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लेख
शिष्य कौन? || आचार्य प्रशांत, श्री अष्टावक्र पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
17 मिनट
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यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान् ।

आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१५ -१॥

~ अष्टावक्र गीता

“बुद्धिमान कृतार्थ हो जाता है, जान जाता है तब भी जब बात सहज अगंभीर तरीके से कही गयी होती है | और दूषित मन वाला नहीं जान पाता भले ही वो जीवन भर यत्न में लगा रहे | बुद्धिमान जान जाता है तब भी जब बात हल्के में कह दी गयी हो |”

वक्ता: ये बड़े भ्रम की ही बात है कि कुछ ख़ास मौके होते हैं जब जान लेंगे, सीख लेंगे| और जैसे हमने ज़िंदगी में सब कुछ बाँट रखा है, वैसे ही हमने सीखने के अवसरों को भी बाँट रखा है| हम कहते हैं कि “जब कोई विशेष आयोजन होगा तब सुनेंगे, तब जानेंगे, तब सीखेंगे”| जैसे कि जीवन विभक्त हो दो हिस्सों में| एक हिस्सा वो, जब हमें अपने ढ़र्रों पर कायम रहना है और दूसरा हिस्सा वो, दूसरा आयोजन वो जब हमें बदलना है, जब हमें कुछ नया जानना है, सीखना है, करना है| अष्टावक्र जो बात कह रहे हैं वो जानने की, सीखने की, बोध की, लर्निंग की, सार की है|

जो दिन-प्रतिदिन की छोटी घटनाओं से नहीं सीख सकता वो किसी विशेष आयोजन से भी सीख पाएगा, इसकी संभावना बड़ी कम है| बुद्धिमान वही है जो साधारणतया कही गयी बात को, एक सामान्य से शब्द को भी इतने ध्यान से सुने कि उससे सारे रहस्य खुल जाएँ |

गुरु अगर गुरु है, तो सदा गुरु ही है ना? उसकी गुरुता अविच्छिन्न है| और शिष्य अगर शिष्य है तो उसको भी शिष्य होना होगा, निरंतर | उसके शिष्यत्व को भी अपरिच्छिन्न ही होना पड़ेगा| आप किरदार की अदायगी नहीं कर सकते हैं कि “नौ से एक तुम गुरु का चरित्र अभिनीत करो और मैं शिष्य का और उसके बाद तुम अपने रास्ते और मैं अपने रास्ते | उसके बाद हमारा सम्बन्ध कुछ और हो जाएगा| अभी गुरु हो , फ़िर कुछ और बन जाओगे, फ़िर बड़े भाई बन जाओगे, या अनजाने हो जाओगे या बेटे बन जाओगे या एम्प्लॉयर बन जाओगे| जब गुरु का सामीप्य होता है, तो विधियाँ बदल सकती हैं, कहने के अंदाज़ बदल सकते हैं| पर अगर गुरु ‘गुरु’ है, तो है ही| वो मज़ाक भी कर रहा हो तो उसके पीछे सार होगा| किसी भी भाषा में कह रहा हो और कुछ भी कह रहा हो, संदर्भ भी कुछ भी हो सकता है, पर उसके पीछे जागृति होगी और वो सन्देश एक आयोजित सन्देश से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण और लाभप्रद है क्योंकि वो आपको सहज ही, अनिरंतर मिलता रहेगा| आयोजन निरंतन नहीं हो सकते, वो तो एक कृत्रिम व्यवस्था है| कब तक वो व्यवस्था रखोगे? जीवन तो जीवन है| वो आपकी सारी व्यवस्थाओं को तोड़ देगा, उसकी अपनी एक अलग व्यवस्था है|

बुद्धिमान वही है जो मज़ाक में दी गयी सीख को भी सीख ले| जो सूक्ष्मतम इशारे से भी समझ जाए| जो गुरु के शब्दों की प्रतीक्षा न करे, जो गुरु के होने से जान ले|

और दूसरा कौन है? दूसरा वो है जो कहता है कि “यह बात कही गयी थी, यह शब्द हैं और उन शब्दों में कुछ ख़ास है| मैं तो उन शब्दों को पकड़कर बैठूँगा| ख़ास मौके, ख़ास शब्द, ख़ास बात, इसी में से निकालूँगा”| वो कुछ विशेष निकाल नहीं पाएगा| समझियेगा बात को| अगर शब्दों से ही निकलना होता, अगर आयोजन से ही निकलना होता तो फ़िर मामला बड़ा सुविधापूर्ण रहता| आप एक आयोजन करिए और उसमें बुला लीजिये किसीको! और आपका काम हो जाएगा| अब बुलाने की भी फ़िर क्या ज़रूरत है? आएगा तो भी कुछ शब्द ही तो बोलेगा| उसके शब्दों को कहीं से मँगा लीजिये| किसी पुस्तक में होंगे उसके शब्द, पुस्तकें मँगा लीजिये| पुस्तकों से काम चल जाना चाहिये था| पुस्तकों से काम चलता नहीं| सामीप्य चाहिये| क्योंकि आप अपनेआप को देह मानते हो, अपनेआप को व्यक्ति ही मानते हो, इसीलिए आपको व्यक्ति का ही सामीप्य चाहिये होगा|

सत्संग का आत्यांतिक अर्थ तो यही है कि आत्मा का आकाश, आत्मा के आकाश के क़रीब आया| और आकाश, आकाश में विलीन हो गया| मात्र निरभ्रता शेष रह गयी | लेकिन वो आत्यांतिकअर्थ है| वो तब है जब आकाश निरभ्र हो| लेकिन आपके मन पर तो बादल ही बादल हैं| तो आपके लिए तो सत्संग का अर्थ यही होगा कि व्यक्ति की व्यक्ति से समीपता रहे, क्योंकि आपने आत्मा को अभी जाना नहीं| पुस्तक से और शब्द से और मात्र आयोजन से आपका काम नहीं चल सकता| अगर आप कुछ इस तरह की मानसिकता रखते हैं कि “तब तक सुनेंगे जब तक सुनने का समय निर्धारित है और फ़िर उसके बाद अपने रास्ते चल देंगे”, तो आपका काम नहीं चल सकता| ये वैसे नहीं हो सकता जैसे आप फिल्म देखने जाते हो| कि जब तक तो फिल्म चल रही है आप उसमें डूबे हुए हो और जैसे ही ख़त्म हुई आप अपने रास्ते चल दिए| अब आपका थिएटर से कोई लेना-देना नहीं है| निर्देशक से कुछ लेना-देना नहीं है| अब आपके कुछ और काम धंधे हैं, आप उनकी ओर चले गये| अगर आप इस मानसिकता के साथ हो तो आपको कुछ नहीं मिलेगा| अष्टावक्र आपसे कह रहे हैं, “जीवन भर यत्न करते रहो, कुछ पाओगे नहीं”|

उपनिषद्, ‘उपवास’, ‘उपदेश’ | देश का अर्थ होता है- स्थान, स्थान में समीपता | स्थान समझते हैं ना? स्थान में समीपता, उपदेश का यही अर्थ है| उपवास – वास माने रहना, करीब रहना | उपनिषद् – वो बोध, जो समीपता से जागृत हुआ | अगर आप समीप हो तो ध्यान रखियेगा कि वो कोई आयोजित समीपता नहीं हो सकती| बड़ा विचित्र हो जाएगा| 24 घंटे बोध-सत्र तो नहीं चल सकता कि बैठ करके एक आयोजित तरीके से बातचीत चल रही है| समीप हो तो जीवन चलेगा ना? जीवन का सहज बहाव चलेगा| हो गुरु के साथ, खा रहे हो, पी रहे हो, बैठ रहे हो, उठ रहे हो, चल रहे हो, खेल रहे हो, जा रहे हो, सो रहे हो, बात-चीत कर रहे हो, जीवन के जो समस्त अनुभव होते हैं, ले रहे हो| और उन्हीं समस्त स्थूल अनुभवों के दरम्यान, उनके नीचे-नीचे, एक सब्लिमिअल तरीके से, एक बोध के धारा प्रवाहमान है| ऊपर-ऊपर तो ऐसा लग रहा है कि कुछ नहीं है, दो लोग साथ में बैठ कर खाना खा रहे हैं और नीचे-नीचे उपनिषद् का जन्म हो रहा है| ऐसा नहीं होता था कि जब उपनिषद् कहे गये हैं तो ऋषि के सामने जो शिष्य बैठे हैं, वो मात्र तीन घंटे के लिए आये हैं, कि “ये स्लॉट है, इसी में बोल दो और उसके बाद हम घर जाएँ”| न! वो तो उनकी निरंतर समीपता से जन्मता था| इसी का नाम सत्संग है, निरंतर समीपता| आयोजित समीपता नहीं| कृत्रिम समीपता नहीं| जैसे कि आप पौधे को पानी दे रहें हो, धूप दे रहें हो, और फ़िर अपनेआप उसमें फ़ल आएगा| और ये फ़ल जब भी आएगा तो आप यह कह नहीं पाओगे कि पानी की किस बूँद से ये निकला है| आप यह कह नहीं पाओगे कि किस दिन की धूप से फ़ल निकला| वो जो फ़ल है, वो तो निरंतरता से आया है| कभी भी आ सकता था| सदा साथ थे, अचानक घटना घट गयी| सदा साथ थे, निरंतर घटना घट ही रही थी| यही कह रहे हैं अष्टावक्र|

जिसे सीखना है, वो लगातार सीखता ही रहता है| जिसे जानना है, वो लगातार जान रहा है| और जिन्होंने जानने को दायरों में कैद किया, जिन्होंने कहा कि “अभी दूकान का समय है, अभी तो मेरे अन्य आचार का, विहार का समय है, अभी तो वही करने दो मुझे| अब फ़िर जब समय आएगा पूजा का, तो पूजा में बैठ लेंगे”| तो कुछ पाएंगे नहीं| आप दिनभर जीवन ऐसा ही जी रहे हो जैसा जीते हो और आप घड़ी-दो-घड़ी के लिए पूजा में बैठ जाओ, उससे आपको क्या मिल जाएगा? आपने तय ही कर रखा है कि “मेरी ज़िंदगी ऐसी है क्योंकि मैं ये हूँ, अब मेरी उस ज़िंदगी का एक हिस्सा ऐसा ये भी है कि मैं कुछ मंत्र पाठ करूँगा”, तो आपको उन मन्त्रों से क्या मिल जाएगा? अब आप बड़े हैं और मंत्र छोटे हैं| अब आप बड़े हैं और शास्त्र छोटे हैं! जिस शास्त्र को आपने अपनेआप से छोटा बना रखा है, वो आपको क्या दे सकता है? आप दिनभर दफ़्तर में हो और भ्रष्ट आपका मन है और भ्रष्ट आपका आचरण है| और अब शाम को वापस आ करके, संध्या समय आरती कर लो, पूजा कर लो, देवालय जाकर प्रसाद चढ़ाओ, तोआपको क्या मिल जाएगा? आप तो मंदिर भी इसलिए जा रहे हो ताकि आपकी दिनचर्या कायम रह सके, ताकि आपका भ्रष्टचार फल-फूल सके| ठीक है? आप दिनभर कसाई का काम करते हो, निर्दोष जानवरों की निर्मम हत्या करते हो, और आप दिन में पाँच वक़्त, हत्या के बीच में, नमाज़ पढ़ आते हो, तो आपको क्या मिल जाएगा? नमाज़ से पहले भी आप हत्या कर रहे थे| आप उस जानवर की आँख में झाँककर नहीं देख पा रहे थे| और नमाज़ के बाद भी आप हत्या कर रहे हो| आपने तो नमाज़ को भी इस हत्या में शरीक कर लिया! पाप है यह! और इंसान ने यह पाप हमेशा से करा है| उसने सत्य को, आत्मा को, ब्रह्म को अपनी मानसिक गतिविधि का, अपने ढ़र्रों का हिस्सा बनाया है| सच तो यह है कि अगर मानसिक क्षोभ न हो तो न वो ब्रह्म की बात करेगा न वो आत्मा की बात करेगा| आप डरते हो कि आपका कुछ बुरा हो जाएगा, तभी आप इश्वर की ओर भागते हो| आपको लालच है कि आपको कुछ पाना है तो आप पूजा करने निकल जाते हो| आपके मन से डर और लालच हटा दिए जाएँ तो मंदिर-मस्ज़िद सब बंद हो जाएँगे| नहीं होंगे किसी घर में मंत्र पाठ, न पूजा होगी और न अर्चना| हमारी सारी मानसिक व्यवस्था भय और लोभ पर आधारित है| अष्टावक्र आपसे कह रहे हैं , “सत्य को कैद करोगे तो कुछ पाओगे नहीं ”| ठीक वैसे ही जैसे आकाश को मुट्ठी में कैद करो तो अपनेआप को दिलासा तो दे सकते हो कि “ये रहा आकाश और मुट्ठी में कैद कर लिया”, पर पाओगे कुछ नहीं|

गुरु की गुरुता को मुट्ठी में कैद करोगे तो गुरु से भी कुछ नहीं पाओगे| कि मुझे मुट्ठीभर चाहिये, हफ़्ते में दो घंटे! कुछ नहीं पाओगे ऐसे! आत्मा को शरीर में कैद करोगे तो कुछ नहीं पाओगे! और ये हमारा बड़ा मनोरंजक वक्तव्य रहता है कि आत्मा शरीर में निवास करती है| इंसान ऐसा ही है| उसने आत्मा को भी शरीर में स्थापित कर दिया है| अच्छा लगता है ना? “मैं कौन हूँ? मैं शरीर हूँ! और आत्मा कहाँ है? शरीर में है! तो बड़ा कौन हुआ? मैं!” बहुत बढ़िया! शाबाश! “सत्संग क्या है? मेरे रूटीन का हिस्सा है|” तो बड़ा क्या हुआ…?

श्रोता (सब एक स्वर में) : मेरा रूटीन|

वक्ता : मेरा ढ़र्रा बड़ा हुआ| सत्संग छोटा हुआ| क्योंकि वो क्या है? वो मेरे ढ़र्रे का हिस्सा है| हफ़्ते में एक बार| मैं अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए गुरु के पास जाता हूँ| मैं अगर अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए गुरु के पास जाता हूँ या मंदिर जाता हूँ, तो बड़ा कौन हुआ…?

श्रोता *(सब एक स्वर में)* : मेरा उद्देश्य|

वक्ता : बहुत बढ़िया! जब आप छोटे होते हैं और सत्य बड़ा होता है, तब सत्य अनेक तरीके से आपके सामने प्रकट होता है| उसकी को अष्टावक्र कह रहे हैं कि फिर वो यह कहता नहीं है कि ‘सुनो, सुनो, सुनो! बड़ी महत्वपुर्ण बात कहना जा रहा हूँ|’ वो कोई छोटी सी बात कहेगा और आपकी आँख खुल सकती है | की जैसे लाओ तजु| पेड़ के नीचे बैठा है, एक झड़ता हुआ पीला पत्ता देखता है और आंख खुल जाती है| ये आयोजित तो नहीं है| इसमें कोई ढर्रा तो नहीं है| इसमें तो लाओ तजु(Lao Tzu) का निरंतर चैतन्य है| याद रखियेगा वो तय करके नहीं गया था की आज चार से साड़े चार के बीच पेड़ के नीचे बैठूँगा और झड़ते हुए पत्ते को देखूंगा| चार से साड़े चार मेरा ऑब्जरवेशन का कार्यक्रम होता है| मैं दृष्टा बनने जाता हूँ| आओ! दृष्टा होने का अभ्यास करें| ऐसा तो नहीं है| लाओ तजु निरंतर देखता ही रहता है| निरंतर उसका बोध प्रकाशमान ही है, उसमें एक पत्ता गिरता है, घटना घट जाती है| बिजली कौंध जाती है| तैयारी लगातार चल रही थी|

आप गुरु के साथ हो, लगातार हो| और बात बात में, बात बात में, आँख का एक इशारा| और बिजली कौंध गयी| आयोजित तो नहीं है यह घटना |

आप गुरु से भी पूछोगे कब करोगे इशारा आँख का? वो खुद नहीं बता सकता| ये तो नदी का बहाव है, कब उसमें क्या आ जाएगा आपको क्या पता| ये तो मिटटी से बीज़ का अंकुरण है| आप तो विनीत भाव से पानी दे सकते हो, धूप दे सकते हो, खाद दे सकते हो| और फिर तो प्रतीक्षा ही कर सकते हो| कभी भी हो सकता है| आप जो कर सकते थे, आपने कर दिया है| अब आगे जो होना है, वो आपके हाथ में नहीं है| हाँ, आपकी मौजूदगी आपके हाथ में है |

आप मौजूद रहिये| जब घटना घटे तो आप मौजूद रहिये| कभी भी घट सकती है|

पेड़ स्वस्थ है| ऊँचा हो गया है| फल लग गये हैं| फल पक रहे हैं| पका फल कभी भी गिर सकता है| आप मौजूद रहिये| पका फल कभी भी गिर सकता है| आप जो कर सकते थे आपने कर दिया| बीज़ से ले करके वृक्ष तक की यात्रा में जो कुछ आप कर सकते थे, आपने करा| आपने क्या करा| जो आदमी के हाथ में है वो सब आपने करा| अब इसके आगे तो बस आपकी मौजूदगी ही सहायक होगी| आप मौजूद रहिये| फल पका हुआ है और कभी भी गिरेगा| पत्ता है| तैयार है| गिरने के लिए तैयार है| कभी भी गिर सकता है| आप प्रस्तुत रहिये| मौका ताकि आप चूक न जाएँ|

बात समझ में आ रही है?

कबीर ने क्या कहा है? उठते बैठते परिक्रमा करते हैं| ये नहीं कहा है कि परिक्रमा का समय बाँध रखा है| चलते फिरते पूजा है| ये नहीं की पूजा का समय बांध रखा है| जिन्होंने समय बाँधा वो तो पाखंडी| क्योंकि समय बाँधने का अर्थ है की इस समय पूजा और इस समय के बाद पूजा नहीं| पाखंड है न? गहरा पाखंड है| तुमने पूजा को बाँध दिया है कि ‘इस दायरे से बाहर मत आना पूजा!’ और कबीर क्या कहते हैं? चल रहे हैं तो भी पूजा है| बैठ रहे हैं तो भी पूजा है| निरंतरता होनी चाहिये | निरंतरता होती है तो अचानक से बात खुल जाती है|

मुझे बड़ा विचित्र लगता है| वो लोग जो कहीं नज़र नहीं आते, महीनो तक जिनकी शकल दिखाई नहीं देती, वो बुधवार को या रविवार को ऐसे ही चले आयेंगे टहलते हुए| और फिर सेशन के बाद वहाँ कुर्सी पे आकर बैठेंगे और बड़ा ज़ोर रहेगा उनका की ज़रा हमारे सवालों का ज़वाब दे दीजियेगा| जैसे आदमी दूकान पर खड़ा हो करके कहता है और बाहर तीन चार और लाइन में खड़े रहंगे| अभी होगी ये घटना | देखिएगा| एक बैठा हुआ है, तीन चार लाइन से खड़े हैं| और जो लाइन से खड़े होंगे वो वैसे ही खड़े होंगे जैसे की कुछ खरीदने के लिए कतार बनती है न तो जो कतार में होते हैं वो क्या कर रहे होते हैं? वो यूँ झांक ताक कर रहे होते हैं, ताकि अन्दर कुछ दबाब पड़े की ज़रा जल्दी से करियेगा हमारा नंबर भी आये| ये आयोजन बनाके आये हैं की आज एक बजे तक बैठेंगे, उसके बाद जा करके 15 मिनट जा करके अपना सवाल वगेरहा पूछ लेंगे, फिर चल देंगे| मैं इन्हें कुछ दे नहीं पाता| इन्हें ज़रूर लगता है कि इन्हें कुछ मिल गया है, कई बार बड़े प्रसंनित होकर जाते हैं| मुझे बड़ा अचम्भा होता है की तुम खुश किस बात पे हो रहे हो| यूँ ही मैंने कुछ बोल दिया है जो मुझे भी पता है तुम्हारे कुछ काम का नहीं, तुम खुश किस बात पे होकर जा रहे हो? तुम्हे कुछ मिल सकता ही नहीं है| तुम 15 मिनट के सौदागर हो तुम्हे मैं क्या दे पाऊँगा? यहाँ फ़ास्ट फ़ूड थोड़ी सर्व होता है|

तुम वैसे ही आते हो| जैसे मैक-डी में रहते है न? एक खिड़की पे आर्डर दो, दूसरी खिड़की से आर्डर इखट्टा करो और गाड़ी से उतरो भी नहीं| वही तुम्हारी कोशिश है| हम गाड़ी से उतरेंगे भी नहीं| गाड़ी तुम्हारी पूरी व्यवस्था है| हम उसके भीतर कायम रहेंगे, तुम बाहार से हमें हमारा आर्डर सर्व कर दो| तुम्हे क्या बताएं? तुम यहाँ पे आके सवाल लिख देते हो| ठीक है! कुछ बोल देते हैं| यहाँ आये हो| अच्छी बात है| कुछ बोल दिया| पर कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर उससे तुम्हे कोई लाभ न हो| ये तो साधना होती है बेटा| इतने समय से तुमने इतना सब कुछ इखट्टा किया है| तुम एक चक्कर लगाओगी और सब साफ़ हो जाएगा| वो चक्कर भी तब लग रहा है जब पीछे से किसी ने घुड़की दी है| तुम्हारा बस चले तो तुम तो, होशियार हो! खुद ही चुन लोगे! क्या पढ़ना है| चुन ही रखा है| अहंकार का बड़ना बहुत ज़रूरी है, तभी वो पकेगा| तुम्हारी बेवकूफी की और बड़बोलेपन की कोई सीमा है? बड़बोला समझते हो? जो इतना सा होता है| पिद्दी! और मुह जिसका इतना बड़ा होता है| जिसके आकर से ज्यादा बड़ा मुँह होता है उसका| बक बक बक! और बड़ी बात नहीं की तुम आते भी इसीलिए हो ताकि तुम्हारे बड़बोले मुह को बोलने के लिए कुछ सामग्री और मिल जाए| मुझे ताज्जुब नहीं होगा अगर तुम ये सब जो सुन रहे हो इसको भी जा करके भी बस प्रयोग करो, इस्तमाल करो, अपने अहंकार का सहायक बनाओ|

मंदिर में जा करके यज्ञ में आहुति बन जाना एक बात है| और मंदिर के बहार खड़े हो करके दीवार से कान लगा करके दो चार मंत्रो को सुन लेना ताकि तुम वापस समाज में जा करके उन मंत्रो के दम पर उछल सको, बिलकुल दूसरी बात है| मंदिर में इसलिए नहीं आया जाता ताकि कुछ मंत्रो को सुन लो और याद कर लो| ताकि बाद में तुम उन मन्त्रों के दम पर फूल सको, इतरा सको| मंदिर में इसलिए आया जाता है ताकि यज्ञ विधि पर चढ़ सको| ‘हम ही समिधा बन गये’|

समझ में आ रही है बात?

~ बोध सत्र पर आधारित | स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त है |

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