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लेख
तुलना करना ठीक? लक्ष्य बनाना ठीक? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर, कोई भी इंसान अपने में यूनीक (अनूठा) होता है। मतलब ये कि जब किसी की किसी से तुलना की जाती है, तब वो कमज़ोर या ताक़तवर होता है। तो अभी आपने जैसा बोला कि आपस में तुलना नहीं करनी चाहिए। तुलना करेंगे तो कोई चीज़ कमज़ोर प्रतीत होगी और कोई चीज़ ताक़तवर दिखेगी।

आचार्य प्रशांत: नहीं, तुलना वहाँ करो जहाँ तुलना की जा सकती हो। अब जलेबी को ही ले लो। अगर एक किलो जलेबी ख़रीद रहे हो तो तुलना कर सकते हो न कि तराजू पर इधर एक किलो का बाट रखा है, उधर जलेबी रखी है, तुलना हो गयी। अब यहाँ पर तुलना करना ठीक है। किलोभर ख़रीदी तो किलोभर आयी कि नहीं आयी? यहाँ ठीक है पर अब तुम ऐसी चीज़ों की तुलना करो, जहाँ हो नहीं सकती — अभी हमें एक यहाँ पर एक चिड़िया मिली, छोटी सी है, उसे वहाँ रख दिया है और यहाँ मछली है, अब तुम कहो कि ‘वो चिड़िया तैर क्यों नहीं पा रही मछली की तरह?’ तो ये ग़लत तुलना हो गयी न। (श्रोतागण हँसते हैं)

दो हवाई जहाज़ हैं। एक है, ‘हरक्यूलीस सी-फिफ्टीन’ , जानते हो? वो इतना बड़ा होता है कि उसमें टैंक भरकर ले जाते हैं। और एक फाइटर प्लेन (लड़ाकू विमान) है छोटा सा। बहुत छोटा सा होता है, ‘तेजस’ होता है इतना कि यहाँ-से-यहाँ तक का (इशारा करते हुए)। अब तुम तुलना करके बोलो कि ये जो फाइटर प्लेन है ये तो बर्बाद है, इसमें तो दम ही नहीं है, इतना छोटा है। और वो हरक्यूलीस देखो, कितना विशाल है। ये तुलना व्यर्थ है न। क्यों व्यर्थ है? क्योंकि फाइटर प्लेन का काम दूसरा है भाई! उसको उतना बड़ा होना ही नहीं है। उतना बड़ा होगा तो गति नहीं पकड़ पाएगा, एजाइल (फुर्तीला) नहीं रह पाएगा, मार दिया जाएगा।

बात समझ में आ रही है?

तो तुलना हमेशा किसी सन्दर्भ में होती है। पहले तो ये देख लो कि सन्दर्भ ठीक भी है या नहीं है, उसके बाद तुलना करो। अब वो कुत्ता है और वो बकरी है। तुम क्या तुलना करोगे? कि कुत्ता कितना दूध देता है? कितनी मूर्खतापूर्ण तुलना है न? (श्रोतागण हँसते हैं)

सिविल इंजीनियर है, कम्प्यूटर इंजीनियर है। सिविल वाला उससे पूछ रहा है, अच्छा बताओ, सीमेन्ट कितनी तरह के होते हैं? वो नहीं बता पा रहा है तो उससे बोल रहा है, तुम तो सबसे नीचे के इंजीनियर हो, तुमसे घटिया कोई इंजीनियर हो ही नहीं सकता। तुम्हें सीमेन्ट का कुछ पता ही नहीं है। भाई, उसे क्यों पता हो? हमारे यहाँ फर्स्ट सेमेस्टर वाले को भी पता होता है। और तुम्हें कम्प्यूटर साइंस फाइनल ईयर में आकर सीमेन्ट का कुछ पता ही नहीं है। भाई, क्यों पता हो उसको? उसके काम की चीज़ नहीं है।

सबका अपना-अपना एक सन्दर्भ होता है। अगर सन्दर्भ तुम्हें दिखायी ही दे जाए तो तुलना उपयोगी है, तुलना प्रासंगिक है। तो कर लो तुलना फिर कोई बुराई नहीं है पर ज़्यादातर समय तुम यही पाओगे कि तुलना अनुपयोगी है। बहुत कम उसका उपयोग है। उससे अच्छा ये होता है कि तुम ये देखो कि तुम जो हो, तुम जो हो सकते हो, उसकी तुलना में तुम कहाँ पर खड़े हो। वो ज़्यादा क़ीमती बात है। इधर-उधर दूसरे से क्या तुलना करोगे?

प्र: जैसा अभी आपने कहा कि जो आपका सबसे बड़ा लक्ष्य है, हमेशा उस पर ग़ौर करो, और अभी कैंपेन कैंपस में जैसे हम लोगों ने काफ़ी बार सुना कि ज़्यादा दूर की मत सोचो, आप हमेशा छोटी चीज़ें सोचो। तो सर इसका क्या मतलब है?

आचार्य: बहुत अच्छे! जो तुम्हारा सबसे ऊँचा लक्ष्य है वो यही है कि मौज में रहो। और कोई लक्ष्य नहीं होता है। जो सबसे ऊँचा है वो सबसे क़रीब का है। ये हमारे मन की भ्रांति है कि ऊँचा माने दूर का। जो सबसे क़ीमती है वही सबसे क़रीबी है। हमने क़ीमती को और क़रीबी को हमेशा अलग करके, बाँटकर देखा है। ऐसा नहीं होता।

आपका जो ऊॅंचे-से-ऊँचा लक्ष्य है वो, सुनकर आपको हैरत होगी, बस इतना ही है कि ज़िन्दगी ठीक चले। इससे ज़्यादा ऊँचा लक्ष्य आपका कुछ हो नहीं सकता। कोई स्वर्ग, कोई मोक्ष, कोई जन्नत, या कोई बहुत बड़ी उपलब्धि – ये आपका उच्चतम लक्ष्य नहीं हो सकता। दिल-ही-दिल आप बस इतना ही चाहते हो कि आप अगर यहाँ बैठे हो तो मस्ती में बैठो।

तुम्हारा ऊॅंचे-से-ऊँचा लक्ष्य होगा कि मैं सात करोड़ कमा लूँ। और अभी बैठे हो नीचे से कीड़ा काट रहा हो तो सारे लक्ष्य भूल जाऍंगे। बोलो हाँ या ना?

श्रोता: यस , सर (हँसते हुए)।

आचार्य: तुम यहाँ बैठे हो, कोई तुम्हें एहसास दिल रहा है कि हाँ, तुम्हारा ऊँचा लक्ष्य पूरा हो रहा है, हो रहा है। और यहाँ से काट रहा है कीड़ा! (श्रोतागण हँसते हुए)

तब तुम समझ जाओगे कि ऊँचे-से-ऊँचा लक्ष्य यही होता है कि अभी चैन से बैठो। अभी कीड़ा न काटे।

कीड़ा पिछवाड़े काट रहा है तो बर्दाश्त कर लोगे, पर कीड़ा अगर दिल में काट रहा हो तो बहुत बुरा लगता है। तो ऊॅंचे-से-ऊँचा लक्ष्य यही होता है कि दिल में कीड़ा न काटता रहे। समझे? तो अभी जो उन्होंने बात बोली कि अभी पर ध्यान दो, वो अभी पर ध्यान देना ही उच्चतम लक्ष्य है।

प्र२: सर, एक प्रश्न और है कि सर ने कहा था कि कोई चीज़ होती है जो हमारे पीछे हमेशा होती है। जैसे कहा कि यहाँ पर डर है पर उसके पीछे भी कुछ है जो हमेशा है, सर ने कहा था कि उसे भगवान भी मान सकते हो। तो सर, वो चीज़ क्या होती है?

आचार्य: वो चीज़ कुछ नहीं होती। अगर वो कोई चीज़ होगी तो वो बाक़ी चीज़ों की तरह हट भी जाएगी, ख़त्म भी हो जाएगी, नष्ट हो जाएगी। तो ये तुम्हारे लिए खुशख़बरी है कि वो कोई चीज़ नहीं है जो तुम्हारे पीछे है। वो कुछ भी नहीं है।

प्र२: सर ने भी यही कहा था लेकिन उसी पर आधारित जितनी बात बतायी वो मुझे बिलकुल समझ नहीं आयी।

आचार्य: समझ में इसीलिए नहीं आयी क्योंकि तुम उसे चीज़ के तौर पर ही समझना चाहते हो। तुम एक्स-वाई (x-y) के टर्म्स में एक ऐसे वेरीएबल को पकड़ना चाहते हो जो एक्स-वाई का फंक्शन ही नहीं है। मैं कहूँ कि जेड-क्यूब(z3) को एक्स-वाई के टर्म्स (शर्तों) में एक्स्प्रेस (अभिव्यक्त) करो। करके दिखाओ!

जेड-क्यूब(z3) है, उसको एक्स-वाई के टर्म्स में एक्स्प्रेस करके दिखाओ। ये एक्स-वाई समझ लो तुम्हारे विचारों के ऐक्सिस (तल) हैं। एक्स-वाई प्लेन (आयाम) तुम्हारे मन का प्लेन है, उसमें वो चीज़ पकड़ में नहीं आएगी। ज़ेड ऐसे जाता है ऊपर की ओर। उसमें वो चीज़ तुम्हें पकड़ में नहीं आएगी जो तुम्हें सहारा दे रही है, जो तुम्हारी ताक़त है असली। ये अच्छी बात है न? क्योंकि पकड़ में आ गयी तुम्हारे तो तुम उसे छोड़ भी सकते हो। अगर जो तुम्हें सहारा दे रहा था, तुमने उसे पकड़ रखा है तो फिर तुम उसे छोड़ भी सकते हो और छोड़ते ही बेसहारा हो जाओगे। तो चाहते हो बेसहारा हो जाना?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: तो कहीं बेहतर ये नहीं है कि तुम्हें पता ही न हो और तुम्हारी मदद होती रहे?

अब मान लो उदाहरण के तौर पर कि तुम्हारा ऑपरेशन चल रहा है। ठीक है? और ऑपरेशन में डॉक्टर के पास असिस्टेंट (सहायक) नहीं है, हेल्पर नहीं है, तुम्हें उसने ऑपरेशन टेबल पर लेटा दिया है और तुम्हारा दिल खोल दिया है और हेल्पर उसके पास है नहीं और तुमसे बोल रहा है कि तुम ही मेरी हेल्प करते रहो। कैंची चाहिए तो क्या बोल रहा है? कैंची देना! अब दिल तुम्हारा खुला हुआ है, तुम्हें ही कैंची भी उठाकर देनी है और कैंची उठाकर न दो तो वो ऑपरेशन करेगा नहीं तुम्हारा।

फिर कह रह है, ग्लूकोस उठाकर ले आओ, फ़लाना इन्जेक्शन उठाकर ले आओ और ये सब तुमसे ही करवा रहा है, अब यहाँ पर जो तुम्हें सहारा दे रहा है वो तुम पर आश्रित है तुम्हें सहारा देने के लिए। जिस क्षण तुमने तय कर लिया कि मैं इसकी मदद नहीं करूँगा, मैं इसे सहयोग नहीं करूँगा, उस क्षण वो अब तुम्हें मदद नहीं दे सकता न? तो गड़बड़ हो गयी। तुम्हारा ही दिल खुला हुआ कभी भी बेहोश हो जाओगे। तुम बेहोश हो गये वो बोला जाओ कैंची उठाओ। तुमने जवाब नहीं दिया। उसने कहा धत! हम करते नहीं ऑपरेशन। तो तुम बेहोश हुए नहीं कि ख़त्म हो गये। ठीक?

श्रोता: जी, सर। यस, सर।

आचार्य: ये ख़तरनाक स्थिति हो जाती है। सत्य के साथ, जिसे तुम गॉड बोल रहे हो, उसके साथ ये स्थिति नहीं है और ये तुम्हारे लिए बड़ी खुशख़बरी है कि वो तुमसे बिना मदद माँगे, वो बिना तुम्हारे कोऑपरेशन (सहयोग) के तुम्हारी मदद कर रहा है। तुम्हें उसका पता भी नहीं है, वो तुम्हारी मदद कर रहा है। वो तुम्हारे संज्ञान में नहीं आता फिर भी तुम्हारी मदद कर रहा है। वो उस डॉक्टर की तरह नहीं है जिसे तुम देख पा रहे हो। वो उस डॉक्टर की तरह नहीं है जो तुमसे सहयोग माँग रहा है। वो एक ऐसा डॉक्टर है जो तुम्हें नज़र ही नहीं आ रहा और तुम्हारा इलाज़ किये दे रहा है।

और ये अच्छा है तुम्हारे लिए न? तुम्हें नज़र आ गया तो किसी दिन तुम्हारा मूड ख़राब है, गुस्से में हो, नंबर ठीक नहीं आये, पेट नहीं खुला, कुछ हो गया, तुमने पता चला कि उसी को भगा दिया। नज़र जो भी चीज़ आती है उससे रूठा जा सकता है कि नहीं? अच्छा है वो नज़र नहीं आता, नज़र नहीं आता तो रूठ भी नहीं सकते उससे। नहीं तो हमारा क्या है, हम तो किसी भी बात पर गुस्सा हो जाते हैं, रूठ जाते हैं, बदतमीज़ी कर देते हैं। और अगर वो इस बात पर निर्भर होता कि जबतक तुम उससे प्रेम से, तहज़ीब से बात कर रहे हो सिर्फ़ तबतक तुम्हारी मदद करेगा, तो हम तो ऐसे हैं कि कभी भी बदतहज़ीब हो जाते है।

वो इस पर भी निर्भर नहीं करता कि तुम उससे प्रार्थना करो या तुम उससे सहयोग माँगो। वो बिना तुम्हारे माँगे सहयोग देता है। वो बिना तुम्हारी इच्छा के तुम्हें वो दे देता है जिसकी तुम्हें ज़रूरत है। ठीक है? और ये फिर से कह रहा हूँ तीसरी बार कि ये तुम्हारे लिए अच्छी बात है। खुशख़बरी है। तो ये प्रयत्न बार-बार मत किया करो कि मुझे बताओ कि वो कौन है। तुम अगर जान गये उसको तो उसका कबाड़ा कर दोगे। तो इसीलिए वो कभी जानने में आता नहीं है, तुम्हारी ही भलाई के लिए।

तुम कभी उसे जान नहीं सकते। तुमने उसे जाना नहीं कि तुम वहाँ भी छीछालेदर करोगे। इसीलिए वो छुपकर रहता है।

प्र३: जब वो सबको एक समान मदद करता है, तब हम उसको क्यों डिवाइड (बाँटना) किये हुए हैं कि मतलब चर्च या मन्दिर में या मस्जिद में?

आचार्य: हम किये हैं, उसने थोड़े ही किया है।

प्र३: लेकिन हमें ये चीज़ भी तो पता है न कि वो एक ही है।

आचार्य: तुम्हें तो सबकुछ पता है लेकिन तुम ये बताओ कि क्या है जिसको तुमने डिवाइड नहीं किया है? तुम्हें पता है न कि ज़मीन एक है? ज़मीन एक है तो वहाँ शमशान क्यों है? यहाँ मन्दिर क्यों है? जब तुम्हें हर चीज़ को बाँटने की आदत है तो ऐसे ही तुमने गॉडलीनेस (भगवत्ता) को भी बाँट दिया है। ये हिन्दू की हो गयी, ये क्रिश्चियन (ईसाई) की हो गयी।

ये अलग-अलग हैं भाई! ये मन्दिर है यहाँ सब साफ़-सफ़ाई से रहो और वहाँ शमशान घाट है, वहाँ कुछ भी चलेगा। घर में भी तो बाँट देते हो? यहाँ मेहमान बैठेंगे। ये हमारा घर है, यहाँ हम जीते हैं। ये सोने का कमरा है, ये नहाने का, ये खाना पकाने का। हमें बाँटे बिना चैन कहाँ मिलता है? इसीलिए हम सबकुछ बाँटते फिरते हैं।

प्र४: हम लोगों के लाइफ में इमोशन्स (भावनाऍं) जैसी चीज़ें बहुत सी हैं। कभी-कभी हम इमोशन्स में आकर काफ़ी सारी चीज़ें छोड़ देते हैं। उस वक्त हमको क्या निर्णय लेना चाहिए?

आचार्य: इमोशन है-तो-है। अच्छी बात है। इमोशन्स में रहो। अब भूलो मत कि इमोशन भी इसीलिए उठता है कि तुम्हें कुछ चाहिए और इमोशन के कारण तुम उसी से दूर हो गये जो तुम्हें चाहिए, जिसकी वजह से इमोशन उठ रहा है तो ये इमोशन तो बड़ा बेकार निकला न?

प्र४: फिर मान लीजिए कि किसी व्यक्ति के विषय में मैंने कहा कि मैंने इस आदमी के लिए ऐसा कर दिया, तो फिर ऐसा क्यों कहते हैं कि तुमने ये किया नहीं, ये तुमने उस पर थोप दिया है जबकि तुमको करना कुछ और चाहिए था पर बात तुमने उस पर डाल दी।

आचार्य: एक थे साहब, उनका नाम था परमेश्वर। ये असली घटना बता रहा हूँ, हॉस्टल की है हमारे। तो तब मोबाइल फोन नहीं थे, तब कोई विज़िटर (आगंतुक) आता था तो पीए सिस्टम होता था, उस पर नीचे से अनाउन्समेन्ट (घोषणा) होती थी। हर फ्लोर पर स्पीकर लगे हुए थे, चार फ्लोर का हॉस्टल था। परमेश्वर साहब की गर्लफ्रेंड उनसे रूठी हुई थी। (श्रोतागण हँसते हैं)

आ ही नहीं रही थी, बहुत दिन से बात ही नहीं कर रही थी। हफ्ते, महीने बीत गये, दुबलाये जा रहे थे। तो ऐसे ही बैठे हुए थे एक दिन परमेश्वर और अचानक, पीए सिस्टम पर एक अनाउन्समेन्ट होता है, मिस्टर परमेश्वर! जूली वेटिंग फॉर यू डाउनस्टेअर्स। (परमेश्वर जी, जूली नीचे आपका इन्तज़ार कर रही हैं) और परमेश्वर साहब में इतनी ज़ोर का इमोशन उठा कि जूली आ गयी! अब जूली का ही इन्तज़ार कर रहे थे और जूली आ गयी। जूली के लिए इमोशन उठा! इतनी ज़ोर का इमोशन उठा जूली से मिलने को कि उठे, भड़भड़ा के दौड़े और भड़ाम गिरे! और फ्रैक्चर। अब मिल लो जूली से। (श्रोतागण हँसते हैं)

ये होता है *इमोशन*। जिसकी ख़ातिर इमोशन उठ रहा है, इमोशन तुम्हें उसी से वंचित कर देता है। इमोशन के साथ दिक्क़त ये है कि जिसके लिए उठ रहा है, जो चाहते हो, जिस लिए उठ रहा है, वो तुम्हें उसी से दूर कर देगा।

प्र४: तो सर क्या चाहना ग़लत बात है?

आचार्य: चाहो! टाँग तुड़वा लो! (श्रोतागण हँसते हैं)

जो चाहते हो वो ही नहीं मिलेगा। चाहना ग़लत नहीं है पर चाहकर न पाना तो कष्टप्रद है?

श्रोता: यस, सर।

आचार्य: चाहना और न पाना कष्टप्रद है न?

प्र: तो फिर सर चाहें कैसे?

आचार्य: कैसे क्या चाहें? चाहते तो हो ही। ऐसे कह रहे हो कि चाहें कैसे? जैसे कि कभी चाहा ही नहीं।

प्र: जैसे मिल जाए?

आचार्य: तो बस शान्ति से चाहो। चाहो लेकिन ठंडक रखो फिर भी। चाहने का हक़ है तुम्हें लेकिन पगला मत जाओ। अब बच्चा है, वो घर पर नहीं रहता, खेलने भाग जाता है, पड़ोस भाग जाता है। माँ को लग रहा है मेरा बेटा है, मेरे साथ क्यों समय नहीं बिताता? खेलने क्यों भाग जाता है?

तो एक दिन रात को लौटकर आया, माँ ने दिये उसे दो चटाक-चटाक! ‘तू मेरे साथ क्यों नहीं रहता, भाग क्यों जाता है?’ अब मार इसीलिए रही हैं क्योंकि प्रेम उठ रहा है कि मेरे साथ समय बिताया कर और दो चटाक से दे दिये तो क्या होगा? वो और भागेगा इधर-उधर। कहेगा, 'ये राक्षसी, इसके पास रहता हूँ तो पड़ते हैं।' (श्रोतागण हँसते हैं)

तो इमोशन का नुक़सान ही यही होता है कि जिसके लिए वो उठता है, वो तुम्हें उसी से?

श्रोता: वंचित कर देता है।

आचार्य: वंचित कर देता है।

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