हो और दूसरा ये कि कहाँ-कहाँ फ़ालतू जाकर के प्यार का खेल खेल आते हो। हम आपको अप्रेमी होने को नहीं बोल रहे। हम कह रहे हैं, ख़ैर सबकी माँगों और सबकी ख़ैरियत के लिए मेहनत भी पूरी करो। पर 'प्रेम' शब्द की अहमियत को समझो।

प्रेम हल्की और बिकाऊ चीज़ नहीं होती। आसानी से मत बोल दिया करो कि प्रेम है तुमसे। या कोई आकर बोल दे कि उसे आपसे प्रेम है और आप कह दें, 'हाँ-हाँ, बड़ा अच्छा हो गया।' क्या अच्छा हो गया? कैसे उसने बोल दिया प्रेम है? लानत की बात है! तूने कैसे बोल दिया, तुझे हमसे प्रेम है, एक्सप्लेन (स्पष्ट करो)। भग जाएगा।

समझ रहे हो?

ये जो पूरी बात है, ये आपको आक्रामक होना तो नहीं सिखा रही न। ऐसा तो नहीं लग रहा कि वो बात हो रही है कि हिंसक हो जाओ, आक्रामक हो जाओ। हम वो नहीं कह रहे हैं, हम कुछ और कह रहे हैं।

हम कह रहे है, कुछ होता है जो सेक्रेड होता है, पवित्र। उस पर जनता के हाथ लगने नहीं दिये जाते। और आपके जीवन में कुछ होना चाहिए जो इतना सेक्रेड हो कि आप उसको बाज़ार की चीज़ न बनाएँ बिलकुल भी, चाहे मौत आ जाए। कुछ हो जाए, जीवन में एक चीज़ ऐसी है जो बाज़ारू नहीं है, इसको बचाकर रखना है। उसी को फिर आत्मा भी कहते हैं, वही आत्मा है।

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