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लेख
शांति पाठ का महत्व || उपनिषद् पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: उपनिषद् के शुरू होने से पहले शांति-पाठ क्यों पढ़ाया जाता है?

आचार्य प्रशांत: ऐसा इसलिए क्योंकि तुममें और उपनिषदों में ज़मीन-आसमान का फासला है। जो ज़मीन पर रेंग रहा हो, जब उससे आसमान की बातें करो, तो उसे कुछ समझ नहीं आता। जो बिलकुल ठंडा पड़ा हो, उसको अगर अचानक सूरज की रोशनी दिखा दो, तो उसकी आँखें चौंधिया जाती हैं। जिसके शरीर में गर्मी ना हो, अगर उसे अचानक ज़ोर से दौड़ा दो, उसकी माँससपेशियाँ खिंच जाती हैं।

जिसका मन शंकाओं से, डर से, वहम से, घृणा से भरा हुआ है, वो जब उपनिषद् के पास भी जाता है, वो जब गुरु के पास भी जाता है, तो अपने सारे वहम, घृणा और शक़ लेकर ही जाता है। यह उचित नहीं है कि गुरु उससे बात करे। क्योंकि जो कुछ भी गुरु बोलेगा, उसे वो वहम के पीछे से ही सुनेगा। शांति-पाठ इसीलिए होता है ताकि तुम तैयार हो सको। वरना फिर समझ लो कि उसके बिना कुछ समझ में आएगा नहीं। उसके साथ भी समझ में आ जाए, ऐसी कोई आश्वस्ति नहीं है। पर उसके बिना तो बिलकुल कुछ समझ में नहीं आएगा।

इसीलिए तुम लोगों से कहता हूँ कि अगर सत्र का समय साढ़े छः बजे का है, तो छः बजे आ जाओ, शांति से बैठ जाओ। यहाँ कुछ पढ़ो, कुछ सुनो, कुछ लिखो, ज़रा तैयारी तो कर लो। तुम उत्तेजना में तप रहे हो। अचानक फुहार पड़ गयी, तो बुखार आ जाएगा। तुम्हारे मन पर तुम्हारी दुनियादारी के विचारों का कब्ज़ा है। अचानक सत्य की बात छिड़ गयी, तो तुम्हारा मन विद्रोह कर देगा।

एक पिक्चर देखने जाने में, और सत्संग में बैठने में, बड़ा अंतर होता है। जो पिक्चर तुम परदे पर देखते हो, वो तुम्हारी ही दुनिया की कहानी है। वो तुम्हारी ही रुचि के लिए बनायी गयी है। वो बनायी ही ऐसी गयी है कि तुमको पसंद आए, तुम्हारे भ्रमों को क़ायम रखे, तुम्हारे संस्कारों के अनुरूप हो। वहाँ पर तुम ठीक उसी क्षण भी जाकर बैठ जाओ जब पिक्चर शुरू हो रही है, तो कोई हर्ज़ा नहीं है। क्योंकि जैसे तुम हो, वैसी ही वो पिक्चर है। कुछ बदलना ही नहीं है। जिस बहाव में तुम थे, जिस रौ में तुम थे, उसी रौ में रहे आओ। पिक्चर भी उसी रौ की है। तुम कामुक, पिक्चर कामुकता को बढ़ाएगी। तुम हिंसक, पिक्चर में हिंसा है। तुम्हारे मन में क्षुद्रता भरी हुई है, वहाँ परदे पर भी क्षुद्रता ही नाच रही है।

जब गुरु के सामने जाते हैं, तो उस अवसर पर विचारों को लेकर जाना गुरु का अपमान होता है। तुम उदास चेहरे के साथ ही अगर यहाँ पर बैठे हो, तो यह इस जगह का अपमान है। तुम प्रफुल्लित होकर बैठे हो, तो वो भी इस जगह का अपमान है।अपनी उदासी और अपनी प्रसन्नता, दोनों को उतार दो, दोनों को बाहर रख दो। बाहर जूते रखते हो न, उसके साथ-साथ अपने सारे विचारों को और आवेगों को भी रख कर आया करो। शांति-पाठ वहीं से शुरू हो जाता है। जूते उतारने के साथ ही शांति-पाठ शुरू हो गया।

पर तुम पूरी तरह विचारों को कभी उतार नहीं पाओगे। गुरु की करुणा इसी में है कि उसे पता है कि तुम पूरे तरीके से कभी तैयार नहीं हो पाओगे उसके वचनों को लेने के लिए। जिस दिन तुम पूरे तरीके से तैयार हो गए, उस दिन तुम्हें उन वचनों की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। तो तुम हमेशा आधे ही तैयार होते हो, अधपके। पर उस आधी तैयारी में ही मुझे तुमसे बोलना पड़ता है। और ऐसा बोलना पड़ता है कि आधी तैयारी पूरे की तरफ़ बढ़े। हो तुम आधे ही तैयार, और बात तुमसे पूरे की करी गयी है। तुमसे पूरी-पूरी कभी पचेगी भी नहीं वो बात। तुम्हारे मन में एक विद्रोह उठेगा।

इसीलिए शांति-पाठ उपनिषद् के अंत में भी होता है, कि जितना तुम्हारे भीतर से प्रतिरोध उठा है, विषाद उठा है, दुर्भावना उठी है, वो दुर्भावना शांत हो सके। क्योंकि तुम तो अपनी पहचानें, अपना अहंकार, अपना अतीत, अपना समाज, अपनी दुनिया, ये सब लेकर ही बैठे हुए हो। अपनी कोशिश के बाद भी, अपनी सदभावना के बाद भी, तुमसे पूरी तरह तो छूटता नहीं। और वो जो बैठा है तुम्हारे मन में, उसको ज़हर समान लगती है सत्य की चर्चा। वो तड़प जाता है। वो मार ही देना चाहता है। तो इसलिए अंत में भी शांति-पाठ होता है।

सत्र के बाद यहाँ से यूँ ही मत चल दिया करो। तुम्हारे लिए उचित यही है कि सत्र के बाद भी, मेरे बोलने के बाद भी, जो तुमने जाना है, उस पर ज़रा चिंतन करो। ज़रा ध्यान में बैठो, हो सके तो जो जाना है उसको कुछ पंक्तियों में लिख ही डालो। जाने के लिए उतावले ना रहो कि उठ कर भागें। आ रही है बात समझ में?

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