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लेख
सब जान के भी अनजान बनते हो || (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: सादर प्रणाम, मेरा प्रश्न ये है कि सब कुछ जानने के बावजूद भी हम अंजान क्यों बने रहते हैं या यूँ कहें कि कोई ऐसी शक्ति है जो हमे अंजान बने रहने के लिए बाध्य करती है? ऐसा क्यों होता है आचार्य जी, मुझे समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: सब कुछ जान लिया होता तो जो जाना गया है वही आपका मालिक बन जाता न। छोटी बातें जानोगे तो चूँकि वो बातें छोटी हैं तो उनके मालिक आप रहोगे। छोटी चीज़ को तो बस में किया जा सकता है न। जो एक तत्व जानने लायक है, वो बहुत बड़ा है। उसको जिसने जान लिया वो उस तत्व का मालिक नहीं रह पाता। उसे उस तत्व का ग़ुलाम हो जाना पड़ता है।

आमतौर पर ज्ञानी ज्ञान का मालिक होता है। पर जब भी तुम अपने ज्ञान के मालिक हो तो ये साफ़ समझ लेना कि ये ज्ञान छोटा है और बस तुम्हारे पूरवर्ती इरादों को पूरा करने के काम आएगा। जैसे कि तुमने मंज़िल पहले से ही तय कर रखी हो और किसी से पूछो कि रास्ता बता दीजिए। ये अभी-अभी जो तुम्हें ज्ञान मिला रास्ते का, ये तुम्हारी मंज़िल तो नहीं बदल देने वाला न? मंज़िल का इरादा पहले से तय है, ये जो अभी ज्ञान मिला है ये पहले से तय इरादे की सेवा में काम आने वाला है बस।

आमतौर पर हमारा सारा ज्ञान ऐसे ही होता है। मंज़िल हमारी पहले से ही तय होती है। उस मंज़िल का नाम है इंद्रियगत भोग। क्या नाम है? इंद्रियगत भोग। उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए आदमी जीवन भर ज्ञान इकट्ठा करता है। आपने आजतक जो भी ज्ञान इकट्ठा करा हो उसको ज़रा इसी कसौटी पर कसें। क्या वो भोग के काम नहीं आ रहा है? बिलकुल जो निर्विवाद उदाहरण है वो तो व्यवसायिक पाठ्यक्रमों का है, प्रोफेशनल कोर्सेज , वहाँ भी जा करके ज्ञान ही इकट्ठा किया जाता है न। वो ज्ञान क्यों इकट्ठा किया जाता है? ताकि उससे कोई व्यवसाय चला सको। उस ज्ञान के दम पर व्यवसायिक उपलब्धि हासिल कर सको। पैसा कमाओ और भोगो। और भी जो आपको ज्ञान है वो आप पाएँगे कि उस ज्ञान का उपयोग भोग के लिए ही किया गया है।

और कई बार ज्ञान का उपयोग जब किसी दूसरी वस्तु को भोगने के लिए नहीं किया जाता, तब ज्ञान का उपयोग ज्ञान को ही भोगने के लिए किया जाता है। ज्ञानी सदा ज्ञान के माध्यम से ही थोड़े ही न कुछ प्राप्त करता है। कई बार ज्ञान भी अपने-आपमें बड़ा उपयोगी, मनोरंजक, अह्मवर्धक अंत हो जाता है, ज्ञानी कहता है, "देखो मुझे कितना ज्ञान है।" उसने अपने ज्ञान को ही भोग कर सुख पा लिया। "देखो मुझे कितना ज्ञान है।" ये सब छोटा ज्ञान है। छोटा इसलिए है क्योंकि यह हमारे बहुत पुराने, अति-प्राचीन और पाशविक इरादों की पूर्ति में बस सेवक बन रहा है। इरादा वही है जो आज से लाखों साल पहले भी था। क्या? भोगना है। तब भोगने का तरीका ये था कि पेड़ पर चढ़ जाओ और फल खा लो। अब भोगने के लाखों तरीके उपलब्ध हैं।

इंसान ने बुद्धि का खूब इस्तमाल किया है। लेकिन उन सब तरीकों की उपयोगिता हमारे लिए आज भी वही है, क्या? भोगो। ये छोटा ज्ञान है। असली ज्ञान अगर हो, तो वो पुरानी मंज़िलों तक जाने के लिए नए रास्ते नहीं दिखाता, वो मंज़िल ही बदल डालता है। तो अगर आप मुझसे प्रश्न करके पूछेंगे कि, "आचार्य जी जानता तो सब कुछ हूँ लेकिन फिर भी जानते बूझते बेबस हो जाता हूँ, कोई मुझपर नियंत्रण कर लेता है।" तो यकीन जानिए आप अभी कुछ जानते नहीं हैं। वास्तविक ज्ञान इतनी हल्की चीज़ नहीं है कि उसको भीतर बैठी वृत्तियाँ काबू में कर लें, हिला-डुला डालें, या उसका उपयोग ही करना शुरू कर दें, ना।

बहुत प्रचलित प्रश्न है, ये बहुत लोगों के पास होगा। कहेंगे, "पता तो हमें सब कुछ है लेकिन ज़िंदगी फिर भी पहले जैसे ही चलती रहती है।" या जो कुछ हमें पता है उसके कारण जो परिवर्तन आते हैं जीवन में, वो सतही होते हैं। या वो परिवर्तन दिखाई ही तब देते हैं जब सब कुछ सामान्य चल रहा होता है। जहाँ जीवन में परीक्षा की और तनाव की घड़ी आई, तहाँ सब ज्ञान छूमंतर हो जाता है। जब तक सब कुछ शांतिपूर्ण चल रहा है तब तक श्लोक भी याद हैं मंत्र भी याद हैं और 'हरी ॐ'। और जहाँ कोई बुरी ख़बर आई या तनाव या क्रोध का मौका आया तहाँ ले डंडा और जूतम पैजार। और फिर ये सब जब हो गया तो पछताते हुए तुरंत प्रायश्चित के साथ तुरंत 'हरी ॐ'। तो लोगों के मन में एक बड़ी धारणा बैठ गई है कि, "देखो ये सब ज्ञान इत्यादि से कुछ होता नहीं, ज्ञान तो हमें भी बहुत है। हम जैसे गिरे हुए आदमी को भी पूरा ज्ञान है।" वो वास्तव में ये कहना चाहते हैं — अपनी शोभा बढ़ाते हुए — वो कह रहे हैं ज्ञान ही बेकार है। ज्ञान तो हमें भी बहुत है पर हमारी ज़िंदगी को देखो, वो कैसे लीचड़ है। हमारी लीचड़ ज़िंदगी इतना तो साबित करती ही है कि ज्ञान में कोई शक्ति नहीं। ज्ञान का कोई लाभ नहीं। तो लोगों ने अपनी लीचड़ ज़िंदगी को प्रमाण बना कर ही ये सिद्ध कर डाला है कि ज्ञान ही बेकार की चीज़ है। आप बात समझ रहे हैं?

कोई कहे कि, "मुझे देखो पूरा ज्ञान है लेकिन उसके बाद भी मेरा जीवन कैसा है? आम आदमी से भी बद्तर जीवन है मेरा, तो इससे मैं क्या सिद्ध कर रहा हूँ? कि ज्ञान बेकार की चीज़ है।" और ख़ासतौर पर भारतवर्ष में तो सब ज्ञानी हैं। यहाँ कोई ऐसा नहीं है जो अपने-आपको कभी खुले में या चोरी-छुपे अपने-आपको तत्व ज्ञानी ना मानता हो। ब्रह्म वाक्य सबको रटे हुए हैं। दो चार शब्द सबको पता हैं, 'मद-मोह-माया'। तो सबको लगता है कि ज्ञान तो हमें भी पूरा है। कुछ नहीं है वो। दो कौड़ी का भी ज्ञान नहीं है।

मैं अभी ये भी नहीं कह रहा कि ग़लती इसमें है कि ज्ञान जीवन नहीं बना है। मैं कह रहा हूँ — ज्ञान अभी है ही नहीं। मैं अभी यह भी नहीं कह रहा हूँ कि आपको नैसर्गिक ज्ञान नहीं है, कि आपको वो ज्ञान नहीं है जो ध्यान की गहनतम अवस्थाओं में उद्भूत होता है, हृदय से। मैं ये भी नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ किताबों में जो ज्ञान लिखा है अभी वो भी नहीं है। हृदय से जो ज्ञान उठता है वो तो बहुत दूर की बात है। किताबों में जो ज्ञान लिखा है अभी वो भी नहीं है। हाँ, मुग़ालता पूरा है। ग़लतफ़हमी पूरी है कि, "हम भी ज्ञानी हैं!" सबसे पहले तो मानिए कि नहीं पता है कुछ।

हमें ये ग़लतफ़हमी हो जाती है उसके कारण हैं। कोई छोटे-से-छोटा भी पाठ्यक्रम हो तो उसकी परीक्षा आयोजित होती है। आध्यात्मिक ज्ञान की परीक्षाएँ तो होती नहीं। भगवद्गीता घर-घर में है और कोई मनाही नहीं कि कोई भी खोलकर के बीच के किसी भी पृष्ठ, किसी भी अध्याय को देख लेता है। और अनुवाद नीचे लिखा हुआ है सबको लगता है, "हमने भी पढ़ लिया, सीधी सरल बात है। हमें भी पता चल ही गई, तो हम भी ज्ञानी ही हैं।" कोई परीक्षा लेने वाला हो, कोई निर्णायक हो, कुछ अंक इत्यादि आपको बताए जाएँ आपके कि सौ के पैमाने में आप कहाँ खड़े हो, तो कुछ पता भी चले कि हम कितने पानी में हैं। कुछ पता तो चलता नहीं, सबको यही लगता है कि सब पता है।

मैं मिलता हूँ लोगों से, कहेंगे, "चार वर्ष से अष्टावक्र गीता का पाठ कर रहा हूँ। आत्मा से परमात्मा का मिलन कैसे हो?" मैं कहता हूँ, तुम अष्टावक्र गीता में एक श्लोक दिखा दो जहाँ आत्मा और परमात्मा इन दो शब्दों की अलग-अलग बात की गई हो। तुमने पढ़ा क्या है?

हमारी आदत ही बन गई है न अंकों के लिए और डिग्री के लिए पढ़ने की। ये सब किया धरा बोर्ड की परीक्षाओं का है। ये तो छोड़ दीजिए कि हम गहराई से पढ़ते हैं; गहराई तो बहुत दूर की बात है। हम रट्टा भी सिर्फ़ तभी मारते हैं जब अगले दिन लिखित परीक्षा हो। अन्यथा हम रट्टा तक नहीं मारते। हम बड़ी सरसरी निगाह दौड़ाते हैं अष्टावक्र गीता पर और अपने-आपको भरोसा दिला लेते हैं कि हमें तो पता है। जितना आपको अष्टावक्र का ज्ञान है इतना आपको न्यूटन के नियमों का ज्ञान होता तो भौतिकी की परीक्षा में कितने नंबर पाते भाई? जिस हद तक आपको अष्टावक्र गीता का ज्ञान है ठीक उसी हद तक अगर आपको न्यूटन लॉज़ का ज्ञान होता तो फिजिक्स की परीक्षा में कितने नंबर आते? शून्य देने वाला भी शून्य का अपमान समझता। पर वहाँ बात खुल जाती। क्योंकि बिलकुल लिखित में सब कुछ बहुत साफ़ हो जाना था।

और कोई यह भी नहीं कहता कि बस लिख दो कि न्यूटन ने क्या-क्या नियम दिए थे। उन नियमों के आधार पर आपसे कहा जाता है कि अब तुम इन समस्याओं को सुलझाओ। ठीक ऐसा ही होता है न? फिजिक्स के प्रश्नपत्र में ऐसा ही होता है न? ये थोड़े ही कह दिया जाता है कि चलो भाई फलाना थ्योरम बता दो। आपके सामने सीधी-सीधी समस्याएँ रख दी जाती हैं। और कहा जाता है, "लो इसका समाधान बताओ।" तो फ़िर पता चलता है कि बात कितनी समझ में आई है। अब अष्टावक्र संहिता पर आधारित ऐसा कोई प्रश्नपत्र ही नहीं। तो हम मज़े में अपने-आपको आश्वस्त करे रहते हैं हमें तो पता है। पता होता तो जीवन की दो चार समस्याएँ सुलझ न गई होतीं? जैसे अगर न्यूटन की बात पता होती है तो भौतिकी की समस्याएँ सुलझ जाती हैं। वैसे ही अगर अष्टावक्र की बात वास्तव में पता होती तो जीवन की समस्याएँ सुलझ गई होतीं न।

नहीं सुलझ रही हैं समस्याएँ, मतलब नहीं पता है, पर मानेंगे भी नहीं। उल्टे ज्ञान पर ही तोहमत लगा देंगे। कि ये ज्ञानमार्ग ही मूर्खता का है, ज्ञान में क्या रखा है। और ये आजकल बड़े शान की, बड़े प्रचलन की, बड़े फैशन की बात हो गई है। "अजी साहब, ज्ञान मत झाड़िए ज्ञान से कुछ होता ही नहीं।" किसने कह दिया ज्ञान से कुछ नहीं होता? और ख़ासतौर पर आजकल एक धारा चली है दिलवालों की। वो कहते हैं, "तर्क़ से क्या होना है, बुद्धि से क्या होना है? जो भी होता है दिल से होता है।" भाई तर्क़ और बुद्धि के पार जाना एक बात होती है। पर निर्बुद्धि हो जाना तो पशु समान जैसा हो गया न। तो कहेंगे, "नहीं ज्ञान से कुछ नहीं होगा, तुम तो नाचो।"

क्या है ये? मोर भी नाचता है, तो? हमारे खरगोश हैं उनको नई खरगोशनी मिल जाती वो सब भी नाचने लग जाते हैं। तो! मुक्त हो जाएँगे?

ज्ञान के प्रति ज़रा सम्मान रखें। और ज्ञान से लाभ ना हो रहा हो तो ये ना पूछें कि, "आचार्य जी ज्ञानी होते हुए भी मैं बंधन में क्यों हूँ?" कहें कि, "आचार्य जी मुझे ज्ञान ही नहीं है।" फिर ठीक है, ज्ञान अगर नहीं है तो प्राप्त किया जा सकता है, साधना की जा सकती है, स्वाध्याय किया जा सकता है। पर अगर आप ये कह देते हैं कि ज्ञान तो है फ़िर भी बंधन है, तो आप इल्ज़ाम अपने उपर नहीं ले रहे। आपने इल्ज़ाम किसके ऊपर रख दिया? ज्ञान के ऊपर। ये गड़बड़ मत करिएगा।

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