आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
सर, जीवन में बदलाव लाने की हिम्मत नहीं आ पा रही, क्या करूँ? || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपसे जुड़े एक साल हो गया है। गीता समागम में काफ़ी सीखने को मिला, माँसाहार तत्काल छूट गया, दूध भी छूट गया। तो एक तो बदलाव ये रहा लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि दिनचर्या का सबसे ज़्यादा हिस्सा हम जहाँ पर देते हैं यानी कि जो हमारी नौकरी है, तो अब एक और आपसे सीखने को मिला है कि इतना जल्दी मत घोषणा कर दो कि बदल गये। समय लगेगा धीरे-धीरे, धैर्य रखो, जानो, सीखो और समय दो, गीता को जीवन में उतरने दो।

फिर अभी दीपोत्सव में आपसे सुना कि जब जान गये हो कि ग़लत जगह हो तो फिर कोशिश किस बात की कर रहे हो, प्रयास किस बात का कर रहे हो। कोशिश तुम्हारी झूठी है, प्रयास झूठा है। तो समझ में नहीं आता कि जान गये हो तो प्रयास क्या कर रहे हो, हटो वहाँ से, ये एक बात। और फिर दूसरा लगता है कि जल्दबाज़ी में अगर कुछ ग़लत कर लिया तो फिर वो भी ‘माया मिली न राम’ वाली बात न हो जाए।

आचार्य प्रशांत: तो मैं दोनों काम करूँगा न, जैसे प्रेशर कुकर के साथ किया जाता है। मैं नीचे से आग दूँगा और ऊपर से ढक्कन दूँगा तभी तो आपके अन्दर दबाव बनेगा। एक ओर तो मैं ये बोलूँगा कि बैठे क्या हो, चलो उठो, विद्रोह करो और दूसरी ओर मैं आपको ये भी बताऊँगा कि अधपका विद्रोह किसी काम का नहीं होता, ये जो कच्ची क्रान्तियाँ होती हैं ये कुचली जाती हैं। और आप जीवनभर यही न कहते रह जाओ कि अभी तो मैं परिपक्व नहीं हूँ क्रान्ति के लिए, इसके लिए मैं नीचे से आग देता रहूँगा। मैं कहूँगा, कब तक इन्तज़ार करोगे, कितनी तैयारी करोगे, अभी कितना वक़्त और लगाओगे? चालीस के तो हो गये, पचास के तो हो गये, अभी कितने साल बचे हैं कि कह रहे हो तैयारी ही करता रहूँगा?

लेकिन जैसे ही आप आतुर हो जाओगे कि तैयारी पूरी हो गयी, मैं तो अब चला छोड़ने-छाड़ने और झंडा ऊँचा करने, वैसे ही मैं कहूँगा, ‘तुम्हारी तैयारी है पूरी? ज़रा ठीक से देखो, ठीक से देखो तैयारी पूरी है?’ मैं तो दोनों काम करूँगा। जिस दिन आपकी तैयारी पूरी हो जाएगी, उस दिन ढक्कन फाड़कर विद्रोह होगा। अभी तो बस सीटी मार रहे हो आप और गिनते रहते हो कुकर की तीन सीटियाँ हो गयीं, चार सीटियाँ हो गयीं। विद्रोह जब होना होता है न तो किसी के रोके नहीं रुकता, जिसे छोड़ना होता है वो किसी के बाँधे नहीं बँधता।

एक दफ़े ग्रेटर नोएडा में शिविर हो रहा था, वहाँ मैंने सबको गाना ही सुना दिया था कि जाने वाले को कोई नहीं रोक पाता, “कौन किसी को बाँध सका, सय्याद तो एक दीवाना है, और तोड़ के पिंजड़ा एक-न-एक दिन पंछी को उड़ जाना है। निकला शेर हाँके से, बरसो राम धड़ाके से।” पर शेर हाँके से तब निकले न जब शेर हाँके से निकलने को तैयार हो गया हो। तो शेर तो जब भी आएगा बोलने, ‘मैं अब बाहर निकलना चाहता हूँ पिंजड़ा वगैरह तोड़कर’, तो मैं कहूँगा, ‘अच्छा, बताओ ज़रा, गरजकर दिखाओ।’ जैसे ही मैं कहता हूँ गरजकर दिखाओ तो बोलता है, ‘भौं-भौं’, तो मैं कहता हूँ, ‘अभी तुम्हारा समय नहीं आया है, बेटा। अभी तुम बाहर निकलोगे तो पट्टा डलेगा तुम्हें और कुछ नहीं होगा। उससे अच्छा तुम पिंजड़े में ही रह जाओ, बाहर निकलोगे तो वहाँ दूसरा तुम्हारे लिए पिंजड़ा तैयार हो रहा है।’

मैं उस दिन की प्रतीक्षा में रहता हूँ जिस दिन आप अदम्य हो जाएँ। अदम्य समझते हैं? कि फिर कोई ढक्कन, कोई पिंजड़ा, कोई ताला, कोई दबाव आपको रोक न पाये। उस दिन आप ख़ुद छोड़-छाड़कर, तोड़-ताड़कर भग जाओगे। लेकिन वो दिन आये उसके लिए तैयारी बहुत करनी पड़ती है, ज़्यादातर लोगों की ज़िन्दगी में वो दिन कभी नहीं आता क्योंकि उनकी तैयारी ही कभी नहीं आगे बढ़ती। और एक बात बताऊँ, तैयारी कभी पूरी नहीं होगी, लेकिन तैयारी को एक सीमा तक, एक थ्रेशहोल्ड तक ले जाना पड़ता है, जहाँ फिर आगे की घटनाएँ स्वत: घटती हैं। पूरी तैयारी तो किसी की नहीं होती। ठीक है?

देखिए, मैं आपका हितैषी हूँ, फिर कह रहा हूँ, जीवन में मैंने नकली क्रान्तियाँ, फॉल्स रिबेलियंस बहुत देखे हैं, कच्ची क्रान्तियाँ। दो लड़के थे बंगाल के, हमारे यहाँ जुड़े, आचार्य जी को सुना, नयी-नयी एक की शायद बैंक में नौकरी लगी थी। बंगाली आदर्शवाद, बोले, ‘आपकी बात बिलकुल समझ में आ गयी है, हम देश के उत्थान के लिए काम करेंगे।’ मैंने कहा, ‘वो तो ठीक है पर अभी समझो तुम थोड़ा।’ एक का ब्याह होने वाला था, एक के घर में कुछ और ऋण वगैरह था। मैंने कहा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’ पर दोनों में से कोई नहीं थमा। पिछले तीन साल से मैंने उनकी शक्ल नहीं देखी है और उड़ती-उड़ती ख़बर आती है कि वो जहाँ भी रहते हैं, मुझे ही गाली दे रहे होते हैं। ये होती है कच्ची क्रान्ति।

अभी तैयारी पूरी नहीं है, जोश ज़्यादा चढ़ गया, निकल पड़े और फिर बाहर ऐसे ही निकल पड़ोगे तो मार खाओगे। इन दोनों दबावों के बीच, ये जो डायलेक्टिकल प्रेशर (द्वन्द्वात्मक दबाव) है, इसके बीच समझिए आपकी आग का निर्माण होना होता है। जैसे ये घर्षण हो (दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए) तभी तो कुछ गर्मी होती है और कुछ आग पैदा होती है। ये क्या है? (एक हथेली को इंगित करते हुए) ये मैं अपनी ओर से बोल रहा हूँ, ‘उठो, अभी उठो, आज नहीं तो कब? आज नहीं क्रान्ति करोगे तो कब?’ ये बोल रहा हूँ। और इधर से क्या बोल रहा हूँ? (दूसरी हथेली को इंगित करते हुए) ‘तुम तैयार नहीं हो क्रान्ति करने के लिए।’

तो ये जो दबाव है द्वन्द्वात्मक, ये जो घर्षण है, यहीं से फिर आग उठती है। न तो मैं आपको उकसाना छोड़ूँगा और न मैं आपको चेताना छोड़ूँगा। ये है मेरा उकसाना (दाहिनी हथेली को इंगित करते हुए), ‘उठो, खोलकर बन्धन, तोड़कर ताले उड़ो,’ और ये मेरा चेताना (बायीं हथेली को इंगित करते हुए), ‘अरे उड़ कैसे लोगे? तुमने तो अभी पंख ही तैयार नहीं करे हैं, ऐसे कैसे उड़ जाओगे?’

प्र: जी, धन्यवाद।

प्र२: चरणस्पर्श आचार्य जी। आचार्य जी, ये कैसे पता चले कि जो तोड़-फोड़ हो रही है जीवन में वो बोध की वज़ह से हो रही है या फिर अपनी कमियों के कारण? मैं किसी राह पर हूँ, और छः महीने पहले या जबसे मैं जुड़ी हूँ तो योजना चलती रहती है कि अब लगता है कि ये चीज़ सही नहीं है, तो ये चीज़ सही है। चलना शुरू करती हूँ, कुछ समय बाद ऐसा लगता है जो सही मान रही थी वो सही ज़्यादा लग नहीं रहा है, और आगे चल नहीं पा रही। तो बोध के कारण हो रहा है या ख़ुद के आलस के कारण, कैसे इसे समझें?

आचार्य: जो हो रहा है उसमें आपकी पीछे क्या नीयत है, क्या आप चाह रहे थे, ये देखना होता है, ये पहली बात है। दूसरी बात, अभी जब हम कोहरे के भीतर ही होते हैं न, तो ये साफ़-साफ़ पता लगाना थोड़ा मुश्किल भी होता है कि कोई क़दम किधर को क्यों बढ़ाया। कई कारण होंगे पर बड़े-से-बड़ा कारण तो बस यही होता है — भ्रम। कुछ पता नहीं था तो किधर को भी कुछ कर दिया। कुछ कर दिया, उधर से थोड़ा सा रास्ता भी निकल सकता है या चोट और तोड़-फोड़ भी हो सकती है।

तो जो पहली बात मैंने बोली कि नीयत देखो। जो भी करा उसके पीछे नीयत क्या थी, पहली बात ये बोली। उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण दूसरी बात है — जो भी हो रहा है सो हो रहा है, आगे कैसे बढ़ना है? क्योंकि जीवन तो हर पल एक नया सवाल सामने रखता है, एक नया जवाब माँगता है और वही हमारी वरीयता होनी चाहिए कि अभी क्या जवाब दें, आगे कैसे बढ़ें। पीछे क्या हुआ, क्या हो रहा है वो सब तो ठीक है, अभी पूरी सजगता में आगे बढ़ूँ न।

आप पीछे की खुशियों को या ग़मों को या अच्छाई को या बुराई को ज़्यादा महत्व दोगे तो जीवन अभी आपके सामने जो प्रश्न रख रहा है, उस पर पूरा ध्यान नहीं दे पाओगे। और पीछे जो कुछ भी हुआ है, ध्यान से देखिए, पीछे जो कुछ भी हुआ है, आपके पिछले पच्चीस साल या पैंतीस साल जितना भी है, पूरे अतीत में जो कुछ भी हुआ है वो इस पल जीवन आपके सामने जो सवाल रख रहा है, उससे कम क़ीमत का है। ये छोटा सा पल है न, ये आपके बीस, साठ, अस्सी साल के अतीत पर भारी है। पीछे आप जो भी हो आयीं, कर आयीं, जिससे भी आप गुज़र लिये वो सब होगा कुछ महत्व का, ठीक है। कौन कहता है कि महत्व नहीं रखता! होता है, इंसान हैं, अतीत का एक महत्व होता है। लेकिन आपको अभी, ठीक अभी आपको कुछ करना है, आपको जीना है। और ये जो अभी आपको जीना है इसका महत्व पिछले सब सालों के महत्व को मिला दो, उससे भी कहीं ज़्यादा है।

अच्छा आपका जो भी अतीत रहा हो वो ज़्यादा महत्वपूर्ण है या अभी आप मुझे सुन रही हैं तो सुनना महत्वपूर्ण है?

प्र: सुनना महत्वपूर्ण है।

आचार्य: बस यही बात है। पीछे की चीज़, ठीक है, अपनी एक क़ीमत रखती है पर पीछे की चीज़ है तो उसे पीछे रखो। ज़िन्दगी आपको खाली कभी नहीं छोड़ने वाली, ज़िन्दगी का मतलब ही है ये लुका-छिपी। छोटे बच्चे खेलते हैं आइ-स्पाइ (लुका-छिपी)। ज़िन्दगी का मतलब ही है — अब ये बताओ, अब ये बताओ। जैसे घर में कोई हो छोटा और उसको मज़ा ही इसी में आता हो, पहेलियाँ बुझाने में, अच्छा अब ये बताओ, अब ये बताओ।

तो ज़िन्दगी ऐसी ही है, ऐसे नादान बच्चे जैसी। आप उससे बचकर कितना भी भागते हो, पीछे से आकर के आपको ऐसे पकड़ लेगी और खींचेगी कपड़ा और कहेगी, 'अब ये बताओ, अब ये बताओ।' और आपका मन इधर-उधर ही भटक रहा है कहीं पीछे या आगे, तो वो जो सवाल होते हैं, ऐसा नहीं कि वो कोई बहुत कठिन सवाल होते हैं, बच्चों के सवाल क्या हैं, लेकिन आप सुनोगे नहीं तो जवाब तो नहीं दे पाओगे न।

प्र: आचार्य जी, जीवन में अकर्मण्यता सी आ गयी है। और मैं पहले थी नहीं ऐसी, मैं एक अच्छी स्टूडेंट (विद्यार्थी) थी। अब सामान्य सी भी परीक्षाएँ हैं या किसी चीज़ के बारे में है कि इससे आगे क्या करना है, तो ज़्यादा कुछ कर नहीं पा रही। मैं आगे नहीं बढ़ पा रही, मैं बिलकुल स्टेगनेंट (गतिहीन) हो गयी हूँ।

आचार्य: तो मैं ज़िन्दगी बन जाता हूँ, छोटा बच्चा और एकदम एक छोटे बच्चे जैसा सवाल पूछता हूँ। अभी आप जहाँ खड़ी हैं, आपके पास कुछ अनुभव है, ज्ञान है, आप कह रही हैं कि अच्छी स्टूडेंट थी तो आप जानती-समझती हैं। अपनेआप को थोड़ा हटा दीजिए, अपनेआप को ऐसे देखिए जैसे कोई और है, केस स्टडी (किसी मामले का अध्ययन) की तरह देखिए अपनेआप को। तो अब बताइए, क्या आप नहीं जानती कि ये जो व्यक्ति है, अभी मान लीजिए आप कुछ हैं, आप का नाम ‘आना’ है, आप नहीं जानती कि आना के लिए अभी अच्छा क्या है? जानती तो हैं।

जानती हैं तो जैसे छोटे बच्चे होते हैं नासममझ, वैसी नासमझी से कह रहा हूँ, ‘जानते हो तो कर दो न, दीदी!’ जब जानते हो तो ये स्टेगनेंट क्या बता रहे हो, जब सब पता है तो फिर बढ़ो आगे।

प्र: डर बहुत है उसमें कि आगे बढ़ गये तो?

आचार्य: दीदी, डर तो मेरे को भी लग रहा था पर मैंने पीछे से आकर देखो आपको पकड़ लिया कि ये सवाल बताओ। डर तो लग रहा था कि आप झापड़ मार दोगे, पर मेरे को डर कितना भी लगे,‌ मेरे को तो मज़ा चाहिए। अब मज़ा तो मेरे को तभी आता है जब मैं सवाल पूछूँ, जवाब मिले, सवाल पूछूँ, जवाब मिले। डर के बिना फिर मज़ा भी नहीं आएगा न! डर के बिना मज़ा आएगा? डर तो मेरा ही था कि दीदी ऐसी सूजी हुई शक्ल लेकर घूम रही, पीछे से खींचूँगा, ज़रूर थप्पड़ मारेगी आज। और देखो मैंने सवाल पूछा और कैसा मज़ा आ रहा है मुझे अब। वो मज़ा ही इसीलिए आ रहा है क्योंकि पहले डर लग रहा था।

वो एक विज्ञापन आता था, बोलते थे, ‘डर के आगे जीत है।’ आगे क्या है हमें नहीं पता, जीत क्या, हार भी हो सकती है, क्या पता! जीत-हार से हमें क्या लेना-देना। डर के आगे जीत है कि नहीं, पता नहीं पर डर के भीतर मज़ा है। डर के भीतर घुस जाइए और मज़े लूटिए, यही जीवन का उद्देश्य है। बाहर-बाहर डर है, अभी हम यहाँ बैठे हुए हैं गोवा में, यहाँ नारियल-ही-नारियल हैं, इधर-उधर टपकते रहते हैं। बाहर क्या है? खोल। भीतर क्या है? कोकोनेट वाटर (नारियल पानी) मस्त! डर के भीतर मज़ा है। वो नहीं मिलेगा लेकिन, नारियल पानी, अगर डर को फोड़ोगे नहीं। और डर अच्छी चीज़ है, डर को ही फोड़कर तो मज़ा मिलना है।

प्र: और ऐसा लगे — जैसे अभी आप पिछले प्रश्न में ही बात कर रहे थे — कि थोड़ी कच्ची क्रान्ति हो जाती है कि हाँ, पता है कि अभी तैयारी पूरी है नहीं और क्रान्ति कर दिये।

आचार्य: देखो भाई, ऐसा है जो ज़्यादा फुदकेंगे कि क्रान्ति करनी है, क्रान्ति करनी है, उनको मैं बोलूँगा, ‘भक्क कच्चे! जा पहले पक्का होकर आ।’ और जो कहेंगे, ‘अरे-अरे! अभी तो इन्तज़ार करना है, क्रान्ति करनी नहीं’, उससे मैं कहूँगा, ‘एक दिन तो है सोना लम्बे पाँव पसार, चल उठ, सोया पड़ा है! क्रान्ति कर!’

मैं तो आपको उकसाऊँगा भी और चेताऊँगा भी। मैं तब तक ये दोनों ही काम करता रहूँगा जब तक इस घर्षण से (दोनों हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए) इतनी ऊर्जा न पैदा हो जाए कि विस्फ़ोट ही हो जाए। वो जो प्रेशर कुकर है न, उसमें इतना प्रेशर (दाब) होना चाहिए कि फट जाए। न मैं आपको बिना क्रान्ति के चैन से सोने दूँगा, न मैं आपको कच्ची क्रान्ति करने दूँगा क्योंकि दोनों ही जानलेवा साबित होते हैं। एक ओर वो मुर्दा जीवन है जिसमें कोई आग नहीं, कोई विद्रोह नहीं, वो भी जानलेवा; और एक ओर वो है कि अभी घड़ा सूखा भी नहीं था, मिट्टी का पात्र अभी गीला था, और उसको लेकर चल दिये पकाने के लिए, उसका क्या होगा?

अंग्रेज़ी में न, जो ऐसे कच्चे लोग होते हैं उनके लिए मुहावरा होता है “वेट बिहाइंड द इयर्स” (अपरिपक्व व्यक्ति), कि अभी तो सूखा भी नहीं है। जहाँ-जहाँ पर धूप लगी वहाँ सूख गया, कान के पीछे धूप ही नहीं आती न तो “वेट बिहाइंड द इयर्स।” पहले सूख तो लो फिर क्रान्ति करना। पर कोई बोलेगा, ‘अभी तो मैं सूख रहा हूँ, सूख रहा हूँ, फिर करूँगा’, तो ऐसों को मैं छोड़ता नहीं। कहता हूँ, ‘तुम एक दिन पूरे ही सुखाये जाओगे आग के ऊपर, पूरे सुखाये जाओ उससे पहले अभी कुछ कर लो। तो करना भी है और पूरी गम्भीरता, पूरी सिंसियरिटी (गम्भीरता) से करना है, आधे-अधूरे मन से नहीं करना है।

जिन्हें सचमुच लड़ाई करनी होती है वो बिना तैयारी के लड़ाई में नहीं उतरते न। अब अर्जुन को बार-बार बोल रहे हैं कृष्ण, ‘उठाओ गांडीव, मारो तीर’, और अर्जुन मुँह लटकाये इधर-उधर घूम रहे हैं, झेंप रहे हैं, मुँह चुरा रहे हैं।

पूछा, ‘क्या हुआ?’

बोले, ‘वो गांडीव पैक करना भूल गया, वो खेमे में ही रह गया।’

'ये कोई तैयारी है? क्या करने आये फिर यहाँ पर? पर्यटन करने आये थे? देखने आये थे कि वाह क्या बढ़िया सेनाएँ सजी हुई हैं?'

गीता भी उनके लिए है जिनकी तैयारी तो हो कुछ लड़ाई की। बात समझ में आ रही है? तो जो जीतना चाहते हैं वो बड़ी गम्भीरता से तैयारी करते हैं, फिर लड़ाई करते हैं। मैं दोनों बातें चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ आप गम्भीरता से लड़ें। मैं चाहता हूँ आप लड़ें और आप गम्भीरता से तैयारी करके लड़ें क्योंकि मैं ये नहीं चाहता आप हारो। न तो मैं आपको ये करने दूँगा कि आप लड़ाई में उतरे ही नहीं, न मैं आपको ये करने दूँगा कि आप बिना तैयारी के लड़ाई में उतर आये। ये दोनों ही बातें जानलेवा हैं।

एक कायर वो है जो कभी लड़ाई में आता ही नहीं, और एक वो हैं नौसिखिएँ, अनाड़ी, जो बिना तैयारी के लड़ाई में आ जाते हैं और मारे जाते हैं। अर्जुन की तरह रहो न। गीता की सारी बात चल रही है लेकिन अर्जुन का तरकस पूरा भरा हुआ रखा है, घोड़े बिलकुल चाक-चौबन्द करके लाये गए हैं, सफ़ाई करी गयी है घोड़ों की। और मज़बूत घोड़े चुने गये हैं। सब तैयारी पूरी है, यहाँ सेनाएँ सजी हुई हैं सब। तैयारी पूरी है, तब न गीता की बात हो रही है। अब अर्जुन की जगह हो कोई ऐसा नौसिखिया और उसने आज तक धनुर्विद्या सीखी ही नहीं है, उसको थोड़े ही गीता बतायी जाएगी! सिंसियरिटी , सिंसियरिटी। हमें दोनों चाहिए रिबेलियन (विद्रोह) भी और सिंसियरिटी भी। क्रान्ति भी और क्रान्ति की पूरी तैयारी भी। और हम कह रहे हैं पूरी नहीं होती कभी तैयारी, पर जितनी कर सकते हो उतनी तो करके रखो।

मैं एक आपको इसमें बताता हूँ चेतावनी की तरह। अधूरी क्रान्ति में न, भीतर बहुत जबर माया बैठी होती है। वो कई बार जान-बूझकर आपसे अधपकी क्रान्तियाँ करवाती है, ताकि ये प्रमाणित हो जाए कि क्रान्ति तो हारेगी ही हारेगी, क्रान्ति तो हारनी ही है। समझ रहे बात को?

मैंने किसी से कहा, ‘तुम रोटियाँ जला देते हो।’

उसने बहस करी, बोला, ‘नहीं, जला नहीं देते, इतना तो होता ही है।’

मैंने कहा, ‘नहीं साहब, मत जलाइए, एक बार वो जल गयी उसमें अब कुछ नहीं बचता फिर।’

ये बोले, ‘नहीं, मैं रोटियाँ आपके लिए ज़रा करारी बनाता हूँ।'

मैंने कहा, 'करारा नहीं करना है,‌ शान्ति से इंसान की तरह ले आओ।‘

तो वो मेरे पास कच्ची रोटियाँ ले आया। ये उसने जान-बूझकर करा। बताओ क्यों? वो ये प्रमाणित करना चाहता था कि आप जो कह रहे हो, वो हो ही नहीं सकता। तो उसने ये नहीं किया कि करारी से साधारण पर आया हो, वो सीधे करारी से कच्ची पर चला गया। एक अति से दूसरी अति पर चला गया।

माया कच्ची क्रान्तियाँ जान-बूझकर कराती है ताकि वो क्रान्तियाँ असफल हो जाएँ, और फिर माया को ये कहने का मौक़ा मिल जाए कि देखो क्रान्ति करना ही बेकार की बात है। अपना तक नुक़सान कराने को तैयार रहती है।

एक को कूदने से डर लगता था ऊपर से, मैंने उस पर बहुत दबाव बनाया, मैंने कहा, ‘कूदो, कुछ नहीं होगा, कूदो, कुछ नहीं होगा, कुछ भी नहीं होगा, कूदो।’

और वो कहे, ‘नहीं कूदूँगा, कूदने में ये होगा, जान चली जाएगी।’

मैंने कह, ‘कूदो-कूदो-कूदो।’

तो वो कूदा, कुछ हुआ नहीं। मुझे लगा उसके चेहरे पर सन्तोष का और सन्तुष्टि का और विजय का भाव आएगा। नहीं, उसके चेहरे पर अपमान का भाव था। क्योंकि वो जो इतने दिनों से दावा कर रहा था वो दावा झूठा हो गया। वो क्या बोल रहा था? कि इतनी ऊँचाई से कूद नहीं सकते। मैंने कहा था, 'कूदो, कुछ नहीं होगा।' अगले दिन जानते हो मुझे क्या पता चला? उसने अपनी टाँग तुड़ा ली है, कैसे? और ऊँचाई से कूदकर। और कह रहा, ‘देखा, मैं तो कहता ही था कि कूदो तो टाँग टूट जाती है, देखा मेरी बात सही निकली, कूदने से टाँग टूट जाती है।’

माया जान-बूझकर कच्ची क्रान्तियाँ कराती है, अव्यावहारिक क्रान्तियाँ कराती है ताकि क्रान्ति असफल हो और ये प्रमाणित हो जाए की क्रान्ति करनी ही नहीं चाहिए।

तो हमें क्रान्ति करनी भी है और हम सिंसियर हैं तो हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे कि जिसमें पहले से ही निश्चित है कि यहाँ तो मुँह ही टूटेगा हमारा, ऐसा हम कुछ नहीं करेंगे। हम क्रिकेट की भाषा में कहें तो एक ओवर खेलकर स्लॉगिंग के लिए नहीं उतरे हैं, हमें ढाई सौ गेन्दें खेलनी हैं, और ढाई सौ गेन्दों पर डेढ़ सौ रन बनाने हैं। हम लम्बी पारी खेलने आये हैं, हम लम्बी रेस के घोड़े हैं। चूँकि हम सिंसियर हैं, इसीलिए हम बिना बात के बल्ला नहीं घुमाएँगे।

हम जीतना चाहते हैं, हमें पता है हमारा जीतना बहुत ज़रूरी है‌ क्योंकि हमारे जीतने पर इस पूरी पृथ्वी का भविष्य आश्रित है, इसलिए हम व्यर्थ में तलवार नहीं भाँजेंगे। जहाँ पर हमें पंगे करने की ज़रूरत नहीं वहाँ पर हम जाकर के आफ़त मोल नहीं लेंगे। वी विल बी वेरी सेलेक्टिव अबाउट द बैटल्स वी फ़ाइट बीकॉज़ वी आर सिंसियर (हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं उसमें बहुत चयनात्मक रहेंगे क्योंकि हम ईमानदार हैं)।

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