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लेख
तुम ही साधु, तुम ही शैतान || संत कबीर पर (2015)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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सोया साधु जगाइए, करे नाम का जाप ये तीनो सोते भले, साकट सिंह और साँप

-संत कबीर

आचार्य प्रशांत: आध्यात्मिकता के प्राथमिक सूत्रों में ही यह है कि संत जो भी कहे, उस बात को संसार का नहीं मन का जानो, भले ही उसमें जो दृष्टांत दिया गया हो, वो सांसारिक हो। बात भले ही समाज की, जंगलों की, पहाड़ों की, पशुओं की, लोगों की, रूपए-पैसों की, कहीं की भी की जा रही हो, अगर संत ने की है तो जान लेना मन की ही की है। मन के अलावा संत का कोई और लक्ष्य होता नहीं। मन के अलावा, वो और किसी की बात करता नहीं।

कबीर कह रहे हैं - ‘सोया साधु जगाइए’ और कबीर कह रहे हैं - ‘साकट, सिंह, साँप सोते ही भले हैं।‘ साधु भी आपके ही भीतर है और साकट, सिंह, साँप भी आप ही के भीतर हैं। साधु है ‘आत्मा’ और साकट, सिंह और साँप इंगित करते हैं आपकी वृत्तियाँ, आपकी आदिम पशुता। आत्मा का जगना और वृत्तियों का लोप होना एक साथ ही होता है।

वास्तव में वृत्तियों का लोप होना ही आत्मा का जगना है क्योंकि आत्मा ना तो जगती है, ना सोती है सिर्फ़ मन कहता है आत्मा जगी या सोई, मन के सन्दर्भ में ही आत्मा का जागरण होता है अन्यथा ना आत्मा का जागरण है ना निद्रा है। आत्मा का जागरण वास्तव में मन का जागरण है आत्मा के प्रति।

सोया साधु जगाइए – मन में लगातार साधुता वास करती ही है। ‘साधु’ कौन? जिसे परम के अतिरिक्त और कुछ प्यारा ना हो, जो जान गया हो कि कुछ प्यारा हो कैसे सकता है, जब और कुछ है ही नहीं। जो यह समझ गया हो एक सत्य के अतिरिक्त बाकि सब छल है और अब उस सत्य के अतिरिक्त और किसी के प्रति गंभीर हो ना पाता हो क्योंकि अन्य जो कुछ है वो वास्तव में है ही नहीं, तो कैसे उससे प्रेम करे, कैसे उसके प्रति गंभीर हो जाए? वो साधु, जो सत्य में जीता हो, जिसे झूठ का जीवन प्यारा ना हो, वो कोई व्यक्ति नहीं है, वो साधु आपका मन ही है। आपका मन निरंतर आकृष्ट होता रहता है सत्य के प्रति।

बड़ा अच्छा शब्द है ‘आकृष्ट’, कृष्ण शब्द भी यहीं से आया है। आकृष्ट शब्द भी वहीं से आता है, जहाँ से कृष्ण आता है।

‘कृष्ण’ कौन? जो कर्षित करले, जो खींच ले अपनी ओर।

सत्य का ही नाम है कृष्ण, क्योंकि वही अकेला है जो मन को खींचता है। वही अकेला है जो आकर्षित करता है। मन में ये साधु बैठा हुआ है और मन में ही बैठे हैं सिंह, साँप, साकट। सिंह और साँप इंगित करते हैं आपके भीतर के जैविक पदार्थ को, आपके मूलभूत जैविक संस्कारों को, उसी को पशुता कहते हैं।

आप बँधे हुए हैं बड़ी गहराई से अपने शरीर से, आप पाश में हैं, आप बन्धन में हैं और ये बन्धन आपको समाज ने नहीं दिया है। आप जो पैदा हुए थे, इसी बन्धन के साथ पैदा हुए थे। यह बन्धन ही पैदा होता है, पशु ही पैदा होता है, शरीर ही पैदा होता है। जो बच्चा पैदा होता है, उसमें जन्म के साथ ही वृत्तयाँ विद्यमान होती हैं। जो बच्चा पैदा होता है, उसमें पहले क्षण से ही सिंह और साँप बैठे होते हैं। आप उसे परेशान करिए, वो आपका मुँह नोंच लेगा, वो भूखा होगा तो चिल्लाएगा और यदि अगर भूखा होगा तो खाने-पीने को जो भी उपलब्ध है उसे झपट लेगा, उसे बाँटेगा नहीं। आप उसे डराएँ, वो डर जाएगा। आत्मरक्षा की प्रतिपल चेष्टा करेगा, यही वो पशुता है जिसके साथ हम पैदा ही होते हैं।

वास्तव में जानवर के बच्चे में कोई अन्तर होता नहीं। साद्यः जात पशु का बच्चा और साद्यः जात मनुष्य का बच्चा, बिलकुल एक होते हैं। उनके ऊपर अभी समाज ने प्रभाव नहीं डाला होता है, उन्हें कोई शिक्षा या ज्ञान अभी नहीं मिला होता है। जानवर को आगे भी नहीं मिलेगा, मनुष्य के बच्चे को आगे मिल जाएगा। शुरू में दोनों एक होते हैं, ये हमारी जैविक वृत्ति है और फिर साकट (दुष्ट)। किसी पशु को आप नीच, पापी, अधम या दुष्ट नहीं कह पाएँगे।

पशुता अजैविक होती है, दुष्टता सामाजिक होती है। दुष्टता हमें समाज देता है क्योंकि समाज बहुत उत्सुक होता है हमें सज्जनता देने में।

समाज को स्वीकार नहीं होता कि पशु पैदा हुआ है और ठीक ही है स्वीकार नहीं होता, इरादे बुरे नहीं हैं। इरादा यही है कि पशु पैदा हुआ है, उसे पशु से उच्च्तः कुछ और बनना चाहिए। तो समाज कोशिश करता है कि इसे सज्जन बना दे और सज्जनता के संस्कार देता है लेकिन समाज भूल जाता है कि संस्कार देकर सज्जन नहीं बनाया जा सकता, संस्कार देकर के इतना ही होता है कि ‘दुर्जन’ करोड़ों-अरबों की तादात में पैदा होते रहते हैं।

सज्जनता की कोशिश, दुर्जनता को जन्म दे देती है। यह संस्कारों का दूसरा तल है जो मन पर बैठ जाता है। पहला तल जैविक था, दूसरा सामाजिक हो जाता है लेकिन कितने भी संस्कार दे दो मन को, साधु अड़ियल है। वो संस्कारित होता नहीं। मन का एक कोना लगातार-लगातार बचा रहता है, जो समाज से और प्रकृति से, दोनों से अछूता रह जाता है। वो तो साधु है, वो तो लगातार अपने गन्तव्य को, अपने प्रिय को, अपने राम को ही भजता रहता है। वो सिंह और साँप होकर पैदा नहीं हुआ था और उसे सज्जन होने की कोई अभिलाषा भी नहीं है। वो तो राममय है, उसे तो राम ही चाहिए।

आदमी का जीवन इन्हीं दोनों के बीच की कशमकश है। आपके भीतर एक साधु बैठा है, आपके भीतर एक साँप बैठा है; साधु आपको एक दिशा खींचता है, साँप आपको दूसरी दिशा खींचता है और इन्हीं दोनों के मध्य आपका जीवन चलता रहता है। कबीर कह रहें हैं - साधु को बल दो। तुम साधु के साथ खड़े हो जाओ। याद रखना, भले ही घर्षण इन दोनों के मध्य हो पर इनमें से जीतेगा कौन, इसके निर्धारक तुम हो। तुम साधु के साथ खड़े रहोगे, साधु को बल मिलेगा। तुम साँप के साथ खड़े रहोगे, साँप को बल मिलेगा क्योंकि हैं तो दोनों तुम्हारे ही न। तुम्हारे ही हैं, तो तुम्हरा होना ही तय करेगा कि दोनों में से जीतता कौन है। दोनों तुमसे बाहर के तो नहीं हैं, तुम्हारे ही हैं। तुम्हीं तय करोगे कि दोनों में जीतता कौन है।

कबीर कह रहे हैं, साधु का साथ दो न। कबीर की आवाज़ उसी साधु की ही आवाज़ है। कबीर स्वयं तम्हारे भीतर का साधु हैं।

संसार में जो कुछ है वो तुम्हारे मन का ही तो प्रक्षेपण है।

मन का ही साधु बाहर कभी घूमता सड़क पर दिखाई दे जाता है, मन का ही साधु कभी-कभी तुम्हरे सामने भी बैठा दिखाई दे जाता है और मन का ही साँप तुम्हारे आस-पास समाज में भी घूमता दिखाई दे जाता है। जो आवाज़ तुम्हें तुम्हारे साधु का पक्ष लेने को कहे, वो आवाज़ देने वाला ही साधु है और जो आवाज़ तुम्हारे साधु की निंदा करे और तम्हें साँप के साथ खड़ा कर दे, वो आवाज़ देने वाला ही साँप है।

तुम्हारे मन में यदि साँप-ही-साँप भरे होंगे, तो तुम्हारे चारों ओर भी साँप-ही-साँप होंगे। तुम्हारा मन कैसा है, ये जानने के लिए बस अपने आस-पास के लोगों को देख लो कि तुम्हारे जीवन में कैसे लोग भरे हुए हैं। कौन हैं लोग, जिनके साथ तुम्हारा समय बीतता है, किनको तुमने चुना है। साँपों को चुना होगा, तो वो तुम्हें साधुओं से दूर रखेंगे और साधुओं को चुना होगा तो वो तुमसे कहेंगे कि अपने साधु को बल दो।

बाहर के साधु का काम है भीतर के साधु को जगाना। बाहर के साँप का काम है भीतर के साँप को और ज़हर देना।

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