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लेख
विनाश की ओर उन्मुख शिक्षा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्न: सर, एक छोटा बच्चा जो अपने माँ-बाप को ठीक से नहीं पहचानता उसे स्कूल भेज दिया जाता है। वो बच्चा फिर अलग-अलग चीज़ें सीखता है, मिसाइल बनाना सीखता है। तो ये शिक्षा प्रणाली सही है या गलत?

वक्ता: तुम्हें पता है। बिलकुल ठीक बात है। जिस मन को अभी अपना होश नहीं, उस मन को मिसाइल बनाना सिखा दोगे, तो वो क्या करेगा? बन्दर के हाथ में जब तलवार दे दी जाती है, तो क्या करता है? तो जहाँ भी मौका पाता है, वहीँ पर चला देता है।

शिक्षा ऐसी ही है हमारी, बस एक बात हमसे छुपाए रखती है। क्या? कि जानकारी किसको मिल रही है। जानकारी पाने वाला कौन है। दुनिया भर की सूचनाएं तुम्हें दे दी जाती हैं, दुनिया भर का ज्ञान तुम पर लाद दिया जाता है। दुनिया में कितने सागर हैं, उन सागरों की गहराई कितनी है, दुनिया में कितने देश हैं, उन देशों की व्यवस्था कैसे चलती है, समाज क्या होता है, विज्ञान क्या होता है, अर्थव्यवस्था क्या होती है, कितनी भाषाएं हैं, गणित। दुनिया भर का डेटा तुम्हारे दिमाग में डाल दिया जाता है जैसे डेटा डाउनलोड किया जा रहा हो। जिसकी मशीन जितनी अच्छी है, उस डेटा को ग्रहन करने में वो उतना बड़ा टॉपर निकल जाता है। और हो कुछ नहीं रहा है। तुम्हारा दिमाग इसको बस एक हार्ड डिस्क की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इसमें बस सूचनाएं भर दो। इससे अच्छा तो एक चिप ली जाए, उसमें सब कुछ फ़ीड करके तुम्हारे दिमाग से जोड़ दिया जाए। सारा बाहरी ज्ञान ही तो है।

पर जिन लोगों ने शिक्षा व्यवस्था बनाई, उनको ये ज़रा भी समझ में नहीं आया कि

सबसे पहली शिक्षा तो है: आत्मज्ञान।

पहले अपना तो पता हो। अपना पता नहीं, दुनिया का इकट्ठा कर रहे हो ज्ञान तो फिर वही होगा जो तुमने कहा कि जैसे बच्चे न्यूक्लियर मिसाइल से खेल रहे हों क्यूँकी परिपक्वता तो आई नहीं। परिपक्वता तो आती है आत्म बोध से ही और अगर आत्मबोध नहीं है तो कोई मैच्योरिटी नहीं है और हाथ में क्या आ गई है? न्यूक्लियर मिसाइल। अब दुनिया का नाश होगा।

होगा भी नहीं, हो रहा है। हम सब अच्छे से जानते हैं कि दुनिया का औसतन तापमान अब करीब-करीब एक डिग्री बढ़ चुका है। हम अच्छे से जानते हैं कि हम अपने जीवन काल में ही दुनिया के कुछ बहुत बड़े शहरों को नष्ट होते हुए देखने वाले हैं। दुर्भाग्य की बात है कि तुम्हारे अपने मुंबई और कोलकत्ता भी उन शहरों में से होंगे, जो डूब जाएँगे। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जल स्तर बढ़ रहा है। ये जितने तटीय शहर हैं, ये डूब जाएँगे। ये बचेंगे ही नहीं। ये जो पूरा गंगा-जमुना का इलाका है, इसपर बहुत भयंकर चोट पड़ने वाली है।

अभी पिछले साल उत्तराखंड में जो तबाही हुई, वो आकस्मिक नहीं थी। वो सब आदमी की करतूतों का नतीजा था। ये सब उनकी ही करतूतों का नतीजा था, जिनके हाथ में विज्ञान ने बड़ी ताकत सौंप दी है। पर जिनका मन अभी बन्दर समान ही है, उन्होंने विज्ञान द्वारा दी हुई इस ताकत का उपयोग सिर्फ़ प्रकृति को नष्ट करने में ही किया है। थोड़ा अगर तुम पढ़ोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि दुनिया भर में बाढ़ और सूखा दोनों बढ़ते जा रहे हैं, बड़े-बड़े चक्रवातों का आना अब बढ़ गया है। ज़बरदस्त उपद्रव हो रहे हैं और इसकी सबसे बड़ी मार गरीबों पर पड़ेगी, उस तबके पर पड़ेगी जो प्रकृति पर निर्भर है जैसे किसान, जैसे मछुआरे।

तो ये होता है जब शिक्षा मिल जाती है बाहर-बाहर की और अपने मन का कोई होश नहीं होता, आत्मज्ञान नहीं होता। ये सब कुछ जो हो रहा है, ये हमारे शिक्षा प्रणाली का नतीजा है। इस शिक्षा ने ऐसे लोग पैदा किए हैं, जिन्हें ज़रा भी कष्ट नहीं होता है पूरे पर्यावरण को बर्बाद कर देने में। तुम अच्छे से जानते हो कि फूलों की, पौधों की, पक्षियों की, जानवरों की हज़ारों प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं और वो लौट कर कभी नहीं आएंगी। और प्रतिदिन कुछ प्रजातियाँ हैं, जो विलुप्त होती जा रही हैं। उन्हें किसने विलुप्त किया?

तुम्हें लग रहा है ये सब अनपढ़ लोगों के काम हैं? नहीं, ये दुनिया के सबसे ज़्यादा पढ़े लिखे लोग हैं, जो ये तबाही ला रहे हैं। आज आदमी के पास विध्वंस की इतनी क्षमता है कि वो पृथ्वी को सैकड़ों बार नष्ट कर सकता है। तुम्हें क्या लगता है कि वो क्षमता बे-पढ़े-लिखे लोगों ने अर्जित की है? वो क्षमता किन लोगों की है? वही जो खूब पढ़-लिख गए हैं। तुम्हारे जितने पी.एच.डी हैं, और तुम्हारे सारे सम्मानीय लोग हैं, ये इतने बर्बर हैं कि ये सब बर्बाद करने में लगे हुए हैं। ऐसी तुम्हारी शिक्षा है।

जो जितना शिक्षित है, वो उतना बर्बर है; यही तुम्हारी शिक्षा है। क्यूँकी शिक्षा का जो मूलभूत ढांचा है, वही झूठा है। बचपन से तुम्हें क्या पढ़ा दिया गया है? बचपन से तुम्हें यही सिखाया गया है कि गणित पढ़ लो, भाषाएँ पढ़ लो, हिंदी अंग्रेजी संस्कृत पढ़ लो। तुमसे कहा गया है कि इतिहास पढ़ लो पर तुम इतिहास नहीं हो। तुम जो हो, वो तुमको कभी कहा नहीं गया। तुमसे कहा भी नहीं गया कि क्षण भर को रुक कर के अपने आप को भी तो देख लो तो इसीलिए इस अंधी शिक्षा व्यवस्था से जो आदमी निकलता है, तो वैसा ही होता है।

बन्दर के हाथ में तलवार है। तलवार तो फिर भी कुछ दूर तक ही वार करती है, आज तो बन्दर के सामने इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल है जिस पर हाइड्रोजन बम लगा हुआ है और एक नहीं, करोड़ बन्दर ऐसे घूम रहे हैं।

बस एक उल्लू काफ़ी था, बर्बाद गुलिस्तान करने को।

हर शाख पर उल्लू बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्तान क्या होगा।।

एक-एक दफ़्तर में, एक-एक कॉलेज में ऊँची से ऊँची कुर्सी पर और कौन लोग बैठे हुए हैं? वही तो लोग बैठे हैं न जो इसी शिक्षा व्यवस्था के उत्पाद हैं? और फिर वो निर्णय भी वैसे ही ले रहे हैं, दुनिया निर्मित करते जा रहे हैं। आ रही है बात समझ में? इसलिए तुमसे बार-बार कहता हूँ तुम्हारी सारी शिक्षा एक तरफ और ये जो तुम एच.आई.डी.पी कर रहे हो, सेल्फ़ अवेयरनेस कोर्स , ये एक तरफ़। एच.आई.डी.पी का वज़न तुम्हारी पूरी शिक्षा से ज़्यादा है। बाकी जो सब कुछ तुमने पढ़ा है, उसको एक तरफ़ कर दो, एच.आई.डी.पी अकेला उस पर भारी पड़ेगा। क्यूँकी ये तुम्हें तुम तक ले कर के आता है। और तुमसे ज़्यादा कीमत किसी की नहीं है। पहाड़ों की, विज्ञान की, भाषा की तुमसे ज़्यादा कीमत नहीं है।

देखो, इंसान आज बिलकुल महा विनाश के सामने खड़ा हुआ है और वो इतना भी दूर भी नहीं है कि तुम कह दो कि हमारे जीवन के तो बाद होगा न! तुम सब जवान लोग हो, तुम सब के पास लम्बी आयु शेष है अभी। तुम अपनी आँखों से देखोगे, ऐसा प्रलय कि दहल जाओगे और ये लालची लोग उस बारे में कुछ करने को तैयार नहीं है। रोज़ चेतावनियाँ आ रही है कि कुछ कर लो, कुछ कर लो और कुछ करना नहीं है। करना इतना ही है कि ये जो इतना उत्पादन हो रहा है, इस पर रोक लगा लो। ये जो इतना धुआँ फ़ेंक रहे हो, इस पर रोक लगाओ, ये जो इतनी आबादी बढ़ रही है इस पर थोड़ा रोक लगाओ। ये जो इतना लालच पसरा हुआ है तुम्हारा, इस पर ज़रा लगाम लगाओ। पर आदमी इसको रोकने को तैयार नहीं है। आदमी कह रहा है, ‘’मरने को तैयार हूँ, पर लालच नहीं छोडूंगा।’’ मरते हैं तो मर जाएँ पर भोगते-भोगते मरेंगे। और पैदा करो, और पैदा करो, और सड़कों का विस्तार होना चाहिए, पहाड़ों को काट दो, नदियों पे बाँध बना दो, पेड़ों को काट दो, ज़मीन से जितना निकाल सकते हो निकाल लो, सागरों का दोहन करो क्यूँकी मेरा लालच बहुत बड़ा है। और फैक्ट्रीयाँ लगाओ, और एयर-कंडीशनर होने चाहिए, बिजली का उत्पादन और बढ़ाओ और इसको तुम प्रगति का नाम देते हो। ये प्रगति महा-विनाश है, जिस पर खुश होते हो न कि बहुत तरक्की हो रही है। ये तरक्की की जो परिभाषा है जो तुम्हें तुम्हारी शिक्षा ने ही दे दी है, ये प्रगति, ये तरक्की प्रचंड महाविनाश है। ये अंधी शिक्षा है।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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