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लेख
उदासी में क्यों जिए जा रहे हो? || नीम लड्डू
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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एक ज़िंदगी है, दबे-दबे जीने में क्या मज़ा है भाई? तुम किस चीज़ को सुरक्षित कर रहे हो? जीवन माने समय ही तो होता है न? डरे-डरे समय बिता रहे हो, तो तुमने सुरक्षित किस चीज़ को रख लिया है? समय डर में बिता दिया तो तुमने बचा क्या लिया? कल के लिए कुछ बचा रहे हो, कल फिर डरे हुए ही रहोगे। और जल्दी ही वो कल आ जाएगा जब डरने के लिए भी नहीं रहोगे, तो बचा क्या रहे हो? कब के लिए? किस के लिए?

सूना उदास चेहरा, किस आशा में? क्या सौदा किया है? क्या पाना चाहते हो? कब पाओगे? जो समय गँवाता जा रहा है उदासी में, उससे ज़्यादा नुकसान कोई कर रहा है अपना? धन मिल सकता है आगे, पचासों चीज़ें और मिल सकती हैं आगे, जो समय बीत गया आज, वो मिल सकता है आगे?

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