आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
वास्तविक स्वतंत्रता राष्ट्र की नहीं, व्यक्ति की होती है || आचार्य प्रशांत, युवाओ के संग (2012)

प्रश्न : आचार्य जी, हमारे देश कि जो सेना है, उनमें अगर राष्ट्रप्रेम न हो, देश की चिंता न हो, तो हम कोई भी जंग कैसे जीत सकते हैं?

आचार्य प्रशांत : जब तुम अपने छोटे भाई से लड़ते हो तो वो बुरा माना जाता है, जब तुम अपने पड़ोसी से भी लड़ते हो तो भी तुम्हारी निंदा की जाती है। पर जब एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से लड़ता है तो बहुत पवित्र अवसर हो जाता है। तुम्हें कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता है कि ये क्या चल रहा है। तुम्हें समझ में नहीं आता।

आदमी का सभ्यता का जो कुल इतिहास है, भारत को ही ले लो, इनमें इण्डस्ट्रियलाइसेशन से पहले का हम कुछ जानते नहीं। २५०० ईसा से पूर्व उसकी डेट है। २००० साल ईसा के बाद हम हुए, ४५०० वर्षों का हमारे सभ्यता का कुल इतिहास है। जानते हो ४५०० सालों में ऐसे युद्ध कितने हैं जो जिन्हें रिकॉर्ड किया गया है? जो रिकॉर्ड नहीं हुए उनकी तो बात भी नहीं कर रहा। जो कबीला इस्तर पर हुए थे, सिर्फ जो रिकार्डेड युद्ध हैं, वो कितने हैं ४५०० सालों के? १०००० से ज़्यादा! ४५०० साल और १०००० रिकार्ड करी हुई लड़ाइयाँ! ये लड़ाई इंसान और इंसान के बीच में नहीं हुई हैं। इन लड़ाईयों ने करोड़ों लोगों को मारा है और इंसान को पीछे ढकेला है; लगातार पीछे ढकेला है। और ये लड़ाईयाँ दो व्यक्तियों में नहीं हुई हैं। ये लड़ाईयाँ हमेशा किसके बीच में हुई हैं?

श्रोता: दो राष्ट्रों के बीच में।

आचार्य जी: दो राष्ट्रों के बीच में।

‘राष्ट्र’ का अर्थ क्या है? तुम समझने की कोशिश तो करो, जानों तो! पाकिस्तान का जो भी रवैया है, उसके लिए भारतीय कूटनीति ने एक मुहावरा इजाद किया है — ‘बाध्यकारी शत्रुता’। ‘बाध्यकारी शत्रुता’ का अर्थ ये होगा कि पाकिस्तान ज़िंदा ही नहीं रह सकता अगर भारत से मित्रता कर ले तो। पाकिस्तान के ज़िंदा रहने के लिए आवश्यक है कि वो सदा लड़ाईयाँ ही करता रहे।

ये बात हम सब को समझ मे आती है। ये बात बिलकुल ठीक है।

जिन्ना ने कहा ही यही था कि ‘२ राष्ट्रिय सिद्धान्त’ का अर्थ है कि हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ नहीं रह सकते और इसी आधार पर विभाजन हुआ था। तो हमें ये बात सुनने में बड़ी प्यारी लगती है कि पाकिस्तान बाध्यकारी शत्रुता पर ही ज़िंदा है। और वो शत्रुता छोड़ दे तो उसके होने का कुछ अर्थ ही नहीं बचेगा। फिर ये पूछा जाएगा कि भाई जब तेरी भारत से दुश्मनी नहीं है तो तू अलग अस्तित्व में ही क्यों है? तू तो पैदा ही नफरत के आधार पर हुआ था अगर नफरत गई अब तू अलग है ही क्यों? ठीक है ना!

तो अब उसे अगर अलग रहना है एक राष्ट्र के तौर पर, तो उसे नफरत रखनी ही पड़ेगी। और ये बात हम बहुत बुद्धिमान बन के स्वीकार कर लेते हैं। पर मैं आपसे कहना चाहता हूँ, दुनिया का कोई भी राष्ट्र हो उसके उस राष्ट्र होने का आधार ही बाध्यकारी शत्रुता है। वरना ज़मीन तो पूरी-पूरी आपको दी गई थी। उन रेखाओं के औचित्य क्या है, जो आपने खींच ली?

और क्या कोई भी राष्ट्र ज़िंदा रह सकता है बिना शत्रु हुए?

ज़रा ध्यान से सोचना। कोई भी राष्ट्र ऐसा है जिसने अपनी एक सेना ना बना रखी हो? हैं, एक-दो छोटे-छोटे कुछ। क्या राष्ट्र ज़िंदा रह सकता है बिना मिलिट्री के? राष्ट्र के होने का आधार ही यही है कि मुझे दूसरे से लड़ना है, वरना और क्या आधार है? ज़मीन पर एक रेखा खींच देने का और आधार क्या है? ये बताओ तुम मुझे। मुझे अगल बगल वाले से लड़ना नहीं है तो फिर राष्ट्र का आधार क्या बचा? जो ये राजनितिक इकाई है वो मौजूद ही इसीलिए करती है क्योंकि तुम कभी समझ नहीं पाओगे। ऐसा इसलिए है, यदि राष्ट्र नहीं रहेगा तो राजनेता भी नहीं रहेंगे। यदि राष्ट्र नहीं रहा तो प्रधानमन्त्री भी होगा। तो राजनेता कभी भी ये सोचने की सहमती नहीं देंगे कि तुम खुले तौर पर सोंच पाओ। अब तक उन्होंने सहमती नहीं दी तुम्हें पूरी तरह सोंचने की।

तुम छोटे थे तभी से तुम्हें ये बताया गया कि २६ जनवरी को परेड निकलती है और तुम बहुत खुश हो जाते हो, इतने सारे सिपाही हैं और वो इतनी बंदूकें लेकर निकल रहे हैं। अग्नि मिसाइल उड़ाकर दिखाई जा रही है। तुम अपने आप से पूछो तो ये शस्त्र किसको दिखाए जा रहे हैं और क्यों? क्या तुमने ये कभी सोचना ही नहीं चाहा या तुम्हें दिखाई ही नहीं पड़ा। मैं किसी निष्पत्ति पर आने को नहीं कह रहा हूँ।

श्रोता : आचार्य जी, छोटा सी हम खेल खेलते हैं उसमें भी तो हमें सीमा रेखा बनानी पड़ती है।

आचार्य जी : तुम वो ही देखो।

श्रोता : वो ही तो मैं पूछ रहा हूँ, ऐसा क्यूँ?

आचार्य जी :- उससे भी पहले जाओ! जानवर होता है जो; कभी तुमने देखा है कि सड़क पर कुत्ते भी होते हैं वो भी अपनी क्षेत्र रेखा बना लेते हैं और उस क्षेत्र में अगर कोई दूसरा पशु आ जाये तो वो चिल्लाते हैं। उस क्षेत्र के बाहर कुछ भी करते रहो। जंगल में भी जो जंगली जानवर होते हैं, बाघ वगैहरा। वो अपना क्षेत्र बनाते हैं। अपने क्षेत्र की परिधि बनाते हैं, अपने स्टूल के द्वारा। स्टूल मतलब, उनका शौंच, कि वो जहाँ-जहाँ गिरी हुई है उतने क्षेत्र में दूसरा बाघ नहीं आ सकता। क्या तुमने ये समझा नहीं कि क्षेत्र बनाने का जो स्वभाव है वो मूल्यतः एक पाशविक प्रवृत्ति है, जो बस इस बात का प्रमाण है कि हम कभी जानवर थे क्योंकि जानवर ही होता है जो ज़मीन हड़पना चाहता है, क्योंकि वो ज़मीन पर रहता है।

श्रोता : पर आचार्य जी ये तो सामाजिक व्यवस्था को संतुलित रखने के लिए हैं।

आचार्य जी : आप औचित्य ना दें! आप समझें। मैं औचित्य नहीं दे रहा हूँ। मैं इतनी देर से सिर्फ प्रश्न उठा रहा हूँ, मैं सिर्फ तथ्य रख रहा हूँ और वो समझने के लिए है। समाज कि व्यवस्था और संतुलित, वगैरा… समाज है क्या ये हम जानते हैं? कहानी इतनी आगे बढ़ाएँ कि समाज की व्यवस्था संतुलित रहे उससे पहले मैं पूछूँगा समाज माने क्या? अपने कहा संविधान, मैने पूछा संविधान माने क्या?

शब्द हैं हमारे पास, शब्दों के अर्थ नहीं है। उनकी समझ नहीं है।

समाज माने क्या?

किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की ज़रूरत नहीं है। मैं आपके लिए कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ। मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि क्या आप खुली आंखों से चीज़ों को देखते हैं या आप समाज, धर्म, राष्ट्रवाद की ताकतों से गहराई से जुड़े हैं। आप इतनी गहराई से संस्कारित हैं कि आप देख भी नहीं सकते।

स्वत ंत्रता का सबसे बड़ा दुश्मन होता है — आज्ञान

समझ की कमी।

क्या फर्क पड़ता है कि कोई और स्वशरीर आ कर के आपको बंधक बना रहा है या आप अपने विचारों के ही बंधक हो। बंधक तो आप हो ही ना। आज़ादी सिर्फ समझ से आती है।

बात समझ में आ रही है?

आज़ादी कोई ऐसी चीज़ नहीं है कि कोई तुम्हें दे देगा। बड़े गांधी बाबा हुए थे उन्होंने अपने लट्ठ से अंग्रेज़ मार- मार कर भगा दिए तो अब हम आज़ाद हैं। ऐसे नहीं होती स्वतंत्रता , मुक्ति इसका नाम नहीं है।

हर एक व्यक्ति को अपनी आज़ादी ख़ुद से कमानी होती है। सिर्फ इसलिए कि आप एक स्वतंत्र देश में पैदा हुए हैं इसका मतलब यह नहीं है कि आप स्वतंत्र हैं। आपको अपनी स्वतंत्रता अर्जित करनी है और अपनी स्वतंत्रता अर्जित करने को ध्यान कहते हैं। बात आप समझ रहे हैं?

स्वतंत्रता इस बात का नाम नहीं है कि आप १५ अगस्त मना लेते हो यानी मेरा संविधान सिर्फ मेरा है। २६ जनवरी मना लेते हो आप।

यदि आप के पास एक ऐसा मन है, विवेक है जिसमें और जो मुक्त है तो-तो आप मुक्त हो, नहीं तो आप बहुत बुरी तरह से गुलाम हो। अंग्रेजों के गुलाम थे तो फिर भी कोई बात नहीं थी क्योंकि वो सिर्फ आपके शरीर को गुलाम बना सकते हैं, पर जिसका मन धारणाओं में उलझा हुआ है, उसकी गुलामी का तो कोई अंत ही नहीं है क्योंकि वो ऊपर- ऊपर से ऐसा लगेगा कि वो आज़ाद है और अंदर-ही-अंदर बुरी तरह जकड़ा हुआ होगा। उसकी गुलामी का कोई अंत नहीं है।

श्रो ता : और आचार्य जी अगर समझ ही गलत हुई तो?

आचार्य जी : समझ कभी गलत नहीं हो सकती। समझ या तो होती है या तो नहीं होती है गलत और सही नहीं होगी। तुम ये कभी नहीं कह सकते की ये ग़लत समझ है और ये सही समझ है। या तो समझ होगी, या नहीं होगी। और समझ, ध्यान से आती है। ठीक वैसे ही जैसे कि तुम ये नहीं कह सकते कि कोई सही तरह से जगा हुआ है और कोई ग़लत तरह से जगा हुआ है। तुम या तो जागे हुए हो या सो रहे हो। सही और ग़लत जगना नहीं होता है।

जागना माने जगना, समझ माने समझ और समझ का जो दुश्मन है वो है ज्ञान, और वो ये है कि मैं तो पहले से ही जानता हूँ। मुझे पता है। मेरे जीवन का जो नक्षा है वो पहले से ही खींचा जा चुका है और उस नक्शे में इन-इन चीज़ों को बहुत महत्वपूर्ण बना दिया गया है। ये तीर्थस्थल है। तो परिवार एक तीर्थस्थल है मेरे जीवन के नक्शे में। एक सुरक्षित नौकरी एक तीर्थस्थल है। सामजिक सम्मान एक तीर्थस्थल है। तो मेरे जीवन का नक्शा पहले से ही खींचा हुआ है। अब कभी समझ नहीं मिल सकती, अब हो ही नहीं सकती।

जब ‘संकाय विकास कार्यक्रम’ होते हैं और जब मैं शिक्षकों से मिलता हूँ तो उनको बोलता हूँ कि जिस छात्र को आपने बोर्ड में बता दिया कि कैप्लर का नियम ये है और इसकी ये वियुप्ती है; अब वो कभी कैप्लर का नियम समझ नहीं सकता। कभी नहीं समझ सकता क्योंकि अपने बात दिया। क्यों नहीं ऐसा हो सकता कि न्यूटन से शुरूवात की जाए और न्यूटन से ही पहले से शुरुवात की जाए, पहले सिद्धांत से शुरुवात की जाए और फिर वहाँ से कोशिश की जाए जानने की कि प्लेनेटरी मोशन में ग्रहों की गति और त्रिज्या के बीच में क्या संबंध हो सकता है? जिसको बात दिया गया, जिसने ये मान लिया कि ऐसा है, अब वो कभी जान नहीं पाएगा।

जिसने मान लिया वो जान नहीं सकता।

तो यह धारणा भी कि मुझे यह ग़लत समझ हो सकती है कि यह आप में है, या आप में समझ द्वारा आरोपित किया गया है ये कि बहुत होशियार मत बनना, बहुत साहसिक बनने की कोशिश मत करना। तुम कहोगी भी की तुमने समझ लिया तो तुम्हारी समझ गलत होगी, समझ कभी गलत नहीं होती, कभी नहीं गलत होगी। यदि वो समझ ‘है’ अगर। वो धारणा है तो वो हमेशा गलत होगी, और ये तुम्हारे अलावा और कोई नहीं जान सकता कि ये धारणा है कि क्या है।

श्रोता : ये निर्णय कैसे करेंगे कि वो हमारी समझ से आ रहा है?

आचार्य जी : जो भी काम ध्यान में होगा, बोध में होगा वो समझ ही है। अंतर करने का यही एक तरीका है। तुमने जाना है, या तुम पहले से जाने हुए हो बस यही है, और कोई तरीका नहीं है।

श्रोता : आचार्य जी, आपने कहा की कैपलर का नियम न बताया जाए। तो जब तक हम को कोई तथ्य पता नहीं चलेंगे तो हम उसको पूरी तरह कैसे समझेंगे?

आचार्य जी : क्या समझ किसी भी बाहरी तथ्यों से आती है? नहीं, समझ आपकी अपनी आंतरिक स्थिति है, ये किसी तथ्य के उजागर होने के परिणाम स्वरुप नहीं आती ।है और अगर दुनियाभर के सारे तथ्य तुम्हें बता दिए जाएँ तो उससे तुममें कोई समझ थोड़ी उपज हो जाएगी।

श्रोता : आचार्य जी, अपने कहा किसी भी चीज़ को बिना समझ के मानना चाहिए तो जैसे ये धर्म चल रहे हैं हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या साँई धर्म एक नया आ रहा है, तो काफी धर्मों के अंदर भी धर्म चल रहे हैं तो इन्हें कैसे हटाया जा सकता हैं?

आचार्य जी : क्या तुमने ये जान लिया कि हटाने की जरूरत है या मैंनें बोल दिया तो फिर कह रहे हो कि हटाना है? क्यों हटाना है?

श्रोता : हटाने की जरूरत क्यों नहीं है क्योंकि अब मुस्लिम बोलता है, मैं मुस्लिम हूँ, ये हिन्दू है इससे बात नहीं करनी है। इसके साथ ये नहीं करना तो हटाने की जरूरत तो है ही।

आचार्य जी : वो ये क्यों बोलता है क्या तुमने ये कभी समझा?

श्रोता : धर्म के लिए?

आचार्य जी :- धर्म क्या कर देता है मन के साथ क्या ये समझा? हम बहुत जल्दी कुछ कर गुजरना चाहते हैं कि कुछ ले आओ, कुछ हटा दो, कुछ तोड़-फोड़ कर दो। अरे, क्यों कर दो? क्यूँ? एक बार एक साहब थे, हमारे ही जैसे। वो पी कर आए बिल्कुल रात में घर। अब ताला लगा हुआ है। ताले की चाबी उनके हाथ में है। अब वो ताला लटक रहा है और वो कोशिश कर रहे हैं, चाबी लगाने की उसमें। काहे को लगे चाबी! कभी इधर हो जाए, कभी उधर हो जाए, कभी उल्टी लगाएँ, कभी तिरछी लगाएँ। काहे को लगे चाबी! तो दूर से उन्हें एक रक्षक देख रहा था, इमारत का जो रक्षक था वो उन्हें देख रहा था। वो आया उसने कहा, “मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ?” आप पिये हुये लग रहे हैं, असमर्थ लग रहे हैं, खोल पाने में; मदद करूँ?

बोले नहीं, नहीं मुझे मदद की कोई जरूरत नहीं है। बिल्कुल ही जरूरत नहीं है! असल में मदद की जरूरत इस इमारत को है, ये इमारत ना हिल बहुत रही है। तो इस इमारत को ज़रा पकड़ लो यार बहुत बुरे तरीके से हिल रही है, इसे ज़रा पकड़ के खड़े हो जाओ। ये हिले ना, तो मैं चाभी लगा दूँ। मैं तो ठीक हूँ, ये बिल्डिंग हिले जा रही है।

हम बहुत जल्दी में रहते हैं कि बाहर की दुनिया में कुछ कर गुजरें। ये नहीं देखते हैं कि चढ़ी तो हमको हुई है हमें होश में आना है।

बाहर नहीं कुछ जल्दी से कर देना है, खुद होश में आना है।

और मज़े की बात ये है कि ज़्यादातर लोग जो बाहर करना चाहते हैं, ये वही हैं जो खुद होश में नहीं हैं। तुम उन सब को देखो जो बाहर की दुनिया में बहुत कुछ करने के लिए उतावले हैं। सम्भावना यही है कि ये वो आदमी होगा जो खुद को जानता नहीं। और खुद को जानता नहीं तो स्वयं से भाग के बाहर निकला है पता करने।

जल्दी से बड़ा घर बनवा लेना है, नई नौकरी ले लेनी है, नई गाड़ी खरीद लेनी है। बाहर की दुनिया में बहुत कुछ पा लेना है। कभी इस इंसान को ध्यान से देखना। बहुत सारे लोगों का धर्म परिवर्तन कर देना है कि ताकि वो मेरे धर्म के लोग बन जाएँ कभी इस इंसान को ध्यान से देखना।

क्या वो खुद धर्म को जानता है? दूसरों का परिवर्तन कराना चाहता है, फटा-फट। विश्वइन्द्रिय है वो! खुद जानता है? खुद जानता होता तो ये हरकत करता नहीं। तो जल्दी में रहने की ज़रूरत नहीं है कि ये कर देंगे वो कर देंगे। बैठो आराम से और समझो। समझो, बिना डरे।

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