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लेख
व्यवहार नहीं, वास्तविकता || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: पुण्य, आचरण की बात नहीं है। ‘पुण्य’ किसी विशिष्ट आचरण की बात नहीं है और ना ही अच्छाई किसी निर्धारित प्रकार से आचरण करने की बात है और ना ही पुण्य बात है एक ख़ास विषय के बारे में विचार करने या ना करने से। पर भरा तो यही गया है, आप सबके दिमाग में। हमें बताया गया है कि, ‘’ऐसा बर्ताव मत करो, ऐसा मत सोचो’’ और हमें लगता है यही सही है, यही नैतिक है और हमारे सारी अच्छाई का भाव भी यहीं से आता है। तो इसे मूलतया हम कहते हैं कि यह ही आचरण है।

उससे थोड़ा अंदर जाते हैं, तो हम कहतें हैं, ‘विचार’, उसके नीचे भी कुछ है, उसकी बात यहाँ कोई नहीं करता। यहाँ पर कोई ऐसा नहीं है, जो आचरण एक हद से ज़्यादा गिरा हुआ दिखा सके क्योंकि कॉलेज से निकाल दिए जाओगे, और उससे भी ज़्यादा गड़बड़ व्यवहार दिखाया, तो जेल में पहुँच जाओगे। तो व्यवहार के तल पर तो हम सब बड़े पुण्यात्मा होते हैं, बड़ी अच्छाई दिखाते हैं। ये बात समझ में आ रही है?

व्यवहार के तल पर देखो तो ऐसा लगेगा सब ठीक ही तो है। हम सोचतें है पुण्य यहाँ है कि हमने व्यवहार ठीक दिखा दिया। नहीं, व्यवहार में पुण्य नहीं आता, तो इसको मैं स्ट्राइक-आउट (काटना) करता हूँ। जो लोग थोड़े ज़्यादा समझदार हैं, जिन्होंने थोड़ा और गहराई में जाना चाहा है, उन्होंने सोचा है पुण्य इस बात में है कि विचारों पर नियंत्रण, मन नियंत्रित करने से होगा। ये सब शब्द सुनें हैं? आज-कल टी.वी बहुत फैशनेबल हो गए हैं, कि विचारों को कैसे नियंत्रित करें और आते हैं सब बाबा लोग और बताते हैं कि, ”देखो बच्चा, ऐसा मत सोचना, वैसा मत सोचना”, और करीब-करीब ये ही सवाल चेतन (प्रश्नकर्ता) का भी है कि, "मेरे मन में एक प्रकार के विचार आते हैं।" ठीक है? और हम सोचते हैं, ज़्यादातर लोग तो यही पर हैं, कि ये उनके पास गड़बड़ है, इसको ठीक करके सोचते हैं कि, "हम बढ़िया आदमी हैं!" दिमाग में पूरी तरह से भ्रष्टाचार चल रहा होता है, व्यवहार ठीक कर लेते हैं और सोचते हैं, कि किसी को पता थोड़े ही चल रहा है। वो मेरे सामने से गुज़र गई और मन-ही-मन मैंने क्या कर लिया उसको पता थोड़ी चला!

ठीक है? व्यवहार तो सामान्य ही रखा न? व्यवहार सामान्य ही नहीं रखा, बोल और दिया, “हाई, गुडमॉर्निंग "।अब उस बेचारी को पता भी नहीं है कि उस गुड-मॉर्निंग (सुप्रभात) का अर्थ क्या है। कैसे ‘गुड’ (अच्छी) है ये मॉर्निंग? और यहाँ पर सब, बिलकुल, हो गया।

लेकिन साहब का ख्याल ये था कि व्यवहार ठीक है तो हम ठीक हैं। बात ठीक? व्यवहार ठीक है तो हम ठीक हैं और कोई कानून तुम्हें पकड़ भी नहीं सकता, अगर तुम्हारे विचार ख़राब हैं। कोई जज तुम्हें इस बात की सजा नहीं दे सकता कि, "तू ऐसा सोचता क्यों है?" और हम इसी बात में खुश रह लेते हैं कि, "व्यवहार तो ठीक है न?" कानून की नज़र में तुम बच जाओगे, पुण्यात्मा कहलाओगे, अच्छा कहलाओगे, ज़िंदगी की नज़र में ये स्ट्राइक रहेगा। कुछ नहीं बचे, खत्म ही हैं। इससे आगे कुछ लोग बढ़ते हैं, वो कहतें हैं, व्यवहार ही नहीं, विचार भी ठीक होना चाहिए। और मैं तुमसे कह रहा हूँ, विचार के भी ठीक होने से कुछ नहीं होता, क्योंकि विचार भी अभ्यास कर-कर के लाया जा सकता है। तुम्हें बचपन से ही अगर घुट्टी पिला दी जाए, “चाचा जी के बारे में अच्छा सोचो, चाचा जी आदरणीय हैं, चाचा जी सम्माननीय हैं, पूजनीय चाचा जी, पूजनीय चाचा जी।” और फिर तुम्हारे मन में फिर ये ही, ये ही विचार आएगा।

हिन्दू बैठे होंगे, घंटी बजती है, उनके मन में एक प्रकार का विचार आता है, मुस्लमान बैठे होंगे, अज़ान की आवाज़ आती है, उनके मन में एक प्रकार का विचार आता है। कुछ भी नहीं कीमत है इस विचार की। कोई भी कीमत नहीं है इस विचार की, क्योंकि ये विचार भी ‘संस्कारित विचार’ है। तो कोई ये सोच ले कि विचार अच्छा हो गया तो हम अच्छे हो गये, तो बिलकुल गलत सोच रहा है। बात आ रही है समझ में? व्यव्हार अच्छा हो गया, तो तुम अच्छे हो गए? बिलकुल भी नहीं। अब मैं कह रहा हूँ कि विचार भी अच्छा हो गया, तुम अच्छे हो गये, तो बिलकुल भी नहीं। चेतन, इसका मतलब विचार के अच्छा होने से तुम अच्छे नहीं हो, तो विचार के बुरे होने से तुम?

प्रश्नकर्ता: बुरे नहीं हो।

आचार्य: बुरे भी नहीं हो गए, ग्लानि मत महसूस करना बिलकुल भी कि एडल्ट्री (व्यभिचार) करता हूँ, दिमाग में कुछ भी करता हूँ, कुछ नहीं हो गया उससे, मज़े में करो। जब बात पूरी खुलेगी, उसके बाद अगर कर सकते हो, तो करते रहना। बात आ रही है समझ में? बहुत सारे यहाँ लोग बैठे होंगे, जो बस सिर्फ व्यवहार पर ध्यान देते हैं। वो एक मुखौटा लगा कर रखते हैं अच्छे व्यवहार का। उनसे आगे कुछ लोग होंगे, जो कहते होंगे, "व्यवहार ही नहीं विचार भी अच्छा रखो।" ये इनसे तो बेहतर हैं, ये जो विचार वाले लोग हैं, ये व्यवहार वाले लोगों से तो बेहतर हैं, लेकिन फिर भी ये अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुए हैं।

ये जो आदमी है, इसकी ज़िंदगी सिर्फ व्यवहार पर ध्यान देते हुए जा रही है कि, ”भैया, मेरा व्यवहार”, और व्यवहार कहाँ होता है? बाहर होता है हमेशा, बाहरी होता है। इस आदमी की ज़िंदगी लगातार व्यवहार पर ध्यान देते हुआ जा रही है, इस आदमी की ज़िंदगी लगातार विचार पर ध्यान देते हुए जा रही है कि, "मैं सही सोचूँ।" एक ‘तीसरा’ आदमी भी हो सकता है।

प्र: इंटेलिजेंस।

आचार्य: ठीक, मैं सीधे-सीधे लिख दूँ?

प्र: होश, चेतना।

आचार्य: ये कहता है, ‘’मैं होश में रहूँगा।‘’ अब उस होश के फल स्वरुप, कैसा भी विचार आए और कैसा भी व्यवहार हो, परवाह किसको है? मुझे और किसी बात पर ध्यान देना ही नहीं है। व्यवहार जैसा हो, होता रहे, हम तो मस्त हैं। मुझे विचार पर भी ध्यान नहीं देना, मैं, बस विचार के बारे में भी होश-मंद रहूँगा, जब मेरे मन में वो विचार आएगा, तो मैं बेहोश नहीं हो जाऊँगा। मैं तब भी होश में रहूँगा कि ये विचार आ रहा है। मैं विचार से कहूँगा, "आजा प्यारे, कोई दिक्कत नहीं है। आजा, तू दोस्त है मेरा।” होश कायम रहेगा विचार को आने दो, उसके बाद अगर वो विचार रहा आता है, हम तो भी खुश हैं, चला जाता है तो भी कोई बात नहीं।

न व्यवहार प्रमुख है, न विचार प्रमुख है, चेतना प्रमुख है।

चेतन, होश, चैतन्य। ठीक है? इस होश के बिना, ये बताओ बेटा, अगर तुमने विचार नियंत्रित करने की कोशिश भी की, तो क्या तुम सफल हो पाओगे? तुम ज़बरदस्ती अपने दिमाग को प्रताड़ित और करोगे, तुम कहोगे, "ऐसा मत सोच, वैसा मत सोच।" अब यहाँ तो तुम्हारे हॉर्मोन उछल रहें हैं और वहाँ तुम उसे दबाने की कोशिश कर रहे हो कि, "ये मत सोच और ये मत कर।" उससे फ़ायदा क्या होगा? तुम अपने आप को ही अपने खिलाफ़ बाँट लोगे। तुम्हारी ज़िंदगी ऐसी हो जाएगी जैसे ये हाथ (अपने बाएँ हाथ को उठाते हुए), इस हाथ (अपने दाएँ हाथ को उठाते हुए) से लड़ रहा है। जब ये हाथ इस हाथ से लड़े, तो कोई जीत सकता है? न तो ये जीतेगा न तो ये हारेगा, बस मैं थक जाऊँगा। बात समझ में आ रही है? फ़ालतू थको मत और किसी भी बात को उल्टा-सीधा गलत भी मत समझो।चेतन, ये ज़रा भी मत समझना कि तुम्हारे मन में एक विचार आता है, तो उसकी वजह से तुममें कई कमी पैदा हो गई। बल्कि ये तो तुम्हारे होश का सबूत है, कि तुम्हें पता है कि वो विचार आता है और उस विचार के प्रति तुम संवेदनशील हो रहे हो। यहाँ पर आठ-सौ छात्र हैं, जिनसे हम मिलते हैं, ये बहुत कम हैं जो ये बात बोलते हैं और सबके सामने बोलेंगे तो बिलकुल भी नहीं, स्वीकार ही नहीं करेंगे कि ऐसी बात है। ये तो तुम्हारे होश का सबूत है कि तुम स्वीकार कर रहे हो कि, "हाँ, मैं एक जवान आदमी हूँ और मुझे ऐसे विचार आते हैं।"

उस विचार को आने दो, बस तुम अपना होश कायम रखना। उसके बाद अगर वो विचार बचता है तो बचे, जाता है तो जाए। इस पर कभी मत जीना और इस तल पर भी मत जीना, जीना तो यहाँ पर। और इस होश से जोश बहुत सारा निकलता है, फिर वास्तव में उत्साहित रहोगे। तुम्हें मालूम है यहाँ सिर्फ़ विचार पर क्यों तुम रह जाते हो? क्योंकि तुम्हारे पास जो उचित है, वो कर पाने का जोश बहुत कम रहता है।

विचार वास्तविकता का विकल्प बन जाता है। ये ही तो हम करते हैं न अपनी कल्पनाओं में? जो हम वास्तविकता में नहीं कर पाते, हम उसकी कल्पना करना शुरू कर देते हैं। ये ही है न? विचार वास्तविकता का विकल्प बन चुका है। तुम्हारी जो ऊर्जा सीधे कार्य में निकलनी चाहिए थी, वो ऊर्जा फ़ालतू ही कल्पना करने में जा रही है। ये उस ऊर्जा का विरूपण है। समझ रहे हो बात को?

अगर तुम जाओ मनोवैज्ञानिक के पास, वो कहेंगे कि, "ये जो जवानी की उम्र होती हैं, इनमें खेलना बहुत ज़रूरी है।" तुम लोगों की भी जो उम्र है और तुमसे पहले के भी जो अडोलेसेन्सस की जो उम्र होती है, इसमें बहुत आवश्यक है कि एक सक्रिय खेल खेला जाए।

विचार वास्तविकता का विकल्प बन जाता है। खेलने की ज़रूरत क्यों है? ताकि ऊर्जा को एक आउटलेट मिलता रहे। ऊर्जा को आउटलेट नहीं मिलेगा, तो ये लड़का है, ये आक्रामक हो जायेगा, क्योंकि ऊर्जा तो है। उम्र का तकाज़ा है कि ऊर्जा है, वो ऊर्जा अगर सही दिशा में बाहर नहीं निकली, तो वो इधर-उधर से विरूपित तरीकों से बाहर निकलेगी। वो लड़ेगा, झगड़ेगा, अपने में परेशान रहेगा, तमाम तरह की कल्पनाओं में रहेगा, वो कुछ भी करेगा। होश की ही जो ऊर्जा है, जो जोश के रूप में निकलती है, जब ये नहीं रहती, ये दोनों बिलकुल एक साथ हैं, जब ये नहीं रहती, तो फिर विचार आते है उलटे-सीधे और अंततः व्यवहार भी दूषित हो सकता है, और यही अपना असर दिखाती है बलात्कार जैसे घातक रूपों में। विचार वास्तविकता का विकल्प बन जाता है। समझ रहे हैं आप बात को? जीवन बहुत ही साफ़-सीधा। विचार वास्तविकता का विकल्प बन जाता है। मैं होश में हूँ या नहीं हूँ , एक्शन हो रहा है। होश क्या है? *अटेंशन*। जोश क्या है?

प्र: स्वाभाविक गतिविधियाँ।

आचार्य: हाँ,जीवन बड़ा सहज है। एक सीधे-साधारण आदमी के लिए जीवन बहुत सीधा है। वो कहता है, होश है, यानि अटेंशन है और इस अटेंशन से निकलता है, बड़ा प्यारा एक्शन (कर्म), तत्क्षण निकलता है। लेकिन जिनकी ज़िंदगी में ये नहीं होता, उनकी ज़िंदगी में बड़ी गड़बड़ियाँ रहती हैं, नकली-पना रहता है, बीमारियाँ रहती हैं। बात समझ में आ रही है? क्या ये स्पष्ट हो पा रहा है? हम एक बहुत ही दमित समाज में रहते हैं, चेतन, बहुत ही दमित समाज में।

हम सबको ये जो विचार आते हैं, उसकी वजह है जैसी हमारी परवरिश हुई है, जैसी नैतिकता हमें पढ़ा भर दी गई है, बस ये सब वहाँ से आ रहा है। जो एक स्वाभाविक चीज़ होनी चाहिए, किसी भी लड़के या लड़की के लिए, उसको जा कर टैबू (निषेध) बना दिया जाता है तो निश्चित सी बात है कि मन विद्रोह करता है, ये सब वहाँ से आता है। अब तुम या तो इसके शिकार बन सकते हो या होश-पूर्वक इसको समझ सकते हो कि ऐसी बात है। समझ जाओगे तो इससे मुक्त हो जाओगे फिर तुम पर कोई असर नहीं होगा। ऐसे सभी क्षणों में जब ऐसे सारे विचार आपके मन पर हावी होने लगें तो होश में आ जाना। होश का मतलब ये नहीं कि घबरा गए, होश का मतलब ये भी नहीं कि विचारों से लड़ने लगे, होश का मतलब ये कि जान लिया कि ऐसा विचार आ रहा है। अब वो विचार मन को परेशान नहीं करेगा। अब आप समझदार हैं, अब वो विचार आपके मन पर हावी नहीं हो पाएगा।

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