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लेख
सिख होने का विनम्र अनूठापन || आचार्य प्रशांत (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: सिख धर्म का मतलब ही यही है कि पूरा फैलाव जिसमें जो कुछ भी उचित लगता है — फ़र्क ही नहीं पड़ता कि किसने कहा और कब कहा — मैं उसको सुनूँगा और उसके सामने सिर झुकाऊँगा, समादर दूँगा उसको। गुरुओं ने कभी ये नहीं कहा कि हम अवतार हैं, उन्होंने बस इतना ही कहा कि हम टीचर हैं, गुरु हैं। सही बात तो ये है कि ग्रन्थ साहेब कहता है कि अगर गुरुओं की मूर्ति लगाकर उसकी वैसी ही पूजा कर दी जैसी ये देवताओं की हिन्दू लोग करते हैं, तो बड़ा बुरा होगा तुम्हारे साथ।

बड़ी ह्यूमिलिटी (विनम्रता) है, देख रहे हैं? पहली बात तो ये कि कोई आदमी ये नहीं कह रहा कि मेरी कही बात बिलकुल ठीक है, वो दूसरे और प्रचलित धर्मों, सम्प्रदायों, मान्यताओं के लोगों को भी ला रहा है और उनको शामिल कर रहा है। दूसरी बात, वो ख़ुद निषेध कर रहा है कि मुझे किसी भी तरीक़े से ये तो छोड़ ही दो कि भगवान मान लिया, मुझे भगवान का पैगम्बर भी मत मान लेना, मैं बस एक गुरु हूँ, टीचर हूँ।

तो बहुत-बहुत अनूठा है सिख धर्म इस मामले में, जिसमें न कोई अवतार है और न कोई पैगम्बर है। न तो अवतार है, न तो पैगम्बर है, सिर्फ़ गुरु है। और जब गुरु गोविन्द सिंह जी ने ये कहा कि अब मैं ख़त्म कर रहा हूँ — शारीरिक रूप से अब कोई और गुरु नहीं होगा — शारीरिक रूप से गुरुओं की जो पूरी शृंखला है मैं उसको ख़त्म कर रहा हूँ, तो उन्होंने यही कहा कि अब लगातार जो गुरु रहेगा वो ग्रन्थ साहेब ही है, अब वो इटरनल (शाश्वत) गुरु रहेगा तुम्हारा।

सिखों में बड़ा मान है इसका। जिस तरीक़े से वो गुरु के सामने जाते, ठीक उसी तरीक़े से ग्रन्थ साहेब के सामने जाते हैं, वैसे ही पूजते हैं। बच्चा जन्म लेता है तो बच्चे का नाम रखा जाता है, कैसे? कि ग्रन्थ साहेब को खोला जाता है, उसका जो पन्ना सामने आया, उसका जो पहला अक्षर है, उसी से बच्चे का नाम रख देते हैं। शादी-ब्याह होते हैं तो कैसे? कि ग्रन्थ साहेब को रखा बीच में और लगाये उसके चार चक्कर।

श्रोता: चार या सात?

आचार्य: नहीं चार चक्कर, सात नहीं। मृत्यु के समय भी पाठ होता है तो बिलकुल केन्द्रीय है वहाँ पर जीवित गुरु की तरह ही।

सिख होना अपनेआप में बहुत-बहुत मुश्किल काम है। सिख होना अपनेआप में बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि सिख का मतलब है कि मैं लगातार सीख रहा हूँ, मैं शिष्य हूँ। अन्तर समझेंगे, शिष्य और अनुयायी में बड़ा अन्तर है। स्टुडेंट (छात्र) और फॉलोवर (अनुयायी) में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। अनुयायी हो जाना बड़ा आसान है, अनुयायी हो जाने का मतलब जानते हो क्या है? कि किसी ने कुछ बता दिया है मैं उसको?

श्रोतागण: फॉलो कर रहा हूँ।

आचार्य: फॉलो कर रहा हूँ, मान रहा हूँ कि इस तरीक़े से ज़िन्दगी जियो। शिष्य होना बिलकुल दूसरी बात है। शिष्य होने का मतलब है, ‘मैं लगातार सीख रहा हूँ, मैंने कुछ मान नहीं लिया है, मैं लगातार सीख रहा हूँ।’ अ कॉन्सटेंट ओपननेस टू लर्निंग, दैट इज़ व्हाट अ स्टुडेंट इज़ (सीखने के प्रति निरन्तर ग्रहणशीलता, यही होता है एक शिष्य)। और सिख होने का मतलब है कि मेरा सिर लगातार झुका हुआ है, इसीलिए गुरु हैं वहाँ पर। तो वो हैं गुरु और ये हैं शिष्य। तो जो दस गुरु थे और फिर हैं ग्रन्थ साहेब और मेरा सिर। सिर माने क्या? सिर झुकने का मतलब ये नहीं है कि मैंने अपनी आवाज़ दबा दी है, सिर झुकने का क्या मतलब है?

श्रोता: ईगो (अहंकार)।

आचार्य: अहंकार। कि अहंकार मेरा लगातार दबा हुआ है, मैं नहीं हूँ, सत्य है। मैं नहीं हूँ, सिर्फ़ एक फैलाव है जो सीखने को तैयार है। तो वास्तविक रूप में देखा जाए तो दुनिया का सबसे मुश्किल धर्म भी सिख धर्म ही है। और कोई धर्म नहीं कहता कि शिष्य बनो, हर धर्म अनुयायी चाहता है। सिखिज़्म (सिख धर्म) शिष्यत्व चाहता है और शिष्यत्व अहंकार को बिलकुल नहीं भाता। आप अहंकारी होकर सिख हो ही नहीं सकते, क्योंकि बात बिलकुल पैराडॉक्सीकल (विरोधाभासी) हो जाएगी। तो एक अहंकारी सिख इज़ अ कॉन्ट्राडिक्शन (एक विरोधाभास है), ठीक वैसे ही जैसे कि ईगोइस्टिक स्टुडेंट (अहंकारी छात्र)। या तो ईगो होगी या स्टुडेंट होगा, दोनों एक साथ हो नहीं सकते।

जब हम देखेंगे नानक साहब को तो सबकुछ दिखाई देगा, नानक कहीं नहीं दिखाई देंगे। ये सिर्फ़ दो हालातों में होता है — एक तब जब आप बड़े नकलची हों कि सबकुछ दूसरों का उठा लिया है। और दूसरा तब जब आप बिलकुल शून्य हों, अपना कुछ नहीं बचा, क्योंकि अपना तो अहंकार ही होता है। दोनों हालातों में आप जो कुछ करते हैं उसमें आपका कुछ नहीं होता है। पहला कब? जब आप पूरे नकलची होते हैं, सिर्फ़ दूसरों से कॉपी (नकल) करते हैं, तब भी आपका कुछ नहीं होता और दूसरा तब जब आप बिलकुल नि:शेष हो गये होते हैं, शून्य! तब भी आपका अपना कुछ नहीं होता।

तो जो देखना चाहेंगे उनको दिखाई देगा कि इसमें लगातार उपनिषद् बोल रहे हैं, लगातार कबीर साहब बोल रहे हैं, लगातार बाबा फ़रीद बोल रहे हैं, लगातार भक्ति की धारा है। उन्हें इस्लाम का मोनोथिज़्म (ऐकेश्वरवाद) दिखाई देगा साफ़-साफ़, उन्हें वेदान्त की पूरी जो मेटाफिज़िक्स (तत्व मीमांसा) है, वो दिखाई देगी। आत्मा, परमात्मा, जीवात्मा, बिलकुल वही शब्द, उन्हीं का प्रयोग दिखाई देगा। और नानक साहब ने कोई ऐसी नयी बात कही भी नहीं।

आप आमतौर पर भी पढ़िए तो आपको यही सुनाई देगा कि सिखिज़्म वॉज़ ऐन एमेलगमेशन ऑफ़ द कंटेम्परेरी रिलिजन्स (सिख धर्म समकालीन धर्मों का एक मिश्रण था)। हिन्दूइज़्म , इस्लाम सबको लिया और एमेलगमेट (मिश्रित) कर दिया। इसका अर्थ ये नहीं है कि हिन्दूइज़्म और इस्लाम को मिला दो तो सिख हो गया। इसका ये अर्थ है कि मैं सबकुछ जान रहा हूँ और जानने के फलस्वरूप जो घटना घटती है वो है सिख धर्म।

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