आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
ताकतवालों का बोलबाला है, भगवान कमज़ोरों की मदद क्यों नहीं करते?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
13 मिनट
234 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: दुनिया में ताकतवर लोगों का ही क्यों बोलबाला है? कमज़ोर और गरीब को हर जगह दबाया क्यों जाता है? भगवान कमज़ोरों की मदद क्यों नहीं करते?

आचार्य प्रशांत: भगवान कमज़ोरों की मदद लगातार कर रहे हैं उनकी कमज़ोरी बन कर। तुम्हें जो कुछ भी मिला हुआ है वो भगवान के द्वारा मदद के तौर पर ही मिला हुआ है। बात को समझना थोड़ा।

कोई ताकतवर है, जैसा तुमने कहा, उसको ताकत मिली हुई है। कोई कमज़ोर है, उसको कमज़ोरी मिली हुई है। किसी को पैसा मिला हुआ है, किसी को गरीबी मिली हुई है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसे कुछ नहीं मिला हुआ। किसी को ज्ञान मिला है, किसी को अज्ञान मिला है। किसी को घर मिला है, किसी को सड़क मिली है। किसी को भूख मिली है, किसी को रोटी मिली है। किसी को रंग काला मिला है, किसी को गोरा मिला है।

ऐसा तो कोई नहीं है न जिसको कुछ भी ना मिला हो? अगर कोई ऐसा होता जिसको कुछ भी नहीं मिला है तो वह इंसान ही नहीं होता। हर व्यक्ति के कुछ गुण होते हैं न, कुछ पहचाने होती हैं। तो माने हर व्यक्ति को कुछ-न-कुछ मिला हुआ है। किसी को कुर्ता, किसी को पजामा। किसी को समुद्र और किसी को ज़मीन। किसी को बिस्तर और किसी को दफ्तर। जिसको जो मिला है वो उसी को समझ लो कि वो ईश्वरीय मदद है। कैसे? कुछ भी मिला हो तुम्हें, पूरा पड़ रहा है क्या?

तुमने सवाल पूछा है यहाँ पर कि, "मैं कमज़ोर हूँ इसलिए बड़ा दुखी हूँ। दुनिया में ताकतवर लोगों की ही चलती है।" और सैंकड़ों, हज़ारों ताकतवर लोग आते हैं यहाँ। वो कहते हैं ये ताकत ही छाती का बोझ है, गले की फाँस है। बाहर वालों को लगता है कि ताकत बड़ा सुख देती होगी, हम जानते हैं कि ये ताकत हमारा सब कुछ नष्ट किए दे रही है।

ये बात उन्हें नहीं समझ में आएगी जिनके पास ताकत नहीं है क्योंकि ताकत का कष्ट वही भोग रहे हैं जिनके पास ताकत है। तुम जिस अर्थ में ताकत शब्द का प्रयोग कर रहे हो उसी अर्थ में बात कर रहा हूँ। तुम्हारे लिए ताकत का अर्थ है सामाजिक प्रतिष्ठा, सत्ता, पैसा, ये सब तुम्हारे लिए ताकत के प्रतीक हैं। तो मैं उसी अर्थ में ताकत का प्रयोग कर रहा हूँ। जिसको जो मिला है उसको वही पूरा नहीं पड़ रहा, और जिसको जो मिला है वो उसके विपरीत की आस लगाए हुए है और उसके विपरीत की प्रशंसा कर रहा है।

जब जवान होते हो तुम तो प्रौढ़ों की तरफ देख-देख करके आहें भरते हो, कहते हो “हमें देखो, न घर के न घाट के। न बच्चे कहलाते हैं न व्यस्क। न यही हालत कि घर में बैठ करके आराम से माँ के हाथ की रोटी खा लें और न ऐसा ही है कि भरपूर कमा रहे हों।”

जवान लोगों से ज़्यादा अपनी स्थिति के प्रति असंतुष्टि शायद ही किसी में देखी जाती हो। उन्हें बहुत कुछ चाहिए और उन्हें मिल कुछ नहीं रहा। कोई बेरोज़गारी को रो रहा है, कोई देश की राजनैतिक स्थिति को लेकर परेशान है, कोई कह रहा है कि साथी चाहिए प्रेम के लिए, विवाह के लिए मिल नहीं रहा है। तमाम झंझट लगे हुए हैं। जानते हो विश्वभर में आत्महत्या करने वाले लोगों में जवान लोगों का अनुपात बड़ा ज़्यादा होता है? और हम कहते हैं कि जवानी तो जीवन का स्वर्णिम शिखर होती है। तो जवान लोग अपनी हालत से खुश नहीं।

और जो ज़रा प्रौढ़ हो गए वो पलट करके जवानी को याद करते रहते हैं। उन्हें लगता है जवानी जैसा कोई काल नहीं था। वो कहते हैं “जब मैं जवान था तब क्या बात थी! अब क्या बताएँ अब तो बाल झड़ गए हैं, तोंद निकल आई है और ये दो-तीन चुन्नू-मुन्नू हो गए हैं ये खून पीते हैं। क्या दिन थे जवानी के आहाहा! पंख पसार उड़ते थे। कोई रोक-टोक नहीं, कोई बंधन नहीं, कोई दफ्तर नहीं, कोई दबिश नहीं, कोई घर नहीं और घर पर किसी को जवाबदेही नहीं। और अब देखो, अब कोई ज़िन्दगी है! बिलकुल गधे की सी ज़िन्दगी है। सुबह उठते हैं, दफ्तर जाते हैं, शाम को सही समय पर वापस आना होता है और वो भी लौकी और आलू खरीद कर। और उसके बाद ये नालायक पैदा हो गया है पुन्नू, इसका होमवर्क भी कराना पड़ता है बैठ करके, अपना तो हमने कभी किया नहीं। ये कोई ज़िन्दगी है!”

“जब जवान थे तो यूँ ही फिरते रहते थे कहीं भी और रात में दस-ग्यारह बजे वापस आते थे, गाली खाते थे, उसी से पेट भर जाता था, मस्त सो जाते थे। और अब देखो, सुबह वक़्त पर दफ्तर न पहुँचें तो बॉस डाँटता है, और दफ्तर के बाद वक़्त पर घर न पहुँचो तो बीवी डाँटती है, और पुन्नू का काम न कराएँ तो पेरेंट-टीचर मीटिंग में उसकी टीचर डाँटती है, और जिधर देखो वहीं हम डाँट सुनते रहते हैं, खाते रहते हैं सर झुका कर। जब जवान थे तब मजाल थी किसी की कि डाँट देता। तब डाँटने वालों का मुँह तोड़ देते थे हम, और अभी देखो।”

जिसकी जो हालत नहीं होती है, या तो बीत गई होती है या आने वाली होती है वो उसी को लेकर आहें भर रहा होता है कि “काश हमें भी ऐसा कुछ मिल जाता।” कोई बच्चा तुम्हें नहीं मिला होगा जो अपने बचपने से बड़ा संतुष्ट हो, कह रहा हो “आहाहा! मज़ा आ रहा है।”

बच्चे कह रहे होते हैं “जिसको देखो वो ही हमें धकियाता धमकाता रहता है। कोई चवन्नी बोल रहा है, कोई पंजी बोल रहा है, कोई बिस्सी बोल रहा है, कोई अठन्नी बता रहा है। बड़े भैय्या लोग खेल रहे होते हैं हमें खड़ा कर देते हैं; 'जा गेंद लेकर आ'। दीदियाँ अपने सब अंट-संट काम हमसे करवा रही होती हैं; ‘ये पर्ची ले जा कर उसको उसको दे आना, वो जो वहाँ भूरे बाल वाले भैय्या खड़े हैं बाइक पर।’ जैसे हमें कुछ पता ही न हो कि पर्ची में क्या लिखा है। हम इतने बेहोश दिखते हैं?”

लेकिन जहाँ थोड़ी उम्र बढ़ी नहीं कि फिर वही, "मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।" जैसे कि बचपना तो तुम्हारा कितने सुख से ओतप्रोत था, आहाहाहाहा, आनंद मात्र का आह्लाद था। और जब तुम बच्चे थे तो दिन-रात अपनी हालत को गरियाते थे कि, "कोई तरीका हो सकता है अक्सेलरेटेड ग्रोथ (त्वरित विकास) का, एक दिन में एक महीना बड़े हो जाएँ?" तब तो ये भी नहीं था कि, "जो बहुत बड़े वाले लोग हैं वो आकर के शोषण करते हैं हमारा।" तब तो यही था कि, "हम तीसरी कक्षा में हैं और ये पाँचवी कक्षा वाले सब रैगिंग लेते हैं हमारी!" तब तो वो जो पाँचवी कक्षा वाले थे वही बहुत बड़े खलनायक लगते थे।

और अब आगे बढ़े नहीं कि जिसको देखो वही निबंध लिख रहा होता है; ‘मेरा स्वर्णिम बाल्यकाल।’ अब बाल्यकाल स्वर्णिम हो गया तब छीछन (नाक से पानी) बहाए घूमते थे, मुँह पोंछने वाला कोई नहीं था। और जब मुँह पुछवाने जाते थे तो माँ देती थी तड़ाक से पहले एक, उसके बाद मुँह धोती थी।

ये हालत दुनिया में सबकी है। नौकरीपेशा लोगों को लगता है कि व्यवसायी बहुत मज़े कर रहे हैं, व्यवसायी लोग कहते हैं “हमारा तो कुछ पता ही नहीं कल धंधा चलेगा या नहीं चलेगा, नौकरीपेशा लोगों का बढ़िया है, उनकी सुरक्षित आमदनी है। दुनिया में कुछ हो जाए उनकी तयशुदा आय उनको आती ही रहती है।”

स्त्रियों को लगता है कि पुरुष बहुत भले हैं, कहती हैं, “इनका बढ़िया है, हर तरीके की मौज मारते हैं, हमें तो शरीर के पचास झमेले हैं। बच्चे भी पैदा करो, फिर ये करो, पालो-पोसो, पचास बातें। और ताकत भी मर्दों का ही ज़्यादा है। अपना खुले सांड की तरह घूमते रहते हैं।” आदमियों से पूछो तो कहते हैं “ये हमें क्या दे दिया है, कतई बाँस, रूखे पत्थर जैसा शरीर। स्त्रियों को देखो, उनका शरीर नदी की तरह बहता है, क्या कोमलता है! क्या गतिशीलता है, आहाहाहा, क्या सौंदर्य है!” है कोई जो अपनी हालत से संतुष्ट है? कोई नहीं है।

तो फिर भगवान तुम्हारी मदद कर कैसे रहे हैं? तुम्हारी जो भी हालत है तुम उसकी निस्सारता को देख लो, इसी में तुम्हारी मदद है। तुम तुरंत पलट कर कहोगे, “वही तो हम आपसे कह रहे हैं न कि हम अपनी हालत से खुश नहीं हैं।” न न न, तुमने बात अभी पूरी सुनी नहीं। तुम्हें सिर्फ ये नहीं देखना है कि तुम अपनी हालत से खुश नहीं हो, तुम्हें ये देखना है कि जो तुमसे बिलकुल विपरीत है वो भी अपनी हालत से खुश नहीं है।

अपनी हालत से खुश नहीं हो ये कहकर तुमने कोई तीर नहीं चला दिया क्योंकि कोई भी खुश नहीं है अपनी हालत से। तुम ये देखो कि तुम भी नहीं खुश हो और वो जिसको तुम आदर्श मानते हो, बड़ा सुखी मानते हो, वो भी वास्तव में उतना ही दुखी है जितने दुखी तुम हो।

यही नहीं है कि तुम दुखी हो, यहाँ जितने हैं सब दुखी हैं। जिसके पास भी कोई नाम है, कोई पहचान है, रूप है, देह है, आकार है, जिसके पास भी अस्तित्व है वही दुखी है। जिसने ये जान लिया कि जिसके पास भी अस्तित्व है वही दुखी है वो फिर जीवन से आगे निकलने में जुट जाता है, यही भगवत्ता की खोज है। ये लो, मिल गया तुमको भगवान का आशीर्वाद।

भगवान का आशीर्वाद तुम्हें ऐसे नहीं मिलेगा कि तुमसे बाहर का कोई आ करके तुम्हारे माथे पर हाथ रख देगा। तुम्हारे भीतर जो कुछ है न, वहीं से आशीर्वाद आता है। भगवान वहीं है, तुम्हारे भीतर। भीतर नहीं है, तो कहीं नहीं है। तुम्हारे भीतर सौ तरह की कमज़ोरियाँ हैं, अँधेरे हैं, नालाकियाँ हैं, ये तो बखूबी जानते हो। लेकिन तुम ये भी तो जानते हो न कि तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जो कमज़ोरियों से और अपूर्णताओं से कभी संतुष्ट नहीं होता। वो जो असंतुष्टि है, वही ईश्वरीय आशीर्वाद है क्योंकि वो असंतुष्टि मानेगी ही नहीं, रुकेगी ही नहीं बिना ईश्वर को पाए। ईश्वर शब्द का प्रयोग मैं यहाँ पर सत्य के लिए कर रहा हूँ, पूर्णता के लिए करा रहा हूँ, तुम्हारी आखिरी मंज़िल के लिए कर रहा हूँ। हम जैसे भी हों, अपनी हालत को लेकर क्या हैं?

प्र: असंतुष्ट।

आचार्य: असंतुष्ट। ये असंतुष्टि ही भगवत्ता का आशीर्वाद है तुमको। और वास्तव में हर तरह की आध्यात्मिक प्रगति, साधना भी उसी की शुरू होती है जो अपनी स्थिति से पूरी तरह असंतुष्ट हो गया होता है। उसकी असंतुष्टि सिर्फ ये नहीं कह रही होती कि, "मैं जैसा हूँ उसमें कुछ खोट है", उसकी असंतुष्टि कह रही होती है, "मैं जैसा हूँ वो तो गड़बड़ है ही, मैं जो कुछ भी हो सकता हूँ, जो कुछ भी हो जाने के विकल्प मैं देख पा रहा हूँ, उन सब में भी खोट है। मतलब मेरे होने में ही खोट है। मैं दाएँ चलूँ वहाँ भी गड़बड़ है, बाएँ चलूँ वो भी गड़बड़ ही होगा। मैं दीवार के इस पार हूँ तो भी मैं परेशान रहूँगा, मैं दीवार के उस पार भी चला जाऊँ तो भी मैं परेशान ही रहूँगा।" ये अंतर होता है आध्यात्मिक आदमी में और संसारी में।

संसारी सोच रहा होता है कि, "मैं दीवार के इस पार हूँ इसलिए परेशान हूँ, अगर उस पार पहुँच गया तो सुख मिल जाएगा।" उसका फिर पूरा जीवन उस पार पहुँचने की कोशिश में बीत जाता है। और अगर वो उस पार पहुँच गया तो पाता है उस पार एक और दीवार है जिसके पीछे सुख आहट दे रहा है, आवाज़ें दे रहा है, बड़ा आमंत्रित करता प्रतीत हो रहा है। तो फिर वो उस अगली दीवार को लाँघने की कोशिश में लग जाता है। ऐसे ही दो-चार दीवारें लाँघने में ज़िन्दगी बीत जाती है, मौत आ जाती है, खेल ख़तम। ये संसारी का किस्सा है।

आध्यात्मिक आदमी का दूसरा है। वो कहता है, “यहीं बैठे-बैठे मैंने जान लिया कि जो हालत मेरी है वही हालत दीवार के पीछे वाले की है। जो हालत इस लोक की है वही हालत उस लोक वाले की है। जो हालत इस देश वाले की है वही हालत उस देश वाले की है। और अंदरूनी तौर पर जितना अतृप्त मैं आज से पंद्रह साल पहले था उतना ही अतृप्त मैं आज भी हूँ। बाहर-बाहर मेरी स्थितियाँ बदल गई हैं, भीतर कुछ ख़ास बदला नहीं है। मेरे हाथ में जो चीज़ें हैं वो चीज़ें बदल गई हैं लेकिन उन चीज़ों को लेकर के मेरी शिकायतें तब जैसी थीं वैसी ही आज भी हैं। तब मेरी उम्मीदें छोटी थीं, मेरे हाथ में चीज़ें छोटी थीं, आज मेरी उम्मीदें बड़ी हैं, मेरे हाथ में चीज़ें बड़ी हैं। पर तब भी मैं शिकायत ही कर रहा था, आज भी शिकायत ही कर रहा हूँ। तब भी अतृप्त था, आज भी अतृप्त हूँ।”

ये आध्यात्मिक आदमी है जो देख लेता है कि दुनिया में भाग-दौड़ करके बात कुछ बनने वाली नहीं है। यही तो भगवत्ता का उदय है न? यही तो तरीका है भगवान का तुमको जागृति देने का।

भगवान कह रहे हैं, “मैंने तुम्हें जो कुछ भी दिया है तुम्हारी माँग के कारण, वो सब तुम रख लो। तुम्हें जो चाहिए था तुम्हें मिला। तुम्हें नीला चाहिए था, तुम्हें मिला; तुम्हें पीला चाहिए था, तुम्हें मिला। वो सब तुम ले लो। बस तुमने मुझे नहीं माँगा तो जो कुछ मैंने तुम्हें दिया है वो तुम्हें यही एहसास कराने के लिए दिया है कि बेटा, ये तुम्हें पूरा नहीं पड़ेगा।"

"जिसको जो चाहिए, आओ ले जाओ। जिसको जो चाहिए ले लो। तुम्हें पुरुष देह चाहिए, ले जाओ; तुम्हें नारी देह चाहिए, ले जाओ। तुमको भारत में पैदा होना है? ठीक है, ले जाओ। तुमको रूस में पैदा होना है? ठीक है, ले जाओ। तुम बहुत लम्बा जीवन चाहते हो, ले जाओ। जिसको जो चाहिए ले जाओ। तुम सुख चाहते हो, ले जाओ। तुम्हें दुःख के मज़े लेने है, तुम दुःख ले जाओ। लेकिन जो भी कुछ तुम ले जा रहे हो उससे तुम कभी तृप्त नहीं हो पाओगे।” ये अतृप्ति ही ईश्वर का आशीर्वाद है क्योंकि ये अतृप्ति ही तुम्हें ईश्वर की ओर लाएगी।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें