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लेख
शास्त्र सहारा देते हैं, असली गुरु जीवन है || आचार्य प्रशांत (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर, हमसे कहा जाता है कि पहले मन साफ़ करो फिर गीता या कुरान के पास जाओ। पर यह प्रक्रिया तो अध्ययन के दौरान भी हो सकता है न?

आचार्य प्रशांत: नहीं, वो जो प्रक्रिया है वो जीवन की है। जीवन किसी भी कबीर से या गीता से या कुरान से बहुत बड़ा है। पहला गुरु तो जीवन को ही होना पड़ेगा, आँखें वही साफ़ करेगा। जिसको जीवन को देखना नहीं आता वो कबीर को नहीं देख पाएगा। आप यह सोचें कि आप कबीर के पास जाकर फिर जीवन को देखेंगे तो आप गलत सोच रहे हैं क्योंकि कबीर अब बचे नही हैं, कबीर मृत हैं, कबीर के शब्द भर हैं आपके पास जो ठहरे हुए हैं।

जीवन है जो निरंतर गतिमान है; कबीर गतिमान नहीं हो सकते। कबीर जब आपके सामने बैठे थे तब कबीर जीवन थे। अब कबीर मात्र एक पोथी हैं। अब तो गुरु जीवन को ही बनना पड़ेगा। हाँ, जीवन से आपने कुछ सीखना शुरू किया फिर कबीर के पास जाइए फिर कबीर आपको और सहारा देंगे। कबीर आपको प्रमाणित करेंगे कि तुम जो सोच रहे हो, सही सोच रहे हो। तुम्हारी दिशाएँ मेरी ही दिशाएँ हैं। आपको अच्छा लगेगा, आपको एक आत्मबल मिलेगा। कबीर यह कर देंगे आपके लिए। कबीर आपसे कहेंगे कि "तुमको जो अनुभूतियाँ हो रही है, तुम पहले नहीं हो मैं भी उन्हीं से गुज़रा हूँ।" तो एक प्रकार का सहारा मिलता है। एक वेलिडेशन (मान्यता) है।

ये जो जितने भी लोग इस सब से होकर के गुज़रे हैं, वो सब आपको यही दे सकते हैं। क्या दे सकते हैं? वेलिडेशन कि तुम पहले नहीं हो, अगर तुमको दिख रहा है कि संसार निस्सार है तो हमें भी दिखा है। तुमको यह जो हल्की-हल्की किरण प्रतीत हो रही है, हमने पूरा उजाला देखा है। तो मन जो संदेह में रहता है शास्त्रों को पढ़ कर के थोड़ा सा संभल पाता है। एक सहारा पाता है।

शास्त्रों का यही काम है कि वो जगे हुए को जो चलने का इच्छुक है और दो चार कदम खुद ही चल रहा है उसको सहारा दे दें। या उसके सामने स्पष्ट कर दें कि, "देखो! तुम तो अभी दो चार कदम ही चलना चाह रहे हो लोग हुए हैं जिन्होंने लम्बी-लम्बी दौड़े भी लगाई हैं, तो तुम घबराना नहीं।"

अकेला मन संशय में बैठा हो आधा-आधा, इधर जाएँ या उधर तो शास्त्र आपसे कहें कि, "देखो, थोड़ा सा इधर।" समझ रहे हैं न बात को? लेकिन शास्त्र आपके काम तभी आएगा जब कम-से-कम फिफ्टी-फिफ्टी की अवस्था हो। शास्त्र बस एक फिफ्टी को फिफ्टी वन कर देगा तो मामला थोड़ा सा उधर को झुक जाएगा। पर जिसकी अभी फिफ्टी-फिफ्टी की अवस्था नहीं है, शास्त्र उसके किसी काम नहीं आएगा। आप बात समझ रहे हैं?

जो जग रहा है, जिसकी आँखें अधखुली हैं शास्त्र उसको जागने में मदद कर सकता है। जो मुर्दा है, जो पूर्णतया सोया हुआ है शास्त्र उसकी कोई मदद नहीं कर पाएगा। उसकी मदद तो जीवन को ही करनी होगी क्योंकि जीवन ही पहला और आखिरी गुरु है। जीवन ही परम शास्त्र है। जो जीवन को नहीं पढ़ते और शास्त्रों को ही पढ़ते रहते हैं वो कुछ नहीं पाएँगे।

कबीर आपको कैसे समझ में आएँगे? कबीर बिलकुल ही क्रिप्टिक (गुप्त) हैं, आप समझ कैसे सकते हो? क्या अर्थ निकालोगे आप कबीर दास की उल्टी वाणी, बरसे कंबल भीगे पानी का? बोलो, बताओ? अरे! ज़रा खुद भी तो कभी वो अनुभव किया हो न कि उलटबासियाँ होती हैं, कि संसार वैसा नहीं है जैसा हमको दिखाई देता है। हमारे अनुभवों के विपरीत कुछ और भी चल रहा है। तब जा कर के कबीर भी आपके लिए कुछ अर्थपूर्ण होंगे।

प्र: सर, क्या शास्त्र हमें मदद करते हैं समझ बनाने में?

आचार्य: नहीं, हमने क्या कहा आप सुन नहीं रहे हैं। हमने यह कहा कि शास्त्र समझ बनाते हैं? हमने क्या कहा? पिछले दस मिनट से मैं क्या कह रहा हूँ?

प्र: कि शास्त्र पढ़ने से कुछ नहीं होता, अपने जीवन में भी देखना होता है।

आचार्य: मैंने ऐसा नहीं कहा। मैंने क्या कहा है?

प्र२: सर, अगर हम संशय में हैं, अगर हम इस रस्ते पर चल ही रहे हैं तो वो हमारी मदद करते हैं।

आचार्य: नहीं, और साफ़ करके बताइए कि शास्त्र किसकी मदद कर सकते हैं और किसकी नहीं कर सकते?

प्र१: जो चल पड़ा है इस रास्ते पर।

प्र२: जिसका मन साफ़ है।

प्र३: जिसका फिफ्टी-फिफ्टी वाला इशू है।

आचार्य: फ़िफ्टी-फिफ्टी वाले कि मदद कर देंगे पर सौ या शून्य वाले की मदद नहीं करेंगे।

प्र: सौ वाले की क्यों नहीं करेंगे?

आचार्य: सौ वाले को छोड़िए। जो शून्य पर ही लोग बैठे हैं वो शास्त्रों को छुए ही ना।

आप घर पर बैठे हों आपको जो घर की पूरी व्यवस्था है, वो नहीं दिखाई दे रही है। आप सड़क पर चल रहे हो वहाँ का नरक नहीं समझ में आ रहा है। संबंधों में जो नकलीपन है, वो नहीं दिखाई दे रहा है। आपको यह सब कुछ भी नज़र नहीं आता। आप अपना जीवन आराम से जीए जा रहे हो और आपको कुछ समझ नहीं आ रहा। आपको कबीर समझ में आएँगे? क्या मज़ाक लगा रखा है, बताइए। क, ख, ग तुम्हें आता नहीं है जीवन का, कबीर समझ में आ जाएँगे? जल्दी से बोलिए।

श्रोतागण: नहीं।

प्र: हमारी आदत होती है समझ कर नासमझ हो जाने की। बार-बार यह भी तो होता है हमारे साथ।

आचार्य: देखिए, जिसको समझ में आता है वो यह भी समझ जाता है कि नासमझी महामूर्खता है। वो आदत-वादत में नहीं पड़ता फिर।

प्र: लेकिन फिर वो तो मन का धोखा है न?

आचार्य: जो अपने मन के धोखों को नहीं समझ पा रहा है, वो कबीर को समझ लेगा क्या? पर आम तौर पर देखा यही गया है कि सबसे ज़्यादा शास्त्रों की ओर वही भागते हैं जिन्हें जीवन ज़रा समझ में आया नहीं होता है। जीवन की एक पैसे की समझ नहीं है, पर दावा यह है कि, "हमको वेद, पुराण और कुरान सब समझ में आते हैं।" ध्यान से देखिएगा।

प्र: सर, ज़्यादातर लोग जीवन से भागकर ही यह सब शुरू करते हैं।

आचार्य: जीवन समझ में आया नहीं। मैं आपसे पूछ रहा हूँ जीवन समझ में आया नहीं, जो सामने है और जो शास्त्र हैं, जो क्रिप्टिक हैं, जो क्लिष्ट हैं, जो टेढ़े-मेढे हैं, जो सूत्रों वाली भाषा में हैं, जो करीब-करीब कभी-कभी गुत्थी की तरह हैं — सरल जीवन जो सामने है वो समझ में आता नहीं शास्त्रों कि गुत्थियाँ समझ में आ जाएँगी? बताइए न।

प्र: नहीं आएँगी। आती भी नहीं हैं।

आचार्य: तो शुरुआत कहाँ से करनी होगी? वो मात्र शुरुआत नहीं है आखिर तक उसी पर जाना है। शास्त्र तो मिल जाएँगे रास्ते में बस। वो हमसफ़र हैं जो मिल जाते हैं। समझ रहे हैं बात को? इसीलिए जिन्होंने भी यह कहा कि शास्त्र गाइड हैं झूठ कहा। वो पथ प्रदर्शक नहीं हैं, वो हमराही हो सकते हैं।

प्र: हमसफ़र।

आचार्य: वो हमसफ़र हो सकते हैं। आप चल ही पड़े हैं तो वो रास्ते में मिल जाएँगे। आपका अकेलापन दूर कर देंगे। कबीर आपसे धीरे से कहेंगे कि," घबराता क्या है? मुझे भी तो ऐसे ही अनुभव हुआ था।" गुरु नानक आपसे आ कर कहेंगे, "तुम अकेले थोड़े ही हो, जिसको ये परेशानियाँ झेलनी पड़ रही हैं। हमने भी झेली थी।" पर पहले तुम ऐसे तो हो जाओ कि जिसे यह विपत्तियाँ झेलनी पड़ रही हों तब तो गुरु और तुम्हारी कोई बातचीत बने। तुम तो ऐसे हो जो सुख-सुविधा और मज़े में जी रहा है तो तुम्हारा गुरुओं से कोई संवाद हो कैसे सकता है?

तो दोस्ती के लिए अच्छे हैं ग्रंथ पर कोई सोचे कि ये दीपक बन जाएँगे तो नहीं, दोस्त हो सकते हैं दीप नहीं हो सकते। दीप तो जीवन ही है और जीवन को ही देखना पड़ेगा — सुबह से लेकर शाम तक क्या कर रहे हो। वो बड़ा गन्दा लगता है, बड़ा कष्टपूर्ण होता है। क्योंकि शास्त्रों के साथ तो बड़ी सफाई की भावना उठती है न। बैठ गए हैं सामने गीता खुल गई है बड़ा अच्छा-अच्छा सा लग रहा है। और जीवन को देखने में बड़ी बदबू का सामना करना पड़ता है। सब सड़ा हुआ है।

प्र: जजमेंटल हो जातें है जब देखते भी हैं तो।

आचार्य: अरे! यह भी तो दिखेगा कि हर चीज़ में सड़ांध है। जजमेंट भी उसी का हिस्सा है, सड़ांध का। तो बहुत आसान है जीवन को मत देखो, ग्रंथ खोल लो, कबीर हैं, कृष्णमूर्ति के पास जाकर छुप जाओ। जीवन नहीं देख रहे कैसा है, कृष्णमूर्ति तुम्हें क्या मदद कर देंगे? गीता से क्या मदद मिल जानी है? अर्जुन से कही गई थी, तुमसे तो कही नहीं गई है। अर्जुन जितनी पात्रता भी नहीं है। अर्जुन में तो इतनी ज़बरदस्त पात्रता थी कि कृष्ण उससे कह रहे हैं कि अपने घर वालों पर ही बाण चला दे तो वो पलट कर गाली-गलौच भी नहीं कर रहा है कृष्ण से, कि क्या बेकार की बात कर रहे हो। भाग नहीं गया।

तो गीता किसके लिए है? गीता अर्जुन के लिए है। हममें अर्जुन जैसी पात्रता है? है नहीं, तो फिर गीता हमारे किस काम आएगी? अर्जुन एक के बाद एक अट्ठारह अध्याय सुन गया है, अट्ठारह प्रकार के योगों का विवरण पी लिया है उसने, हमसे एक नहीं पीया जाता। गीता हमारे क्या काम आएगी? गीता चाहिए लेकिन, ज़िन्दगी नहीं दिखाई दे रही। भाई! उपनिषद् जब कोई ऋषि बोलता था तो शिष्य उसके सामने बैठा होता था। ठीक है?

अब सोचिए कि वो माहौल कैसा होता होगा गुरु और चेले के बीच में क्योंकि वो बात सिर्फ गुरु की नहीं है, वो बात उस माहौल से निकली है। गुरु अकेला बैठ कर उपनिषद् नहीं बोल पाएगा। एक ख़ास प्रकार की केमिस्ट्री चाहिए न। उसी में से बात निकलती है। केमिस्ट्री के ज़िम्मेदार दोनों हैं, गुरु भी चेला भी। अब हम वैसे तो हो नहीं पा रहे हैं जिसके सामने गुरु से उपनिषद् निकले पर हमें उपनिषद् पढ़ने हैं, तो यह तो असम्भवता है। कैसे होगा? अब गुरु वही रहता होगा पर क्या हर व्यक्ति के सामने उपनिषद् निकल पड़ते होंगे उसके मुँह से?

कुछ दो-चार ख़ास शिष्य हैं जिनकी संगत में गुरु जो बोल रहा है, वही उपनिषद् है। एक उपनिषद् में आता है कि चेले गुरु से कह रहे हैं कि ‘भो, उपनिषद् गृही मी’ कि, "उपनिषद् बताइए न।" साथ में हैं गुरु के शिष्य, और गुरु मस्त है। वो शिष्य से कह रहा है, ‘उक्ता ते उपनिषद्’ कि, "बेटा, जो हम अभी साथ में बात कर रहे हैं न, जो ही अभी हम बोल रहे हैं, वो ही उपनिषद् है।"

तो आप में भी तो वो काबीलियत हो न कि जब साथ में बैठे, तो गुरु में भी वो मौज आ जाए कि जो भी बोले वो ही उपनिषद् हो। वो हज़ारों लोगों से मिलता है कई तो उसकी जान लेने को उतारु होते होंगे, कईयों के सामने वो कुछ कह नहीं सकता। तो यह मत सोचिएगा कि उपनिषद् गुरु ने बोला, उपनिषद् चेले ने बुलवाया।

अब हम हैं क्या ऐसे कि हमारे सामने बड़े-से-बड़े गुरु का उपनिषद् भी आ जाए? वही गुरु कहीं जाकर गाली गलौच भी कर लेता होगा, कोई बड़ी बात नहीं है। तो हम कौन हैं? जिसके सामने आने से गुरु के मुँह से उपनिषद् निकल पड़ते हैं या जिसके सामने आने से गुरु के मुँह से गालियाँ फूट पड़ती हैं? हम हैं कौन?

फिर अगर हम वो नहीं हैं तो क्या मिलेगा उपनिषद् पढ़ कर? जीवन पर ज़रा ध्यान दीजिए। किताबें इसलिए हैं कि जब देने ही लगें ध्यान, जब बढ़ने ही लगें आगे तो अगला कदम और स्पष्ट होता जाए। जिसने अभी पहला ही कदम नहीं लिया, अगला कदम उसके किस काम का है? और पहला कदम अभी है क्योंकि जीवन अभी सामने है।

अभी यह दो लोग आए हैं अन्दर। मैं दोनों के साथ होता हूँ, दोनों के साथ बड़ी अलग-अलग बातें होती हैं। तो मैं क्या बोल रहा हूँ ये निर्भर ही इसी बात पर करता है कि मुझसे क्या बुलवाया जा रहा है, आप कैसे हैं? आप चाहें तो मुझसे कुछ भी न पाएँ और आप चाहें तो मुझसे सब कुछ निकलवा लें। इसीलिए कहावत है कि ‘ द स्टूडेंट हैस टू स्टील इट फ्रॉम द मास्टर (शिष्य को गुरु से वो चुराना होता है)।’ गेट इट (लेना) नहीं, स्टील इट (चुराना)।

तुममें इतनी काबिलियत होनी चाहिए कि सब निकलवा लो। क्या तुम हो ऐसे जो निकलवा पाए? क्या तुम्हारी उपस्थिति ऐसी है कि तुम्हारे पास आते ही गुरु कहे कि, "उक्ता ते उपनिषद्"? तुम तो माहौल ऐसा बना देते हो कि गुरु बोलने वाला भी होता है तो कहता है, "यार छोड़ो, कौन बोले! इनसे तो बोलना जान देने के बराबर है!" बोल भी रहे हो तो चुप हो जाए। या, "इनसे तो नून, तेल लकड़ी की ही बातें हो सकती हैं कि किसने किसकी जान ले ली, कौन किसको गाली दे रहा था किसने किसके दो रूपए चुरा लिए।" तो आइए, आप अब यही सब बातें शुरू कर दीजिए तो इसी सब तल की बातें होंगी!

आप खुद किस तल पर हैं, आप उसी तल की तो बातें करेंगे न। और बिलकुल होता होगा न, गुरु यहाँ बैठ कर पेड़ के नीचे उपनिषद् बाँच रहे हैं और पीछे से गूरुआइन ने घर से चिल्लाया कि, "अरे! सब्जी नहीं है आज।" गया उपनिषद्। अब क्या होगा? अब वही चेले जो परम-से-परम ज्ञान जहाँ पर उपलब्ध हुआ जाता था, उन लोगों को भगा रहे हैं कि, "जाओ भाई लकड़ी-वकड़ी जो मिले ले आना और जो दो-चार फल मिलें वो ले आना। वो अन्दर पगलाई जा रही है क्योंकि उसको तो नून, तेल, लकड़ी से मतलब है।" वही गुरु जो क्षण भर पहले परम ज्ञान की ऊँची-से-ऊँची उड़ान भर रहा था उसको इस तल पर ला दिया गया कि वो कह रहा है कि, "भाई, देखो कहीं गाँव में कुछ भीख माँगों, कुछ खाने-वाने को मिल जाए तो।"

अपनी ज़िम्मेदारी लीजिए। शास्त्रों पर मत छोड़िए, गुरु पर मत छोड़िए। आप जैसे होंगे, शास्त्रों से आप वही सब कुछ पा जाएँगे। आप जैसे होंगे शास्त्र आपको उसी अनुसार प्रतीत होंगे। हीरा होता है, उसको आप पेपरवेट की तरह भी तो इस्तेमाल कर सकते हैं वो आपकी बुद्धि है। कि नहीं कर सकते? आपकी बुद्धि है कि अब उसको लग रहा है कि ये तो पेपरवेट ही है। गुरु को अपने रसोइये की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं, वो आपकी बुद्धि है। गुरु को आप अपने ड्राईवर की तरह भी इस्तेमाल कर सकते हैं। आपकी मर्ज़ी है गीता को आप ड्राइंग-रूम की शोभा बना दीजिए, सुन्दर लगती है श्रीमद्भागवद्गीता, बढ़िया है।

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