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लेख
सिर्फ़ तुम्हारी ईमानदारी से घबराती है माया || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: इसके अध्ययन में शंकराचार्य का जब हम पूरा पढ़ते हैं तो उसमें एक बहुत डिफिकल्ट कान्सेप्ट (जटिल अवधारणा) आता है जिसको हम कहते हैं 'माया'। और ये माया ही अपनेआप में द्वैत और अद्वैत का एक तरीक़े से किसी-न-किसी रूप में अलग करने का माध्यम है। माया के कान्सेप्ट का मेरा अपना एक्स्प्लनैशन (स्पष्टीकरण) है। लेकिन मैं चाहूँगा आप विस्तार में कहें।

आचार्य प्रशांत: माया कान्सेप्ट नहीं है, माया हमारी रोज़मर्रा की हक़ीक़त है। और जब तक आप उसे कॉन्सेप्ट या सिद्धान्त कहेंगे वो आपको डिफिकल्ट ही लगेगी। सन्तों के पास जाइए तो वो कहते हैं,

माया माया सब कहे माया लखे न कोय। जो मन से न उतरे माया कहिए सोय।।

~ कबीर साहब

और कितनी सरल बात है, जो आपके दिमाग में चल रहा है उसी का नाम माया है। बताइए इसमें कठिन क्या है, डिफिकल्ट क्या है? जो भी कुछ मन में घर करके बैठ गया, जिस भी विषय में आप लगातार विचार करते रहते हैं वही मन का बोझ है। वही कबीर साहब की चक्की है, उसी का नाम माया है। कुछ उसमें कठिन नहीं।

हाँ, जब आप उसे अपने जीवन से दूर करके देखते हैं, उसे सिद्धान्त भर बना देते हैं, किताबी बात बना देते हैं तो हो सकता है कि वो कठिन लगे। चले थे मन्दिर की ओर, मुड़ गये मैख़ाना की ओर, यही माया है। इसमें क्या कठिन है? यह तो रोज़ की बात है। बैठे हैं सत्संग में लेकिन मन में घूम रहा है व्यापार, यही तो माया है। रोज़ की बात है, इसमें कठिन क्या है? अध्यात्म गूढ़ सिद्धान्तों का नाम नहीं है। अध्यात्म का अर्थ है अपनी रोज़मर्रा की बेचैनी को स्वीकार करना ईमानदारी से और फिर उसको शान्ति की ओर ले जाना। सरल, अति सरल है।

सरल, अति सरल को भी कठिन बना लेने का नाम माया है।

प्र: जैसे कि हमारा लक्ष्य जो है वो अद्वैत का है और आप कह रहे हैं कि वो सरल भी है। तो इसके साधन क्या हैं? इस सरलता से इस अद्वैत को पाने का तरीक़ा क्या है?

आचार्य: तरीक़ा एक है, उसका नाम है 'ईमानदारी'। ईमान के लिए ही दूसरा शब्द होता है धर्म, सत्यता। सत्य को पाना है तो सत्यता चाहिए। द्वैत का लक्ष्य है शान्ति। वो माने तो सही न कि शान्ति चाहिए। और तुमने अगर मान लिया कि शान्ति चाहिए तो फिर ऐसे कामों को, ऐसे सम्बन्धों को, ऐसे व्यक्तियों को और वस्तुओं को जीवन में क्यों प्रश्रय दे रखा है जो तुम जानते हो कि तुम्हें अशान्ति देते हैं। साधन नहीं चाहिए, जो साधन पहले से पकड़ रखे हैं उनका त्याग चाहिए।

जीवनभर और क्या किया है, साधन ही तो इकट्ठे किये हैं न? हमारे जीवन में, घर में, मन में जो कुछ भी मौजूद है, ग़ौर से देखिएगा, उसको हमने जीवन में सम्मिलित ही इसीलिए किया ताकि वो शान्ति की ओर ले जाने वाला साधन बने। आप किसी से मित्रता क्यों करते हैं? इसलिए तो नहीं करते कि वो आपके जीवन में उपद्रव कर दे। उस व्यक्ति को अपने साधन जाना कि ये जीवन में आएगा तो मुझे मेरे साध्य की ओर ले जाएगा। और साध्य क्या है? शान्ति। आप बाज़ार में जाकर के कोई चीज़ भी क्यों ख़रीदते हो, साधन ही तो है कि उससे आपको कुछ चैन-सुकून मिलेगा?

जीवन में जो कुछ भी उपस्थित है हमारे, हमने अपनी होशियारी में उसको एक साधन ही जाना इसीलिए जीवन में शामिल किया। अब और साधन नहीं चाहिए। अब ईमानदारी चाहिए यह देखने के लिए कि आज तक जितने भी साधन जुटाये सब व्यर्थ गये, निष्फल गये। तो मुक्ति चाहिए, उन साधनों से मुक्ति चाहिए। नये साधन नहीं चाहिए, पुराने साधनों से मुक्ति चाहिए। मुक्ति की ओर एक ही चीज़ ले जाती है — मुक्ति। और सत्य की ओर ले जाती है सत्यता, मैंने कहा, ईमानदारी।

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।

अर्जुन बोले: हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, कर्म क्या है, अधिभूत किसको कहा गया है और अधिदैव किसको कहा जाता है। यहाँ अधियज्ञ कौन है और वह इस देह में कैसे है। हे मधूसूदन! नियतात्मा मनुष्य के द्वारा अन्त काल में आप कैसे जानने में आते हैं।

~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ८, श्लोक १

प्र: पूरा का पूरा आठ प्रश्न पूछे। वहाँ अध्यात्म को डिफाइन (परिभाषित) किया गया है, ब्रह्म को डिफाइन किया गया है। जैसे हम मैथमैटिक्स (गणित) में किसी भी कॉन्सेप्ट को लेकर डिफाइन करते हैं। पर सही उदाहरण देते हैं। तमाम चीज़ें इस तरह से हमें समझ में आते हैं। उसी तरह से माया का जो मेरा पहला प्रश्न था, माया, जिसकी कोई एग्ज़िस्टन्स (अस्तित्व) नहीं है। वो कॉन्सेप्ट अपनेआप में माया की…

आचार्य: वह कॉन्सेप्ट नहीं है। “या मा सा माया” ये कॉन्सेप्ट नहीं है। समझिए बात को। आप अगर गीता का नाम लेंगे तो गीता में कोई किताबी स्थिति नहीं उपस्थित थी। जीवन सामने खड़ा था। रणक्षेत्र है, तीर है, युद्ध है। और वहाँ पर पता करना है कि अभी-अभी सही कर्म क्या है।

व्यक्ति कुछ भी करता है, समझिएगा बात को, कुछ लक्ष्य होता है न, कोई वजह होती है? मन बेवजह तो कुछ भी नहीं करता। अकारण तो हम एक क़दम भी नहीं बढ़ाते। इसी तरीक़े से अध्यात्म भी बहुत-बहुत व्यावहारिक बात है। उसको शास्त्रीय या सैद्धान्तिक मात्र मत बना लीजिएगा अन्यथा उससे लाभ नहीं ले पाएँगे। जो बात किताबी हो गयी वो जीवन में नहीं उतरेगी। जो बात सैद्धान्तिक हो गयी वो ख़ून में नहीं बहेगी फिर उससे लाभ नहीं मिलेगा। हमें तो लाभ चाहिए न। हमें मात्र नाम नहीं लेना है ब्रह्म का, हमें तो ब्रह्मस्थ हो जाना है न। हमें बस श्लोक उच्चारित नहीं करनी है। हमें तो मन्त्रों का नाद हो जाना है न। पानी का नाम लेने से प्यास थोड़े ही बुझेगी!

तो अध्यात्म इसलिए है ताकि मन की प्यास बुझे। ये जो लगातार बेचैनी बनी रहती है, ये जो मन में लगातार घर्षण, उपद्रव चलता रहता है, ये मिटे। आदमी शान्त हो जाए। आप जाएँगे वैदिक ऋषियों से पूछेंगे, वो कहेंगे तापत्रय को मिटाने के लिए है अध्यात्म, और इसका कोई लक्ष्य नहीं। मन माने ज्वर, मन माने ताप, जलता रहता है पूरा जिस्म। वो आग मिटे, आदमी शीतल हो जाए इसीलिए है अध्यात्म।

अध्यात्म ज्ञान नहीं है। अध्यात्म मन में संचित कर लेने वाली वस्तु भी नहीं है। जब भी लोगों से मिलता हूँ तो जो एक बात है जो समझानी बहुत आवश्यक हो जाती है और जो एक बात है जो बहुत सरल होते हुए भी हमारे लिए ज़रा दूर की होती है, वो यही है। भारत हो, चाहे विदेश हो, हमने शास्त्रों को भी साधारण ज्ञान की तरह ही ग्रहण किया। शास्त्रों का ज्ञान नहीं होता। अन्य विषयों का ज्ञान हो सकता है।

आप इतिहास के ज्ञानी हो सकते हैं, आप जीव विज्ञान के ज्ञानी हो सकते हैं, आप गणित के ज्ञानी हो सकते हैं, आप साहित्य के ज्ञानी हो सकते हैं। आप अध्यात्म के ज्ञानी नहीं हो सकते।

अध्यात्म तो पल-पल की ईमानदारी का नाम है। आदमी को साधारण, भौतिक, लौकिक प्रेम भी हो जाता है किसी स्त्री से, किसी पुरुष से तो फिर भीतर कुछ पल-पल होता है न लगातार? तो जब परमात्मा से प्रेम हो जाए तो बात क्या किताबी रह जाएगी? न, वो धड़कन में आएगी। उसका नाम अध्यात्म है। और अगर वो धड़कन में नहीं उतरी है तो बात बस ज़बानी है।

अगर आपको ज्ञान इकट्ठा करके ज्ञानी कहलाना है, ज्ञानी हो जाना है तो कह दीजिए कि माया सिद्धान्त है। पर अगर आपको जीवन ही बदलना है और शान्ति चाहिए तो माया को प्रत्यक्ष देखिए। और जो चीज़ प्रत्यक्ष दिख रही हो वो सिद्धान्त नहीं होती। जब तक माया प्रत्यक्ष नहीं दिखी, जब तक वो एक किताबी बात भर रह गयी तो फिर आप मुक्त हैं उसे सिद्धान्त बोलने के लिए। पर उसे सिद्धान्त बोलकर के आप लाभ नहीं पाएँगे।

प्र: प्रत्यक्ष तो है ही नहीं। कहा ही यही है कि जो चीज़ नहीं है, उसका प्रत्यक्ष कैसे, प्रत्यक्ष तो है नहीं।

आचार्य: बिलकुल है प्रत्यक्ष। अब समझिएगा सबलोग, आप जाते हैं कोई चीज़ ख़रीदने। ठीक है? कुछ ख़रीदने गये। ये ख़रीदने गये (टेबल से एक वस्तु उठाते हैं)। बात प्रत्यक्षता की है। इंसान कोई भी वस्तु क्यों ख़रीदता है? आप हीरे-जवाहरात ख़रीद रहे हों, आप गाड़ी ख़रीद रहे हों या आप कोई साधारण सी चीज़ ख़रीद रहे हों, आप उसे क्यों ख़रीदते हैं? और भूलिएगा नहीं कि ये चीज़ प्रत्यक्ष है।

आप किसी स्त्री या किसी पुरुष के प्रेम में क्यों पड़ते हैं? भूलिएगा नहीं स्त्री-पुरुष प्रत्यक्ष हैं, सामने खड़े हैं। क्योंकि आपको लगता है कि आपको उससे वो (आकाश की तरफ़ दिखाते हैं) मिल जाएगा। फ़िल्मी गाने भी कहते हैं, 'तुझमें रब दिखता है।' किसी को लगता है पद में मिल जाएगा परमात्मा, किसी को लगता है प्रतिष्ठा में मिल जाएगा, किसी को लगता है ज्ञान में मिल जाएगा। और ये सब चीज़ सामने की है न, ये सामने है न। ये जो सामने है न, इसे हम वस्तु मात्र नहीं मानते। इसे हम शान्ति मान लेते हैं, यही माया है। माया प्रत्यक्ष है, मेरे हाथों में है।

हमारे लिए चीज़ कभी चीज़ नहीं होती। हमारे लिए चीज़ सदा एक अर्थ लिये होती है। इसीलिए हर चीज़, हर व्यक्ति के लिए एक अलग चीज़ होती है।

आपका बेटा होगा वो आपके लिए जो है आपके पड़ोसी के लिए वही नहीं होगा न, क्योंकि बेटे में आप जो अर्थ देख रहे हैं वो आपका पड़ोसी नहीं देख रहा। बेटे में आप सुख, चैन, सुरक्षा, शान्ति देख रहे हैं। पड़ोसी नहीं देख रहा है। बेटा प्रत्यक्ष है कि नहीं? प्रत्यक्ष है, पर हम जान ही नहीं पा रहे हैं कि वो, वो नहीं है जो हम उसे समझ रहे हैं।

हम दुनिया की चीज़ों को दुनिया की चीज़ें नहीं समझते। हम उन्हें परमात्मा तक ले जाने वाला साधन समझ बैठते हैं, ये माया है।

और माया प्रत्यक्ष है। इतनी प्रत्यक्ष है कि सन्त कहते हैं कि अब तो उसे मैंने अपनी रसोई में लगा दिया है, मेरी चाकरी करती है। और तरीक़े-तरीक़े से उसका विवरण देते हैं। कहते हैं, 'हाट में बैठी हुई है फन्दा लेकर के। दुनिया को उसने फँसा रखा है।' प्रत्यक्ष है। बाज़ार, हाट, वहाँ और कौन बैठा हुआ है? आप जा रहे हैं बाज़ार में, लुभाया जा रहा है। और आप विज्ञापनों को भी अगर देखेंगे तो विज्ञापन आपको यही बता रहे होते हैं, ‘आओ मेरी चीज़ ख़रीदो, तुम्हें शान्ति मिल जाएगी।‘

फ्लैट्स (घर) का निर्माण करने वाले एक डेवेलपर (विकासक) की टैग लाइन (प्रचार वाक्य) है 'पीस ऑफ माइन्ड' (मन की शान्ति), 'पीस ऑफ माइन्ड'। अब ये जो फ्लैट है, यह प्रत्यक्ष है कि नहीं? लेकिन हमें बताया जा रहा है कि फ्लैट, फ्लैट नहीं है, पीस ऑफ माइन्ड है! यही माया है कि जो चीज़ सामने है, जो ईट-पत्थर मात्र है उसमें आपसे कहा जा रहा है कि पीस ऑफ माइन्ड है। और पीस और शान्ति ये तो सत्य के नाम हैं, तुम्हें ईट-पत्थर में मिलने वाले नहीं। जो चीज़ सामने है उसको देख ही नहीं पा रहे हैं कि वो वास्तव में क्या है। वो स्त्री मात्र है, वो परमात्मा नहीं है। वो बच्चा मात्र है, वो परमात्मा नहीं है। दफ़्तर, दफ़्तर है, यहाँ तुम्हें वो नहीं मिलेगा जो तुम चाह रहे हो कि मिल जाए। अन्ततः निराश होना पड़ेगा। यही माया है।

प्र: अन्धेरा, डार्कनेस है कि नहीं है, डार्कनेस से नज़र आती है। लेकिन वो है, एग्ज़िस्ट (अस्तित्व) करती है इस बात के लिए हमें एक टेस्ट (परीक्षण) लगाना पड़ेगा कि जो चीज़ एग्ज़िस्ट करती है वो अगर एक जगह से दूसरी जगह जाती है, तो उसका पता लग जाता है कि यहाँ से वहाँ चली गयी। अन्धेरे को हम रोशनी से हटा देते हैं। वो क्या एक कमरे से दूसरे कमरे में गया, अन्धेरा? नहीं गया।

अन्धेरा एग़्जिस्ट नहीं करता लेकिन अन्धेरा दिखायी पड़ता है। और वो जो हमें दिखायी पड़ता है वो क्या करता है? वो हमारे ज्ञान को, प्रकाश को, एक तरीक़े से उल्टा कर देता है। तो जो चीज़ हमें समझनी चाहिए उसको सही में न समझने का मौक़ा देना। कोई चीज़ ख़रीदने के लिए गये और हमने ख़रीद लिया, उसको एक यूज़ (व्यवहार) के लिए ले रहे हैं। वो पता नहीं कैसे आप उसको माया कहते हैं, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।

लेकिन ये उदाहरण मुझे ऐसा लगता है कि माया की बड़ी स्पष्ट उदाहरण है। और यही प्रेम का भी है। यही हमारे सम्बन्धों का है। और धीमे-धीमे अगर इस टेस्ट को हम लगायें उन चीज़ों पर जो मिथ्या हैं तो अब हमारे पास में माया का रूप जो है वो अलग-अलग आ रहा है।

आचार्य: आपके जीवन के मुद्दे क्या हैं? कमरे का अन्धकार और प्रकाश या घर के, दफ़्तर की, बाज़ार की कलह? मैं ईमानदारी की बात कर रहा हूँ। ज़मीन पर आइए, शास्त्रों के आकाश से थोड़ा नीचे उतरिए। किताबी ज्ञान मैंने बहुत-बहुत हासिल किया (मुस्कुराते हुए)। अब जो यहाँ पर हो रहा है, ये कोई कक्षा नहीं है किताबों से सम्बन्धित। ये वर्कशॉप (कार्यशाला) है, ये लेबोरेट्री (प्रयोगशाला) है। हमारे जीवन में क्या मुद्दा है कि कमरे में रोशनी है या अन्धकार है? या हमारे जीवन में ये मुद्दा है कि बीवी से कलह है, बच्चा बात नहीं सुनता, बाज़ार में दाम गिर रहे हैं? असली चीज़ों की बात करिए न।

अध्यात्म इसलिए नहीं है कि हमें दिवास्वप्न दिखाये। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि हम सूत्र और श्लोक जानकर ज्ञानी हो जाए। अध्यात्म इसलिए है ताकि आप ढंग से, चैन से जी सको। कैसे आप कह रहे हैं कि आपको नहीं समझ में आ रहा इसमें क्या माया है। (हाथ में रखी वस्तु की तरफ़ इंगित करते हुए) आप ये लेने जाते हो और ये है सिर्फ़ पदार्थ। लेकिन जब इस पदार्थ को हाथ में लेते हो तो आँखें यूँ चमकती हैं जैसे सुकून मिल गया, ये माया है। सुकून नहीं है इसमें पर दिख रहा है। नहीं है पर दिख रहा है, यही तो माया है।

कोई स्त्री किसी जवान पुरुष के सामने आती है। हाड़-माँस ही है वो, साधारण जीव है। परमात्मा नहीं है उसमें पर उसके आशिक़ को दिख रहा है। यही तो माया है। और ये माया अगर आप नहीं समझ रहे हैं तो अन्धकार और प्रकाश का दृष्टान्त लेने से क्या लाभ हो जाएगा? ये दृष्टान्त किताबों में बहुत लिखे हैं और ये दृष्टान्त करोड़ों लोगों ने पढ़े। नहीं बहुत मिलता इनसे, वो थोथा ज्ञान रह जाता है। जब तक आपको ठीक बाज़ार से गुज़रते समय, घर में, अपने निजी जीवन के पल-पल में सामने न दिखायी दे माया, जैसे कबीर साहब को दिखायी देती है, सन्तों को दिखायी देती है कि

माया ऐसी डाकनी, गयी कलेजा काट। माया ऐसी डाकनी, फन्द ले बैठी हाट ।।

~ कबीर साहब

जैसे सन्तों को दिखायी देती है न, प्रत्यक्ष बैठी। जब तक आपको नहीं दिखायी देगी तो आप भले द्वैत की बात करें, अद्वैत की बात करें, फन्दा गले में माया का ही पड़ा रहेगा। माया की परिभाषा खूब पता होगी लेकिन फिर भी गले में फन्दा माया का ही होगा। आपको परिभाषा जाननी है, या उसका फन्दा काटना है? जल्दी बताइए। फन्दा काटना है न? परिभाषा जानकर के क्या होगा अगर फन्दा नहीं कटा? परिभाषा जानकर क्या होगा अगर जीवनभर उसी के द्वारा फँसे ही रह गये तो?

प्र२: आचार्य जी, फन्दा काटने का प्रॉसेस (प्रक्रिया) क्या है? और ये शब्द जो ‘ईमानदारी’ है आपने कई बार इस्तेमाल किया उसको थोड़ा सा और डिफाइन करिए। बिकॉज़ इट इज़ ऑल्सो अ वर्ड, बट व्हाट डज़ इट मीन इन रियल लाइफ़? (क्योंकि यह भी एक शब्द है, लेकिन वास्तविक जीवन में इसका क्या मतलब है?)

आचार्य: ठीक है। बड़ा मुश्किल है। अब मुश्किल है। क्योंकि चीज़ इतनी सामने की है कि उसकी परिभाषा बताने से ही वो गूढ़ हो जाएगी। जो चीज़ बिलकुल ही सरल हो, अगर उसको परिभाषित करो तो परिभाषा उस चीज़ को गूढ़ बना देती है।

ईमानदारी क्या है? ईमानदारी यह है कि अगर मुझे शान्ति चाहिए तो मुझे शान्ति ही चाहिए। मैं शान्ति का आयोजन अशान्ति के माध्यम से नहीं करूँगा, ये ईमानदारी है। समझिए। मुझे अगर मौन चाहिए तो मुझे मौन ही चाहिए। मैं मौन का आयोजन शोर के माध्यम से नहीं करूँगा, ये ईमानदारी है। मुझे अगर सत्य चाहिए तो सत्य ही चाहिए। मैं सत्य का आयोजन ज़मीनी सम्बन्धों के माध्यम से नहीं करूँगा, ये ईमानदारी है।

कोई ऐसा नहीं है जो इस बात से इनकार करे कि उसे मुक्ति नहीं चाहिए। मुक्ति चाहिए। कोई ऐसा नहीं है जो इनकार करे कि उसको सत्य नहीं चाहिए। है कोई जो कहे कि उसे झूठ चाहिए? किसी को झूठ सुनना अच्छा लगता है? किसी को बन्धन अच्छे लगते हैं? आज़ादी सबको चाहिए, सत्य सबको चाहिए, बोध सबको चाहिए।

मैं अभी बोल रहा हूँ, मेरी बात न समझ में आ रही हो, अच्छा नहीं लगेगा न? स्वभाव है बोध। हम सब समझना चाहते हैं। और ये बात किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है। जैसे किसी को बताने की ज़रूरत नहीं होती कि तुझे प्यास लगी है, वो स्वयं ही जान जाता है उसे प्यास लगी है। इसी तरह से यह किसी बच्चे को समझाना नहीं पड़ता कि बेटा आज़ाद जियो। एक छोटे से बच्चे को भी आप उसके कपड़ो में ही बाँध दें तो वो कसमसाने लगता है, कुनमुनाएगा, रोएगा। दो दिन के जीव को भी मुक्ति चाहिए, भले ही किसी रूप में चाहिए। जब मुक्ति चाहिए ही तो सीधे मुक्ति माँग लो, इसी का नाम ईमानदारी है।

जब मुक्ति ही चाहिए, तो मुक्ति क्यों नहीं माँग लेते? चाहिए मुक्ति और चुन रहे हो बन्धन, ये बेईमानी है। और जीवनभर हम बन्धन ही चुनते रहते हैं। कभी इस बन्धन में पड़ते हैं, कभी उस बन्धन में पड़ते हैं। सम्-बन्ध — सम्बन्ध तो तब हो जब बन्धन सम्यक हो। हमारे सम्बन्ध तो बस बन्ध होते हैं अधिकांशतः। एक बन्धन, दूसरा बन्धन, तीसरा बन्धन चौथा बन्धन, पूर्ववती बन्धनों को तोड़ने की कोशिश में एक और नया बन्धन। ये बेईमानी है। चाहिए कुछ और, और चुन कुछ और रहे हो, इसी का नाम बेईमानी है। जो चाहिए उसको चुन लो, सीधी-सीधी बात!

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्। कामये दुःखताप्तानां प्राणिनाम् आर्तिनाशनम्॥

न मैं राज्य की इच्छा रखता हूँ, न स्वर्ग या मोक्ष की ही, मेरी तो यही अभिलाषा है कि दुख से पीड़ित सभी प्राणियों के दुख का नाश हो जाए।

~ सुभाषितम्

प्र: इसमें (उपर्युक्त श्लोक में) मुक्ति के लिए नहीं है चाह।

आचार्य: आपको मुक्ति चाहिए कि नहीं? अपनी बात करें। अध्यात्म आपके लिए है, उपनिषद् के ऋषि के लिए नहीं है, ऋचाकार के लिए नहीं है। आपको चाहिए कि नहीं? और नहीं चाहिए तो फिर श्लोक उद्धृत करके क्या होगा? पूरे संसार में, समझिएगा, कुछ बातें ऐसी होती हैं जो किसी को नहीं चाहिए। व्यक्ति सौ वर्ष का भी होता है तो भी उसे मृत्यु नहीं चाहिए, क्योंकि अमरता स्वभाव है।

छोटा बच्चा हो, जवान हो, चाहे वृद्ध हो, क़ैदख़ाने में रहना किसी को पसन्द नहीं होता। हाँ, ये हो सकता है कि क़ैदख़ाने में रहते-रहते आपको आदत लग जाए। थोड़ी देर पहले मैंने ज़िक्र किया था कि आदत अक्सर प्रेम पर भारी पड़ने लगती है। लेकिन आपको आदत लग भी गयी हो तो भी इसका अर्थ ये नहीं है कि आपको मुक्ति नहीं चाहिए। मुक्ति तो चाहिए ही चाहिए।

और निवेदन है मेरा कि अगर आप अपनेआप को उस स्थिति में ले आये हैं जहाँ आपको लगता है कि आपको मुक्ति नहीं चाहिए तो फिर तो आप और ज़्यादा तड़प के साथ और शिद्दत के साथ और कसमसाकर के मुक्ति के लिए प्रयत्न करें, जीवन छोटा है।

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