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लेख
सुनने के बाद, अमल भी करना पड़ता है || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! जब डेढ़ साल पहले किताबें पढ़नी शुरू की थी तो पढ़ने में बहुत मज़ा आता था, लगता था रोज़ कुछ नया जानने को मिल रहा है। लेकिन अब न पढ़ने का मन करता है, न ही यूट्यूब पर सुनने का। मन को लगता है कि शब्द के पीछे की जो चीज़ है, वो मौन बैठकर ही मिलेगी।

आचार्य प्रशांत: किसने बता दिया तुम्हें कि मौन में बैठने से मिलेगी? मुझे कब देखा तुमने मौन में बैठे हुए?

प्र: लेकिन सामने बैठने से बार-बार सवाल-जवाब करके कुछ फ़ायदा दिखता नहीं है।

आचार्य: सवाल-जवाब करके फ़ायदा इसलिए नहीं होता क्योंकि जो बात सामने आती है उसको कार्यान्वित भी तो करना पड़ता है न। चिकित्सक के सामने बैठे सवाल-जवाब करे, उसने तुमको पर्चा लिख कर के दे दिया और बता दिया कि साथ में ये चार-पाँच तरह के व्यायाम हैं ये रोज़ करने होंगे, ठीक है। अब न तो तुम उसके पर्चे पर अमल करो, न उसने जो व्यायाम बताए हो उनको करो तो फिर सवाल-जवाब करने से क्या लाभ होगा।

जो जाना है उसे जीना भी तो पड़ेगा, जाना और जिया नहीं तो जानना बोझ है। सबकुछ तो जीना है, वही आख़िरी बात है, जी कैसे रहे हो, क्या करते हो।

उठना-बैठना, खाना-पीना, मौन में बैठना इत्यादि कहाँ काम आते हैं।

प्र: तब तो सवाल-जवाब करने से कोई मतलब नहीं है, उससे बेहतर तो जीना ही है।

आचार्य: अब दो रास्ते निकलते हैं यहाँ से, चिकित्सक ने जो उपचार बताया हो, वो कर न रहे हो तो अधिकांश लोग तो ये कहेंगे कि जब मैं कर ही नहीं रहा जो ये सुझाते हैं तो फिर इनकी बात सुनने से क्या लाभ, बात भी सुनना बंद करो, सुन-सुनकर क्या होगा, करता तो मैं कुछ हूँ नहीं। अधिकांश लोग यही करते हैं, फिर वो सुनना भी बंद कर देते हैं। और एक दूसरा चित्त होता है वो कहता है कि भई जब बात बता दी गई है तो उस पर अमल करो। अभी तक नहीं किया तो कम-से-कम अब करो, जब जागो तभी सवेरा। अब तुम चुन लो तुम्हें कौनसा रास्ता चाहिए।

ये पक्का है कि बहुत समय तक अमल नहीं करोगे तो इसी बात की संभावना बढ़ती जाएगी कि फिर सुनना भी बंद कर दो। बुरा लगता है न अहम पर चोट पड़ती है कि इतना कुछ बताया जा रहा है, करते तो हम कुछ हैं नहीं, बड़ा अपमान सा लगता है तो आदमी फिर सुनना भी बंद कर देता है।

और ये ख़तरा सबके लिए है जो लोग बहुत समय से सुन रहे हो उनके लिए ख़तरा बढ़ता जाता है क्योंकि सुन तो बहुत कुछ लिया, उसे कार्यान्वित नहीं किया तो फिर तुम सुन भी नहीं पाओगे आगे, सुनना बड़ा अपमानजनक हो जाएगा, जितना सुनोगे उतना लगेगा जैसे थप्पड़ पड़ रहे हो।

नये-नये सुनने वाले के लिए ख़तरा कम है क्योंकि वो तो अभी जान रहा है, जो बहुत कुछ जानने लग गये हैं और उसके बाद भी कुछ करते नहीं उनके लिए तो बहुत है।

नये-नयों को तो वही होता है जो तुमने कहा मज़े आते हैं, अच्छा ऐसा भी है, अच्छा ऐसा भी है, अच्छा वाह! जैसे फौज के प्रशिक्षण में युद्ध का विडियो दिखाया जाए नये-नये रंगरूट को, वो देख रहा है वाह! अच्छा टैंक के सामने खड़े होते हैं, अच्छा सीने पर गोला खाते हैं, क्या बात है, क्या बात है! पॉपकॉर्न लाना! बड़ा मज़ा आ रहा है, क्या बात है! अच्छा चार दिन खाना नहीं मिला तो क्या किया! बुलेट खाली, मसाला लगाकर खायी है, बड़ा मनोरंजन हो रहा है ये सब देख-देखकर। शुरू में तो ऐसे ही होता है, फिर जब तैनाती होती है, फिर पता चलता है कि बात क्या है।

शुरू-शुरू के मज़े लेने और नियुक्ति के बीच में कितना फ़ासला होता है? सोम (संस्था के स्वयंसेवी की ओर इशारा करके) बताएगा, पूछ। ऋषिकेश की सुगंधित, हवा गंगा का निर्मल जल, और फिर इंडस्ट्रियल एरिया (औद्योगिक क्षेत्र) की गैस और नोएडा का आर्सेनिक मिला पानी। उसके बाद ये भी नहीं याद रह जाता कि नौ-दो कितना होता है, पूछते हो नौ-दो कितना होता नौ-दो कितना होता! फिर कोई बता देता है ग्यारह, तो भागो।

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