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लेख
श्रध्दा और अंधविश्वास में क्या अंतर है? || आचार्य प्रशांत,वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
22 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर, मेरा सवाल है कि श्रद्धा और अंधविश्वास में क्या अंतर है? आपने हमेशा ये सिखाया है कि चीज़ों को बस यूँ ही मान नहीं लेना है। उनको लॉजिकली (तार्किकता) देखना है कि बात सही है कि नहीं। और अक्सर मेरे साथ भी यही होता है कि जहाँ पर चीज़ों को लॉजिकली देखना चाहिए, वहाँ पर बिलिफ्स (आस्था) आ जाते हैं, अंधविश्वास आ जाते हैं। और जहाँ पर श्रद्धा होनी चाहिए, वहाँ पर मन में कुर्तक आ जाते हैं। तो फिर ये रेखा हम कहाँ खींचे, कैसे दोनों में भेद करें?

आचार्य प्रशांत: नहीं, श्रद्धा में कोई विश्वास होता ही नहीं है, तो अंधविश्वास कैसे होगा? श्रद्धा का कोई मतलब नहीं होता है। श्रद्धा का कोई अर्थ नहीं होता। श्रद्धा का कोई विषय नहीं होता। श्रद्धा का मतलब बस नकार में ही हो सकता है। नकार का क्या अर्थ है? झूठे विश्वासों की ज़रूरत नहीं है, ये श्रद्धा है। आप झूठे आसरे क्यों पकड़ते हो? क्योंकि आपको लगता है कि आपको उनकी ज़रूरत है, आपने उनको नहीं पकड़ा तो भीतर से ढह जाओगे।

कह देना कि मुझे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं है, मुझे किसी कवच की, किसी छत की, ज़रूरत नहीं है —– ये श्रद्धा है। श्रद्धा का मतलब ये नहीं होता कि कवच का, सुरक्षा का प्रबंध नहीं भी रखूँगा, तो भी मेरे साथ अच्छा-अच्छा होगा और सुखी रहूँगा। श्रद्धा का मतलब होता है कि मुझे सुख की भी ज़रूरत नहीं है। नहीं भी मिलेगा, तो भी कुछ नहीं हो गया। श्रद्धा का मतलब होता है, अकेला काफ़ी हूँ। किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। तो एक तरह से श्रद्धा हो गया आत्मा में होना। आत्मा निसंग होती है, अकेली होती है — ये श्रद्धा है।

हम सहारों पर, भरोसों पर, मान्यताओं, विश्वासों पर, जीते हैं न, वो जब टूटने लगते हैं, तो कितना डर लगता है भीतर से, जैसे मौत ही आ रही हो। दाहरण के लिए एक धार्मिक आदमी है— और वो इसी मान्यता पर जीता हो, जो उसकी किताब में लिखी हैं कि एक दिन मेरे ईश्वर ने ऐसे-ऐसे करके पृथ्वी बनाई और फिर उसने ऐसा करा। उसमें पूरी प्रकिया लिखी होती है। फिर ये करा, फिर चार दिन तक ऐसा करा, फिर शनिवार को ये किया, इतवार को ये किया, फिर ऐसे आदमी बना, फिर औरत बनी, फिर फरिश्तों को ऐसी आज्ञा दी।

अब वो ये सब माने बैठा है। ये विश्वास है उसका, अधंविश्वास है, क्योंकि बस मान ही लिया है। क्यों मान लिया है? क्योंकि कहा गया है कि ये तो मानना ही पड़ेगा! तो वो माने बैठा है और आप इस चीज़ को चुनौती दो और इस चीज़ को तोड़ दो, मान्यता को, तो सचमुच उसको ऐसा लगता है उसकी मौत आ रही है। सैकड़ों लोग मुझी से बात करके इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। बोलते हैं, ‘मौत जैसा अनुभव होता है। आपके सामने से भागे थे, अपनी ही मौत आ रही है।' कुछ ने यहाँ तक कहा कि ‘इन्हीं को क्यों न मार दें। ये हिंसक हैं। ये हमें मारना चाहतें हैं, हम इनको ही मार देते है।'

तो आम आदमी भरोसों पर जीता है और इतना डरा होता है कि उन सहारों, उन विश्वासों के बगैर जीने की कल्पना ही नहीं कर सकता। और जिस भी चीज़ पर आप भरोसा करते हो, आश्रित होते हो, वो चीज़ कहीं-न-कहीं —आप ये भी जानते हो कि —आप की है नहीं, पराई है और सांयोगिक है, तो वो कभी भी हट सकती है। आपका भरोसा जिस चीज़ पर टिका है, वो चीज़ ढह सकती है।

जैसे कोई घरौंदे पर टेक लगा कर खड़ा हो। ऊँचा-सा घरौंदा हो रेत का और आप उस पर टेक लगा कर खड़े हैं। डरे-डरे तो रहेंगे ही न कि नहीं रहेंगे? कि जैसे कोई चरमराते हुए लकड़ी के एक पुराने कमज़ोर पुल पर नदी पार कर रहा हो। करा है कभी? एकदम चरमराता हुआ -सा पुल है। मान लिया पुल नहीं है, कोई सीढ़ियाँ हैं। पुराने घरों की होती हैं लकड़ी की सीढ़ियाँ और आप उस पर पाँव रखते हो, आवाज़ कैसी आती है? चर्र। लेकिन आपको ऊपर जाना है और सीढ़ी के अलावा कोई तरीका नहीं है। तो धीरे-धीरे करके ऊपर जाते हो और कितने डरे हुऐ रहते हो।

आपको पता है जिस चीज़ पर भरोसा कर रहे हो, वो भरोसा करने लायक नहीं है। हर आदमी की ऐसी ही स्थिति है। वो भरोसों पर जीता है और जिन पर भरोसा करता है, चाहे वो आंतरिक वस्तु हो, चाहे वो बाहरी वस्तु हो, वो वस्तु भरोसा करने लायक होती नहीं है।

श्रद्धा का मतलब है,– अरे! हटाओ ये सब। ऐसी ज़िंदगी चाहिए ही नहीं जिसमें इधर-उधर टिको, भरोसा करो और फिर डरे-डरे जियो। हम ऐसे ही जी लेंगे, – ये श्रद्धा है। तो श्रद्धा में कोई विषय नहीं होता। श्रद्धा कोई मान्यता नहीं है।

कोई बोले, ‘मुझे फ़लाने बाबा पर श्रद्धा है',’ तो वो जानता ही नहीं श्रद्धा को। श्रद्धा का अगर कोई विषय है, तो वो तो फिर विश्वास बन गई। विश्वासों के विषय होते हैं। आप विश्वास में मे बोलेंगें कि मुझे फ़लानी बात पर विश्वास है, लेकिन आप ऐसा नहीं कह सकते कि मुझे फ़लानी बात पर श्रद्धा है। श्रद्धा किसी बात पर नहीं होती, श्रद्धा तो यही कहती है, ‘कोई बात चाहिए ही नहीं।'

और कई लोग कहते हैं, ‘साहब हमें श्रद्धा है कि मेरे फ़लाने पूज्य हैं या कुलगुरु हैं या ग्रामदेवता हैं या जो भी हैं मेरे, वो मुझ पर कभी आँच नहीं आने देंगे।' ये भी श्रद्धा नहीं है। ये भी खोखला विश्वास है। ये भी खोखला विश्वास है कि आँच नहीं आने देंगे। ‘कोई बड़ी शक्ति है जो हर समय मेरी रक्षा कर रही है।' सुना है न ऐसा कहते हुए लोगों को? ‘कि जब से मैं फ़लाने की शरण में गया हूँ, तो मुझे हर समय ये लग रहा होता है कि एक अदृश्य ताकत मेरे साथ है।' हटा न, क्या करना है! श्रद्धा का कोई विषय नहीं होता, श्रद्धा में बस एक उपेक्षा होती है, — इंडिफरेंस। क्या फ़र्क पड़ता है?

‘ठीक है, बहुत बुरा हो गया, बहुत ज़ोर से लग गई, दर्द तो हो रहा है, पर ठीक है।!' श्रद्धा ये नहीं है कि चोट लग गई है, लेकिन ठीक हो जाएगी। ‘भविष्य में आशा रखो और यकीन करो कि ये डॉक्टर तुमको बचा लेंगे। उधर माँ गई है, दवाई नहीं तो माँ की दुआएँ काम आएँगी।' ये सब श्रद्धा नहीं होती। श्रद्धा बोलती है, ‘जी गए ठीक है, मर गए, तो भी ठीक है।' एक बेपरवाही है– श्रद्धा।

किन्हीं नियम, कायदों पर चल कर आप बोले, ‘ यू नो वी आर द फ़ेथफ़ुल्स (आप जानते हैं कि हम भक्त हैं) तो ये फ़ेथ (आस्था) शब्द का अपमान है। श्रद्धा कहती है, ‘नियम कायदे बचे रहें ठीक है, नहीं बचे रहें, तो भी ठीक है।

आत्मा की प्रबलतम अभिव्यक्ति होती है– श्रद्धा। आत्मा क्या है? आत्मा वो है, जिस पर खरोंच नहीं लग सकती। क्योंकि वो कोई चीज़ नहीं है। चीज़ों पर खरोच लगती है। आत्मा वो है जिसका बाल नहीं बाँका हो सकता है। बताओ क्यों? उसके बाल है ही नहीं। आत्मा गज़ी है, इसलिए बोला, 'बाल न बाँका कर सके जो जग बैरी होय।' गंजी है आत्मा!

आत्मा क्या? जिसके अलावा कुछ दूसरा है ही नहीं। जो खण्डित नहीं हो सकती। जो अखंड है, तो उसे टूटने का खतरा कैसे होगा। वो क्या बोलेगी? ठीक है कोई खतरा है नहीं। बुरे-से-बुरा भी हो गया तो भी ठीक है।

जो आत्मा का स्वभाव है, उसमें जीना श्रद्धा है। आप श्रद्धा का कोई सकारात्मक विवरण नहीं दे पाएँगे कि श्रद्धा मींस दिस (मतलब यह), श्रद्धा मींस दिस, मींस दिस, नहीं। श्रद्धा में बस आप यही बोल पाएँगे ऑल देट विच यूज्ड टू मीनमींस अलॉट, मींस नथिंग (वो सब जिसका पहले बहुत मतलब होता था, उसका कोई मतलब नहीं है)। ये फेथ है। ये श्रद्धा है। श्रद्धा का अपना कोई अर्थ नहीं होता। श्रद्धा आपको सारे अर्थों से मुक्त कर देती है।

बहुत ज़मीन-आसमान का अंतर है। विश्वास-अंधविश्वास ये सब एक तरफ़ और श्रद्धा एक अलग आयाम की बात है। उनमें कोई समानता नहीं। कहीं पर मंदिर में लोग चले आ रहे होते हैं, तो आप पढ़ लेते हो अख़बारों में लिखा है, 'श्रद्धालुओं की भीड़ लगी थी।' उनमें एक में भी श्रद्धा नहीं है। आप बोल दो विश्वासियों की भीड़ लगी थी। ठीक है। उनका विश्वास हो सकता है। श्रद्धा एक अलग चीज़ है भाई।

विश्वास सकाम होता है, श्रद्धा निष्काम होती है।

प्र: नमस्ते सर, प्रश्न तो थे कुछ, लेकिन वो अब तिरोहित हो चुके हैं, इसलिए उस संबध में कोई चर्चा नहीं करूँगा। अभी जो कुछ विचार आएँ वो व्यक्त करना चाहता हूँ। आप जिस जीवन को जी रहें है और उसका रसास्वादन ले रहे हैं, अगर इसमें आप रुकावट देखते हैं, तो आप जीवन का भी मोह छोड़ देना चाहते हैं। ऐसी कुछ अनुभूति हमेंमे हो रही है।

इसी बात को सदगुरु कबीर साहब ने भी कहा है, “‘जिस देश में दया-धर्म नहीं, उस देश में रहना क्या है।”' अब ये तो शायद आपके लिए खेल हो। अब ये जो दूसरे इस दुनिया की दुर्गति को वर्णन करने वाले जितने बयान आते हैं, वो तो उतने परेशान नहीं करते, लेकिन ऐसी अभिव्यक्ति सार्वजनिक रूप से आपकी असहज लगती है या दूसरों को डराने वाली लगती है। थोड़ा -सा खुलासा करें? साहेब बंदगी।

आचार्य: वो तो एक तैयारी है जो होनी ही चाहिए। “‘रहना नहीं देश बीराना है'।” जब काटन की झाड़ी ही घेर ले, तो काहे उलझ-उलझ मर जाना है।

प्र: जो संगति छूटने का डर है, वो विकल करता है। जीवन का तो मालूम है कि छूटेगा ही। दुनिया के प्रलय की बात भी विचलित नहीं करती।

आचार्य: नहीं तो, अगर फिर संगति छूटने का डर है, तो जिसको डर है वो प्रयास करे कि संगति न छूटे। हमने तो अपनी शर्ते साफ़ कर दी हैं कि सिर्फ़ जीने के लिऐ जीने का कोई अर्थ होता नहीं है। अब अगर आप कह ही रहे हैं कि किसी को प्रेम है या मूल्य देता है कि संगति बनी रहे, तो फिर जो मूल्य देता है —तार्किक-सी बात है —ये उसकी जिम्मेदारी हो गई न कि ऐसी स्थितियाँ बनाए रखें या बनाने में कम-से-कम सहयोगी हो कि जिसमें इतनी बुरी हालत न आ जाए कि सब समाप्त ही हो।

प्र: जो जानकार हैं, वो तो निश्चित रूप से इस दिशा में कदम उठाएँगे, इस भूमिका को बनाए रखेंगे। लेकिन जिनका, अनगिनत लोगों का, अभी जिसको पता ही नहीं है कि सत्संगती का क्या लाभ है और वो अगर वंचित रह जाएँगे और वो सत्संगति के काबिल थे, लेकिन अभी पता नहीं है, उनके लिए तो रहना ही पड़ेगा किसी भी भूमिका में।

आचार्य: देखिए, मेरी कोई तैयारी नहीं है ख़तम-वतम होने की। एक बात चल रही थी, उसके बहाव में एक बात निकल गई, तो ऐसा कुछ नहीं है कि मेरे मन में कोई विचार है या मैं कोई तैयारी करके बैठा हूँ। ऐसा कुछ नहीं है।

प्र: नहीं, नहीं क्षमा कीजिएगा। ऐसी मेरी अभिव्यक्ति…।

आचार्य: लेकिन देखिए, आप इतने प्रेम से बोल रहे हैं, तो इसमें छुपाने जैसा नहीं है। हर आदमी की अपनी कमज़ोरियाँ होती हैं। उसकी अपनी शर्तें होती हैं। कोई कमज़ोरी न हो, तो कोई शर्त भी नहीं होगी। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, —व्यक्तिगत रूप से थोड़ी ज़िद -सी रहती है, वो बचपन से रही है, —मुझे अगर लगता था कि खेल में बेईमानी हो रही है, तो मैं खेलना ही बंद कर देता था।

बस यही है। ये कोई बहुत आदर्श बात नहीं है। बिलकुल आदर्श बात नहीं है, लेकिन ऐसा है और ऐसा है! चूँकि मुझे आपको बता देना चाहिए कि ऐसा है तो है।

प्र: लेकिन हमें उम्मीद भी बनाए रखना चाहिए।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल! आपकी भी है, मेरी भी है और कोई तैयारी नहीं है। हम तो कह रहे हैं कि अगर ऊँचा काम कर रहे हों तो तुम्हारा कर्तव्य बनता है कि उसमें आनंदित रहो। ये तो सबको ही बोलते हैं कि इवन इफ वी हैव टू गो डाउन, वी गो डाउन लाफिंग (हमें उतरना भी पड़े, तो हँसते-हँसते उतर जाते हैं)।

तो ऐसा कुछ भी नहीं है कि संस्था में किसी तरह की कोई निहिलिस्टिक टेंडेंसी (शून्यवादी प्रवृत्ति) है या कुछ है। आनंदित लोग हैं। काम कर रहे हैं, जूझ के काम कर रहे हैं। काम करते हैं फिर खेलते भी हैं। सब कुछ अच्छा ही चल रहा है। लेकिन आप भी चाहेंगे क्या कि जो चीज़ शिखर पर बैठने का अधिकार रखती है उसे कीचड़ में लोटने को मजबूर होना पड़े? नहीं न। इससे अच्छा उस चीज़ को नष्ट कर दो। ये बात ठीक है न? इतना अपमान मैं नहीं बर्दाशत कर पाऊँगा उस चीज़ का।

प्र: जो ऊँचा स्वाद ले लिया है।

आचार्य: बस अब उसके बाद काहे को? यहाँ ऐसा क्या रखा है कि उसके लिए चले-ही-चलो, चले-ही-चलो‌, चले-ही-चलो‌, कुछ नहीं। तो कुछ चीज़ों का एक सम्यक स्थान होता है और वो वहीं पर शोभा देती हैं। है न? मुझे बहुत भीतर से पीड़ा भी होती है, क्रोध भी आता है, जब कोई कह देता है,– कबीर के दोहे। और कितनो को ही मैं कितनी बार टोक चुका हूँ कि साहब लगाओ नाम के साथ। आपने अभी सदगुरू कबीर साहब कहा, इसलिए उदारहरण के तौर पर कह रहा हूँ। कुछ चीज़ों का अपना एक स्थान होता है, उससे नीचे नहीं उतरना चाहिए।

प्र: जी, हम तो ये आग्रह रखते हैं कि सदगुरु शब्द तो केवल कबीर साहब के साथ ही लगना चाहिए।

आचार्य: बिलकुल, मैं ऐसी दुनिया में कैसे जीयूँ जहाँ वो शब्द…? यहाँ पर ऐसे ही बोलेंगें कि ‘कबीर ने कहा था, कबीर कहता है।' ये फिर थोड़ा-सा या यही है कि उसको थप्पड़ मार दो।

प्र: और कुछ कमज़ोरियों के संबंध में भी पूछ लेना चाहेंगे। हर किसी का अहसान मान लेना, सहज भाव से हर किसी को स्वीकार कर लेना या जानते हैं कि झूठा है फिर भी उसको, उसके झूठेपन को प्रकट न करना। सद्गुरु कबीर साहब का तो ये संदेश है कि

“साधु ऐसा चाहिए कि चौड़े कहे बजाय। कि टूटे कि फिर जुड़े बिन कहे भ्रम न जाय।।"

अगर ये स्वभाव प्रकट नहीं कर पाते हैं, तो उसमें थोड़ी-सी सहायता कीजियेगा। ये होना चाहिए। उसमें आपका मार्गदर्शन चाहिए। स्वभाव में बहुत ज़्यादा सरलता या बहुत ज़्यादा स्वीकारोक्ति नहीं होनी चाहिए। इतने भोले भी‌ नहीं रहना चाहिए।

आचार्य: नहीं, भोलापन और अटूट होना ये साथ-साथ चलते हैं। टूटती तो कुटिलता ही है। तो ऐसा नहीं है कि भोलापन कोई लायबिलिटी (दायित्व) होती है, कोई परेशानी की बात होती है। भोलापन बहुत अच्छी बात होती है और हमारे संतो से ज़्यादा भोला तो कोई शायद ही रहा हो। और ये बात भी सही है कि हम स्वयं को कितना जानते हैं? हम ज़्यादा तो अपनी कमज़ोरियों को ही जानते हैं। सत्य तो अज्ञेय है। हम अपने विषय में जो जानते हैं, वो वास्तव में हमारा खोल है, जिसको हम जानते हैं। अपने मर्म को तो जानते नहीं।

ऐसा भी हो सकता है कि जब परीक्षा की घड़ी आए तो आपको अपने बारे में कुछ नयी ही, अनूठी ही बात पता चले। ऐसा भी हो सकता है कि आप अपनेआप को जहाँ कमज़ोर भी समझ रहे थे, वहाँ आप कमज़ोर निकलो नहीं। जहाँ आपको लग रहा था कि एक सीमा होगी, जिसके बाद चीज़ बर्दाश्त के बाहर हो जाएगी, वो सीमा कहीं खींचती ही न हो, —ये भी हो सकता है। आपको लगता हो कि एक बिंदू के आगे आपसे नहीं झेला जाएगा। ये भी हो सकता है आप सब कुछ झेल ले जाओ।

भीतर से हम क्या हैं, वो हमें कहाँ पता? वो तो जीकर ही पता चलता है। वो तो जब आप उस बिंदू पर आओगे, तभी पता चलेगा। उसके पहले बैठ करके हम जो भी पूर्वानुमान लगाते हैं — जैसे मैं लगा रहा हूँ, जिसके विषय में आप बात कर रहे हैं — वो हमारे सारे पूर्वानुमान ग़लत भी साबित हो सकते हैं। ग़लत साबित होने भी चाहिए। क्योंकि अगर हमने सत्य का पूर्वानुमान ही लगा लिया तो फिर वो तो बहुत छोटी चीज़ हो गया। होना तो ये चाहिए कि जो सही काम है उसमें डूब जाओ और फिर जो आए उसमें देखो कि अपने भीतर से क्या खुलता है। आप चिंता मत करिए, अभी ऐसा कुछ नहीं है।

प्र: हम सामने वाले की कमज़ोरियों को भी, इसलिए कि वो दुखी है, ऐसा महसूस होता है, तो हम सहनभूति रख लेते हैं।

आचार्य: नहीं, दुखी तो पता नहीं। दुख भी चुटकुला है।

प्र: लोग नहीं समझते, पर फिर भी वो हैं दुखी।

आचार्य: ठीक है।

प्र: नमस्कार, आचार्य जी। मैं संस्था से पिछले दस महीनों से जुड़ा हूँ। अभी जो कोर्स चल रहा है श्रीमद्भागवत गीता उपनिषद् वाला, उससे भी जुड़ा हूँ, थोड़ा लेट जुड़ा पाया हूँ। चूँकि गीता बचपन से ही मेरी फेवरेट (पसंदीदा) रही है, लेकिन अभी जो आप से स्पष्टता आई है, और जो नये कॉन्सेप्ट (संकल्पना) मिले हैं, ये कभी नहीं था। तो पहले जो दिमाग में चीज़ आती थी, दिल नहीं मानता था या दिल में आ गया तो दिमाग नहीं मानता था, अभी दोनों में समझ आ रहा है।

मेरा प्रश्न है कि मेरी हार्ट सर्जरी (ह्रदय शल्य चिकित्सा) होने वाली है, एंजियोग्राफी, एनजीओप्लास्टि कुछ होना है। तो अभी पिछले दिनों जोक (चुटकुला) की बात हो रही थी, तो इट्स ए जोक ,– रूटीन अफेयर (नियमित मामला)। निन्यानवे प्रतिशत जो भी होगा हो जाएगा। एक प्रतिशत प्लान बी (दूसरी योजना) होता है, उसके लिऐ भी हमें तैयार होना चाहिए।

आचार्य: हाँ, तैयारी कर लेनी चाहिए।

प्र: तो उसमें ये है कि उस हिसाब से मेरे पास सात दिन हैं। तो आध्यात्मिक यात्रा के हिसाब से इन सात दिनों का बेस्ट यूटिलाइजेशन (सर्वोत्तम उपयोग) क्या हो सकता है, इस पर थोड़ा मार्गदर्शन चाहिए था।

मुझे जो चीज़ समझ में आ रही है वो ये है कि जो जाना है उसको ज़्यादा-से-ज़्यादा जी लिया जाए। और जो ग़गलतियाँ वगैरह हुई हैं उनको जितनी भी हो सकती है कम कर दिया जाए। कोई भी पछतावा न किया जाए, क्योंकि मैं इकसठ वर्ष पूर्ण कर चुका हूँ। तो बस यही था, क्योंकि जीवन कई बार किसी भी तरह से तो चौंकाता है, तो हर परिस्थिति के लिए तैयार रहना चाहिए। बस यही थोड़ा -सा मार्गदर्शन चाहिए था।

आचार्य: इसमें एक चीज़ और जोड़ दीजिए, जो लोग आप से संबंधित हों या आश्रित हों उनके लिए जो उच्चतम छोड़कर जा सकते हो — उनकी भलाई, उनके कल्याण के लिए — उसकी इस एक हफ़्ते में व्यवस्था कर दीजिए। आपके होने न होने से औरों का अनिष्ट न हो। बस इसकी आप व्यवस्था कर दीजिए।

और ये व्यवस्था वैसे हर समय ही करके रखनी चाहिए। ये नहीं है कि अपनी सर्जरी होने जा रही है, इसलिए करनी है। वो हमेशा ही करके रखनी चाहिए, क्योंकि कुछ भी हो सकता है। इसको कुछ बहुत विशेष तरीके से लेने की ज़रूरत नहीं है। अगर सर्जरी की सफलता की संभावना, जैसा आप कह रहे हैं निन्यानवे प्रतिशत है, तो ये तो जीवन का कोई आम दिन ही हुआ। एक प्रतिशत प्रस्थान करने की संभावना तो किसी भी समय होती है, किसी भी दिन होती है। एक प्रतिशत नहीं होती होगी तो शून्य दशमलव शून्य एक प्रतिशत होती होगी।

सर्जरी बिगड़ जाएगी, मृत्यु हो सकती है, कुछ और हो सकता है, ये एक प्रतिशत उसकी संभावना कोई ऐसी बड़ी बात नहीं हो गई। लेकिन फिर भी आप अपनी ओर से सतर्कता करते हुए ऐसा कर दीजिए कि दूसरों पर कोई अनिष्ट का प्रभाव न पड़े। अपना तो क्या है, अपन तो चले जाएँगे, दूसरों को हमारे पीछे तकलीफ़ न हो, इसकी व्यवस्था कर दीजिए। और तकलीफ़ से भी मेरा ज़्यादा आशय सूक्ष्म तकलीफ़ है। मैं यहाँ पर पैसे वगैरह की बहुत बात नहीं कर रहा हूँ। जो भी आप उनके वास्तविक कल्याण के लिए कर सकते हैं वो करके जाइए।

मैं नहीं कह रहा हूँ आप जा रहे हैं और अगर आप जा रहे हैं, तो जा तो हम सभी रहे हैं फिर। तब तक तो कौन टिकने वाला है यहाँ पर? बैठी हुई हैं, कहाँ हैं दीपा जी? माइक दो, उनको बड़ा मज़ा आता है अपना किस्सा सुनाने में।

दीपा जी: आपको कौन-सा किस्सा सुनना है?

आचार्य: वही जो आप दो-चार बार लिख चुकी हैं कम-से-कम। उनको कैंसर डिटेक्ट (पता लगना) हुआ था। तीन-चार साल, पाँच साल हो गए?

दीपा जी: चार साल हो गए।

आचार्य: चार साल हो गए। तो आईं, बोली कि ‘कैंसर है, कैंसर है, ये वो। घबराहट हो रही है…।' यही कहा था? ‘घबराहट हो रही है।'

दीपा जी: नहीं आचार्य जी, ये था कि जब मैं किसी की मदद करती हूँ तो वो बीमारी मेरे को लग जाती है या कोई भी प्रॉब्लम। (श्रोतागण हँसते हुए) छ:-सात बार आपके पास आ चुकी हूँ, छ:-सात बार वही बात बोली है, हर बार अलग-अलग।

आचार्य: तो बताइए जब आपने बोला, तो मैंने क्या कहा था उस वक्त?

दीपा जी: ‘मर जाइए।'

आचार्य: बार-बार बोलें, ‘कैंसर है, कैंसर है!' मैंने कहा, ‘मर ही जाओ।'

दीपा जी: आचार्य जी उसके बाद का बताती हूँ। उसके बाद जब मैं घर गई, तो मुझे नहीं मालूम क्या मेरे में चेंज आया कि मैं जब तैयारी कर रही थी हॉस्पिटल जाने की, तो हस्बैंड बोले, ‘कहाँ जा रही है? क्या तू हिल स्टेशन घूमने जा रही है जो इतनी तैयारी कर रही है?' तो मैंने बोला ‘सात दिन रहना है हॉस्पिटल में तो ठीक से ही रहेंगे।'

पर आचार्य जी ये लगातार हो रहा है मेरे साथ कि जब मैं किसी की मदद करती हूँ, या आपकी भी मैं…। ऐसा कोई ज्ञान नहीं बाँटा, लेकिन आपकी किताब भी किसी को दे दी न और ऐसे व्यक्ति को दे दी तो मेरे साथ वही घटना घट जाती है। नहीं आचार्य जी, मज़ाक की बात नहीं है, आप भी जानते हैं।

आचार्य: ये स्थूल तल पर पता नहीं होता है कि नहीं, लेकिन मदद करने में सूक्ष्म रुप से तो ये घटना घटती ही है। मदद करने में ये स्थिति बिलकुल आ सकती है कि उसकी विपत्ति आप अपने ऊपर ले लें। और गुरु को तो खासतौर पर परंपरागत रूप से कहा ही गया है कि उससे जितने लोग जुड़ें होते हैं, उन सब का कर्म दंड वो अपने ऊपर ले लेता है।

ख़ैर ये सब कहावतें हैं, इनका कोई अर्थ है भी तो बहुत सूक्ष्म, बड़े सांकेतिक रूप में है। अभी जो महत्व की बात है वो ये है कि जैसे आप जा रहे हैं सर्जरी के लिए, वो भी जा रही थीं और जब बहुत परेशान हो गईं तो मैंने कहा, ‘क्या होगा बुरे-से-बुरा? मर जाओगी। मर ही जाओ!'

दीपा जी: डर निकल गया था फिर मरने का।

आचार्य: तो उनका डर निकल गया। ‘मर ही जाओ फिर और क्या करोगी? इतना क्या सोचना है?' कहती हैं, ‘उसके बाद से जी उठीं!'

दीपा जी: पर आचार्य जी अभी भी ऐसा हो रहा है कि एक विडो (विधवा) थीं, दो महीने पहले की बात है, तो मैं सोच रही थी कि आपकी किताब दूँगी और मेरे साथ कोई प्रॉब्लम न हो जाए। सच में आचार्य जी! फिर पिछली बार हम लोग कश्मीर घूमने गए, पिछले महीने की बात है, वहाँ पर मेरे पति को दिल का दौरा आया और उनकी मृत्यु हो गई।

अब इतना मुझे डर लग गया कि फिर मैंने सोचा था कि आचार्य जी की कोई किताब नहीं खरीदूँगी। फिर तीन हज़ार की कल किताबें खरीद लीं और बाँटने में डर रही हूँ कि अब फिर किसी की प्रॉब्लम मेरे ऊपर न आ जाए।

आचार्य: तो आप सोचिए आप तीन हज़ार की किताबें बाँटने में डर रही हैं, मैं बीस लाख की बाँटता हूँ।

दीपा जी: नहीं ऐसा नहीं है। आचार्य जी आपके साथ ऐसा नहीं हो रहा, आपके परिवार में सब ज़िंदा हैं न।

(श्रोतागण हँसते हैं और आचार्य जी मुस्कुराते हैं)

आचार्य: इतने ऊपरी तौर पर नहीं होती है घटनाएँ। ये घटनाएँ होती भी हैं तो अंदरूनी जगह पर होती हैं। इतना ऊपरी तौर पर नहीं होता कि शारीरिक घात ही हो जाए। ऐसे नहीं होता! वो फिर अंधविश्वास बन जाता है। अंधविश्वास नहीं करना है! और वो वहम है, उसको मन से निकालिए!

दीपा जी: और आपने तो उसमें बहुत कुछ बोला होगा, सब तो नहीं आएगा मुझ पर?

आचार्य: फिर! आना होता तो सबसे पहले इधर आता न? (स्वयं की ओर इशारा करते हुए) वो सब कुछ नहीं।

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