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लेख
वेल्लों की असली पहचान || नीम लड्डू
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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नौ बजे खाना लगना है मेज़ पर, सात बजे से सूँघना शुरू कर देते हैं।

“तो आज क्या बन रहा है? तो आज क्या बन रहा है?”

जब ज़िंदगी बिलकुल बैरोनक और खाली होती है तो दिमाग में सिर्फ़ खाना और थाली होती है।

नौ बजे खाना लगना होता है, सात बजे से यही मुद्दा बन जाता है कि, “बताओ-बताओ आज बन क्या रहा है?” – यह मुद्दा है। यह ज़िंदगी का मुद्दा है कि, "आज बन क्या रहा है?"

यह सब सूचनाएँ हैं, लक्षण हैं कि उठ जाओ, चेत जाओ। जन्म व्यर्थ गँवा रहे हो। कढ़ी और जीरा सूँघने के लिए पैदा हुए थे? कि नाक दे दी है बिलकुल रसोई के अंदर!

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