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लेख
शमशान डरावना क्यों लगता है? || आचार्य प्रशांत (2018)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: यहाँ पास में ही एक कॉलेज है। वहाँ के छात्रों को अक्सर मैं यहाँ लाता रहा हूँ, दसों बार। ये अपनेआप में एक मूक सत्र रहता है कि बस देखो, मुझे बहुत ज़्यादा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। आप लोगों ने तो फिर भी यहाँ कम समय बिताया, उनको यहाँ मैं ले आता हूँ, छोड़ दिया करता हूँ कि देखते रहो। दो-दो घंटे अपना बैठे हैं, तीन-तीन घंटे बैठे हैं, लिख रहे हैं। आप लोग मोबाइल में लिखते हैं, वो लोग अपना नोटबुक में लिखते थे।

जहाँ कुछ नहीं होता, वहाँ आने से लाभ ये होता है कि वो बहुत कुछ जो ज़िन्दगी को पकड़े रहता है, मन को भरे रहता है, उसकी व्यर्थता बड़ी चोट के साथ ढह जाती है। यहाँ बहुत कम है समाज, हमारे खेल-खिलौने, रिश्ते-नाते, ज़िम्मेदारियाँ। यहाँ श्मशान घाट है, यहाँ वो सब नहीं हैं। यहाँ चिताएँ हैं, गंगा हैं, ये है बूढ़ा वृक्ष (बगल के एक पुराने वृक्ष की ओर इशारा करते हुए), ये मन्दिर है उतना ही बूढ़ा और इस जगह का खालीपन।

यहाँ जो पूरी रिक्तता है वो झंझोड़ करके कहती है, 'अगर मामला ऐसा है तो तुम वैसे क्यों जी रहे हो?' अगर खेल वाक़ई ऐसा है कि पेड़, नदी, मन्दिर, एक लाश और लाश को जलाने वाले लोग, कुल यही है, तो तुम वैसे क्यों जी रहे हो? और उसमें भी जो बात अचानक से मन को मसल जाती है, एक तरह का ख़ौफ़ सा दे जाती है, वह यह है कि ये जो है रिक्तता, खालीपन जिसमें हमने कहा, खेल-खिलौने, मान-मर्यादा, रिश्ते-नाते, ज़िम्मेदारियाँ कुछ भी मौजूद नहीं हैं, ये रिक्तता बुरी नहीं लग रही। और अगर ये बुरी नहीं है, तो फिर वो सब क्या है (बस्ती की ओर इशारा करते हुए )?

यहाँ कौन बैठा है जिसे ये सब बुरा लग रहा हो? है कोई जिसे ये सब बुरा लग रहा हो? बल्कि कुछ है यहाँ जो पकड़ लेता है। बाहर से सुनें या बाहर किसी को बतायें कि मरघट गये थे, वो कहेगा, 'भक! मरघट कोई पर्यटन की जगह है, क्या करने गये थे?'

पर कितनी दफ़े हुआ है कि मैंने लोगों से पूछा है कि बात मरघट पर करनी है या मन्दिर में, तो लोगों ने कहा है कि मरघट पर कर लेते हैं। वहाँ कुछ बुरा लग ही नहीं रहा। एक नंगी सच्चाई है, सामने खड़ी है, बुरा क्या है उसमें? उसका बुरा लगना तो छोड़िए, अजीब बात है कि वहाँ शान्ति मिलती है। अब ये बात बुद्धि की पकड़ से बाहर की है, तर्क की पकड़ से बाहर की है। सामने आप देख रहे हैं एक शरीर को जलता हुआ, एक ज़िन्दगी को ख़त्म होते हुए लेकिन फिर भी कुछ बुरा सा नहीं लग रहा।

हाँ, जो लोग उस शव के साथ हैं, जिनका उससे मोह का रिश्ता था, देह का रिश्ता था, वो ज़रूर आँसुओं से तर हैं। पर आप आमतौर पर जब मान्यता रखते हैं कि लाश देखकर घबराहट होगी, श्मशान अशुभ जगह है, वैसा तो कुछ प्रतीत ही नहीं होता। शुभता तो फिर भी छोटी बात है, वहाँ तो बल्कि शान्ति है।

प्र: आचार्य जी, पर झकझोर सा देता है एकदम।

आचार्य: झकझोर इसीलिए देता है कि अगर ये सबकुछ अच्छा है या कम-से-कम उतना बुरा नहीं है जितना तुमने कल्पित कर रखा है तो फिर तुम वहाँ जो इतनी मेहनत करते हो, इतना खेल रचते हो, इतनी माया बुनते हो, इतनी सुरक्षा गढ़ते हो, उस सब की क्या ज़रूरत है।

मृत्यु नहीं सताती हमें, मृत्यु की कल्पना सताती है, मृत्यु से जुड़ी मान्यताएँ सताती हैं।

मृत्यु तो सहज है, कुछ उसमें ख़ौफ़नाक नहीं। पर जब जीवन आधा-अधूरा होता है तो आधी-अधूरी जगहों पर ख़याल और कल्पनाएँ आकर के बैठ जाते हैं। जगह अधूरी है न, खाली है न, वहाँ कुछ भी आकर डेरा डालेगा। तो वहाँ पर फिर मृत्यु का भय, मृत्यु की मान्यता आकर बैठ जाती है। मृत्यु की वो मान्यता सताती है, मृत्यु नहीं।

ये जो हमारा बचकाना जीवन है, ये मौत से बढ़कर है। हमारा आधा-अधूरा जीवन ही वो दर्दनाक मौत है जिससे बचने के लिए हम भागते रहते हैं। और हम सोचते हैं कि डरावनी जगह श्मशान है। डरावनी जगह श्मशान नहीं है, डरावनी जगह वो है जहाँ रहकर के आपको श्मशान डरावना लगने लगता है।

प्र: आचार्य जी, बचपन से मन्दिर बहुत गया, क्योंकि मैं बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति का रहा हूँ, कभी मथुरा, कभी इधर, लेकिन आज पहली बार अच्छा लगा।

आचार्य: मेरे एक मित्र हैं यहाँ — बुजुर्ग, वयोवृद्ध पुजारी जी। हम थोड़ा सुबह आते तो वो मिलते। बहुत उनकी उम्र हो गयी है, रहते यहीं पास में हैं। आमतौर पर जब भी आता हूँ, उनसे मुलाक़ात होती है। उनसे मिलते आप तो मन्दिर का अर्थ आपको और स्पष्ट होता।

प्र: आचार्य जी, बीच में पत्नी का फ़ोन आ गया था। कहती हैं, 'अभी सत्र शुरू नहीं हुआ है?' मैंने कहा, 'नहीं।' तो कहती हैं, 'देर हो जाएगी।' तो मैंने कहा, 'हम यहाँ (श्मशान में) हैं।' तो कहती हैं, 'वहाँ कहाँ पहुँच गये? देर मत करना, वरना भूत-प्रेत निकल आएँगे।' कह रही हैं, 'पता नहीं कहाँ-कहाँ चले जाते हो!'

आचार्य: डरावनी वो जगह है जहाँ रहकर के कुछ भी डरावना लगने लगे। डरावना वह संसार जहाँ रहकर श्मशान डरावना लगने लगे। डरावना वो जीवन जिसे जीकर के मृत्यु डरावनी लगने लगे।

प्र: आचार्य जी, भूत होते हैं?

आचार्य: जहाँ से तुम्हारे मन में ये ख़याल आया, उसका नाम है भूत। भूत क्या?

प्र: भूतकाल, पास्ट।

आचार्य: जो तुम्हें भूत का ख़याल दे, वह भूत।

प्र: जिससे डर लगे।

आचार्य: जहाँ से भूत का ख़याल आये, वो भूत। जो तुमसे भूत-प्रेत की बात करे, उसी को जान लेना कि यही है भूत। परमात्मा तो आता नहीं भूतों की बातें करने, या वो (परमात्मा) उतरते हैं कि हम बताएँगे भूत हैं?

उपनिषदों ने तो भूत-प्रेत, चुड़ैल की चर्चा करी नहीं है। सत्य की दुनिया में तो भूत-प्रेत होते नहीं, भूत-प्रेतों की ही दुनिया में भूत-प्रेत होते हैं। तो जहाँ पाओ कि कोई भूत-प्रेत की बात कर रहा है, कहो, 'यही है, आज पकड़ में आ गया!' जो अध्यात्म और पदार्थ को मिश्रित करे, घालमेल करे, घपला करे, उसके बारे में समझ लेना कि न तो वो अध्यात्म जानता है और न पदार्थ को जानता है।

सहज जीवन है अध्यात्म। उसमें प्राण काहे को छूट जाएँगे भाई! ऊर्जा का अतिरेक तो उत्तेजना में होता है और अध्यात्म है मन का संयमित, सन्तुष्ट, स्थायी हो जाना। वहाँ ऊर्जा का अतिरेक कहाँ हैं? शरीर में ऊर्जा बढ़ जाए, उसको बुखार कहते हैं। निश्चित रूप से अध्यात्म का मतलब बुखार तो होता नहीं, कि बुद्धत्व आएगा तो तुम्हें तापमान एक-सौ-पाँच चढ़ेगा। तो ये मानसिक ऊर्जा की ही बात हो रही होगी, कि एनलाइटेंड बीइंग्स (प्रबुद्ध प्राणी) में मानसिक ऊर्जा बढ़ जाती है।

बात तो बिलकुल उल्टी है! प्रबुद्धता का तो अर्थ होता है कि वो जो अनियंत्रित, केयोटिक ऊर्जा थी वो संयमित हो गयी है, शान्त हो गयी है। अब वो ऐसे बह रही है जैसे गंगा की धार कि बह तो रही है पर शान्त। उसमें कहाँ वो उत्तेजना है कि तुम पागल हो जाओ या तुम्हारे प्राण छूट जाएँ, ये सब कैसी बातें हैं! ये सब सेंसेशनलिज्म (सनसनी) है, कुछ ऐसी बातें करना कि अरे, जादूगरी, चमत्कारिता। और श्रोताओं के मन का कुछ ऐसा होता है कि शोशेबाज़ी (शरारतबाज़ी) की तरफ़, चमत्कारों की तरफ़ ही ज़्यादा आकर्षित होते हैं।

मैं तुमसे सीधी-सीधी बात कर रहा हूँ, तुम सुन रहे हो। उधर कोई बैठकर के कान से कबूतर निकालने लगे, तुम तुरन्त उठ कर भागोगे। 'देखो, वो हमारे बैठे हैं सद्गुरु, वो कान से कबूतर निकालते हैं।' और वहीं बैठे हों कबीर जुलाहे, वो अपना कपड़ा बुन रहे हैं और साथ ही दो सीधी बातें बोल रहे हैं, वो तुम्हें भाएँगे ही नहीं, आकर्षित ही नहीं करेंगे। कहोगे, ‘क्या कर रहे हैं, कपड़े ही तो बुन रहे हैं। राम नाम ले रहे हैं, दो बातें बोल रहे हैं। इन्होंने क्या ख़ास कर दिया?’

तुम्हें तलाश ही रहती हैं कान से कबूतर निकालने वालों की। कोई सीधी-सरल पिक्चर होती है, तुम कहाँ देखने जाते हो! पिक्चर भी तुम्हें कौनसी चाहिए? कि रजनीकान्त नीचे से गोली मारे और तीन तारे टूट कर नीचे गिरे तुरन्त। वो तुम्हें बहुत भाता है, तीन तारे गिरे वो भी सीधे एक ऊपर वाले पॉकेट में और दो नीचे वाले में।

प्र: अभी आपका सजीव-सत्र सुन रहे थे तो उसमें आपने कहा था कि जो बोध पर चलता है, उसके शरीर में बीमारी लग सकती है, जैसे आदि शंकराचार्य जी की मृत्यु जल्दी हो गयी थी। एक बार ओशो ने भी कहा था कि उनके शरीर में कुछ गैप (अन्तर) आ जाता है, ऊर्जा में। उनको क्या कोई बीमारी लग सकती है, शरीर हो सकता है बहुत परफेक्ट (उत्तम) न रहे हों उनके?

आचार्य: अरे बाबा, जितनी औसत उम्र आम आदमी की होती है, तुम उनको भी ले लो जिन्हें प्रबुद्ध माना गया है, उनकी भी औसत उम्र उतनी ही पाओगे। विवेकानंद, शंकराचार्य हैं जिनको तुम पाओगे कि चालीस से पहले ही चले गये, तो फिर रामकृष्ण हैं, जिद्दू कृष्णमूर्ति हैं, उनको पाओगे कि अस्सी-नब्बे साल जी रहे हैं। तो औसत कितना बैठ गया? ठीक उतना जितना आम आदमी का होता है। आम जनता में भी कुछ लोग अस्सी-नब्बे जीते हैं, कुछ तीस-चालीस में ही चले जाते हैं। वहाँ भी ऐसे ही है। नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन (सामान्य वितरण) बोलते हैं इसको। कोई नियम नहीं बना सकते।

ये बात नहीं है कि अगर कोई जागृत है तो जल्दी ही मर जाएगा या कोई जागृत हो गया है तो दो-सौ साल जिएगा। डेढ़-सौ साल भी जी सकता है, बीस साल भी जी सकता है। बात ये है कि अब जो जी रहा है वो शरीर है, प्रकृति है; भीतर कुछ है जो शारीरिक जीवन, शारीरिक मृत्यु के पार निकल गया है। अब देह चलती है तो चले, हम नहीं रोकेंगे, डेढ़-सौ साल जिये। और गिरती है तो गिरे, हम नहीं रोकेंगे, तीस में गिरती हो तो गिर जाए।

किसी ने डरा दिया है क्या कि अध्यात्म की ओर चलोगे तो जल्दी मर जाओगे?

प्र: आचार्य जी, शरीर को लेकर बहुत ही हीनभावना में रहते थे, मतलब शीशा-वीशा देखो तो एकदम लगा कि ये क्या है। तो आज ये रियलाइज़ (बोध) हुआ कि अंतिम घर तो यही (श्मशान) है। यही हाल होना है शरीर का।

आचार्य: शरीर तो हीन है ही, उसमें क्या बात है।

प्र: ये रियलाइज़ हुआ कि उसमें भी ग़लत ही जीते हैं कि अपने को कम आँकना।

आचार्य: बात ये नहीं है कि अपने को कम आँका जबकि तुम ज़्यादा हो; बात ये है जिसको कम आँका या ज़्यादा आँका, वो तुम हो ही नहीं। मैं नहीं कह रहा, 'तुम अपनेआप को कम आँक रहे हो, जबकि तुम हो ज़्यादा।' ये मैं नहीं कह रहा हूँ। मै कह रहा हूँ, 'जिसको भी आँका जा सकता है, वो तुम हो नहीं।' रही शरीर की बात तो शरीर तो हीन है ही, इसमें क्या बात। देखो, तुम दुबले-पतले तो हो ही। बात ये नहीं है कि तुम दुबले-पतले नहीं हो, बात ये है कि जो दुबला-पतला है वो तुम नहीं हो।

तो जैसे तुम्हें दूसरे देखकर कहें कि ये दो हड्डी, वैसे तुम भी अपनेआप को देखकर बोल दो, ‘ये लो दो हड्डी’, बात ख़त्म! ये जो दो हड्डी है, वो तो दो हड्डी ही है, हम झुठला नहीं सकते, लेकिन ये जो दो हड्डी है वो हम नहीं हैं। वो रहा आये दो हड्डी। और फिर वो कर भी क्या लेगा, दो हड्डी से बढ़ कर चार हड्डी हो जाएगा, चालीस हड्डी हो जाएगा। पचास किलो से बढ़कर डेढ़-सौ किलो हो जाएगा, यही तो कर लेगा। तो डेढ़-सौ किलो भी कौनसी बड़ी चीज़ हो गयी, जंगल का एक हाथी डेढ़-सौ किलो वालों पर भारी पड़े; कुछ नहीं, हाथी, जंगल का हाथी! हम कृष्ण, क्राइस्ट की बात नहीं कर रहे हैं, हम जंगली हाथी की बात कर रहे हैं। वो भारी पड़ता है बड़े-से-बड़े शरीर पर।

तो शरीर का तो यही है, वो तो है ही अदना, छोटा। उसको अदना, छोटा ही रहने दो; तुम छोटी-छोटी चीज़ों से साँठ-गाँठ करना बन्द करो। तुम्हारी समस्या ये नहीं है कि देह दुर्बल है, तुम्हारी समस्या ये है कि देह से तादात्म्य है। दुर्बल देह से तादात्म्य रखो तो बुरा और सबल देह से तादात्म्य रखो तो भी बुरा।

हाँ, बोलिए। हमें आपसे सुनना है।

प्र: आचार्य जी, आज ये पता चला कि चीज़ें प्लान (आयोजित) न करो तो हर पल एक नया है। अभी कुछ पता ही नहीं था कि अगले दस सेकंड क्या होने वाला है। और ताज्जुब सा है, एक नयी जैसी उत्तेजना है कि क्या होगा, अब क्या होगा। तो अनायोजित आयोजित से भी सही हो जाता है।

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