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लेख
विकसित मन ही दोस्ती कर सकता है || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
9 मिनट
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प्रश्न: पापा कहते हैं दोस्त कुछ नहीं होते। दोस्तों पर ध्यान मत दिया करो। इनके साथ मत घूमा करो। “मैं खुद नहीं जाता। किसी के साथ जाते हुए देखा है तूने मुझे?” पर मुझे लगता है दोस्त भी होने ज़रूरी हैं। पर एक तरफ़ मैं भी सोचता हूँ कि विश्वास कैसे करूँ? क्योंकि काफ़ी बार मुझे लगा कि मुझे धोखा दिया गया है और मेरी इच्छाओं की पूर्ती नहीं हुई है। फ़िर लगता है पापा भी सही कहते हैं। तो परेशान हूँ इस विषय में। आप ही सहायता करें।

वक्ता: क्या नाम है आपका?

श्रोता: कुणाल।

वक्ता: कुणाल, पापा बिलकुल ठीक कहते हैं। पापा गलत नहीं कहते पर पापा अधूरी बात कह रहे हैं। अधूरी बात इसलिए कह रहे हैं क्योंकि इंटरवल के बाद की कहानी एक वयस्क कहानी है। इंटरवल से पहले की कहानी का ‘U’ प्रमाणपत्र है तो वो उन्होंने तुम्हें सुना दी। इंटरवल से बाद की कहानी का ‘A’ प्रमाणपत्र है। वो तुमको सुना नहीं रहे हैं क्योंकि उनको लग रहा है तुम अभी बच्चे हो।

(श्रोतागण हँसते हैं)

पापा को पूरी कहानी पता है पर अभी तुम्हें सुनाएंगे नहीं वो। जब तक तुम साबित नहीं करोगे कि पापामैं समझदार हूँ।

श्रोता: आप सुना दीजिए सर।

वक्ता: मैं सुना दूँ? पापा को पता लग गया तो मेरी पिटाई करेंगे। कहेंगे मेरे बच्चे को वयस्क कहानी सुना दी।

श्रोता: सर आप सुना दीजिये। (निवेदन करते हुए)

वक्ता: सुना दूँ? छोटे बच्चे को सुरक्षा की ज़रूरत होती है। बड़े से बड़ा स्कॉलर भी, दुनिया का सबसे समझदार आदमी भी, बड़े से बड़ा संत भी जब एक साल का था न तो किसी को आ कर उस से कहना पड़ता था कि “उधर मत जा, उधर गढ्ढा है, गिरेगा तो टांग टूटेगी।” और अगर वो आज कल के ज़माने का है, पिछले १००-२०० साल का, तो किसी को आके उस से कहना पड़ता है कि “वो जो है न वो बिजली का सॉकेट है, उसमें ऊँगली अगर डाल दी तूने तो बेटा एक साल का ही रह जाएगा।”

(श्रोतागण हँसते हैं )

ये कहानी का उत्तरार्थ है, पहला हिस्सा। पहला हिस्सा कहता है कि दुनिया ख़तरनाक है और तुम्हें बचने की ज़रुरत है। तो जब पिताजी तुम से कह रहे हैं कि दोस्त यार कुछ नहीं होते, सब बेकार की बातें हैं तो वो मूलतः तुम से ये ही कह रहे हैं कि दुनिया ख़तरनाक है। क्योंकि एक छोटे बच्चे के लिए जिसे अभी अपना अच्छा-बुरा समझ में नहीं आता। दुनिया ख़तरनाक हो सकती है वास्तव में। उसको तो सांप और रस्सी का भी अंतर नहीं पता है। उसको चवनप्राश और गोबर में भी अंतर समझ नहीं आता। वो कुछ भी खा सकता है। उसको ये समझ में नहीं आता कि दोस्ती का अर्थ क्या है। और जब तक छोटे बच्चे को दोस्ती का अर्थ समझ में नहीं आ रहा, तब तक वो जितनी दोस्तियाँ करेगा, वो गड़बड़ दोस्तियाँ होंगी।

तो पापा बिलकुल ठीक कहते हैं। लेकिन पापा जिसको कहते हैं उसको छोटा बच्चा मान कर कहते हैं। जब मुझे ये ही नहीं पता कि दोस्ती माने क्या, तो फ़िर मैं जो भी दोस्ती करूँगा वो गड़बड़ होगी, मैं समझूंगा दोस्त, वो निकलेगा दुश्मन। अपनी तरफ़ से वो मेरा हित ही कर रहा होगा, और हो जाएगा बुरा। और ये ही नहीं कि वो ही मेरा बुरा करेगा, मैं भी उसका बुरा कर दूंगा। क्योंकि मुझमें अभी इतनी परिपक्वता ही नहीं है कि मुझे दोस्ती का कुछ भी पता हो।

मैंने तो ये ही मान लिया है कि जो मुझे मनोरंजन दे वो मेरा दोस्त है। मैं उपद्रव करने निकलूं, जो मेरा साथ दे, वो मेरा दोस्त है। मुझे किसी के घर के शीशे पर पत्थर मारना है, जो मेरे साथ चल ले, वो मेरा दोस्त है। और वो ज़िन्दगी भर के लिए दोस्त हो गया।

“मुझे लगता है ये असली दोस्त है”

जितने मक्कारी और नालायकी के काम हैं, वो करने में जो मेरी मदद करे, मुझे लगता है मेरा दोस्त है। तो पापा बिलकुल ठीक कहते हैं कि बचो ऐसे दोस्ती से।

मैं पढ़ रहा हूँ और जो आ कर के कहे, “अरे! पढ़ रहा है? कुछ बुरा हो गया क्या आज तेरे साथ? मूड ख़राब है क्या? वो मेरा दोस्त है। मैं अकेला बैठा हूँ, मैं शांत हूँ, मैं ध्यान से सुन रहा हूँ और जो मुझे पीछे से ऊँगली करना शुरू करदे वो मेरा दोस्त है।” तो पापा तुमसे कह रहे है कि, “सावधान!” क्योंकि तुम नासमझ हो, इसलिए तुमने दुनिया भर के नासमझों को अपना दोस्त बना लिया है।

जैसे तुम हो वैसे ही लोगों से तो दोस्ती करते हो न? तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम्हारा हित कहाँ हैं। इसी कारण दुनिया भर का सारा कचरा तुमने अपने आस-पास जमा कर लिया है और उन्हें तुम अपने दोस्तों का नाम देते हो। और जो आदमी वाकई तुम्हारा हित करेगा तुम उससे दूर भागते हो। जो असली दोस्त है वो तुम्हें बहुत बुरा लगता है क्योंकि वो तुम्हें समझाता है कि, “अरे! क्या कर रहे हो, अंधे आदमी! गिरोगे।” तुम कहते हो, “ये देखो अँधा बोला।और ये और बोल दिया कि गिरूंगा! अरे मैं कभी गिरा हूँ आज तक? और अगले ही सेकंड गिर जाते हो।” तो फिर क्या बोलोगे? “मैं गिर ही इसलिए गया क्योंकि परेशान कर रहा था। मैं गिरता थोड़ी। मारो इसको।”

दुनिया में कुछ बातें ऐसी होती हैं जो सिर्फ़ वयस्क लोगों के लिए होती हैं। दोस्ती सिर्फ़ वयस्क लोग कर सकते हैं। क्योंकि दोस्ती का मतलब है गहराई से एक दूसरे को समझना। एक नासमझ आदमी क्या ख़ाक दोस्ती करेगा! और दोस्ती से आगे प्यार? सब उस उम्र में आ चुके हो जहाँ प्यार-प्यार चिल्लाते हो। अब बच्चा बन के तो कभी प्यार नहीं पाओगे, बच्चा बनके तो फिर वही प्यार पाओगे कि कोई तुम्हारे गाल पकड़ के कहे “उ लू लू लू लू, चबी चीक्स।” सोचो न, डेट पर जा रहे हो और गर्लफ्रेंड पकड़ के, गर्लफ्रेंड तो ख़ैर हुई नहीं, वो पकड़ के तुम्हें कह रही है *(* गाल पकड़ने का इशारा करते हुए) “हाउ क्यूट, बेबी चॉकलेट खायेगा?”

तो बच्चों को तो ये ही मिलता है और तुम्हें बच्चे ही बने रहना है। दोस्ती और प्यार अविकसित लोगों के लिए नहीं है।अपरिपक्व लोगों के लिए नहीं है। इसीलिए मैंने कहा कि इंटरवल के बाद की कहानी वयस्क कहानी है। जो वयस्क होने के लिए तैयार हों वो ही जान सकते हैं कि दोस्ती का मतलब क्या है। जो वयस्क हो चुके हैं सिर्फ़ उन्हीं को प्यार मिलेगा। बाकियों को सुरक्षा मिलेगी। सुरक्षा मिलेगी तुम्हें। बच्चे को सुरक्षा दिया जाता है। ममता मिल सकती है, करुणा मिल सकती है, पर प्यार नहीं मिलेगा।

“सर वो तो चाहिए”, तो बड़े हो जाओ। दोस्ती और प्यार बहुत अलग-अलग चीज़े नहीं हैं, एक ही बात है। दोनों सिर्फ़ एक परिपक्व मन को मिलती हैं।

तो पापा अपना स्टेटमेंट पूरी तरह बदल देंगे जिस दिन तुम दिखा दोगे कि तुम परिपक्व हो। उस दिन वो कहेंगे दोस्ती सब कुछ है ,प्यार ज़िन्दगी है। पर अभी नहीं कहेंगे।

श्रोता: सर ऐसे दोस्त हैं मेरे, जो मेरा समर्थन करते हैं जब मैं पढता हूँ। जैसे वॉट्सऐप पर बात हो रही है तो मुझे भगा देंगे कि जा पढ़। पर पापा को कैसे बताऊँ कि ऐसे दोस्त भी हैं मेरे, वो समझते नहीं हैं इस चीज़ को।

वक्ता: ये गड़बड़ मत करना। देखो ये कितनीबड़ा अहँकार है कि “मैं समझदार हूँ, वो समझते नहीं हैं।” अपनी ज़िन्दगी को ध्यान से देखना, तुमसे ज़्यादा समझदार भले ही हो न हों, पर तुम्हारे जितनी समझ तो रखते ही होंगे। अपनी ज़िन्दगी को ध्यान से देखना, कहीं न कहीं तुम इस बात का प्रमाण दे रहे होगे कि मैं अभी बच्चा ही हूँ। वो प्रमाण देना बंद करो।

तुम देखो कि तुम घर पर कौनसे टी.वी. चैनल्स देखते रहते हो। तुम देखो कि क्या तुम अपनी ज़िन्दगी के निर्णय खुद ले पाते हो। तुम देखो कि घर से बाहर भी क्या तुम समझदारी भरे तरीकों से निकल पाते हो। इन सब चीज़ों को गौर से देखो। अपने आप से पूछो कि आज से ४ साल पहले जो मैं था और आज जो मैं हूँ, क्या उसमे वाकई कोई अंतर आया है? क्या वाकई मेरी परिपक्वता बढ़ी है? दुनिया में उन लोगों को देखो जिन्होंने जवानी में ही बड़े काम कर डाले, और फिर पूछो अपने आप से कि अगर वो परिपक्व थे तो क्या मैं परिपक्व हूँ?

सब दिखेगा, सबको सब दिखेगा। और बात पापा,मम्मी, तक ही नहीं है बेटा, पूरी दुनिया को दिखेगा। फूल खिलता है न तो उसकी सुगंध चारों ओर फैलती है। पूरी दुनिया को समझ में आ जाएगा कि फूल खिल गया। ठीक है? फूल को घोषणा नहीं करी पड़ती है कि “आओ देखो मैं खिल गया हूँ।” किसी की नाक बंद हो तो वो आँख से देख लेता है। किसी की आँख भी बंद हो तो वो छू कर पा लेगा कि ख़िल गया।

सुगंध भी है, रूप भी है, नज़ाकत भी है, सब है फूल के पास। तुम खिलो तो सही पूरी दुनिया को पता चल जाएगा, पापा को भी पता चल जाएगा। और नहीं पता चले तो फ़िर क्या फ़र्क़ पड़ता है।

असली बात क्या है किसी को पता चलना या फ़िर खिलना?

असली बात तो ये है कि हम खिलें, उसके बाद अगर उन्हें नहीं भी पता चल रहा तो तुम कहोगे, “कोई बात नहीं”।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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