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लेख
शिव की तीन आँखों का अर्थ क्या? || आचार्य प्रशांत (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता (प्र): शिव जी की तीन आंखों की परिभाषा सूर्य, चंद्रमा, अग्नि है। इनका क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत (आचार्य): सूरज और चंद्रमा, दिन और रात के प्रतीक हैं। दिन और रात मतलब द्वैत के दो सिरे। दिन व रात मतलब वो सब कुछ जो हमें खंडित प्रतीत होता है। दिन व रात मतलब वो सब कुछ जो साधारण आँखों से दिखता है।

प्र: खंडित मतलब?

आचार्य: बँटा हुआ। दिन व रात बँटे हुए हैं। दिन अलग है, रात अलग है। तो जो दो आँखें हैं, जिन्हें हम साधारण आँखें कहते हैं; वो सिर्फ़ वही सब कुछ देख पाती है जो द्वैतात्मक है। जिसका कोई विपरीत है। आप अपनी आँखों से ऐसा कुछ नहीं देख सकते जिसका कोई विपरीत न हो। आपको सफेद दिखेगा तो काला भी दिखेगा। और काले की पृष्ठभूमि में ही सफेद दिखेगा। तो सूरज और चंद्रमा को देख पाने का अर्थ है संसार को देख पाना। दो आँखें तो हो गई जो संसार को देख पाती हैं।

तीसरी आँख का प्रतीक यदि अग्नि है तो उसका अर्थ है भस्मीकरण कर देना, नष्ट कर देना, पूरे ही तरीके से राख कर देना। ये दो आँखें जो कुछ देखती हैं, तो तीसरी आँख है, जो बोध की आँख है, जो शरीरी नहीं है वो उस सब के प्रपंच को जाहिर कर देती है।

ये (दोनों) आँखें तो वो है जो संसार दिखाएगी। और संसार देखने का ही अर्थ एक तरीक़े से होता है प्रवंचना देखना, झूठ देखना। वो देखना जो सिर्फ़ चेतना की आपकी स्थिति पर निर्भर करता है। वो देखना जो समय के भीतर है और इस कारण जल्दी ही लुप्त हो जाएगा। उस मामले में शिव बिलकुल हमारे जैसे हैं। वो भी वही सब कुछ देख रहे हैं जो आप देख रहे हैं। आपकी आँखें भी द्वैत देखती हैं, उनकी भी दो आँखें द्वैत देखती हैं। और फिर तीसरी आँख है वहाँ। और जिसकी ही तीसरी आँख खुल गई वो शिव हो गया। शिव की परिभाषा ही यही है जिसकी तीसरी आँख खुल गई हो।

तीसरी आँख खुलने का अर्थ ये नहीं कि अब कुछ विशेष दिखने लगा, कि दो आँखों से कम दिखता था, तीन आंखों से ज़्यादा दिखने लगा। तीसरी आँख खुलने का अर्थ है कि दो आँखों से जो दिखता था उसका मिथ्यापन भी दिखने लगा। तो संसार भी दिख रहा है और संसार का छद्म होना भी दिख रहा है। और कोई है आँखों के पीछे जो छद्म को छद्म घोषित कर रहा है। कुछ ऐसा सत्य है जो बता रहा है कि जो झूठ है, जो मिथ्या है, वो मिथ्या है। वो भ्रम को भ्रम, अध्यास को अध्यास कह रहा है।

क्या भ्रम स्वयं को भ्रम घोषित करता है? क्या भ्रम स्वयं कहने आता है कि, "मैं भ्रम हूँ"? आप कब कह सकते हो कि ये भ्रम है? जब आप भ्रमित न हो। यानी कि बोध ही घोषणा कर पाता है भ्रम के भ्रम होने की। वो तीसरी आँख हुई।

दो आँखें जो दिखाएँ वो यूँ ही काम-चलाऊ। सत्य यदि आप उसे बोले भी तो बड़े निचले दर्जे का, व्यवहारिक, प्रतिभाषिक, असली नहीं, आख़री नहीं, पारमार्थिक नहीं। तीसरी आँख कुछ देखती नहीं—मैं दोहरा रहा हूँ— कोई यह न सोचे कि तीसरी आँख से कुछ विशेष दिखेगा। तीसरी आँख एक प्रतीक है। तीसरी आँख इस बात की प्रतीक हैं कि दो आँखों से देख रहे हैं और ये भी देख रहे हैं कि दो आँखों से जो देख रहे हैं वो सिर्फ़ द्वैत का एक भ्रामक खेल है। ये हुई तीसरी आँख।

कोई यह न सोचे कि वास्तव में यहाँ कोई तीसरी आँख इत्यादि आ जाएगी। तीसरी आँख का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि जागृति है भीतर। तो इस कारण संसार सर चढ़कर नहीं बोल रहा। ये नहीं हो रहा कि कुछ दिखा जो बड़ा खूबसूरत लगा तो उसके गुलाम बन गए। इन आँखों ने दिखाया कुछ ऐसा जो बड़ा रुचिकर लगा लेकिन साथ-ही-साथ उसी समय भीतर से प्रतीती है कि हम जानते हैं तुम्हें, हमें बना नहीं पाओगे। ये हुआ तीसरी आँख का खेल।

और अच्छा ही है कि उसे अग्नि के माध्यम से इंगित किया जा रहा है। अच्छा प्रतीक है अग्नि, तीसरी आँख के लिए।

शिव वो नहीं जो संसार से कहीं बाहर का हो। शिव का अर्थ है संसार का सत, संसार का सार, संसार का केंद्र। वहाँ द्वैत के मध्य अद्वैत है। वहाँ दो आँखों के मध्य तीसरी आँख है। वहाँ समस्त पशुओं और समस्त पशुता के बीच शिवत्व है। घिरे हुए हैं चारों तरफ़, पशु-ही-पशु हैं और पशुओं के मध्य क्या हैं? शिव। ये हुई तीसरी आँख।

आध्यात्मिकता कुछ ख़ास जानने का नाम नहीं है। जैसे तीसरी आँख को कुछ और ज़्यादा देखना नहीं है, वैसे ही आध्यात्मिकता में आपको और ज़्यादा जानना नहीं है। ज्यादा जानना तो सपने जैसा है। सपने में आप खूब जाने रहते हो। सपने में आप जाने रहते हो कि परियाँ है और उड़न-खटोले हैं और तमाम तरह के प्रपंच है। जागने का अर्थ होता है कि जो जाना था वो मिथ्या घोषित हुआ। जानना नहीं है, जागना है। जागने में जानना विलुप्त हो जाता है। आम अवधारणा यह है कि जागोगे तो और जानोगे। नहीं, ऐसा है ही नहीं। जो जाग गया उसका जानना पीछे छूट जाता है।

आम भाषा में आप जिसे जानना कहते हैं, वास्तव में जो जागा हुआ मन होता है वो उस जानने को बहुत पीछे छोड़ देता है। अब इसका जो जानना है वो किसी और तल का होता है। अब यह कुछ ऐसा जानता है जो सामान्यतः जानने की परिभाषा में आता ही नहीं। अब इसके पास सूचनाएँ नहीं है। अब इसके पास इधर-उधर से इकट्ठा की गई जानकारी का संग्रह नहीं है। अब इसने कुछ और जाना है। कुछ ऐसा जो शब्दातीत है। कुछ ऐसा जिसे हो सकता है ये समझा भी ना पाए। पर कुछ ऐसा जो केंद्रीय रूप से मूल्यवान है। सतत कीमती है।

तो जानने के चक्कर में मत पड़ जाइएगा कि किताबें हैं, पढ़ी, और ज्ञान इकट्ठा किया और ये किया, वो किया। आध्यात्मिकता हल्का होने का नाम है। तीसरी आँख और नहीं पैदा करती। क्या करती है? खत्म करती है, जलाती है। भस्मीकरण की प्रक्रिया है। गया, स्वाहा!

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