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लेख
श्रद्धा है विश्वास की परिपूर्ति || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

निरोधादीनि कर्माणि जहाति जड़धीर्यदि |मनोरथान् ‍‌प्रलापांश्र्च कर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात् ||

अष्टावक्र गीता

(अध्याय १८, श्लोक ७५)

आचार्य प्रशांत: किसका है यह? क्या करें इसका |

श्रोता: इसमें लिखा हुआ है की मन को नियंत्रित करो |

आचार्य जी: इसमें लिखा है की तुम्हारी जागृति हुई नहीं है और तुमने तरीके अपना रखे है मन को पकड़ने के| मन का निग्रह करने के, मन का निरोध करने के तरीके तुमने पकड़ रखे है | तो अष्टावक्र तुमसे कह रहे है जैसे ही उन तरीकों को छोड़ोगे तुम दुबारा वही पहुँच जाओगे, जैसे तुम थे | तरीके काम नहीं करेंगे | तरीकों से अगर कुछ बदलाव आया है तो तरीके के जाते ही चला जायेगा| समझे बात को? तरीका वहीँ अच्छा जो तरीके से मुक्त कर दे |

तरीका वहीँ अच्छा जो तरीके से मुक्त कर दे |

ऊपर-ऊपर से मिट्टी पर जब भी पानी पड़ता है तो क्या होता है ? क्या होता है ? उस पर जब भी धूप पड़ती है उस पानी का क्या होगा ?

श्रोता: सूख जायेगा |(सब एक साथ)

आचार्य जी: सूख जायेगा ना | मिट्टी है, उसकी सतह पर कभी पानी को जमा देखा है | जबरदस्त बरसात हो , जबरदस्त बरसात हो तो भी ज़मीन के ऊपर, भूमि के ऊपर कितने समय तक पानी जमा रहेगा | दो हफ्ते, बहुत बारिश हो गई, बाढ़ ही आ गई तो भी पानी कितनी देर तक जमा रहेगा ? एक महीना, दो महीना और जो जमीन के नीचे पानी होता है, जमीन के नीचे पानी होता है उसको कभी सूखते देखा है ? समझ में आ रही है बात ? तरीके ऊपर-ऊपर वाले है | ऊपर जब पढ़ा और ऊपर को ही गायब हो गया | वह अन्दर तक प्रवेश नहीं होगा | तो एक बात तो यह है की ऊपर से पानी डाल दो मिट्टी गीली हो गई और दूसरा यह है की अन्दर से उठा पानी | वह भी गिला करता है | एक में बहार से लाके बाल्टी का पानी डाल दिया और दुसरे में लगा लो जैसे हैण्डपंप का पानी | हैण्डपंप बहुत मुश्किल से सूखते हैं |कभी ऐसा होता भी है अगर तो उसमे थोड़ी सी और ड्रिलिंग कर दें, गहराई बढ़ा दें, हैण्डपंप सदा चलेगा | हैण्डपंप कभी धोका नहीं देता |

बारिश का पानी दोखा दे जायेगा और चलेगा भी बहुत नहीं, समझे बात को ?

बार-बार वह ये ही कह रहे हैं अष्टावक्र , की जो जड़ है वह कुछ भी कर ले जड़ ही रहेगा और

**जो बोध्युक्त है वो बोध्युक्त है ही , वह कुछ करे या ना करे |**

जड़ के जितने प्रयत्न हो सकते हैं उन सारे प्रयत्नों को एक-एक करके अष्टावक्र काट देते हैं | कहते है अरे! मूर्ख तू यह करेगा तो भी मूर्ख ही रहेगा |जड़ की यह चेष्ठा भी उसकी जड़ता हटाएगी नहीं |लगातार ये ही कहते रहते हैं, और दूसरी ओर वह ज्ञानी की, योगी की बात करते हैं | जिसको वह कहते हैं की विश्राम भी कर रहा है तो भी योग में है | कोई विधि कोई तरीका नहीं लगा रहा है तो भी वह ज्ञानी ही है | ये बात क्या है , क्या यह किस्मत की बात है की एक ऐसा है जो कुछ भी करले तो भी बिचारा जड़ ही रह जाता है और दूसरा ऐसा है की मस्त हो कर घूम रहा है | उसे कुछ करना भी नहीं पड़ रहा | तब भी वह ऊँचे के ऊँचे ही बैठा हुआ है | क्या माजरा क्या है यह ?

बोलो, यह जड़ और बुद्ध पुरुष में मूल अंतर क्या है ?

श्रोता: अन्दर का बहुत ठोस रह जाता है |

आचार्य जी: इसको ऐसे पढ़ना, हाँ ठीक कह रहे हो | इसको ऐसे पढ़ना की जितनी बातों को अष्टावक्र काट रहे हैं की जड़ यह भी करे तो भी व्यर्थ हो जायेगा, जड़ ऐसा हो तो भी व्यर्थ हो जायेगा, जड़ इन-इन तरीकों में उलझा रहता है और इन-इन तरीकों से बहार आने की कोशिश करता है, ठीक है | जो-जो अष्टावक्र कह रहे हैं बस उन सब में विश्वास रखना ही जड़ता है, ये ही जड़ता है | जड़ता क्या है ? जड़ता स्वाभाव तो हो नहीं सकता | ऐसा तो है नहीं की कोई जड़ पैदा ही हुआ है की कोई बेचारा अभिशप्त है की तू जड़ ही रहेगा जीवन भर | ऐसा तो है नहीं | अभिशप्त, ऐसा तो है नहीं | तो जड़ता क्या है ? जिन-जिन बातों को अष्टावक्र जड़ के साथ सम्बंधित करके काटते हैं ठीक उन्ही बातों में जो यकीन रखे वह जड़ है | तुम्हारा यकीन ही जड़ता है |

प्रस्तुत श्लोक में क्या हो रहा है की जो विधियों में यकीन रखे वहीँ जड़ है | कोई और अंतर है ही नहीं जड़ में और बोद्धवान में | जड़ क्या कहता है की मन का शमन कर लूँगा विधियाँ प्रयुक्त करके | जड़ कौन? जो इस यकीन में जी रहा है की तरीके लगाऊंगा जिनसे मन का शमन-दमन हो जायेगा |

तो हम इसे पढ़ते कैसे हैं, श्लोक को | हम ऐसे पढ़ते हैं की जड़ अगर विधियाँ भी लगाये तो भी उसका कल्याण नहीं हो सकता | हम इसे ऐसे पढ़तें है ना | इसको थोड़ा सा बदल के पढ़ो, जड़ यदि विधियाँ भी लगाये तो भी उसका कल्याण नही हो सकता |

जड़ है ही वही जो सोचे की कल्याण हेतु विधियाँ लगानी पड़ती हैं

ऐसे समझो | अब से अष्टावक्र जहाँ कहीं भी बोधि की और जड़ की बातें करे तो तुरंत जान लो की जो जड़ की हरकतें हैं उन हरकतों में विश्वास रखना ही जड़ता है | जड़ जिन हरकतों का इस्तमाल करता है जड़ता से मुक्ति के लिए उन गतिविधियों में और उनकी सार्थकता में जो विश्वास रखे सो ही जड़ है | तुम अगर तरीकों में विश्वास रखते हो तो यही जड़ता है | अष्टावक्र तुमसे कह रहे हैं कोई तुममे किंचित भी दाग है नहीं | मूलता तो सब साफ़ शुब्र आकाश ही है | तुम्हारे विश्वास हैं उन्ही को जड़ता का नाम दिया है | हम सब विश्वासों में जीतें हैं |वह जो था ना की बग्धोविमानी बग्ध और मुक्ताविमानी मुक्त होते, वो वहीँ हैं | यह जो अभिमान शब्द है ना यह विश्वास है | जो कहे दयाभिमानी तो मतलब जिसका यह विश्वास हो की मैं मुक्त हूँ |

आपके विश्वास की क्या गुणवत्ता है वही आपके जीवन की गुणवत्ता है,

ठीक है?

बहुत स्थूल आपका जो विश्वास है वह मेरा विश्वास ही है, यकीन और जब बहुत सुक्ष्ण आपका विश्वास हो जाता है तो उसी के लिए हम एक ख़ूबसूरत शब्द प्रयुक्त करते है, श्रद्धा | विश्वास ही है वह विश्वास की ही कोटियां है | तो जड़ कौन है ? जड़ वह है जिसका विधि जैसी स्थूल चीज़ पर विश्वास है |

तुम कौन हो यही से निर्धारित होता है की तुम्हारे विश्वास की गुणवत्ता क्या है |

विश्वास हम सब करते हैं | अब कोई अपनी चालबाजी पर विश्वास करता है , और कोई अस्तित्व की लीला में विश्वास रखता है | विश्वास सब को है | अपनी चालबाजी स्थूल है | अस्तित्व क्या खेल खेलेगा, वह मन की पकड़ में नहीं आता है इतना सूक्ष्म है | इसलिए उसमे यकीन कर पाना बड़ा मुश्किल होता है | दवाई स्थूल है, प्रार्थना सूक्ष्म है | दवाई पर हम विश्वास कर ले जातें हैं | प्रार्थना हम जानते ही नहीं, बात समझ रहे हो? किताब स्थूल है और किताब तुम्हारी आत्मा को जो जागृति दे सकती है वह सूक्ष्म है | तो हम किताब ,किताब के पन्नो, किताब के शब्दों पर विश्वास कर ले जातें हैं | पर उसकी आत्मा पर , उसके सार पर , उसके तत्व पर हमारा कोई विश्वास नहीं होता | हम जानते ही नहीं आत्मा| आत्मा माने क्या ? शब्द है | शब्द हम खूब जानते हैं | अभी लोग मिल जायेंगे जिन्होंने शब्द खूब रट रखे हैं | खूब रट रखे हैं |

स्थूल शब्द, मोटे | आँखों को दिखाई पढ़ते हैं न शब्द और कागज मुट्ठी में भींचा जा सकता है | शब्द आँखें देख सकती है और कागज को त्वचा छू सकती है | उसमे विश्वास हो जाता है, बात समझ में आ रही है ? तुम किसको मानते हो की है |

तुम जिसको मानते हो की है वही तुम हो और वही तुम्हारा जीवन है |

अगर तुम मानते हो की संसार है तो एक बढ़ी अद्भुत बात होगी की यदि संसार है तो तुम भी संसार हो फिर तुम नहीं हो | जिसने संसार को माना उसका होना मिट जायेगा | क्योंकि अगर संसार है, वास्तव में है तो तुम भी संसार ही हो | हालाँकि तुम जब संसार को मानोगे तो तुम कहोगे मैं और संसार | लेकिन नहीं, अगर संसार है तो तुम क्या हुए ?

श्रोता: संसार |

आचार्य जी: और एक दूसरा मन होता है जो कहता है सत्य है |

**जिसने सत्य में श्रद्धा रखी वह सत्य ही हो गया** और कुछ नहीं है भगवत्ता की प्राप्ति , और कुछ नहीं है मोक्ष | मोक्ष का अर्थ ही यही है की सत्य है, सत्य है |

तुम्हारा जगत के विषय में जो विश्वास है वही तुम्हारी आत्मछवि है | दोनों एक है | तुम दुनिया को जैसा देखते हो ठीक वही तुम हो | दुनिया में अगर तुम्हे पदार्थ ही पदार्थ दिखाई देते हैं | त्यौहार का समय है तुम बाजार की ओर निकलो और तुमको चरों ओर क्या दिखाई देगा अभी आजकल मिठाइयाँ , आभूषण, रौशनी, सेल लगी हुई है, है ना? कान में यह सब आवाजें, ठीक है | हर तरह की सामग्री तुम्हे बिकती हुई दिखाई दे रही है, और अगर तुम पाओ की तुम्हारा या तुम्हारे आस पास के किसी का मन उनकी ओर बार-बार खीच रहा है , तो उससे यही सिद्ध होता है की तुम भी मात्र पदार्थ हो | पदार्थ ही पदार्थ की ओर खिचता है | तुम्हे पदार्थ खूब खींच रहा है तो इससे यही सिद्ध होता है की तुम भी मात्र देह हो, ये ही तुम्हारी अपने विषय में औधारणा होगी | यदि आज हम ऐसे हो गये हैं की अपने उत्सव को भी सब से विकृत रूप से, सब से स्थूल रूप से मानते हैं | मुँह में मिठाई डालते हैं, आँखों को रौशनी देते हैं ,कान को पटाखों की आवाज देते हैं तो इससे क्या सिद्ध होता है, इससे हमारे बारे में क्या पता चलता है, की हम अपने आप को क्या जानते है ?

श्रोता: पदार्थ |

आचार्य जी: पदार्थ | यही कारण है की बाहर हमें उत्सव में भी पदार्थ ही पदार्थ चाहिये | बोध्वान में और जड़ में सिर्फ मान्यता का फर्क है | वह क्या मानता है, और कोई फर्क नहीं है | कोई फर्क ही नहीं है | तुम क्या मानते हो, तुम्हारा क्या विश्वास है, तुम कौन हो, दुनिया क्या है | बस यही है | में कौन हूँ यह वस्तुतः कोई आध्यात्मिक प्रश्न नहीं है | जो घोर संसारी है उन्होंने भी इसका उत्तर तो अपने आप को दे ही रखा है | हाँ, उनके उत्तर ऐसे हैं जो उनको नरक में डाले हुए हैं | गलत सही की क्या बात करें | हाँ , कष्ट की और आनंद की बात तो हम कर सकते हैं | तो उत्तर सब ने अपने आप को दे रखा है | कोहम प्रश्न अस्तित्व सब से पूछता है और हर मन द्वारा अवतरित है वह | कोई नहीं है जिसके पास इसका जवाब ना हो , में कौन हूँ ? और इस जवाब की गुणवत्ता मैं दोहरा रहा हूँ | इसी जवाब की गुणवत्ता फिर आपके जीवन की गुणवत्ता हो जाती है | आप कौन है ? समझ रहे हैं आप बात को?

तो जो जड़ व्यक्ति है वह यकीन करता है, अष्टावक्र कह रहे हैं , ‘विधियों में’ | किस में करता है यकीन ?

श्रोता: विधियों में |

आचार्य जी: विधियों में | विधि क्या है ?

श्रोता: कुछ करना जिसको न करो |

आचार्य जी: या कुछ करना भी |

श्रोता: कुछ जोड़ देना |

आचार्य जी: क्या है विधि में जो जुड़ा ही है की यह तो नहीं हिलेगा |

फिर से पूछता हूँ | विधि में कुछ तो है, ऐसा होता है जिसको आप कहते हो , की यह तो ध्रुव है , ध्रुव समझ रहे हो ? ध्रुव मतलब अटल | यह नहीं है मेरा | बाकि सब इसके चारों ओर हिलेगा | वह कौन है जो ध्रुव है ?

श्रोता: जो विधियाँ कर रहा है |

आचार्य जी: और विधि करी किस लिए जा रही है जिसको आपने अटल, अचल बना दिया उसी को हिलाने के लिए विधि का प्रयोग है और आपने उसी को क्या बना दिया, केंद्र की यह तो पोल है ध्रुव है | यह नहीं हिलेगा | इसके चारों ओर विधि नाचेगी | विधि का सारा नाच समय में नाच है | विधि कहती है करो , भविष्य में फल मिलेगा | विधि क्या कहती है ? करो, भविष्य में फल मिलेगा | अभी कैसे रहोगे ? सुरक्षित | अष्टावक्र कह रहें है जरुआत क्या है अपने को अभी सुरक्षित रखने की |

एक मान्यता ही तो है तुम्हारी सारी बीमारी |

वह कोई असली दोष तो है नहीं जिसको हटाने में बड़ा वक्त लगे | मान्यता ही तो है जो पकड़ रखी है | तो क्षण भर में भूल जाएगी |तुम क्यों लम्बा चौड़ा इलाज कर रहें हो एक ऐसी बीमारी का जो स्वप्नवत है |

सपना क्षणे-क्षणे तो नहीं घुलता| एक चोट पढ़ती है तुम उठ जाते हो | तो जरुरत क्या है समय में इसको खींचने की | अष्टावक्र को यह इसलिए कहना पढ़ रहा है क्योंकि मन ऐसा चालाक है की वह विधि को अपनी मौजूदगी का, अपने कायम रहने का, अपनी सुरक्षा का साधन बना लेता है | दावा तो यह है की विधि अपनाई जा रही है ताकि हम बदलें, और अन्दर ही अन्दर खेल क्या है की विधि अपनाई जा रही है ताकि बदलना स्थगित किया जा सके, बात समझ रहे हो ? देखिये आपको मोटापा घटना हो आप उसके लिए एक महीने का कोई कोर्स कर सकते हैं | स्थूल बात है | जो स्थूल चीज है वह वक्त लेगी | आपको मान्यता घटानी हो उसके लिए आप कहें मुझे महीनो सालों लगेगा तो अष्टावक्र कह रहें है बेमानी है |तूम्हारा अभी इरादा नहीं है | तुम्हारा इरादा हो तो अभी होगा | मान्यता मोटापे की तरह नहीं है , चर्बी नहीं है वह| ‘जाग्रति’ पल भर का खेल होती है | सुना है ना वह ज़ेन में क्या बोलते हैं , “अचानक गरज का संघर्ष”, बिल्कुल काला आकाश है उसमे अब कोई संभावना नहीं है की इतनी तीखी कौन आ सकती है और सूरज जैसी ही रौशनी कौंध जाती है अचानक | “अचानक गरज का संघर्ष”, तो कोई पूर्वानुमान नहीं हो सकता | कहाँ से आ गई | काला है असमान, बादल घिरे हुए हैं | जाग्रति ऐसी होती है | “वज्र”, ! वह ऐसी नहीं होती , धीरे-धीरे धीरे सूरज उग रहा है | मन क्या चाहता है कैसी रहे, आये तो पर हमारे शर्तों पर आये | हम उठेंगे भी तो अपने हिसाब से उठेंगे | पहले कोई आये हमें सहलाये , फिर कोई “बेड टी” रख दे, फिर कोई धीरे से पर्दा खोले, फिर कोई हमारी पसंद का संगीत | फिर हम धीरे-धीरे अन्गढ़ियाँ लेते हुए उठेंगे | बात यह है की उस उठने में आप कायम रह जाओगे | जब आत्मिक जाग्रति की बात होती है तो वहाँ पर उठाने का मतलब होता है मरना | वहाँ जगने का मतलब होता है मरना मतलब उसका ना रहना जो उठ रहा है |

‘जागरण’ का अर्थ होता है जागृत होने वाले का विलय |

तो उसमे उसकी दी हुई शर्तों पर चला जाये | बात बढ़ी अजीब है | जिसको जाना है उसकी शर्तों पर उसे विदा किया जाए ऐसा तो कभी हो नहीं पायेगा क्योंकि जिसे जाना है उसकी तो हर शर्त के पीछे भावना एक ही होगी, क्या ? मैं न जाऊं | तो आप असंभव की मांग कर रहे हो |आप जिसको भेजना चाहते है वह कुछ शर्ते रख रहा है की ऐसा ऐसा कर दो तो चला जाऊंगा और उसकी हर शर्त के पीछे खेल क्या है ? मैं ना जाऊं | आप जितना उसकी शर्त पूरी करेंगे उतना वह और नहीं जायेगा | उसकी शर्त उसे और मजबूत कर रही है | बात आई समझ में ?

आप कही को जाने के लिए निकलते हैं | मान लीजिये आज मैं पूछ रहा था की आज यहाँ लोग कम क्यों हैं | आप कहीं को जाने को निकलतें हैं , आप यहाँ आ रहें है ऑफिस , सेशन को | छोटी दिवाली के दिन , दिवाली के दिन आप यहाँ आ रहे हैं | कोई आप को रोक देता है और वह आपसे क्या कहता है, इन दो दिनों न जाओ फिर चले जाना | आप कहते हो बात ठीक है | यह एक विधि की तरह हुआ ना | आने की क्या विधि है, दो दिन ना आना | अगर भविष्य में आना है, तो उसके लिए आपने एक विधि अपनाई है , एक तरीका अपनाया है |

विधि का अर्थ होता है मन की कोई भी चालाकी |

आपने कोई भी एक विधि अपनाई है, क्या है वह विधि की अभी इसकी बात मान लो ताकि आगे अपने हिसाब से आ सकें | यह आपकी विधि है | ठीक है न ? और फिर आपको फोन जाता है की आ रहे हो ना ? आपने कहा नहीं अभी नहीं आ रहे | देखिये अभी नहीं आयेंगे तो आगे आने में सुविधा रहेगी | अब बात कुछ तर्कुचित लगती है | बात बिलकुल ठीक लगती है | अभी नहीं आये तो आगे आने में ठीक रहेगा | आप नहीं देख रहे हैं की आप भूल कर रहे हैं |

जो आपको नहीं आने देना चाहता उसको ‘ब’ मानिये | जो आना चाहता है उसको ‘अ’ मानिये | अभी-अभी ‘अ’ और ‘ब’ के मध्य एक क्रिया हुई जिसमे कौन भरी पढ़ा ? ‘ब’ ठीक है | आज से दो दिन बाद की बात लेते हैं | आप रुक गए आप नहीं आये | आपने कहा की मैं इसकी बात मान लेता हूँ | अभी ‘अ’ और ‘ब’ के मध्य पारस्परिक संतुलन यह है की ‘अ’ और ‘ब’ जब क्रिया मैं आए तो कौन भरी पढ़ा है ? ‘ब’ | न रूक कर के ‘अ’ क्या हुआ और भारी हुआ या हल्का हुआ ? वह और हल्का पढ़ा | और उसे रूक कर के ‘ब’ का क्या हुआ ? और भारी हो गया | अभी जो ये ‘अ’ और ‘ब’ थे इनमे कौनजीता था ? ‘ब’ | आब वह पहले ही जीता हुआ है ‘ब’ | उसकी अभी ही स्थिति ऐसी है की वह ‘अ’ पर भरी पढ़ रहा है और दो दिन बाद की जो स्थिति है उसमे ‘अ’ क्या हो गया है ? और हल्का | और ‘ब’ क्या हो गया है ? और भारी, और ताकतवर | अब तो पक्का ही है कौन जीतेगा ? यह करती है आपकी विधि | आपके पास एक मौका था |

जब आ रहे थे तभी आ जाते | आप ने सोचा रूक करके आप यह लड़ाई जित रहे हो | रूक कर के आप यह लड़ाई हार रहे हो | रूक कर के आपने रोकने वाले के हाँथ मजबूत कर दिए |

**आप सत्य की तरफ बढ़ रहे हो, आप सत्य की राह पर आगे चल रहे हो, अचानक कोई बीच में खड़ा हो जाता है, आपको रोक लेता है |** आप देखते ही नहीं रूक कर के आप रोकने वाले के हाँथ मजबूत कर रहे हो, और रूक कर के आप चलने वाले के कदम कमजोर का रहे हो |

आप समझ रहे हो आप क्या कर रहे हो और यह सब आप किस होशियारी में कर रहे हो की अगली बार जब भिडंत होगी तो मेरे क़दमों की ताकत इसके हाथों के जोर पर भरी पड़ेगी | उसके हाथों को जोर दिया किसने ? उसको यह विश्वास दिया किसने की मैं रोकूंगा तो यह रुकेगा | उसके यह विश्वास किसने दिया ? यह विश्वास आपने ही दिया | रूक कर के दिया | उसको पता नहीं था की उसके पास कितना जोर है, आपने उसके सामने यह सिद्ध कर दिया की देखो आप में इतना जोर है की जब तुम रोकते हो तो में रुक जाता हूँ, और सारा जोर मान्यता का ही तो होता है न | आपने उसकी मान्यता को पुष्ट किया | अब भुगतेगा कौन ? कौन भुगतेगा ? पूरी मान्यता अब आपके ऊपर प्रयोग की जाएगी | आपको ही महंगी पड़ेगी | यह विधियों की नालायकी है |

आप जो भी विधि अपनाते हो वर्तमान से बचने के लिए अपनाते हो | आप कहते हो अभी समझौता कर लेता हूँ ताकि आगे फायदा मिले | आप भूल जाते हो की अभी समझौता करके आप रोकने वाले को मजबूती दे रहे हो | अभी का पल ही तो है ना आपके पास इसी को आपने ‘बेच’ दिया, इसमें ही ‘समझौता’ कर लिया तो अब बचा क्या ?

बात समझ रहे हो? इसीलिए सन्यास को लेकर के बड़ी कहानियाँ है जिनको सुनो तो बड़ा अजीब सा लगता है | एक कहानी कहती है की, बुद्ध घूम रहे थे गाँव-गाँव , एक आदमी था जो उनके पास जाता था उनकों सुनाने के लिए | सुनता था वापिस आ जाता था, और बुद्ध की बातें उसे बड़ी अच्छी लगती थी | कहता था बुद्ध के साथ ही हो लूँगा | पर अपने आप को ही कहता रहता था की अभी कुछ समय बाद ,कुछ समय बाद | तो जाता था, देखता था, सुनाता था, मिलता था, प्रणाम करता था , लौट आता था | तो बैठा हुआ उपटन लगवा रहा है | अपने आँगन मैं बैठा हुआ है और उपटन लगवा रहा है | पत्नी है, वह उसको हल्दी मल रही है उसके ऊपर | पत्नी से बोलता है कल भी गया, बुद्ध को सुना बाधा बढ़िया था, ऐसी बात थी वैसी बात थी | पत्नी किसी बात पर चिढ़ी बैठी थी | पत्नी ने कहा की क्यों बेकार स्वांग करते हो, तुम्हारी कोई इच्छा नहीं है बुद्ध के पास जाने की | अभी उपटन लगा रही हूँ | चुपचाप बैठ के उपटन लगवाओ | मुँह मत चलाओ इतना | लगाने दो ठीक से | कहानी कहती है वह वैसा ही उठा, देह पर बेसन पुता हुआ है, हल्दी पुती हुई है, वह वैसा ही उठा | इतना भी नहीं रुका की नहा लूँ जा कर और चला गया बुद्ध के पास | बोला तूने बड़ा एहसान किया, पत्नी से बोला तूने बड़ा उपकार किया |

या तो अभी होगा या कभी नहीं होगा |

मैं जो रोज उनके पास जाता था और रोज वापस आ जाता था यह मेरी विधि थी अपनी जड़ता को कायम रखने की | या तो अभी होगा या कभी नहीं होगा | बड़ी प्रसिद्ध कहानी है | बड़ा मजेदार दृश्य रहा होगा जब एक आदमी वैसे ही जा कर खड़ा हो गया होगा की आ गया हूँ |

अगर एक पल भी टाला तो किसको मजबूत किया ? टालने की प्रवृत्ति को और वही बीमारी है |

वही तो बीमारी है की टाले जा रहे है |

टालने का मतलब है भविष्य को पैदा करना |

यदि एक क्षण को भी टाला की आज नहीं कभी और कर लेंगे तो आपने किसके हाँथ मजबूत किये जा रहे, ध्यान से देखिये तो | टालने की प्रव्रत्ति को और मजबूत किया ना? अभी इतनी मजबूत है की नहीं, की आप पर हावी है ? हावी है इसलिए तो आपने टाला | वह अभी ही इतनी मजबूत है की आप पर हावी है तो इसी कारण आप टालते हो और टाल करके आपने उसको और मजबूत कर दिया | अब कल कौन जीतेगा ? टालने की प्रवृत्ति ही तो जीतेगी, और आपने किस उम्मीद में टाला, की कल मैं जीतूँगा |

आपकी उम्मीदें हमेशा मार खायेंगी | इसीलिए आशा को मूर्खता कहा गया है | क्योंकि जो आशा कर रहा है वह यह कह रहा है की जब मेरे पास ताकत है तब मैं नहीं जीत पा रहा पर कल मैं और कमजोर कर लूँ अपने आपको तब जीत जाऊँगा तो आशा इसलिए परम मूर्खता है |

आज तुम्हारी ताकत है, कल तुम्हारी कमजोरी है | मात्र आज जीत सकते हो कल पर टाल के नहीं |

अपने साथ एक महिला थीं | उनसे जब अभी आखरी मुलाकात हुई वह आखरी ही हो गई | तो मन को कुछ दिखाई दे रहा था की अब खेल ख़त्म सा हो रहा है तो उनको मैंने कुछ बना के दिखया था | मैंने कहा था की यह है | यह जो ढलान है इसपर तुम खड़ी हो, और यह जो ढलान है इसकी ‘विशेषताओं’ यह है की ‘ढलान एक्स समन्वय के लिए आनुपातिक है‘ | तुम जितना इधर बढ़ोगी इसकी ढलान उतनी ज्यादा तीखी होती जाएगी | अभी यहाँ खड़ी हो तो भी ढलान इतनी है की आगे को फिसली जा रही, हो तुम पर दबाव है | अभी तुम यहाँ खड़ी हो तो भी तुम पर आगे फिसलने का दबाव है, ढलान के कारण | एक कदम और बढ़ाया तो ढलान और कैसी हो जाएगी ? और ज्यादा बढ़ जाएगी | इसकी जो ढलान है वह हर कदम के साथ बढ़ रही है | अभी तो अपने आप को संभल नहीं पा रही तो अगले कदम पर संभाल पाओगी क्या ? यही कदम है अगर यही पर अपने आप को रोक लिया तो बचोगी | एक कदम भी और लिया तो यहाँ भी नहीं, यहाँ भी नहीं, यहाँ भी नहीं, यहाँ गिरोगी आ कर | सीधे यहाँ आ के गिरोगी, और वही हुआ | बिलकुल यही चित्र उनको बना के दिखया था, समझाया भी था | मैंने कहा था एक कदम एक कदम नहीं होगा | एक कदम का मतलब होगा पूरा यहाँ आ कर गिरना | कही रास्ते मैं रुक नहीं पाओगी | यह बनाकर के फाड़ के दे के भेजा था की इसको साथ रखना, देख लेना | उसको सिन्दूर की पुड़िया बना लिया होगा कागज को |

लगता हमें क्या है की समझौता करके एक कदम ही तो ले रहें हैं | एक कदम ही तो लिया है | चलो किसी का दिल रखने के लिए एक कदम ले लो | तुम समझते ही नहीं हो की उस एक कदम के बाद वापस लौटना और मुश्किल हो जायेगा | अभी जहाँ खड़े हो वहाँ तुमपर इतना दबाव है तो उस एक कदम के बाद कितना दबाव होगा | बोलो कितना होगा |

श्रोता१: दस गुना |

श्रोता२: बढ़ जायेगा |

आचार्य जी: तुम दुकान के बाहर खड़े हो | वहाँ से तुमपर इतना दबाव है की खिचे चले जा रहे हो दुकान के अन्दर तो दुकान के अंदर जा कर क्या होगा ? अब तुम्हारा बहाना क्या रहता है, देखने ही तो जा रहे हैं | देखने ही तो जा रहे हैं | वैश्यालय के बाहर खड़े हो | कुछ अभी दिखाई नहीं दे रहा | सिर्फ पता है की अन्दर मसाला है | तो तुम्हारी वृत्तियाँ इतना उछल रही हैं की तुम अन्दर को खिचे जाते हो | अन्दर जा कर क्या होगा ? तुम्हारा बहाना क्या है ? नहीं अन्दर जा रहें है बस ऐसे ही तहकीकात करने | देखिये तहकीकात तो , ‘किसी को कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, की ख़ुद से पूछना है’, ग्रंथों ने कहा है | “सुना-सुनी की है नहीं, देखा-देखी बात “ कबीर ने कहा है ! देख के आएंगे | देखने तो जा रहे हो | अरे! सड़क पर खड़े हो कर के तुमसे अपने आप को संभाला नहीं जा रहा, अन्दर को घुसे जा रहे हो | अन्दर घुस के संभाला जायेगा, और दावा क्या है की नहीं नहीं छोटा सा समझौता कर रहे हैं | वह समझौता तुमको नरक मैं धकेल रहा है छोटा सा ही है, इतना सा है | छोटी सी ही तो बात है | कुछ है थोड़ी, दिल रखने के लिए कर लिया |

माँ ने बोला पूजा मैं बैठो हम बैठ गए | बीवी ने बोला देखो जी आज यह वाली शर्ट पहनना, हमने पहन ली | छोटी सी ही तो बात है इसमें क्या क्यों परेशानी | छोटी सी बात है कर लो | प्रेम में भी आदमी बहुत कुछ करता है | प्रेम मैं भी व्यक्तिगत इच्छा का परित्याग हो जाता है, और भय मैं भी व्यक्तिगत इच्छा त्याग में नहीं चलता पर दोनों बहुत अलग-अलग है ना ? प्रेम मैं भी व्यक्ति नहीं बचता इसीलिए व्यक्तिगत इच्छा की बात नहीं उठती | प्रेम मैं तो व्यक्ति ही नहीं बचता तो वक्तिगत इच्छा कहाँ से बचेगी, और भय मैं व्यक्ति और सघन हो जाता है जब उसकी इच्छा काटी जाती है | इच्छा का पालन तो दोनों मैं ही नहीं हो रहा है | देना दोनों मैं घटता है | प्यार मैं भी देते हो और डर में भी देते हो |

जब प्यार मैं दिया जाता है, तो उसको समर्पण कहते हैं, आहुति कहते हैं और जब डर मैं दिया जाता है तो उसको क्या कहते है ? हफ्ता वसूली |

पर हम एक को दूसरे का नाम दिए रहते हैं | वह हमारी लिए रहते हैं, वह अपनी दिए रहते हैं और नाम हम क्या दिए रहते हैं ? प्रेम का ! देखिये जी प्रेम में दे रहे हैं | शकल देखो अपनी | प्रेम में ऐसे ? जब प्रेम में दी जाती है तो पूजा का भाव रहता है | जैसे यज्ञ मैं प्यार से आहुति दी जा रही हो | जैसे माँ बच्चे को प्यार से निवाला खिला रही हो | ऐसे थोड़ी ही की देखिये छोटा समझौता कर लेते हैं क्या फर्क पड़ता है | पाँच दिन की जगह तीन दिन क्या फर्क पढ़ेगा | ६०% पर तो प्रथम श्रेणी आ जाती है, ३/५ | कोई गलत काम किया, और महत्वाकांक्षा बुरी है आप ने ही बताया था | ये १००% की जो चाहत है ना ये महत्वाकांक्षा है | हम ३/५ में संतुष्ट हैं | तर्क तो खूब हैं | तर्कों में क्या है | कोई और आ कर कह सकता है , हैं ०/५ क्यों ? क्योंकि दौड़ उसी के द्वारा जीती गई थी, जो दौड़ा नहीं हम जायेंगे ही नहीं | यह जितने रेस लगा के जाते हैं ४००क्म और ४००क्म आते है यह सब हमसे हारेंगे क्योंकि हम जायेंगे ही नहीं | किसको तर्क दे रहे हो ?

सहज ध्यान ही विधि है | उसके अतिरिक्त कोई दूसरी विधि नहीं है |

सहज ध्यान स्वभावगत विधि है | वह ऐसी विधि है जैसी मछली के बच्चे के लिए तैरना | मचली के बच्चे को तैरना सिखाना नहीं पड़ता| इसी तरह से सहज ध्यान ऐसी विधि है जो विधि होकर भी विधि नहीं है क्योंकि वह सिखानी नहीं पड़ती और उसका फल भविष्य में नहीं आता | एकमात्र विधि यही है | सहज ध्यान |

सहज ध्यान |

तुम कितनी भी गिरी हुई अवस्था में रहो सहज ध्यान की ताकत तुम्हें तब भी उपलब्ध रहेगी | तुम कितना भी फसे हुए रहो, वह एक रास्ता हमेशा खुला हुआ रहेगा , कौन सा ? ‘सहज ध्यान’ | कम फसे हो तो ध्यान में अपने कम फसे होने को देखो और बहुत बहुत फस गए हो तो घ्यान में यही देखो की मैं बहुत-बहुत फस गया हूँ | वही विधि है | एकमात्र विधि वाही है, सहज ध्यान | और वही मूढ़ में और योगी में अंतर है |

मूढ़ कौन ? जो सहज ध्यान की जगह पचास और चीजों को मान्यता देता हो | विधियों को, उपचारों को, उपायों को, भविष्य को, मानसिक गढ़नाओं को जो उन सब को मान्यता देता हो उसी का नाम मूढ़ है और जो सहज ध्यान में जीता हो वही योगी है | वही बुद्ध पुरुष है |

आ रही है बात समझ में?

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