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लेख
शांति बड़ी कि खुशी? || आचार्य प्रशांत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जितनी भी बात आपने बतायीं उसके मूल में यही था कि अध्यात्म का उद्देश्य तो मन को शान्त करना है, सरल करना है। आज का जो अध्यात्म है उसका उद्देश्य मन की शान्ति और सरलता नहीं, बल्कि कुछ और ही है। और क्योंकि उद्देश्य बदल चुका है तो अब विधियाँ भी बदल गयी हैं तो इस विषय में आप क्या कहना चाहेंगे जो नयी विधियाँ निकल रही हैं?

आचार्य प्रशांत: देखो, मन के साथ कुछ भी करने का एक ही उद्देश्य हो सकता है — मन को बढ़िया करना, मन को बेहतर करना। बाक़ी आप जो कुछ भी करना चाहते हो वो मन के क्षेत्र में आएगा ही नहीं या मन के क्षेत्र में आएगा भी तो ऐसे आएगा कि वो मन को और संस्कारित करेगा, कंडीशन्ड करेगा या फिर वो आएगा तन के क्षेत्र में या आएगा वो संस्कार के क्षेत्र में।

आप जो कुछ भी करना चाहते हो अगर वो मन के क्षेत्र में है तो उसका एक ही सही लक्ष्य हो सकता है कि वो मन को शान्त, सरल करे। मन के साथ आप कुछ कर रहे हो तो उसका एक दूसरा और ग़लत उद्देश्य हो सकता है कि आप मन को और ज़्यादा कुटिल और संस्कारित बनाना चाहते हो।

तो एक तो ये हो सकता है कि आप जो कुछ भी कर रहे हो वो इसलिए ताकि मन और ज़्यादा कुटिल हो जाए, और ज़्यादा कंडीशन्ड हो जाए या ये हो सकता है कि आप अध्यात्म के नाम पर मन के क्षेत्र में कुछ कर ही न रहे हो, तन के क्षेत्र में कुछ कर रहे हो कि कह तो रहे हो कि मैं आध्यात्मिक आदमी हूँ और काम सिर्फ़ तन पर कर रहे हो या ये हो सकता है कि आप न मन पर काम कर रहे हो, न तन पर काम कर रहे हो, आप बस संसार को प्रभावित करने के लिए को काम कर रहे हो। बात समझ रहे हो?

उदाहरण के लिए, अध्यात्म के नाम पर आप अगर और ज़्यादा कट्टरपन्थी हुए जा रहे हो और कहते हो, ‘मैं तो आध्यात्मिक आदमी हूँ’ और नारा लगाते हो। इस तरह के भी बहुत आध्यात्मिक लोग मिलेंगे न? ये खूब छा रहे हैं आजकल मीडिया में और सोशल मीडिया में। ये अपनेआप को आध्यात्मिक या धार्मिक बोलते हैं और अध्यात्म और धर्म के नाम पर इन्होंने अपना मन भी ख़राब कर रखा है, दूसरों का भी करते हैं। तो ये काम तो मन के क्षेत्र में ही कर रहे हैं पर ये मन को साफ़ करने का नहीं काम कर रहे, ये मन को ख़राब करने का काम कर रहे हैं। ठीक है?

अध्यात्म है मन को साफ़ करने का काम।

ये बिलकुल मन पर ही काम कर रहे हैं। ये जो बेकार वाला धार्मिक संस्करण है, ये भी मन पर ही काम करता है कि आप कोई चीज़ पढ़ रहे हो, सुन रहे हो, लेक्चर्स दिये जा रहे हैं, तकरीरें हो रही हैं जहाँ आतंकवादी तैयार हो रहे हैं — इस तरह के काम चल रहे हैं और इस तरह का साहित्य लिखा जा रहा है। छोटी-छोटी किताबें और पैंपलेट्स लिखे जा रहे हैं जिससे लोगों के मन में नफ़रत फैले या सोशल मीडिया पर धर्म के नाम पर पोस्टिंग्स किये जा रहे हैं जिससे समाज और ज़्यादा विभाजित हो जाए, झूठ फैलाया जाए, मन ख़राब किया जाए तो ये हो सकता है।

या ये हो सकता है कि आप अध्यात्म के नाम पर सिर्फ़ तन पर काम कर रहे हो जैसे कि जिसको आजकल आप योग बोलते हो जिसमें मन की सुध ही नहीं ली जाती, बस तन पर काम किया जाता है और वहाँ खुला उद्देश्य भी यही होता है कि ये करो इससे वज़न कम हो जाएगा, और ज़्यादा तुम शारीरिक रूप से आकर्षक लगोगे।

कुछ तो खुलेआम कहते हैं कि योग इज़ सेक्सी (योग वासना-सम्बन्धित है) तो उनका तो ये घोषित उद्देश्य भी नहीं है कि वो मन बेहतर करना चाहते हैं। उन्होंने तो खुलेआम घोषणा कर रखी है कि हमें तो तन पर ही काम करना है और यही उनका अध्यात्म है कि तन और ज़्यादा आकर्षक बना लूँ और फिर वो योग की मुद्राओं में और आसनों में अपना फोटोशूट कराते हैं।

एक टाँग उपर उठा रखी है, ये सब कर रखा है। वो सब बड़े शान्त और शुद्ध तरीक़े से रचे हुए आसन थे जिनका दुरुपयोग किया जा रहा है। उनका दुरूपयोग कई बार तो इस हद तक किया जाता है कि वो फोटोशूट है ही इसलिए ताकि दर्शकों में कामोत्तेजना बढ़ायी जा सके कि आप योग के आसन के नाम पर आपनी इस तरह की फ़ोटो खिंचवा रहे हैं और छाप रहे हैं जिसको जो भी देखेगा उसके भीतर काम की उत्तेजना बढ़ जाएगी तो ये तन वाला अध्यात्म है। झूठे अध्यात्म समझ रहे हो न?

एक हुआ झूठे मन वाला अध्यात्म, जहाँ तुम्हें कुछ ऐसी बात बतायी जा रही हैं जो तुम्हारे मन को बिलकुल गन्दा कर देंगी। जैसे कि तुम्हें ये बता दिया गया है कि तमाम तरह की एनर्जीज़ होती हैं जो तुम्हारे शरीर से बाहर फैलती रहती हैं। अब ये बात मन की तल पर ही की गयी हैं। इसका वास्तव में शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन इस बात ने अब तुम्हारे मन में जगह बना ली है और तुम्हारे मन को ख़राब कर दिया है। तुम भूल ही गये कि अध्यात्म का उद्देश्य था मन की सफ़ाई। तुम अब इस चक्कर में लग गये कि अच्छा! तो मुझसे एनर्जीज़ (ऊर्जा) निकल रही है और ये हो रहा है, वो हो रहा है।

या तुम्हारे मन में दुनिया को लेकर के कोई दो-चार झूठी बातें डाल दी गयीं कि ऐसा होता है, वैसा होता है, प्रेतात्माएँ भटकती हैं और मुर्दे ऐसे चलाए जा सकते हैं, आदमी हवा में ऐसा उड़ाया जा सकता है और इस तरह के बातें डाल दी गयी। ये मन को गन्दा किया गया। अध्यात्म का काम था मन को साफ़ करना, ये मन को और गन्दा कर दिया गया।

दूसरा, मैंने कहा तन वाला अध्यात्म जिसमें मन की बात ही नहीं, सारा काम तन पर है और तीसरा होता एक समाज वाला अध्यात्म। समाज वाला अध्यात्म क्या होता है? वो ये होता है कि ख़ूब घोषणा करो कि मुझे फ़लानी सिद्धि मिल गयी है या मुझे फ़लानी तरीक़े के मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण, प्रबोधन कुछ हो गया है। इसका ताल्लुक न तुम्हारे मन से है, न तन से है। इसका ताल्लुक बस दूसरों को प्रभावित करने से है ताकि दूसरों में धाक जम जाए और उससे मेरी दुकान चल जाए, खूब बताओ। बहुत घूम रहे हैं, ’एनलाइटनमेंट इज़ द न्यू फैड।‘

लोग कह रहे हैं कि जब इतना आसान है एनलाइटेंड होना कि मुर्गी मारने और अंडे बेचने वाले भी एक झटके में एनलाइटेंड हो जाते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते! हर मोहल्ले से लोग निकल रहे हैं। दुनिया जितनी नर्क होती जा रही है, एनलाइटेंड लोग उतने ही बढ़ते जा रहे हैं। ये बात नहीं समझ में आती?

दुनिया की जितनी आज बुरी हालत है उतनी कभी नहीं थी और हर मोहल्ले में एनलाइटेंड लोग घूम रहे हैं और उनको पूरा विश्वास है, पूरा कॉन्फिडेंस है। कहते हैं, ‘हैं न हम!’ तुम्हें कैसे पता तुम हो? बोले, ‘हमारे गुरुजी ने बताया’। तुम्हें गुरुजी के बात पर कैसे भरोसा? ‘गुरुजी एनलाइटेंड हैं।’ ये तुम्हें कैसे भरोसा? ‘उन्होंने ख़ुद बोला।’ तो ये जो स्वघोषित एनलाइटनमेंट का खेल चल रहा है कि कोई भी आता है और अपनी कहानी सुना जाता है, ‘मेरा ऐसा हुआ, मेरा वैसा हुआ। मैं जा रहा था, जा रहा था, मैंने कुएँ में झाँककर के देखा तो मुझे अपना मुँह नहीं दिखाई दिया तो मैं समझ गया कि मैं एनलाइटेंड हूँ।’

तीन चीज़ें बहुत तेज़ी से बढ़ रही है समाज में। एक तो नर्क, जिसका प्रमाण है मानसिक विक्षिप्तता, बीमारियाँ और जिसका प्रमाण है दुनिया भर में प्रकृति पर्यावरण के साथ जो बत्तमीज़ियाँ हो रही है।

पिछले पचास साल में सत्तर प्रतिशत से ज़्यादा जीव-जन्तु, पेड़-पौधे जो इस दुनिया में थे हमने उनको ख़त्म कर दिया। जानते हो इस बात को? तुम इस बात को अपने भीतर थोड़ा पैठने दो। पिछले पचास साल में ही दुनिया से हमने सत्तर पर्सेंट (प्रतिशत) जीवों का सफ़ाया कर दिया है। हम ऐसे भयानक नर्क काल में जी रहे हैं, एक ये चीज़।

दूसरी चीज़ कि जिसको देखो वही एनलाइटेंड हुआ जा रहा है और तीसरी चीज़, नशा बहुत बढ़ रहा है।

मुझे ख़ास तौर पर दूसरी और तीसरी चीज़ में बड़ा गहरा सम्बन्ध दिखाई देता है — गांजे-धतूरे, अफीम, कोकीन के इस्तेमाल का बढ़ना और लोगों को ये लगना कि वो एनलाइटेंड है। इन दोनों में बहुत गहरा सम्बन्ध है आपस में। जो ही ज़्यादा धतूरा मार लेता है उसी को लगने लगता है, ‘मैं एनलाइटेंड हूँ। मेरा सूक्ष्म शरीर मेरे स्थूल शरीर से बाहर निकलकर घूम रहा है।‘ ये एनलाइटनमेंट का नहीं, नशे का लक्षण है या फिर बहुत गहरे झूठ और कपट और कुटिलता का लक्षण है। या तो आप नशे में हो या फिर आप ज़बरदस्त रूप से कुटिल आदमी हो।

तो ये सब चल रहा है अध्यात्म के नाम पर। इस पूरे खेल में — मन वाला अध्यात्म, समाज वाला अध्यात्म, तन वाला अध्यात्म — इस पूरे खेल में सत्य और आत्मा कहीं नहीं हैं जो वास्तविक अध्यात्म है, जो असली चीज़ है कि मन को आत्मा की ओर ले जाना है, मन को सफ़ाई की ओर ले जाना है, मन को सरलता, शान्ति, हल्केपन की ओर ले जाना है। वो अध्यात्म तो ग़ायब ही हो गया।

प्र: आचार्य जी, पूरी चर्चा की शुरुआत में आपने एक बात कही थी कि अध्यात्म की जो पूरी कोशिश है वो ये है कि व्यक्ति के मन को शान्ति की ओर लेकर जाए। पर जब आसपास में आज की दुनिया को देखा जाता है तो शायद आम आदमी शान्ति तो नहीं चाहता, वो खुशी चाहता है और खुशी को प्राप्त करने का एक बहुत बड़ा माध्यम आजकल अध्यात्म बन गया है क्योंकि सारी आध्यात्मिक विधियाँ, मैंने देखा है अक्सर शान्ति वगैरह तो बाद में बात करती हैं, पहले वो प्रसन्नता और खुशी की बात करती हैं तो आम आदमी को शान्ति चाहिए भी?

आचार्य: नहीं चाहिए न। ये काम गुरु का होता है उसे बताना कि तुम माँग रहे हो खुशी लेकिन तुम्हें चाहिए है शान्ति। ये काम गुरु का होता है। इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि गुरु भ्रष्ट है और इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी ये है कि गुरु और व्यापारी और राजनेता इन तीनों में साँठ-गाँठ हो गयी है। ऐसा पहले कम हुआ था। धर्म और राजनीति तो अतीत में भी हुआ है कि आपस में गुथ गयें थे। इन्होंने आपस में एक भ्रष्ट समझौता कर लिया था पर अभी जो नयी चीज़ हुई है, वो ये है कि गुरु में, बाज़ार में और राजनीति में एक त्रिपक्षीय समझौता हो गया है। ये तीनों अभी एक हैं।

बाज़ार भी चाहती है तुम शान्ति नहीं, खुशी माँगो। राजनेता भी चाहता है कि तुम झूठों में और व्यर्थ उत्तेजना में जियो। उसका तो काम ही है उन्माद भड़काना। देखते नहीं हो राजनेता कितना उन्माद भड़काते हैं? जितने दंगे राजनेता करवाते हैं, उतने और कौन करवाता है? और दंगों से किसी को नुक़सान होता हो तो हो नेताओं को ज़रूर फ़ायदा होता है।

बाज़ार चाहती है कि तुम खुशी की तलाश में रहो और राजनीति चाहती है कि तुम सच और शान्ति से दूर रहो और गुरु तुमको शान्ति और सच देने की जगह जब खुशी देने लग जाए तो समझ लो तो गुरु भी बाज़ार का और राजनीति का एजेंट हो गया। जहाँ तुम पाओ कि गुरु भी हैप्पीनेस शब्द का इस्तेमाल कर रहा है, वहाँ समझ लेना कि बड़ा भारी घपला है, बड़ा ज़बरदस्त घपला है। क्योंकि यही हैप्पीनेस तो मॉल भी बेच रहा है न, शॉपिंग मॉल!

जहाँ तुम पाओ कि गुरु बाँटने का काम कर रहा है, एक पक्ष को दूसरे पक्ष के खिलाफ़ खड़ा करने का काम कर रहा है तो तुम समझ लेना ये गुरु अब राजनेता का ग़ुलाम है या इसने राजनेता के साथ करार कर रखा है। क्योंकि बाँटने का काम तो राजनीति का था, ये गुरु कैसे करने लग गया? ये गुरु नहीं है, ये गुरु की खाल में कुछ और है। हमेशा ऐसा रहा है कि अध्यात्म बाज़ार को थोड़ा संतुलित करके रखता था। बाज़ार को उसकी सीमाओं में रखता था। बाज़ार से मतलब है मेरा भोग की वृत्ति। आदमी की भोग की वृत्ति। ठीक है न?

आदमी तो चाहता ही है कि बाज़ार की चीज़ें, वस्तुओं का और ज़्यादा भोग करता रहे, करता रहे। अध्यात्म का काम होता था आदमी की भोग वृत्ति को अंकुश देकर रखना। पर जब तुम पाओ कि गुरु ख़ुद भोग का एक चलता-फिरता विज्ञापन है तो समझ लो कि अब ये गुरु नहीं है। ये तो शॉपिंग मॉल का ही एक व्यापारी है।

बाज़ार तो चाहती ही है कि तुम भूले रहो कि तुम वास्तव में कौन हो। बाज़ार तो चाहती ही है कि तुम अपनेआप को तन समझो और मन समझो। क्योंकि तन और मन से सम्बन्धित चीज़ें ही बेची जा सकती हैं। तुमने अगर जान लिया कि तुम पूर्ण हो, प्रकाश हो, आत्मा हो तो तुम्हें क्या बेचा जाएगा? तुम ख़रीदोगे क्या?

बाज़ार तो चाहती है न तुममें देहभाव रहे, तुममें पचास तरीक़े की हीनताओं का भाव रहे? गुरु का काम था तुम्हारे भीतर से इन सब हीनताओं को हटाकर रखना। गुरु का काम था तुमको बाज़ार से थोड़ा बचाकर रखना। गुरु ख़ुद बाज़ारू हो गया हो, गुरु ख़ुद कपड़ों का और कारों का और बाईकों का और हेलिकॉप्टरों का और भोग का चलता-फिरता विज्ञापन हो तो क्या करोगे?

मैं आम आदमी को बहुत दोष देता हूँ पर फिर ये भी सोचता हूँ कितना दोष दूँ। क्योंकि वो बेचारा तो आम आदमी ही है न! वो नहीं जानता वास्तव में कि खुशी से शान्ति नहीं मिलती। तो वो खुशी के पीछे-पीछे ही भागता है। कोई चाहिए उसको ये बताने के लिए कि खुशी से तुझे वो नहीं मिलेगा जो तू वास्तव में चाहता है और जिस पर दारोमदार था, उतारदायित्व था ये बताने का एक आम आदमी को, उसने ये बताने की जगह बिलकुल उल्टी सीख दे दी, तब क्या करेगा आम आदमी?

लेकिन फिर मैं ये भी कहता हूँ कि कष्ट जिसको है, कष्ट से बचने की ज़िम्मेदारी भी उसी की है। तो चलो भाई, गुरु महाराज पाखंडी थे, उन्होंने तुमको झूठ-झूठ बता दिया, फालतू बातें सीखा दी लेकिन उन फालतू बातों का कष्ट तो तुम झेल रहे हो न? एक बार, दो बार किसी ने तुमको मूर्ख बना दिया, अब तो चेत जाओ। अगर तुम मूर्ख बने ही जा रहे हो, बने ही जा रहे हो, बने ही जा रहे हो तो फिर तो ज़िम्मेदारी तुम्हारी है।

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