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लेख
शरीर, मन, आत्मा || (2016)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुख्य क्या है – शरीर, मन, या आत्मा? तीनों का समन्वय संसार में आवश्यक है, तो कैसे जिएँ? एक को पकड़ो, तो दो छूटते हैं। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: मुख्य आप हैं।

क्योंकि आपको पहले से ही पता है कि तीन अलग-अलग इकाईयाँ हैं- शरीर, मन, और आत्मा। इनका विभाजन किसने किया? आपने किया। तो इन तीनों से बड़ा कौन हुआ? आप हुए। आपने पूछा ‘मुख्य’, ‘मुख्य’ माने – कीमती, पहला। जब इन तीनों का विभाजन आप कर रहे हो, तो निश्चित-सी बात है इन तीनों से प्रमुख आप हुए।

ये ‘आप’ जानते हैं कौन है? ये अहंता है, ये अहंकार है। कैसे पता आपको कि तीन अलग-अलग होते हैं – शरीर, मन, आत्मा?

पर सवाल आप ऐसे पूछते हैं कि बिलकुल आपकी अपनी जानकारी है। ख़ुद गए थे और कहीं देखकर आए थे कि तीन पेड़ों पर तीन अलग-अलग फल हैं - शरीर, मन और आत्मा। कुछ पता है आपको शरीर का? आत्मा से क्या परिचय है आपका? मन का कब अवलोकन किया आपने? पर कितने विश्वास से पूछा!

और यही नहीं पूछा कि – “तीन हैं क्या?” “तीन हैं, ये तो हमें पता है! आप बताइए कि तीनों में प्रमुख कौन है?”

तीनों में प्रमुख आप हैं। तीनों के बाप आप हैं। ये तीनों आप से ही उद्भूत हैं।

ऐसा जीवन है हमारा।

पर जब तुम दिखाते हो कि तुम कितना कर सकते हो, तभी फिर किसी और स्रोत से मदद आ जाती है। किस रूप में आती है, जान नहीं पाओगे। कब आती है, कैसे होता है, समझोगे नहीं। पर इतना तो समझो कि कोई ज़रूरी नहीं है कि बेईमानी में जिया जाए। जो बुरा लग रहा है उसको बोलो न कि – “बुरा लगता है।”

मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम प्रश्न कल्पित करो। पर कोई ऐसा नहीं है जिसे दुःख अच्छा लगता हो, एकाकिपन अच्छा लगता हो, जीवन का मिथ्यापन होना अच्छा लगता हो। हम सबको बुरा ही लगता है। पर हम सब इतने समझदार हो गए हैं कि हमने उस जगह पर आकर के समझौता कर लिया है। हमने कह दिया है कि – “अब हम शिकायत करेंगे ही नहीं।”

आध्यात्मिकता का अंत होता है ऐसे अनुग्रह के भाव पर, जहाँ शिकायतें बचती नहीं। पर आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है बड़ी गहरी शिकायत से। जिनके पास शिकायत नहीं, उनके लिए आध्यात्मिकता नहीं।

अंत में कोई शिकायत नहीं बचेगी, अंत में तो बस धन्यवाद बचेगा। पर जिनके जीवन में कोई धन्यता है नहीं, अगर वो ‘धन्यवाद-धन्यवाद’ कहे जा रहे हैं, तो बात बड़ी गड़बड़ हो गई।

घन्यवाद वो दे न जिसे धन्यता उपलब्ध हुई हो। आपको हुई है? हुई नहीं है, तो धन्यवाद मत दो, शिकायत करो। शिकायत ही वो आग बनेगी जो अन्ततः तुम्हें धन्यता तक ले जाएगी, तब देना धन्यवाद। तब तुम्हारा धन्यवाद सार्थक होगा।

अभी क्या धन्यवाद दिए जाते हो कि – “प्रभु तूने बहुत कुछ दिया।” और चिल्ला रहे हो – “प्रभु तूने बहुत कुछ दिया!”

प्र: पर बचपन से सिखाया यही जाता है कि अगर किसी का हाथ-पैर टूट जाता है किसी एक्सीडेंट (दुर्घटना) में, तो भगवान को धन्यवाद दो कि हाथ-पैर ही टूटा, मरे नहीं…

आचार्य: अभी यहाँ बच्चा कौन है?

बचपन में जिसको सिखाया गया होगा, वो बच्चा है कहाँ अभी? किसकी बात कर रहे हैं? हाँ, अगर कोई बच्चा आता और कहता कि, “मुझे ये-ये सिखाया जाता है”, तो मैं उससे बात करता। यहाँ बच्चा कौन है अभी? बचपन में आप जो कुछ करते थे वो सब आपने छोड़ दिया। इस सीख को क्यों नहीं छोड़ा?

अगर आपको अपने बचपन के कर्मों से इतनी ही आसक्ति थी, तो बचपन में जैसे-जैसे थे, तो वैसे-वैसे सबकुछ होता अभी। फिर नंगे पाँव घूमते सड़क पर, लॉलीपॉप भी चूसते, वो तो बंद कर दिया। तब क्यों नहीं कहा कि बचपन में यह सब करते थे तो अभी-भी करे जा रहे हैं? पर इस बात के लिए बचपन की दुहाई है कि – “देखिए, हम क्या करें साहब बचपन में हमारे मन को संस्कारित कर दिया गया, इसीलिए हम आज तक ऐसे हैं।”

प्र: लेकिन हमें दुःख है कि हाथ-पाँव टूट गए, लेकिन फ़िर भी तसल्ली है, यह संतुष्टि है कि इससे भी बड़ा कुछ नुकसान हो सकता था।

आचार्य: और यह बात आप कह रही हैं कि "बचपन से ही हमारे माँ-बाप हमारे मन में भर देते हैं, इसलिए हम शिकायत नहीं कर पाते।" तो अभी तो आप सारा दोष माँ-बाप पर और बचपन के संस्कारों पर डाल रही थीं, और अब आप बात को तुरंत टाल रही हैं। अभी जो आपने पहली बात कही, उसमें जो पूरा ज़ोर था कि बचपन से ही माँ-बाप सिखा देते हैं कि यदि कुछ बुरा हो जाए, तो अपने आप को सांत्वना दो और कहो कि – “देखो इससे भी बुरा कुछ हो सकता था, तो भला हुआ कि इतना ही बुरा हुआ।”

माँ-बाप ने तो और भी हज़ारों बातें कहीं थी, उन सबका भी अनुपालन कर रहे हैं क्या? तो इसी बात का क्यों कर रहे हैं? उन्होंने तो यह भी बोला होगा कि – “बेटा झूठ मत बोलना”, लेकिन हम तो तड़ से बोल देते हैं!

प्र: बचपन में उनको बोलते देखते हैं, तो हम भी करने लगते हैं।

आचार्य: कहाँ हैं वो सारे माँ-बाप? उनका एक अलग समुदाय बनाया जाना चाहिए। जितने माँ-बाप हों, उन सब को सज़ा मिलनी चाहिए! जितने माँ-बाप हैं, उनका अलग देश ही बनाया जाए! उसमें सिर्फ़ माँ-बाप रहेंगे!

अच्छा यहाँ कितने माँ-बाप हैं?

प्र: सारे ही माँ-बाप हैं।

आचार्य: अरे! ये तो बड़ी गड़बड़ हो गई।

प्र: सारे अपराधी आपके सामने प्रस्तुत हैं!

आचार्य: सब यहीं हैं? अच्छा, तो जिन माँ-बाप के ख़िलाफ़ आप शिकायत कर रहे थे, वह सब आप ही लोग हैं?

फँस गए!

प्र: तो फिर क्या करना चाहिए? जब हाथ-पावँ टूट जाए, कोई पाँच-छः महीने बिस्तर पर हो, तो ऐसे में क्या करना चाहिए?

आचार्य: जो करना था वो कर तो लिया, तोड़ तो लिए हाथ-पावँ! अभी और करेंगे?

पड़े हो बिस्तर पर तो पड़े रहो, और क्या करोगे? दौड़ लगाओगे तो जुड़ेगा भी नहीं। अब यह क्या सवाल है – “क्या करें?” जो होना है, वो हो ही रहा है। पर भीतर का कर्ताभाव मानता नहीं – “अब और क्या करें?”

इतना तो कर आए, अब और क्या करोगे?

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