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लेख
त्योहारों को मनाने का सही तरीका क्या?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांतः मीनाक्षी का सवाल है, "आचार्य जी प्रणाम! त्योहार दिखावे से लगते हैं। परिवारों में इन त्योहारों पर बहुत पैसा और समय नष्ट होते देखा है। पुराने रीति-रिवाजों का साथ देना और उन पर चलना क्या सही है, गुरु जी?"

नहीं मीनाक्षी, बिलकुल भी आवश्यक नहीं है कि जो रूढ़ि-परिपाटी से होता आया है तुम उसका अनुगमन करती ही रहो। जिस तरीके से दुनिया त्योहार मनाती हैं, जिस तरीके से उन पर समय, सामग्री, संसाधन, पैसा, खर्च करती है, आवश्यक नहीं है कि तुम उसमें सहभागी बनो।

लेकिन ये भी समझना है कि त्योहारों का वास्तविक अर्थ क्या है। हम थोड़े विचित्र लोग होते हैं। जीव का संविधान ही विचित्र है। मन सिर्फ़ आनन्द नहीं चाहता, मन सिर्फ़ शुभता नहीं चाहता, मन इस बात की उद्घोषणा भी चाहता है कि आनन्द है, और शुभता है। और अगर मन को कोई बताने वाला न मिले कि सब भला, सब शुभ, सब अच्छा है तो मन को ऐसा लगने लग जाता है कि कहीं कोई कमी है, कोई खोट है।

इसलिए ज़रूरी इतना ही भर नहीं होता कि सब अच्छा-ही-अच्छा हो, ज़रूरी ये भी होता है कि जो अच्छा है, उसे घोषित किया जाए। जो अच्छा है, उसे सार्वजनिक रुप से प्रकट किया जाए। इसलिए त्योहार आवश्यक है।

इसीलिए आवश्यक हो जाता है कि प्रार्थना में भी परमात्मा के प्रति, गुरुओं के प्रति अहो भाव व्यक्त किया जाए। पाना ही काफ़ी नहीं होता, स्वीकार भी करना पड़ता है कि, "मैंने पाया है!" नहीं तो बहुत संभावना होती है कि तुम स्वीकार नहीं करोगे कि तुमने पाया है, इसीलिए तुमने जो पाया वो मिलकर भी तुम्हें उपलब्ध ना रहे। गौर से देखो तो मिला तो सब ही को हुआ है न? जो कीमती है, जो केंद्रीय है, मिला तो सब ही को हुआ है। लेकिन फिर भी लोग लुटे-पिटे और वंचित से क्यों घूमते हैं? क्योंकि पाना ही काफ़ी नहीं होता, मानना भी तो पड़ता है कि, "मैंने पाया है!" मन को वास्तव में पाने से कम प्रयोजन है और ये मानने से ज़्यादा प्रयोजन है कि, "मुझे मिला।" त्योहार इसलिए है ताकि तुम ज़ोर-ज़ोर से ढोल बजाकर गा सको कि, "मुझे मिला!"

तो मैं दोनों बातें कर रहा हूँ। मैं एक तरफ तो ये कह रहा हूँ कि जिस तरीके से त्योहारों के नाम पर उपद्रव होता है उससे बचो। बिलकुल बचो! दूसरी ओर मैं ये भी कह रहा हूँ कि त्योहार अति आवश्यक हैं। त्योहार वैसे बिलकुल मत मनाओ, जैसे लोग मना रहे हैं, लेकिन त्योहार ज़रूर मनाओ।

होली का वास्तविक अर्थ जानो, दीवाली का वास्तविक अर्थ जानो, जानो कि ईद माने क्या। और उन अवसरों को उनके सच्चे अर्थ के साथ मनाओ। इतना ही नहीं, मैं तो कह रहा हूँ कि तुम्हारे अपने निजी उत्सव भी होने चाहिए।

आवश्यक थोड़े ही है कि तुम समाज स्वीकृत उत्सवों तक ही अपने आप को सीमित रखो। ये बात तो तुम्हारी निजी भी है न। भीतर कृतज्ञता उठी, उपकृत अनुभव कर रहे हो, वो त्योहार हो गया तुम्हारे लिए। कैलेंडर देखने की ज़रूरत थोड़े ही है। बस कह दो, "आज त्योहार है मेरा, आज कुछ खास है। आज दिल बिलकुल अहो-भाव से भरा हुआ है। शुक्रिया अदा करना है। आज त्योहार मनाएँगे, आज कुछ खास है।"

लोग विस्मित होंगे – “अरे! आज तो सोलह अप्रैल, आज तो कुछ है नहीं!”

तुम कहो, “आज है। आज हमारी निजी दीवाली है। कहाँ है दीप? लाओ!“

और आवश्यक नहीं है कि तुम दीप ही जलाओ; तुम्हारा जैसे मन करे, वैसे उत्सव मनाओ। उत्सव आवश्यक है। ज्ञापन आवश्यक है। ज्ञापन समझते हो? प्रकाशन, ज़ाहिर करना।

कृतज्ञता ज्ञापित करना बहुत ज़रूरी है, मुँह से बोलना बहुत ज़रूरी है। ये नहीं कि मन-ही-मन कह रहे हैं कि, "हाँ, मिला तो है थोड़ा-बहुत!" कई बार मन-ही-मन भी नहीं कह रहे।

पहली बात तो मन स्वीकार करे और दूसरी बात लफ़्जों में भी अभिव्यक्ति होने चाहिए। साफ-साफ खुल कर बोलो। शिकायत खुलकर करते हो या नहीं? शिकायत करने के समय तो लफ़्जों की गंगा बहा देते हो। "ये बुरा और वो बुरा!"

त्योहार चाहिए ताकि कभी-कभार ही सही तुम इन्हीं लफ़्जों से धन्यवाद भी तो बोल सको।

ये तो तुम कभी करते नहीं। शिकायत इतनी की, कभी शुक्रिया भी अदा करा?

तो बस! चेहरे पर शिकायतें-ही-शिकायतें लिखी रहतीं हैं। जैसे छोटे बच्चों की कॉपी में पंक्तियाँ होती हैं न, वैसे ही फिर हमारे चेहरे पर झुर्रियाँ होती हैं।

छोटे बच्चे भी लिखते हैं, हमारी झुर्रियों में भी लिखा होता है, क्या? शिकायतें।

खुल कर गाओ, खुल कर बोलो। नाच-नाच कर शुक्रिया अदा करो। त्योहार आवश्यक है। और अगर तुम रोज़ ही उत्सव मना सको तो फिर बात ही क्या है, वाह!

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