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लेख
तुम्हारे ही केंद्र का नाम है गुरु || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो मिलाय।।

~ संत कबीर

प्रश्नकर्ता: गुरु और गोविंद में क्या फ़र्क कहा गया है और उससे क्या अभिप्राय है? क्या यह कहा जा रहा है कि गुरु और गोविंद दोनों हैं, तो पहले गुरु के चरण स्पर्श किए जाएँगे और फिर गोविंद के? बात अबूझ सी लगती है। कृपया समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: गुरु कौन है, इस पर जो कह दिया है कबीर ने इससे आगे कुछ बात कही नहीं जा सकती-’गोबिंद दियो मिलाय’।

जो गोविंद से मिला दे, सो गुरु।

निश्चित सी बात है कि जब हम अपने-आप को संसारी, देह, तन, मन मानते हैं तो यह मिलाने वाला भी कोई ऐसा होना चाहिए जो संसार का ही हो, और मिलाने वाला मिला सके इसके लिए यह भी अनिवार्यता है कि वो उसको भी जानता हो जिससे मिलाने ले जा रहा है।

गुरु की पहचान यही है कि वो एक छोर पर तो बिलकुल आपके जैसा है, इसी संसार का है, आपके जैसा दिखता है, शरीर है, पदार्थ है, चलता है, फिरता है, कहता है, सोचता है; आप उससे पहचान बना सकते हो, गले मिल सकते हो, दोस्ती कर सकते हो, वो आपकी भाषा समझता है, बात करो, संवाद करो और दूसरे छोर पर वो कहीं ऐसी जगह है जो अभी आपके लिए अनजानी है, दूसरे छोर पर वो कभी किसी ऐसे देश का निवासी है जहाँ आप कभी गए नहीं। वो आपके निकट भी है और आपसे बहुत दूर भी।

निकट ना हो तो मन को भरोसा ना आएगा। मन है ही ऐसा, वो कैसे ऐसे का भरोसा करे जो उसके जैसा नहीं। तो गुरु का आपके जैसा होना बहुत ज़रूरी है, वरना मन भरोसा नहीं करेगा। भरोसा छोड़िए, मन हो सकता है उसके अस्तित्व से ही इन्कार कर दे। सर्वश्रेष्ठ और प्रथम गुरु आत्मा है, पर मन कहाँ उसे गुरु मानता है? मन उसके होने से ही इन्कार कर देगा, मन कहेगा, "वो है ही नहीं"। इसलिए संसारी, शरीरी गुरु का महत्त्व होता है।

आप गुरु पर यकीन कर सकते हो, कभी वो आपको बहुत जाना-पहचाना सा लगेगा, कभी अनजाना सा, और यह दोनों अलग-अलग घटनाएँ नहीं होंगी, एक साथ होंगी।

जब वो बहुत परिचित लगेगा तब भी उसके होने में एक अपरिचय होगा, पर वो अपरिचय आपको भयक्रांत नहीं करेगा, वो अपरिचय आपको आमंत्रण देगा।

गुरु के होने में, उसकी सत्ता में, उसके अस्तित्व में आपको बहुत कुछ पहेली की तरह लगेगा, आपको समझ नहीं आएगा। लेकिन जो कुछ समझ में नहीं आएगा, वो समझ में ना आते हुए भी मुग्ध सा करेगा, खींचेगा। आप कहोगे समझ में नहीं आ रहा, क्या है इन बातों में, इन आँखों में, समझ में नहीं आ रहा कि जो किया जा रहा है वो क्यों किया जा रहा है, पर फिर भी अच्छा सा लग रहा है। मन चेतावनी दे रहा है कि बात बेबूझ है, पहेली सी है, ख़तरा है, पर मन की सारी चेतावनियों के बाद भी मैं खिंचा-सा चला जा रहा हूँ।

याद रखिएगा–गुरु के दो सिरे, आपके दो सिरों के समकक्ष हैं, समानांतर हैं। जैसे आप दो हो न, वैसे ही गुरु को दो होना पड़ता है, अंतर बस इतना है कि आप जो अपने-आप को दो माने बैठे हो उसमें एक से तो पूरी तरह अनभिज्ञ हो, और गुरु दोनों के प्रति जगा हुआ है। द्वैत में आप भी हो, द्वैत में गुरु भी है पर गुरु द्वैत के अलावा किसी और बिंदु को भी जानता है।

‘बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो मिलाय’–ये सदा का प्रश्न रहा है कि यदि गुरु और गोविंद दोनों खड़े हैं तो क्या गुरु के चरण स्पर्श किए जाएँगे? और किसके करोगे? गुरु के होने का अर्थ ही यही है कि अभी तुम अपने-आप को शरीर समझते हो और अभी संसार कायम है तुम्हारे लिए। कि दो हैं, कौन दो? तुम और गुरु। जब तक दो हैं, तब तक उस दूसरे की उपासना करनी ही पड़ेगी जो दो से एक कर दे।

‘गोबिंद दियो मिलाय’ गोविंद से मिल जाने के बाद कौन चरणस्पर्श करेगा और किसका करेगा? जो गोविंद से मिल गया वो तो गोविंद ही हो गया। ‘ब्रह्मा विद् ब्रह्मेव भवति’। तो अब कौन किसका चरणस्पर्श करेगा?

आत्मपूजा उपनिषद कर रहे थे, बात साफ़ निकल कर आ रही थी, अपने से बाहर कुछ उपास्य है ही नहीं। दत्तात्रेय अवधूत गीता में बार-बार गाते हैं, कि ‘पूजा करूँ तो किसकी करूँ?’ कबीर कहते हैं, ‘मैं मेरो आधार’, जब मैं अपना आधार हूँ तो मैं किसके पास और जाकर अनुग्रह व्यक्त करूँ? यह गोविंद के मिल जाने की स्थिति है, इतना करीब आए, इतना करीब आए कि अब दो हैं ही नहीं। पाँव छूने के लिए दो तो चाहिए।

गुरु तब तक, जब तक दो हैं। इससे आपके इस प्रश्न का भी उत्तर मिलना चाहिए जो आप अक्सर पूछते हैं कि गुरु क्या, गुरु कब तक? जब तक ‘आप’ हैं, तब तक गुरु की भी आवश्यकता है। जिस दिन आप रहे ही नहीं और गोविंद हो गए उस दिन ना आप बचेंगे ना गुरु बचेगा। गुरु वो जो हाथ पकड़ कर आपका, आपको गोविंद तक ले जाए और उसके बाद स्वयं भी गोविंद में समा जाए और आप भी समा जाएँ। अब ना गुरु है, ना आप हैं, गोविंद ही गोविंद हैं, उसी का नाच है। अब आपको यह भी नहीं कहना है कि ‘मैं गोविंद की बलिहारी’। गोविंद ख़ुद कहेंगे क्या कि ‘मैं एहसान-मंद हूँ अपने प्रति’? पर सावधान रहिएगा, यह बातें सिर्फ़ कहने की और कल्पना करने की नहीं हैं कि आप कल्पना करके बैठ गए कि ‘मैं तो गोविंद हूँ, अब मुझे किसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी है’। यह बात कहीं अहंकार के हाथों में ना पड़ जाए कि ‘हम तो गोविंद हैं, हमें क्यों किसी की सुननी, हमें क्यों किसी के सामने झुकना?’ जब तक आप हैं और ‘इसी-किसी’ की भाषा में बात कर रहे हैं, तब तक तो अभी गोविंद बहुत दूर हैं।

‘गुरु गोबिंद दोउ खड़े, काके लागूँ पाय’।

दो खड़े कहाँ से होंगे, गुरु और गोविंद? गोविंद दिखाई पड़ेगा खड़ा भी हो सामने तो? और गोविंद के अलावा कभी सामने, आगे, पीछे, दाएँ, बाएँ, भीतर कोई खड़ा हुआ नहीं, दिखाई पड़ा है कभी? और दिखता होता तो बोल पाते क्या कि गुरु और गोविंद दो अलग-अलग खड़े हैं, जहाँ गोविंद है वहाँ दो, और तीन और पाँच होते हैं क्या?

तो गुरु और गोविंद दोनों खड़े हों तो भी आपकी आँखों को वही दिखेगा जो आपकी आँखें देखने की अभ्यस्त हैं, शरीर और पदार्थ। तो चुनाव का विकल्प भी नहीं है आपके पास, दोनों खड़े हों गुरु और गोविंद, तो यह ना सोचिएगा कि आपके पास तीन विकल्प हैं, कि गुरु के पाँव छुओ, कि गोविंद के पाँव छुओ, कि किसी के पाँव ना छुओ, या दोनों के ही छू डालो। आपके पास विकल्प मात्र इतने ही हैं कि गुरु गोविंद दोनों खड़े हैं तो या तो गुरु के पाँव छुऊँ या ना छुऊँ, गोविंद कहीं प्रश्न में आते ही नहीं। गोविंद को तो गोविंद ही देख पाएगा। आप कहाँ गोविंद को देख पाओगे।

इसलिए कोई यह कभी कहे ना कि, "मुझे कोई शरीरी गुरु की ज़रुरत नहीं क्योंकि आत्मा ही प्रथम गुरु है और मेरे पास आत्मा तो है ही। अरे! आत्मा सबमें विद्यमान है, मेरे पास भी आत्मा है।" आत्मा, आत्मा को ही नज़र आती है।

तुम समूची देह, तुम क्या बात करते हो कि, "हम आत्मा के मार्गदर्शन में चलेंगे।" आत्मा, आत्मा के लिए है। ढोंग ना करो, ये पाखंड हो जाएगा। मैंने तुमसे पहले भी कहा है कि बुद्ध का कथन कि ‘अपने दीप स्वयं बनो’, यह अहंकार से नहीं कहा गया था। ये तुमसे कहा ही नहीं गया था। अँधेरे से कहा जाएगा कि ‘दीपक बन जाओ’? तुमसे तो हद-से-हद इतना कहा जा सकता है कि ‘मिट जाओ’। कोई रसायन नहीं है दुनिया में, कोई विधि नहीं है जो अँधेरे को रौशनी बना दे, कोई विधि नहीं है। कोई विधि नहीं है दुनिया में जो सपने को सत्य बना दे, और कोई तरीका नहीं है कि तुम यह दावा कर सको कि आत्मा तुम्हारे भीतर है। तुम कुछ कर लो, तुम्हारे भीतर आत्मा नहीं आएगी, सपने के भीतर सत्य थोड़े ही आ जाएगा। और इंसान का इस से बड़ा दुस्साहस नहीं हो सकता कि उसने कह दिया है कि ‘मेरे भीतर आत्मा है’, तुम्हारे भीतर आत्मा नहीं है। है आत्मा प्रथम गुरु, पर आत्मा तुम्हारे भीतर नहीं है। हाँ, तुम मिटो तो अपने को आत्मा के भीतर ज़रूर पाओगे, आत्मा-ही-आत्मा पाओगे। पर अहंकार का इससे ज़्यादा दुस्साहसी, अनर्गल और विक्षिप्त वक्तव्य हो नहीं सकता कि ‘मेरे पास आत्मा है और आत्मा प्रथम गुरु है, तो मैं आप अपना गुरु हूँ’।

(व्यंग्यात्मक लहजे में) तुम्हारे पास आत्मा है! बादल के पास आकाश है! अज्ञान के भीतर बोध है!

गुरु का एक छोर पर अँधेरे जैसा दिखना बहुत ज़रूरी है। गुरु का एक छोर पर अज्ञानी सा होना बहुत ज़रूरी है। बहुत ज़रूरी है कि उसमें कुछ कमियाँ और कमजोरियाँ नज़र आएँ। बहुत ज़रूरी है कि उसकी सीमाएँ साफ़-साफ़ दिखाई दें, अन्यथा उससे जुड़ नहीं पाओगे, घबरा से जाओगे। तुम्हारी दृष्टि से देखें तो वास्तव में गुरु एक धोखा ही है। लगा था तुम्हारे जैसा पर चक्कर कुछ और चल गया। क्या सोच कर आए थे, क्या हो गया; ब्याज कमाने आए थे, मूल भी गँवा दिया।

गुरु का अर्थ ही है बड़े-से-बड़ा धोखा, अहंकार की नज़र में।

अहंकार किसी ऐसे के पास तो जाएगा नहीं जो पहले ही कह रहा हो कि ‘आ, तुझे काटूँगा’। वो तो अपने को बढ़ाने की फिराक में ही जाएगा। वो तो पाँव भी छूता है तो इसलिए नहीं छूता है कि गुरु गोविंद से मिला देगा, बात मज़ेदार है; वो तो पाँव भी इसलिए छूता है कि कुछ और मिल रहा है, उस बेचारे को पता भी नहीं कि क्या मिल रहा है और क्या छिन रहा है। फिर तुम पाँव छुओ तो भीतर-ही-भीतर गुरु मुस्कुराता है, कहता है "पगले, बात वो है ही नहीं जो तू समझ रहा है।"

तुम जाकर उसे कुछ दोगे, भेंट, भारत में गुरुदक्षिणा का प्रचलन रहा है, गुरु हँसता है, उसे भीतर-ही-भीतर पता है, कहता है, "अपनी ही सुपारी देने आए हो? अपनी ही मौत का इंतज़ाम कर रहे हो और हाथ जोड़कर धन्यवाद भी व्यक्त कर रहे हो? तुममें इतनी समझ होती कि समझ पाते कि पूरा खेल क्या है, तो उसी समझ के सहारे तुम ख़ुद ही न तर जाते? काहे का गुरु और काहे का गोविंद, तुम यूँ ही तर गए होते।" ये पूरा खेल तो तुम्हें बहुत बाद में समझ आएगा और जब तक समझ में आएगा बहुत देर हो चुकी होगी। कबीर कहते हैं–"अब मुड़-मुड़ के ना देखो अब घर बहुत पीछे छूट गया है"। अब मैदान में आ गए अब तो लड़ना पड़ेगा, अब नहीं लौट सकते, अब बहुत देर हो गई, अब लड़ो, घर बहुत पीछे छोड़ आए अब, अब विकल्प नहीं है कि लौट जाऊँ। ना, लौट नहीं पाओगे।

गुरु का तुम्हारे सामने आना, तुम्हारा उसके प्रति आभार व्यक्त करना, ये सब यूँ ही है–खेल, माया, झूठ। तुम उसे जो समझ रहे हो वो वह है नहीं, तुम जिस बात पर आभार प्रकट कर रहे हो वो घटना कभी घट नहीं रही, वो तुम्हें किधर को ले जा रहा है वो तुम जानते नहीं, तो ये सब ऐसे ही है। हाँ, एक बात पक्की है, कुछ है जो तुम्हें खींच रहा है, वो पक्का है। तुम कुछ नहीं जानते, कुछ नहीं समझते, लेकिन फिर भी कुछ है जो तुम्हें खींच रहा है, उसी का नाम गोविंद है और वही तुम्हें गोविंद की ओर ले जा रहा है। गुरु तो बीच का छलावा है, असली तो गोविंद है, गुरु तो एक दिन धुँए सा गायब हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा कहाँ गया। वो बचने नहीं वाला, रहने नहीं वाला, वो धोखा है, भ्रम है, मिट जाएगा एक दिन। उस दिन मात्र गोविंद बचेगा। पर गुरु मिटेगा उसी दिन जिस दिन तुम मिट चुके होंगे। तुम्हें मारे बिना नहीं मरेगा वो। बड़ा ज़िद्दी है।

जिस दिन पाओ कि गुरु नहीं रहा, उस दिन अपनी ओर देखना तुम पाओगे कि तुम भी नहीं बचे, और जिस दिन पाओ कि मैं नहीं बचा तुम गुरु की ओर देखना, तुम पाओगे कि गुरु भी नहीं बचा।

एक धोखा है इसलिए दूसरा धोखा है।

एक भ्रम है इसीलिए उसको काटने के लिए दूसरा भ्रम है।

कोई शक़ नहीं इसमें कि गुरु भ्रम है, क्योंकि तुम भ्रम हो, तुम हो इसलिए गुरु है।

खेल सारा गोविंद का है, वही पहले माया खड़ी करता है जो तुम्हारा रूप लेती है और फिर वही गुरु का रूप बनकर तुम्हारे पास पहुँच जाएगा कि ‘आओ, आओ, कहीं को चलें’ और फिर वही तुम्हारे भीतर बैठकर के घर-वापसी की कोशिश करेगा। खेल सारा उसी का है, बाकी सब तो रूप हैं।

तुम नहीं जा रहे गोविंद की तरफ, गोविंद ही गोविंद की तरफ जा रहा है। तुम्हारा तो निर्माण ही इसीलिए किया गया है कि कुछ चलता रहे। परमात्मा को बेवकूफ़ी में बड़ा मज़ा आता है, बेवकूफ़ों से उसे विशेष स्नेह है, शायद इसलिए हम कहते हैं कि हमारा पिता हमसे बड़ा प्यार करता है, वो बेवकूफ़ों से प्यार करता ही है, बेवकूफ़ों के अलावा किसी से नहीं करता, क्योंकि प्यार करने के लिए दो चाहिए, और जो परमात्मा से छिटक कर दूसरा बन गया वही तो बेवकूफ़ है। तो परमात्मा मात्र बेवकूफ़ों से प्यार करता है। जो अपने-आप को परमात्मा से पृथक समझता हो वही तो कहेगा न कि, "वो मुझसे प्यार करता है", और जो पृथक समझता हो उससे बड़ा बेवकूफ़ है कौन?

तो तुम नहीं जा रहे परमात्मा की ओर, तुम्हारी बेवकूफ़ी यह अनुमति देगी नहीं तुमको। गोविंद ही गोविंद की ओर जा रहा है, और रास्ते में जो कुछ घटना घट रही है उन घटनाओं का नाम गुरु है। भीतर का गोविंद तुम्हें बहुत समझ नहीं आता, उसके प्रति बड़े अविश्वास से भरे रहते हो तो गोविंद कहता है, "ठीक है, बाहर ही खड़ा हो जाता हूँ।"

निर्गुण गोविंद का नाम होता है आत्मा।

सगुण गोविंद का नाम होता है गुरु।

बस इतना समझ लो; निर्गुण परमात्मा कहलाता है ‘आत्मा’, और सगुण परमात्मा कहलाता है ‘गुरु’।

तो मज़ेदार खेल है, वही पहले भटका देता है, छिटका देता है कि ‘जाओ इधर-उधर’, फिर वही वापस भी बुलाता है। दो एजेंट निर्धारित कर रखे हैं, एक का नाम है ‘माया’ और एक का नाम है ‘गुरु’। और इन्हीं की खींचतान का नाम है संसार; इन्हीं की खींचतान का नाम है अस्तित्व। माया दूर ले जा रही है, गुरु पास ले आ रहा है, मचा हुआ है द्वंद्व। कभी कोई ऊपर और कभी कोई ऊपर। और दोनों में असली कोई नहीं है। मैं तुमसे नहीं कह रहा हूँ कि माया भ्रम है और गुरु असली है–गुरु भी भ्रम है। असली तो मात्र गोविंद है, उसके अलावा कुछ असली नहीं है। गुरु उतना ही भ्रम है जितना माया, जब तुम दूर कभी गए नहीं तो पास आने का प्रश्न कहाँ उठता है?

गुरु कौन? जो पास ले जाए। अरे! दूर तुम कभी गए नहीं वास्तव में। जब दूर जाना ही भ्रम था, तो पास आना भी भ्रम, और पास ले आने वाला भी भ्रम। तो कोई यह ना समझे कि यहाँ कोई बड़ी पुनीत, पावन घटना घट रही है, कि गुरुदेव होते हैं और गुरुदेव परमात्मा तक ले जाते हैं। तुम कभी परमात्मा से छिटके ही नहीं थे, गुरुदेव इसमें क्या करेंगे?

गुरुदेव ठीक वही काम करते हैं जो माया करती है। माया तुम्हें क्या कहती है? "तुम दूर हो, तुम दूर हो, और दूर चलो।" और गुरुदेव क्या कहते हैं? "चलो तुम पास चलो, चलो तुम पास चलो!"

अरे! ना दूर है ना पास है। खुला, साफ़, स्वच्छ आकाश है। उसमें कैसे तुम नापोगे दूरियाँ, और कैसे नापोगे नजदीकियाँ–सब एक है। कोई बिंदु है ही नहीं, कि यहाँ से यहाँ तक। जिस दिन तक माया तुम्हारे सर पर नाच रही है, ठीक उसी दिन तक तुम गुरु के चरणस्पर्श करोगे। जिस दिन माया उतर गई तुम्हारे सर से, उस दिन गुरु भी उतर जाएगा, तुम ढूँढने निकलोगे, मिलेगा नहीं। तुम्हें हैरत होगी, कहाँ गया? जहाँ को माया गई, वहीं को वो भी गया। और बड़े भावुक ना हो जाना, कि, "हम तो गुरु के सच्चे प्रार्थी हैं, पाँव छूते हैं।" तुम पाँव कुछ नहीं छूते, तुम जो सोच कर पाँव छूते हो वो घटना घट ही नहीं रही है, तो तुम्हारे पाँव छूने का क्या महत्त्व है?

अब इसका अर्थ यह नहीं है कि हम नहीं छूएँगे, क्योंकि जो तुम सोच कर नहीं छूओगे वो घटना भी नहीं घट रही। तुम तो दायाँ सोचो कि बायाँ सोचो, दोनों ही हो नहीं रहे, तो जो मर्ज़ी हो करो। तुम्हारे करे क्या आज तक कुछ हुआ है जो अब कुछ हो जाएगा? हाथ-पाँव चलाना तुम्हारी फ़ितरत है, चलाओ।

किसी दिन उस देश में निकलना, वहाँ एक चायखाना है, वहाँ गुरु और माया अगल-बगल में बैठ कर चाय पीते हैं। दोनों का काम बिलकुल इकट्ठे चलता है न!

जब लखनऊ में दुर्भिक्ष पड़ा था तो वहाँ के नवाब ने एक बड़ी बढ़िया योजना निकाली लोगों को रोटी-पानी देने के लिए, ताकि लोगों को लगता रहे कि कुछ हो रहा है। वो दिन में एक इमारत बनवाता था और उसमें हज़ारों मजदूर लगते थे, तो उन्हें इस बात के पैसे दिए जाते थे कि इमारत बनाई तुमने। और रात में उसी इमारत को ढहवाता था, तो उन्हें इस बात के पैसे दिए जाते थे कि इमारत ढहाई तुमने। वो कहता था, "लोगों को कुछ करने के लिए चाहिए, मुफ्त में अगर दे दिया तो बात बनेगी नहीं, दंगे करेंगे, क्योंकि उर्जा तो संचित ही है न, इन्हें करने के लिए कुछ चाहिए।"

तो माया और गुरु का यही काम है, माया रात में स्वप्नजाल खड़ा करती है और गुरु दिन में स्वप्नजाल काटता है। वो फ़िर खड़ा करती है, वो फ़िर काटता है। दोनों इकट्ठे ही हैं।

और जो बात कबीर ने माया के सन्दर्भ में नहीं कही है, वो भी सुन लो। इसी दोहे में गुरु की जगह माया रख दो, बात बिलकुल वही रहेगी। दो ही रास्ते हैं गोविंद से मिलने के, एक दिन का रास्ता है और एक रात का रास्ता है। दिन का रास्ता गुरु का रास्ता है और रात का रास्ता माया का रास्ता है, और दोनों इकठ्ठा चलते हैं।

तुम माया से जूते ना खाओ, तो काहे को गुरु की शरण में आओ!

रात में पिटते हो, दिन में अस्पताल जाते हो, यही ज़िंदगी है।

माया तुम्हें ना सताए, तो काहे तुम्हें गोविंद की याद आए?

और जब गोविंद की याद आए, और कोई ढांढस ना बँधाए,

तो फिर बंदा कहाँ जाए?

पीटने वाली माया, मरहम लगाने वाला गुरु–खेल चल रहा है।

और दोनों एक हैं, साज़िश है दोनों की, जैसे कहीं-कहीं पर पंक्चर की दुकान वाले ही सड़क पर कीलें गिरा देते हैं। पंक्चर होगा तब न आओगे। खेल बिलकुल वैसा ही है, उसी ने माया भेजी है कि पहले पंक्चर हो तुम्हारी गाड़ी में और फिर पीछे से गुरु खड़ा कर दिया है कि फिर इसके पास आओ।

गुरु कौन है, गुरु क्या है, उसी दिन समझोगे जिस दिन यह भी समझ जाओगे कि माया कौन है और माया क्या है। तुम गुरु के पास बैठते हो वो लगातार तुम्हें सजग करता है, जागरुक करता है, कहता है ‘माया को जानो’, और जैसे-जैसे तुम्हारा जानना बढ़ता है वैसे-वैसे माया कटती जाती है, कटती जाती है। एक बात जो तुम्हें दिखाई नहीं देती वो यह कि जैसे-जैसे तुम माया को काट रहे हो वैसे-वैसे तुम गुरु को भी काट रहे हो, और जिस दिन माया पूरी कट गई उस दिन गुरु शेष बचेगा नहीं।

कबीर ने बड़ा चुटकुला सा मारा है, ‘गुरु गोबिंद दोउ खड़े, काके लागूँ पाय’, ये कहा होगा और फिर पीछे जाकर हँस कर आए होंगे। कि ‘दोउ खड़े’, जैसे दो ‘हैं’–गुरु और गोबिंद। और फिर पेट नहीं भरा होगा हँसने से तो अगली पंक्ति बोल दी, ’बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो मिलाय’।

हफ्तों हँसते रहे होंगे पीछे जाकर और सुनने वाले भावाभिभूत हो गए हैं, द्रवित हो गए हैं, आँखों से आँसू झर रहे हैं। ‘बलिहारी गुरुदेव के’, कितनी ऊँची बात कही है, ‘बलिहारी गुरु आपने, गोबिंद दियो मिलाय,’ और कबीर ठट्ठा मार कर हँस रहे हैं।

गुरु है कि माया है? गोविंद से मिलाने के लिए पहले तुमसे यह कहेगा न कि ‘तुम गोविंद से अलग हो’? मिलाने का तो प्रश्न ही तभी पैदा होता है! और वो कौन है जो तुमसे कहे कि तुम गोविंद से अलग हो? गुरु है कि माया है? यह तो बात बड़ी उलझन की हो गई। ध्यान से देखा तो अंतर ही नहीं समझ आता, ये दोनों तो बड़े मिले-जुले से हैं। तभी कह रहा हूँ कि इकट्ठे बैठकर चाय पीते हैं। जो तुमसे कहे कि ‘मिलवा दूँगा’, वो पहले तुमसे यही कह रहा है न कि ‘भटके हुए हो, छिटके हुए हो, पृथक हो’। और जो तुमसे कहे कि भटके हुए हो, छिटके हुए हो, गुरु है कि माया है? बात कुछ समझ में नहीं आई?

ना गुरु अच्छा, ना माया बुरी, लीला है, खेल है, इसको कोई मानसिक मॉडल मत बना लेना, कि वास्तव में ऐसा होता है, कि जीवात्मा परमात्मा से भटक कर के संसार रुपी नर्क में आ जाती है, और संसार रुपी नर्क में कुछ देवात्माएँ घूम रही हैं जिनका नाम गुरु है और गुरु तुमको उठाकर के वापस फेंक देता है परमात्मा के पास। क्यों भाई, ये क्या फेंका-फेंकी है?

कहानी के तौर पर यह सब मॉडल ठीक हैं, कि एक महान परमात्मा है, और बाकी सब छोटी-छोटी जीवात्माएँ हैं, और वो वासना के अधीन होकर के मृत्यु-लोक में जन्म लेती हैं, और मृत्यु-लोक में कुछ चमकते हुए सितारे घूम रहे हैं। जय गुरुदेव।

ऐसा कुछ नहीं है, कहीं नहीं है। जो है, बस है। और उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। ना गुरु, ना माया, ना चरणस्पर्श।

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