आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
उनके लिए, जिन्हें ऊँची ज़िन्दगी चाहिए || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
136 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मैंने नवम्बर वाला शिविर अटेंड किया था। वहाँ मैंने आपसे एक प्रश्न पूछा था विचारों को लेकर। और आपने दो चीज़ें बताईं थीकि एक तो ध्येय आपका सही होना चाहिए और निकटता होनी चाहिए उससे| एक आपने सूत्र भी दिया था कि ध्येय से प्रेम को ही ध्यान कहते हैं। तो इस पर आचार्य जी काफ़ी काम किया और इससे काफ़ी लाभ भी मिला लेकिन एक चीज़ अभी हाल ही में, अभी मैं वॉलेंटियर के रूप में जुड़ा हूँ इस शिविर में तो यहाँ पर आकर मुझे लगा कि जो ऊर्जा मैं लगा पा रहा हूँ, जितना मेरा यूज़ यहाँ पर मतलब जितना मैं अपने फुल पोटेंशियल का यूज़ यहाँ कर पा रहा हूँ उतना मैं अपने काम में नहीं कर पाता हूँ।

तो आचार्य जी इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? जैसे यहाँ अगर मुझे ठीक से नींद भी नहीं मिल रही है तो कोई माथे पर शिकन नहीं है ना कोई थकान नज़र आती है लेकिन वही ऊर्जा जब मैं दूसरे कामों में लगाना चाहता हूँ तो लगती है ऊर्जा लेकिन उसे लेवल स्तर पर ट्रांसलेट नहीं हो पाती।

आचार्य प्रशांत: देखो, ऊर्जा हमारे पास बहुत सारी होती है लेकिन हमें वह उपलब्ध उतनी ही होती है जितनी हमें उसकी ज़रूरत होती है। समझ रहे हो?

घरों में चार बर्नर वाले चूल्हे उपलब्ध होते हैं न आजकल| होते हैं कि नहीं? तो चारों होते हैं उपलब्ध पर आपको करना कुल इतना है कि थोड़ा सा पानी उबालना है, थोड़ा सा। ठंड बहुत है तो आपको लग रहा है कि पीने से पहले पानी थोड़ा सा गर्म कर लें। तो कितने बर्नर जला देते हो?

ऐसे समझ लो जैसे भीतर चार इंजन हों लेकिन उनमें से फायर उतना ही करेंगे जितनों की ज़रूरत होती है। जितना बड़ा काम उठाओगे न भीतर ऊर्जा उतनी ही खुलेगी। जब काम बड़ा उठाया ही नहीं जीवन में तो छोटी–मोटी कम ऊर्जा भी रहती है तो चल जाता है। उसमें नुक़सान नहीं है कि छोटे काम के लिए कम ऊर्जा से काम चल गया है। नुक़सान यह होता है कि लगातार छोटे ही काम करते जाओ और लगातार कम ऊर्जा से ही काम चलाते जाओ तो एक बिंदु के बाद ख़ुद को ही ऐसा लगने लगता है जैसे कि हमारे पास तो बस इतनी ही ऊर्जा है। हमें भरोसा आ जाता है कि हम इससे बड़ा कुछ कर ही नहीं सकते क्योंकि हमारे पास इससे ज़्यादाऊर्जा है ही नहीं। इतना ही नहीं फिर कोई अगर बड़ा काम हमारे सामने आ भी जाता है तो हम उसे मना कर देते हैं यह कहकर कि इतनी तो हमारी सामर्थ्य ही नहीं है।

और इसी उदाहरण को और आगे बढ़ा लो तो ऐसा भी हो सकता है कि एक ही बर्नर जलाया है अगर दो साल से बाक़ी तीन कभी जले ही नहीं तो वो जो बाक़ी तीन है वह क्या हो जाएँगे? वह जाम हो जाएँगे। फिर अगर कभी अकस्मात ज़रूरत आ गयी और तुम चाहो कि इनको झट से जला दें तो वो जलेंगे भी नहीं। और जब जलेंगे ही नहीं तो हमें भरोसा और पक्का हो जाएगा कि मेरे पास तो एक ही बर्नर है और मैं ज़िंदगी में छोटा ही काम कर सकता हूँ। इसीलिए अपनेआप को चुनौतियाँ देना ज़रूरी होता है।

अपनेआप को चुनौतियाँ दोगे तो ही भीतर ऊर्जा के जो बंद डब्बे पड़े हुए हैं वो खुलेंगे। जैसे भीतर कई कमरे हों और उनके दरवाज़े बंद हैं और उन सब के भीतर क्या है? बहुत सारी ऊर्जा हैऔर बहुत सारी सम्भावना है। पर वह दरवाज़े खुलते इसी शर्त पर है कि पहले दिखाओ कि क्या वाकई ज़रूरत है? ज़रूरत होती है तो दरवाज़े खुलते हैं।

मैं जो यह बार-बार बोलता रहता हूँ कि जीवन में ऊँचा और बड़ा लक्ष्य उठाओ। वह इसलिए नहीं बोलता हूँ कि बाहर कोई बहुत ज़रूरी और बड़ा काम है और उसको करना आवश्यक है तो करके दिखाओ नहीं तो वह काम अधूरा रह जाएगा। मैं बाहर के बड़े लक्ष्य की बात इसीलिए करता हूँ क्योंकि बाहर का बड़ा लक्ष्य उठाओगे तो भीतर से बड़े हो जाओगे। जो बाहर चुनौती उठाता है वह भीतर से कुछ बन जाता है। नहीं तो बाहर की दुनिया तो कौन सा बहुत महत्व रखती है? जीना तो हमें अपने साथ है न|

आप जाते हो कसरत करने। आप लोहा उठाते हो। आपको लोहे से कोई दुश्मनी है? आप कुछ लोहे के साथ नया निर्माण कर देते हो? आप लोहे को पचास बार उठाते हो पचास बार नीचे रखते हो यही तो करते हो कसरत के नाम पर|उठाया-रखा। तो लोहा बदल गया उससे? जिम में कोई नवनिर्माण हो जाता है? अभी तुमने कसरत करी है लोहे का आकार बदल जाता है? लोहा सोना हो जाता है? कुछ भी हो जाता है? लोहे के साथ तो कुछ भी नहीं किया पर लोहे के साथ जो किया उसे अपने साथ बहुत कुछ कर लिया। लोहा नहीं बदला आप बदल गये। लोहा बदलता है? लोहा नहीं बदला लेकिन लोहे के साथ जो कुश्ती करी उसने आपको बदल दिया।

तो यह तर्क मत देना कि अपनेआप को कि अभी ढूँढ रहे हैं कौन सा काम करना है, यह है, वो है। या कि फ़लाना काम कर लिया तो मुझे क्या मिलेगा। या कि यह काम जो बाहर वाला है इससे उलझ भी लूँ तो भी बहुत आगे जा नहीं सकता क्योंकि बहुत बड़ा काम है।

काम की बात नहीं है, आपकी बात है। और वेदान्त में मूल प्रश्न क्या होता है? मैं कौन हूँ? मेरी समस्याओं का अन्त कैसे होगा?

रोज़ एक पहाड़ पर कुछ दूर चढ़ो कुछ दूर उतरो, दौड़ो, ऊपर जाओ थोड़ा फ़िर थोड़ा नीचे आओ। उससे पहाड़ का कुछ बन जाएगा या बिगड़ जाएगा? पहाड़ जैसा है वैसा रहेगा। तो यह तर्क मत दे देना कि अरे! इतने बड़े पहाड़ के सामने मैं तो बहुत छोटा हूँ। इतना बड़ा पहाड़ है मैं तो बहुत छोटा हूँ। मैं कभी भी इसके शिखर तक पहुँच ही नहीं सकता। बात पहाड़ के शिखर परक पहुँचने की है ही नहीं। इसीलिए मैं कहता हूँ, ‘काम वो उठाओ जो ज़िंदगी भर पूरा न हो।‘ अनंत होना चाहिए काम। बात यह नहीं है कि पहाड़ के शिखर पर पहुँच गये और काम पूरा कर लिया| बात यह है कि शिखर तक पहुँचने की चेष्टा में तुम क्या बन गये। तुम क्या बन गए।

अंग्रेज़ी की कविता है एक ‘इथाका’ उस पर बोला भी है मैंने अंग्रेजी में ही। बड़ी सुंदर कविता है। जिसमें जवान लोगों को सम्बोधित करके कवि कहता है कि इथाका नाम का एक द्वीप है। इथाका नाम की बहुत दूर की एक नगरी है। और कहते हैं कि वहाँ बड़ी सम्पदा है, बड़ा सौंदर्य है, ऐसा है, वैसा है। और इथाका को लेकर बड़ी कहानियाँ प्रचलित है कि जब तुम इथाका की ओर जाओगे तो तुमको रास्ते में फ़लाने तरह के दैत्य मिलेंगे, दानव मिलेंगे और तुम्हें उनका सामना करना है।

वही जैसे मिथक होते हैं न कि एक नगरी है जिसमें स्वर्ण का अकूत भंडार है और वहाँ एक राजकुमारी भी है और इस तरह की बातें और अगर तुम्हें वहाँ तक पहुँचना है तो तुम्हें बहुत सारी आपदाओं को पार करना पड़ेगा। इस तरह की कहानियाँ पढ़ी हैं नबचपन में तो ऐसे ही इथाका है एक। और कविता में कहा जा रहा है सब जवान लोगों से कि इथाका की ओर ज़रूर बढ़ो- ज़रूर बढ़ो- ज़रूर बढ़ो। बढ़ो इथाका की ओर और कविता के अन्त तक आते-आते कहा जाता है कि अगर खूब मेहनत कर लो इथाका तक पहुँचने में और इथाका तक पहुँच ना पाओ, या इथाका जाकर पता चले कि यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी बात की गयी थी और जिसके गीत गाये गये थे तो यह मत समझना कि तुम्हें धोखा हो गया| तुम्हें धोखा नहीं हो गया। इथाका में भले ही तुम्हें कुछ नहीं मिला लेकिन इथाका तक पहुँचने के प्रयत्न ने तुम्हें इन्सान बना दिया। और यही इथाका का उद्देश्य है।

इथाका ने तुम्हें धोखा नहीं दिया। इथाका ने तुम्हें निराश नहीं किया। इथाका झूठ नहीं है। भले ही उसके बारे में तुमने जो कुछ भी सुना हो वह अंततः झूठ निकले लेकिन फिर भी इथाका झूठ नहीं है क्योंकि बात यह नहीं है कि तुम इथाका तक पहुँचे या नहीं। बात यह है कि उस संघर्ष ने तुम्हें क्या बना दिया। वो संघर्ष ज़रूरी है। क्योंकि बात बाहर कुछ प्राप्त करने की नहीं है बात भीतर कुछ बन जाने की है। समझ रहे हैं।

प्र: आचार्य जी, इसी के सिलसिले में अगर पूछूँ कि जैसे सत्य की तरफ़ हम अग्रसर होते हैं या बड़े लक्ष्य की तरफ़ अग्रसर होते हैं तो पहले नहीं था लेकिन अभी हाल ही में जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे हैं एक डर सा रहता है जैसे कि ख़त्म हो जाएँगे या हस्ती मिट जाएगी। तो वो क्या अहंकार या माया की ही चाल है?

आचार्य: हम अपनी चापलूसी कर रहे हैं अपनेआप को यह बोलकर कि हम मिट जाएँगे। मिटना बड़भागियों का काम होता है। मिटना सूरमाओं का काम होता है। हमने अभी ऐसा करा क्या है कि हम मिट जाएँगे। मिटना तो ऊँचे से ऊँचा सम्मान होता है। मिटना तो ऐसे होता है जैसे आपको भारत–रत्न मिल गया हो या परमवीर चक्र मिल गया हो।

मैं कहूँ कि आज मुझे न रात में सपना आया था और मुझे बड़ा डर लग रहा है कि मुझे परमवीर चक्र मिलने वाला है। भाई! तुमने ऐसा करा क्या है कि तुम्हें परमवीर चक्र मिलने वाला है? तुम तो ख़ुद को फ्लैटर कर रहे हो बस यह बोलकर कि अरे! कहीं मुझे परमवीर चक्र न मिल जाए। तुम्हें क्यों मिल जाएगा? एक उपनिषद् पढ़ लिया तो मिट जाओगे? इतना आसान है मिट जाना? इतना आसान है?

इतना आसान होता मिट जाना तो मैं तो पाँच सौ दफ़े मिट चुका होता। हम ऐसे कह रहे हैं जैसे मुक्ति बिलकुल प्यासी बैठी है हमारे लिए। हम मुक्ति के प्यासे हों न हों मुक्ति हमारे लिए प्यासी है। एक डायन टाइप (जैसी) है और वह डंडा लेकर हमारा पीछा कर रही है और कभी भी हमें पकड़ सकती है। अरे, कहीं मुक्ति न मिल जाए! सतर्क रहना कि कहीं मुक्ति आकर तुम्हें मिटा न दे। ऐसे नहीं मिल जाती। जब पूरी ज़िंदगी भी दे देते हो तो भी नहीं मिलती। आपको क्यों लग रहा है आप मिट जाओगे? मिटाने के लिए अथक प्रयत्न कर ले व्यक्ति तो भी नहीं मिटता। आप कैसे मिट जाओगे? हँसी खेल है कि मिट जाओगे? पर यह अहंकार की चाल है अपनेआप को बताने के लिए कि मैं तो कुछ हूँ। मैं तो कुछ हूँ।

जैसे कोई भिखारी अपने दरवाज़े पर इतना मोटा ताला देता हो। कहीं लुट न जाऊँ! और यह तब है जब दरवाज़े में एक ही पल्ला है। और खिड़कियाँ नदारद हैं। पर उसको भयंकर डर लगता है। वो पसीने-पसीने हो जाता है। टांगे कापने लगतीं हैं। मनोचिकित्सक के चक्कर लगाता है, भीख माँग कर। मुझे बहुत डर है कहीं कोई आकर के मेरी सारी सम्पदा लूट न ले! तुम्हारे पास है क्या अभी?

लेकिन यदि इस डर को प्रश्रय देते रहे कि कहीं मैं मिट ना जाऊँ तो मिटने की वास्तविक दिशा में एक क़दम भी नहीं बढ़ाओगे। हमने अपनेआप को बता दिया है कि हम कुछ हैं। और मुक्ति के निशाने पर हैं हम। यह स्वयं को बहुत सम्मान दे देने वाली बात है न? मैं इतनी बड़ी चीज़ हूँ कि मुक्ति की रेडलिस्ट में मेरा नाम आ गया है। हिटलिस्ट में मैं तीसरे नंबर पर हूँ, ऊपर से तीसरा स्थान है मेरा और जल्दी ही वह मुझे मिटाने के लिए आ जाएगी। हम कहीं नहीं हैं हमारा नंबर कहीं नहीं लगता। वी डोन्ट काउंट यह बात हमें नहीं समझ आती।

कोई नहीं आतुर है आपको मिटाने के लिए। संसार बना है आपको बनाए रखने के लिए। मैंने कहा मिटना बड़भागियों का काम है। बड़ा भारी सौभाग्य चाहिए। बड़ी ऊर्जा चाहिए। बहुत श्रम चाहिए। औरयह सब कर लो तो उसके बाद भी अज्ञात की बड़ी अनुकम्पा चाहिए तब जाकर के मिटने का काम थोड़ा बहुत होता है। और बहुत ज़ोर दे कर आपसे इसीलिए कह रहा हूँ क्योंकि यह बात आपकी नहीं है, यहाँ बैठे बहुत लोगों की है। कईयों इस तरह के अनुभव हुए हैं कि इस सभा में जाते हैं तो ऐसा सा लगता है कि जैसे कुछ छिना जा रहा है। वही, दरवाजे का एक पल्ला है नहीं और कुछ छिना जा रहा है। क्या छिन रहा? क्या लिए हो कि छिनेगा?

मार्क्स ने दुनिया भर के मजदूरों और किसानों को सम्बोधित करके कहा था ‘ यू हैव नथिंग टू लूस बट योर चेन्स’ वह अध्यात्म की बात नहीं थी पर अध्यात्म पर भी पूरी तरह लागू होती है। आपके पास अपनी बेड़ियों के अतिरिक्त खोने के लिए है क्या? बहुतों को यह डर है कहीं कुछ खो न जाए। कहीं कोई हमें लूट न ले। साज़िश! ज़रूर कहीं कोई साज़िश कर रहा है। यह आचार्य शंकर आदमी ठीक था क्या? कोई माफिया टाइप तो नहीं था? कहीं लम्बा- चौड़ा कार्यक्रम चलाया हो हम लोगों को लूटने के लिए? विवेक चूड़ामणि? दया, जरा पता लगाओ मामला क्या है! ज़रूर कोई ख़ूफ़िया राज़ है। मैं हूँ बादशाह आदमी। और यह जो पूरी किताब लिखी गयी है वो मुझे ही लूटने के लिए लिखी गयी है।

हमें नहीं पता न हम कितने पानी में हैं। हमने कहा था हमें दो चीज़े पता होनी चाहिए अपने बारे में। क्या–क्या? अपनी औकात और अपनी हालत। इनमें भी पहले क्या आता है? औकात। कुछ नहीं पता। एकदम नहीं पता ।

ऋषि लोग हम पर अनुग्रह करते हैं कि हमें कुछ बताते हैं। तो हमें लगता है कि षड्यंत्र किया जा रहा है। हमें भ्रमित किया जा रहा है। हमें मिसलीड तो नहीं कर रहे यह लोग? बरगला तो नहीं रहे कहीं? मुझे लग रहा है कि हमारी ज़ायदाद पर नज़र है इनकी।

ऐसे ही कईयों का रवैया रहता है, 'हाँ, हम सोचेंगे। सोचेंगे। हाँ, उन्होंने कह दिया है। हम देखेंगे।'

जैसे आप न्यायाधीश हों और सामने आकर वकीलों ने और गवाहों ने आपके सामने कुछ दलीलें रखीं हों और आप बड़ी शान से कह रहे हो कि हाँ विचार करेंगे। दो महीने बाद की तारीख़ दे रहे हैं। तब तक...

जैसे कि वह अपने स्वार्थ के लिए आपसे यह बात बोलते हों और आप कह रहे हो, ‘ठीक है। रख दो। हम देखेंगे कि हमें तुम्हें राहत देनी है या नहीं। हम देखेंगे तुम्हें ज़मानत देनी है या नहीं। हम कुछ हैं।‘

यह उपहार है। यह भेंट है। यह कृपा के फूल हैं।

हम किस ताव में खड़े हैं?

वो जो एक शब्द है न ‘प्रेम’। उसकी बड़ी कमी है। प्रेम हमारे लिए एक भावना मात्र है। कोई भावुक कर दे किसी तरीक़े से शारीरिक, मानसिक तरीक़े से तो उसको हम प्रेम मान लेते हैं। हमें नहीं समझ में आता कि प्रेम इसको कहते हैं। (उपनिषदों की ओर इशारा करते हुए)। यह जब सामने आता है तब हमारा चेहरा पत्थर की तरह रहता है। बिलकुल कठोर! संवेदना–शून्य! इतना सा भी हमें आभास नहीं होता कि कोई क्यों इतनी मेहनत करेगा तुम्हारे लिए? न तुम्हें जानता न पहचानता।

तुमसे शताब्दियों दूर का कोई। प्रेम हमारे लिए तब है जब कोई हमें चाय बनाकर दे दे, गले लग जाए, हमारे साथ बैठकर यूँही गॉसिप करे। यह सब हमारे लिए अच्छी चीज़ें हैं। बढ़िया हैं। यह हमें नहीं दिखायी देता कि यह (उपनिषद्) प्रेम है।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें