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लेख
उमरिया धोखे में बीत गयो रे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2017)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
8 मिनट
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पाँच बरस का भोला-भाला, बीस में जवान भयो। तीस बरस में माया के कारण, देश विदेश गयो।। उमर सब धोखे में खो दियो रे। चालिस बरस अन्त अब लागे, बाढ़ै मोह गयो। धन धाम पुत्र के कारण, निस दिन सोच भयो।। बरस पचास कमर भई टेढ़ी, सोचत खाट परयो। लड़का बहुरी बोलन लागे, बूढ़ा मर न गयो।। उमर सब धोखे में खो दियो रे। बरस साठ-सत्तर के भीतर, केश सफेद भयो, वात पित कफ घेर लियो है, नैनन निर बहो। न हरि भक्ति न साधो की संगत, न शुभ कर्म कियो। उमर सब धोखे में खो दियो रे।। कहै कबीर सुनो भाई साधो, चोला छुट गयो।।

~ संत कबीरदास

आचार्य प्रशांत: उमरिया, बड़ा लंबा अंतराल हो जाता है समय का, तो आदमी को छुपने का बहाना मिल जाता है। पहली बात तो उमरिया अभी बीती नहीं पूरी; दूसरी बात इतना लंबा है कि उसकी जाँच-पड़ताल कौन करे कि धोखा हुआ है कि नहीं।

उससे ज़्यादा अच्छा यह रहता है कि समय का छोटा सा खंड उठाइए और उसको देख लीजिए कि धोखे में बीता है कि नहीं बीता। दस मिनट, आधा घंटा, एक घंटा, आधा दिन — वहाँ ज़्यादा साफ़ हो जाता है कि धोखे में बीता कि नहीं बीता।

जो कुछ भी पूर्णता से करे जाने पर और बेहतर हो सकता था और ज़्यादा तृप्ति दे सकता था लेकिन, पूरे तरीक़े से नहीं किया गया; तृप्ति नहीं मिली, समझ लीजिए वहीं धोखे में अवसर गँवा दिया। ये भी हो सकता है कि भजन की तैयारी के वक़्त और डूबा जाता उसमें। नहीं हो सकता? ‘भजनवा धोखे में बीत गयो रे'। (आचार्य जी गाते हुए) गौरव नींद में घुल गयो रे। (गाकर व मुस्कुराकर श्रोता को संबोधित करते हुए)

उमर और क्या होती है? यही समय के जो छोटे-छोटे टुकड़े हैं, यही मिलकर उमर बन जाते हैं न। दो घंटे यहाँ गँवा दिये, दो घंटे वहाँ गँवा दिये; कुल मिलाकर पूरा जन्म गँवा दिया। दो घंटे यहाँ गँवाए, दो घंटे वहाँ गँवाए। अभी हम एक फ़िल्म देखने गए थे ‘जग्गा जासूस’। उसमें एक डायलॉग (संवाद) था, उसके बाद उसी पर हलका-फुलका गाना था — रोंगटे खड़े कर देने वाला था। वो सिर्फ़ इतना सा था गाना, एक लाइन थी उसमें। उसको बार-बार दोहरा रहे थे — ‘सारे खाना खाके, दारू पी के चले गए। सारे खाना खाके दारू पीके चले गए।‘

मतलब समझ रहे हैं इसका?

"उमरिया धोखे में बीत गयो रे। रे खाना खाके, दारू पी के चले गए रे।"

(पुनः भजन व गाने की पंक्ति को गाते हैं)

समझ रहे हैं?

खाना खाया पेट के लिए, दारू पी दिमाग के लिए और?

श्रोता: चले गए।

आचार्य: चले गए। सारे खाना खाकर , दारू पीकर?

श्रोता: चले गए।

आचार्य: सारे खाना खाके दारू पीकर चले गए। यही तो है।

(आचार्य जी मेज़ पर थाप देकर भजन गुनगुनाते हैं)

उमरिया धोखे में बीत गयो रे, उमरिया धोखे में बीत गयो रे। अरे! बसवा धोखे में छूट गयो रे। हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ। उमरिया धोखे में बीत गयो रे। माया धोखे में जीत गयो रे। माया धोखे से जीत गयो रे।

अब तीन दिन का कैंप है, एक दिन बीत गया। कुछ लोगो ने अभी तक मुँह ही नहीं खोला।

कैंपवा चुप्पी में बीत गयो रे, ओ कैंपवा चुप्पी में बीत गयो रे, कैंपवा चुप्पी में बीत गयो रे। हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ, हूँऽऽऽ।

ऐसे बीतती है उमरिया। उमरिया कुछ बोलकर थोड़ी बीतती है कि मैं उमरिया हूँ और मैं जा रही हूँ। ऐसे ही बीतती है। ग़ालिब का है, ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा। पर ऐसा है कि चार दिन लाए थे ज़िन्दगी के, दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में — ऐसे ही बीतती है।

तीन दिन का कैंप है, उसको धोखे में नहीं बिता देना है। जैसे तीन दिन की ज़िन्दगी होती है न, वैसे ही है। पर पता नहीं चलेगा विदाई हो जाएगी। सोते हमेशा हो; यहाँ ज़रा कम सो लो। इधर-उधर मन हमेशा भागता है; अभी ज़रा उसका भागना थोड़ा नियंत्रित कर लो।

अच्छा, आठ से दस तुम्हारा पेपर हो, आठ से दस पेपर है और दस ही बजे नींद खुले तो कैसा लगता है? कैसा लगता है? तो वैसे ही जब बहुत देर हो चुकी हो और होश आये तो कैसा लगेगा? कैसा लगेगा?

श्रोता: कुछ लगने का बचेगा नहीं, सर!

आचार्य: पर लगेगा बहुत ज़ोर का। आह! लगा! बचेगा तो कुछ नहीं, पर लगेगा बहुत ज़ोर का। कौन-कौन चाहता है कि ऐसा हो उसके साथ कि जब समय पूरा बीत चुका हो तब पता चले कि अरे! बर्बाद हो गए!

श्रोता: ओह माय गॉड! (हे भगवान!) एग्ज़ाम (परीक्षा) छूट गया और एग्ज़ाम तो छूट ही गया इससे अच्छा सो ही लेते है। सिर्फ़ पाँच मिनट के लिए अफ़सोस होता है।

आचार्य: जो आपको प्यारा हो उसका देख लीजिए। एग्जाम आपको नहीं प्यारा, कुछ और प्यारा होगा। ऐसा कोई नहीं होता जिसे ज़िन्दगी नहीं प्यारी हो। और प्रमाण उसका यह है कि जैसे ज़िन्दगी छिनने की ज़रा सी बात उठती है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं, इधर-उधर भागने लग जाते हैं, छुपने लग जाते हैं। एग्ज़ाम नहीं प्यारा है, ज़िन्दगी तो प्यारी है। कोई है ऐसा जिसको ज़िन्दगी न प्यारी हो?

और ज़िन्दगी के आख़िरी पड़ाव पर आकर पता चले कि पूरी ज़िन्दगी बिलकुल बर्बाद कर ली है, तो कैसा लगेगा? और धोखे में ही रहे आये, सोचते रहे, ‘वाह-वाह, वाह, सब ठीक-ठाक चल रहा है। इसी को तो जीवन कहते हैं।' और फिर धीरे-धीरे पता लगना शुरू हो, भेद खुलना शुरू हो। क्या? 'उमरिया धोखे में बीत गयो रे'। तो कैसा लगेगा?

कुछ-कुछ वैसा लग रहा है अभी, अर्चना? (एक श्रोता को संबोधित करते हुए) एक-एक पल जिसको गँवा रहे हो उसको सौ प्रतिशत निचोड़े बिना इसी को कहते हैं, 'उमरिया को धोखे में गँवा देना।' कितने मौके, कितने कैंप, कितने दिन, कितने गीत, जो अन-जिये, अन-गाये गुज़र गये। ये लौटकर थोड़े ही आएँगे।

आगे फिर कुछ और आता है। आगे आते हैं क्या? हिलते दाँत, सफेद बाल, घर्घराती आवाज़, मौत की आहट। किसी की उम्र पेंतालिस से पैंतीस होते देखी है? पैंतालिस से तो पचपन ही होती है। किसी के बिलकुल सफेद बाल, काले होते देखे हैं? हाँ, डाई लगाकर।

जैसे किसी को गाड़ी चलाते झपकी आ गयी हो और एक्सीडेंट से ठीक आधे सेकेंड पहले उसकी नींद खुले। क्या होगा? कैसा लगेगा? वो आधा सेकेंड कैसा होता है? कैसा होता है? आधे सेकेंड पहले नींद खुल भी गयी और आपको पता है और आप कुछ कर नहीं सकते। ट्रक ठीक सामने है, आप अस्सी पर हो, ट्रक सौ पर है; कुछ कर नहीं सकते और नींद भी खुल गयी है। अब? जब कुछ कर सकते हैं तब आप?

श्रोता: गहरी नींद में हैं।

आचार्य: बहुत नींद आती है, बहुत नींद आती है। मौत सारी नींदें खोल जाती है, लेकिन बहुत देर होने के…?

श्रोता: बाद।

आचार्य: कहानियाँ हैं जो कहती हैं कि ज़्यादातर लोगों को मौत के क्षण में पता चल जाता है कि ज़िन्दगी बर्बाद करी उन्होंने। और यही कारण है कि फिर उनका पुनर्जन्म होता है, ताकि दूसरा जन्म बर्बाद न करें।

तो आप ज़िन्दगी भर अपनेआप से कितना भी झूठ बोल लो कि नहीं मेरा तो जीवन बहुत अच्छा चल रहा है, मैं तो बहुत मस्त हूँ, बड़ा प्रसन्न हूँ। मौत के क्षण में राज़ खुल ही जाता है, पर्दाफ़ाश हो जाता है, पता चल जाता है कि उमरिया धोखे में बीत गयो रे।

इसीलिए कहते हैं कि मरता आदमी कभी अपनी मौत देखता नहीं है। उसे इतनी ज़ोर का झटका लगता है अपने व्यर्थ गये जीवन का कि वो मरते-मरते बेहोश हो जाता है। होश में कोई नहीं मरता। मरने से थोड़ी देर पहले, सब बेहोश हो जाते हैं, इतनी ज़ोर का झटका लगता है।

अब ये सब बताने के तरीक़े हैं। पर क्या बताया जा रहा है इशारा समझिए। एक-एक पल जो आपने जीवन का व्यर्थ गुज़ारा होता है, वो लौटकर के आता है उस समय और सवाल पूछता है कि मुझे बर्बाद क्यों किया? ये मौका चूके क्यों? ये पल व्यर्थ क्यों जाने दिया? क्यों सोते रहे? क्यों मेहनत नहीं करी? क्यों होश में नहीं रहे?

'उमरिया धोखे में बीत गयो रे' (आचार्य जी पुनः गुनगुनाते हैं)

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