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लेख
शान से बोलो: न गुनहगार हूँ, न कर्ज़दार हूँ, न खरीददार हूँ || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
14 मिनट
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आचार्य प्रशान्त: समझदार वो है, बोध उसे है, विज़डम इसी में है—इस बात को सूत्र की तरह पकड़ लिया जाये कि दुनिया की चीजें, जो कुछ भी जगत में मौज़ूद है, त्रिगुणात्मक (सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण) प्रकृति में मौज़ूद है, उससे वो तो नहीं मिलने वाला जिसके लिए कलप रहे हो। शरीर को अन्न मिल जाएगा, अच्छी बात है। देह को कपड़ा मिल जाएगा, अच्छी बात है पर तुम जिस चीज़ के लिए आकुल हो, वो तुमको नहीं मिलेगा।

तो और-और की रट लगाने से लाभ है नहीं। और-और की रट लगाने से कोई लाभ नहीं है। आग उठी थी मिट्टी के तेल से, उसमें और-और मिट्टी का तेल डालने से आग बुझ नहीं जाएगी। जिसके कारण तुम्हें समस्या है, उसी कारण की वृद्धि करने से समस्या मिट नहीं जाएगी। तुम्हारा झूठा अस्तित्व ही तुम्हारी समस्या है और उसी झूठे अस्तित्व में और परतें चढ़ाने से तुम्हारी समस्या मिट नहीं जाएगी।

अपनी गरिमा बहुत आवश्यक है। संसार और अपने बीच में सही सम्बन्ध बहुत ज़रूरी है। मुँह खोले, हाथ पसारे भिखारी की तरह मत जिया करो। पशुओं का काम है ये। कुत्ते-बिल्ली होते हैं, इनको कुछ दिखा दो, रोटी कहीं को, पीछे-पीछे चले आ रहे हैं, चले आ रहे हैं, चले आ रहे हैं।

मैंने देखा है, एक जगह थी, वहाँ पर वो हाथियों को कुछ खिला दिया करते थे। बस के लोग जाते थे, जंगल से बस गुजरती थी, रास्ता था, वहाँ पर हाथियों को कुछ फेंक दिया करते थे, हाथी आकर ले जाते थे। हाथियों ने वहाँ पर खड़ा होना ही शुरू कर दिया, उस जगह पर। उन्होंने बस रोक दी। बस की खिड़की से हाथी सूंड़ अन्दर डाल रहा है, ‘दो।’ मैंने वीडियो देखा।

ये जानवरों का काम है कि जी ही रहे हो इसलिए कि दुनिया से कुछ पा लें। इसमें क्या गरिमा है? और गरिमा के बिना कुछ नहीं हो सकता। अगर जिसे आप आत्मा बोलते हो, वो दुनिया की सबसे ऊँची चीज़ है तो फिर आत्मसम्मान से बड़ा क्या है? आत्मसम्मान, सेल्फवर्थ (आत्ममूल्य) इससे ऊँचा तो कुछ हो नहीं सकता न, अगर सेल्फ (स्व) का मतलब आत्मा है तो। लेकिन अगर सेल्फ का मतलब अहंकार है तो सेल्फवर्थ घातक हो जाता है।

जीवन में सच्चा आत्मसम्मान होना चाहिए और सच्चा आत्मसम्मान तभी हो सकता है, जब सबसे पहले आत्मा हो। आत्मा का मतलब यही है। और कोई तरीका नहीं है आत्मा को जगाने का, आत्मस्थ हो जाने का, और कोई तरीका ही नहीं है, यही तरीका है। जो कुछ आत्मा नहीं है, मन कड़ा करो और उसको बन्द करो। जो कुछ आत्मा नहीं है उसको बन्द करो। यहाँ पर निराकार कहा है।

आज सुबह रामकृष्ण परमहंस पर सवाल पूछा, उसकी रिकॉर्डिंग हुई। वो शाम को वीडियो प्रकाशित भी कर दिया। तो वो जो बातचीत थी, वो तो आम जनता के लिए थी। तो उसमें मैंने विस्तार में नहीं बताया था। अभी उसमें एक बात है, वो थोड़ा उसे मैं विस्तार में बताए देता हूँ।

तो रामकृष्ण माँ काली के अनन्य भक्त थे, ‘माँ काली-माँ काली-माँ काली’ लेकिन उनको चैन न पड़े। तो अद्वैत के विद्वान थे तोतापुरी, वो आये। रामकृष्ण उनसे पूछ रहे, ‘चैन क्यों नहीं मिलता?’ बोले, ‘ये जो तुम पूज रहे हो न, ये बहुत ऊँची हैं, बहुत ऊँची हैं लेकिन हैं तो साकार ही न और जो साकार है, उसको आकार तुम्हीं ने दिया है।’ दुनिया के सारे आकार तुम्हें ही तो प्रतीत होते हैं न। तो फिर तुमने जो ये छवि बनायी है, ये है तो तुम्हारी ही। जो तुम्हारा है वो परम् कैसे हो सकता है? तो इसलिए तुम्हें चैन नहीं मिल रहा है क्योंकि तुम अभी भी एक छवि को ही आख़िरी बात मान रहे हो।

तो रामकृष्ण चिहुँक गये। ‘अरे! माँ काली को ऐसा बोल रहे हो आप? ख़ैर, बताइए क्या करना होगा?’ प्रयोगी व्यक्ति थे, बोले, ‘बताइए क्या करना होगा महाराज?’ तोतापुरी बोले, ‘तुम्हें माँ काली की छवि से भी पार जाना पड़ेगा।’ बोले, ‘कैसे जाना है? क्या करना है?’ बोले, ‘उनके दूर जाने की बात तो तब होगी जब बताओ पास कैसे आते हो?’

बोले, ‘कुछ नहीं, हम आँख बन्द करते हैं, माँ आ जाती हैं।’ बोले, ‘अच्छा, आँख बन्द करो।’ बोले, ‘माँ आ गयीं?’ ‘हाँ, आ गयीं।’ बोले, ‘अब एक काम करो, तलवार उठाओ, माँ को काट दो।’ रामकृष्ण एकदम चौंक पड़े। बोले, ‘कैसी बात कर रहे हैं आप? माँ के लिए मैं प्राण दे सकता हूँ। आप बोल रहे हैं माँ को काट दो।’ बोले, ‘कुछ नहीं। अगर चैन पाना चाहते हो तो जो मैं कह रहा हूँ, वही करना पड़ेगा। तलवार उठाओ, माँ को काट दो।’

तो रामकृष्ण ने फिर सिर झुकाया। बोले, ‘अच्छा करते हैं।’ उन्होंने आँख बन्द करी। तोतापुरी ने पूछा, ‘क्या है?’ बोले, ‘माँ आ गयीं।’ बोले, ‘तलवार उठाओ, काट दो।’ बोले, ‘तलवार कहाँ से लाएँ? तलवार थोड़े ही है यहाँ पर? तलवार कहाँ से लाएँ?’ बोले, ‘वहीं से ले आओ, जहाँ से माँ को ले आये हो।’ बोले, ‘जहाँ से माँ को ले आये हो, वहीं से जाकर तलवार भी ले आओ। माँ आ सकती हैं तो तलवार भी वहीं से आ जाएगी। तुम्हारी ही तो कल्पना है।’

तलवार आ गयी। बोले, ‘हाथ काँप रहा है अब, नहीं कर सकते।’ तोतापुरी ने एक काँच का टुकड़ा लिया। काँच का टुकड़ा लिया। बोले, ‘अब आँख बन्द करो।’ आँख बन्द कर ली और वो काँच उनके यहाँ माथे पर लगा दिया। बोले, ‘अब मैं ये जो काँच है, इससे मैं तुम्हारा माथा काटूँगा और जब मैं तुम्हारा माथा काटूँ, तुम तलवार चला देना।’ तो कहते हैं, कहते यही हैं कि फ़िर यहाँ पे उन्होंने उनके माथे पर ऐसे निशान बनाया, खून बह निकला और उधर रामकृष्ण ने तलवार चला दी।

तो इतना महत्व है निराकार का कि रामकृष्ण जैसे को भी काली जैसी सर्वोच्च शक्ति से भी आगे जाना पड़ा था क्योंकि निराकार के बिना बात बनती नहीं है। साकार कहीं-न-कहीं आपको रोकेगा ही, भले ही वो जो साकार दृश्य है, वो देवी शक्ति का ही क्यों न हो तो भी वो आपको रोक देगा।

समझ में आ रही है बात ये?

जगत साकार है। जगत साकार है, जगत को काटना सीखो। जगत और आपके ग़लत रिश्ते को हटाना ही अध्यात्म का काम है। ये सब क्या हैं? मद, मोह, लोभ, भय, ये सब क्या हैं? क्रोध क्या है ये? काम क्या है ये? ये नाम हैं आपके और जगत के ग़लत रिश्ते के। ये चीज़ (मोबाइल दिखाते हुए) थोड़े ग़लत है, इसके प्रति मुझमें काम पैदा हो जाये, काम, काम माने इच्छा, कामना।

जिसके प्रति इच्छा पैदा हो गयी, वो, वो रिश्ता ग़लत हो गया। वरना क्या दिक़्क़त है? मोबाइल बढ़िया बात है, आओ बात करते हैं। आप में से कितने लोग अभी मोबाइल का इस्तेमाल करके मुझे देख रहे होंगे, फिर सवाल पूछेंगे। मोबाइल में क्या दिक़्क़त है। रिश्ता ग़लत नहीं होना चाहिए। रिश्ता ग़लत नहीं होना चाहिए। भय क्या है? कोई सामने आकर पहलवान खड़ा हो गया है, आपको कह रहा है, ‘आज तो तोड़ दूँगा।’ पहलवान बढ़िया आदमी है, क्या उसने बढ़िया देह पायी है। उसके कंधे पर हाथ मारो, उसकी तारीफ़ कर दो। कहो, ‘वाह! पहलवान, क्या तूने बाजू बनाया है!’

तो पहलवान में थोड़े कोई बुराई है, भय में बुराई है। डरो मत उससे। जो तुम्हें मारने आया है पहले तो उसकी तारीफ़ करो। तेरे जैसा आदमी नहीं देखा। उसके बाद या तो दो डंडा लगाओ उसको या भाग जाओ लेकिन पहले तारीफ़ कर दो क्योंकि वो जो सामने खड़ा है, उसमें अपनेआप में क्या बुराई है। चीज़ अच्छी है वो। जगत में कुछ भी अपनेआप में न अच्छा, न बुरा, कुछ भी नहीं, जगत तो जगत है।

आपको एक दृश्य दिखायी देता है, उसको जगत बोलते हैं। आपको कुछ दिखायी देता है, उसको जगत बोलते हैं। आपको कुछ अनुभव होता है, उसको जगत बोलते हैं। उससे रिश्ता ठीक रखो न, गरिमा और सम्पूर्ण गरिमा। गरिमा और त्रुटिहीन गरिमा। ऐसी गरिमा जिसमें कुछ भी शेष न रह जाये। जब कुछ भी शेष न रह जाये, तो अद्वैत है। थोड़ा भी छोड़ा नहीं, कहीं पर भी समझौता नहीं कर लिया है, पूर्ण गरिमा और मज़े की बात ये है कि गरिमा अगर पूर्ण नहीं है तो गरिमा है भी कहाँ? गरिमा अगर पूर्ण नहीं है तो ऐसी सी बात हुई कि हम बिकते हैं पर सस्ता नहीं बिकते।

बात समझ में आ रही है।

गरिमापूर्ण नहीं तो मतलब ये कि हा, हम अपनी गरिमा रखते हैं, पर एक सीमा तक रखते हैं। माने तुम बोलोगे कि आजा दस लाख में बिक जा, तो नहीं बिकेंगे क्योंकि अभी गरिमा की बात करेंगे। पर फ़िर एक सीमा आती है, इससे ज़्यादा में हम बिक जाएँगे। दस करोड़ दे रहा है तो हम बिक जाएँगे। फिर दस करोड़ दिखाकर के कोई भी तुमको कुत्ता बना देगा। लो बन गये। पंखे की तरह पूँछ चल रही है। हाथ वाला पंखा देखा है, झलते हैं लोग ऐसे-ऐसे, ऐसे। वैसे ही हमारी हालत हो जाती है जब जहाँ किसी ने आकर बोल दिया, पाँच करोड़, दस करोड़, ऐ-ऐ दुम ऐसे-ऐसे, ऐसे… नाप लो पन्द्रह हर्ट्स की फ्रीक्वेंसी (आवृत्ति) है अभी खच-खच, खच-खच, खच-खच। एक सेकंड में पन्द्रह बार।

समझ में आ रही है बात यह।

दुनिया के सामने शान से खड़े होना सीखो। अध्यात्म माने ठसक। न मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ — पहली बात — कि मुझे पापी बोलो और मुझसे कहो प्रायश्चित करो— न मैं तुम्हारा कर्ज़दार हूँ कि तुम मुझे कहो कि चल तेरा दायित्व है हमारे पैसे लौटा — न मैं ख़रीददार हूँ कि तुम मुझसे कहो कि हमसे कुछ चाहिए तो दाम निकाल, ये तीन चीज़े नहीं हैं।

ये हमारा तुम्हारा जो रिश्ता है, इसमें अगर ये तीन चीज़ें आ गयी हैं तो हम रिश्ता ही तोड़ देंगे। न हम कभी गुनाहगार बनेंगे कि तुम हमारे सामने खड़े हो जाओ कि तूने गुनाह किया है, चल मुआवज़ा दे, प्रायश्चित कर। न गुनाहगार, न कर्ज़दार, न ख़रीददार। हमारा तुम्हारा ये तीन रिश्ता नहीं हो सकता।

मैं तुम्हारे सामने न अपराधी की तरह खड़ा होऊँगा, न ऋणी की तरह खड़ा होऊँगा, न ग्राहक की तरह खड़ा होऊँगा। इन तीनों में से कोई रिश्ता मेरा तुम्हारे साथ नहीं है और हमारे रिश्तों में इन तीन के अलावा कुछ होता नहीं है। अपने सारे रिश्तों को ऐसे आँख बन्दकर के थोड़ा सोचिए। अभी क्या पता चलता है, देखिए।

कोई आपसे बोल रहा होगा, चल प्रायश्चित कर। कोई आपसे बोल रहा होगा, चल अपना कर्तव्य निभा, कर्ज़ माने कर्तव्य। कर्तव्य तो कर्ज़ ही तो होता है न, तो वो करना है। कर्तव्य माने दायित्व, देना है। चल कर्तव्य निभा। तो फिर कोई आपको आपका कर्ज़ याद दिला रहा है— मातृऋण, पितृऋण, फ़लाना ऋण। चल अपना कर्तव्य पूरा कर। कोई गुनाह याद दिला रहा है।

गुनाह क्या होता है — नैतिक गुनाह तमाम तरीक़े के — तूने ये कर दिया है, चल आजा अब, मुआवज़ा भर। और कोई आपको रिझा रहा है। कैसे रिझा रहा है? ‘आजा-आजा, आजा-आजा, आजा। कितना चमकदार माल है, ले जा, ले जा। इससे तुझे बड़ी प्रसन्नता मिलेगी’ तो ख़रीददार बना रहा है कोई आपको। इन तीन के अलावा कोई रिश्ता हो तो बताओ।

जब आप गुनाहगार, कर्ज़दार, ख़रीददार होते हो न, तो आप मददगार नहीं हो सकते, आप मददगार नहीं हो सकते। और जहाँ ये तीनों हैं, वहाँ एक चीज़ और नहीं हो सकती, प्यार। प्रेम भी नहीं हो सकता। जिसके सामने आप गुनाहगार बनकर खड़े हो, उसके साथ प्यार नहीं हो सकता। जो आपको याद ही यही दिलाता है कि तू अपराधी है और रिश्तों में खूब चलता है, तूने मेरे साथ ग़लत किया है, तूने मेरे साथ ग़लत किया है— जो आपको ये ही याद दिला रहा हो कि तुमने उसके साथ ग़लत किया, उसके साथ प्यार नहीं हो सकता। वो तो आपसे कुछ वसूलना चाहता है बता-बताकर कि तूने(ये किया), ‘निकाल।’

और जो आपको कुछ बेचना चाहता है उसके साथ भी क्या प्यार करोगे, या कर लोगे? कर लो प्यार, वो तब भी माँगेगा तो दाम ही। जाओ दुकानदार से बहुत प्यार कर लो। कहे, ‘हाँ, बहुत बढ़िया बात है! हमारा तुम्हारा प्यार हो गया है। अब एक काम करो, अभी-अभी वो जो चीज़ उठा ली है चुपके से, उसके पैसे रख दो यहाँ पर।’ तुम कहोगे, ‘पर ये तो फूल ही तो उठाया न, हमारा तुम्हारा तो प्यार है, तुम हमें फूल भी नहीं दोगे।’ ‘प्यार अपनी जगह है, फूल के दाम यहाँ रख दो और अगर फूल के दाम नहीं रखोगे तो फ़िर हम भी तुम्हारी कोई चीज़ उठा लेंगे, जैसे तुमने हमारी चीज़ उठाई, पे इन कैश ऑर इन काइंड (नक़द या वस्तु के रूप में भुगतान करें)। ’

अगर तुम ये कह रहे हो कि पैसा नहीं देना चाहते तो फिर हम भी कहेंगे कि हम पैसा नहीं देना चाहते बल्कि जहाँ पैसे का लेन-देन होता हो न, वो जगह अपेक्षतया ज़्यादा ईमानदारी की होती हैं क्योंकि वहाँ पता तो होता है कितना दिया, कितना लिया? जहाँ लेन-देन नहीं होता पैसे का, जहाँ ये होता है कि चुपचाप कुछ तुम हमें दे दो और कुछ हम तुम्हे दे दें। वहाँ बड़ी बेईमानियाँ पनपती हैं क्योंकि वहाँ ठीक-ठीक कोई हिसाब ही नहीं है कि किसने कितना दिया, किसने कितना लिया है। और वहाँ दोनों पक्ष यही सोच रहे होते हैं कि हम ही ने ज़्यादा दिया है।

जहाँ पैसे पर खेल है, वहाँ तो पता है न, कि बिस्कुट का डिब्बा ख़रीदो तो उसपर लिखा होता है सत्ताईस रुपये। तो उधर से भी ईमानदारी है कि भई सत्ताईस है, अट्ठाईस नहीं माँग रहे और इधर से भी सत्ताईस है तो सत्ताईस ही दिया, छब्बीस नहीं दिया है। ईमानदारी की बात है। दोनों पक्षों में से कोई किसी पर इल्ज़ाम नहीं लगा सकता, गन्दगी नहीं हो सकती।

इन्हीं रिश्तों की जो ख़रीद-फ़रोख्त होती है, जिसमें कभी नैतिकता की बात है, वहाँ रुपयों का आदान-प्रदान करोगे तो बात बहुत बाज़ारू हो जाएगी। बात लगभग वैश्यालय की हो जाएगी कि रुपया देकर चल रहा है काम तो वहाँ पर फिर चीज़ें दी जाती हैं, भावनाएँ दी जाती हैं, आशाएँ दी जाती हैं और उलाहनाएँ दी जाती हैं।

उनके दाम होते हैं, निश्चित रूप से लेकिन दोनों का जो दाम है, वो निर्धारित दोनों पक्ष अपने-अपने तरीक़े से करते हैं। आपने किसी को प्रेम भरा चुम्बन दे दिया, आपने अपनी ओर से दी है चीज़ साढ़े पाँच हज़ार की और जिसको मिला है वो कह रहा है दो सौ रुपये इसका दाम है। और दोनों में खुलकर बोल कोई भी नहीं रहा लेकिन दोनों अपना-अपना हिसाब करके बैठे हैं। अब दोनों ही आगे एक-दूसरे को गुनाहगार बनाएँगे।

ऐसे बनते हैं हम रिश्तों में गुनाहगार। देने वाला कहेगा, ‘पाँच हज़ार तीन सौ बाक़ी हैं अभी क्योंकि मैंने दिये थे साढ़े पाँच हज़ार की चीज़ दी थी। तूने दो ही सौ लौटाए, तो अभी पाँच हज़ार तीन सौ(बाकी है)।’ लेने वाला कहेगा, ‘तू फ्रॉड (धोखा) है, दो सौ की चीज़ साढ़े पाँच हज़ार में बेच रहा है।’ तो दोनों पक्ष ही एक-दूसरे को गुनाहगार बनाएँगे।

हमें गुनाहगार नहीं बनना है। हमें गुनाहगार नहीं बनना है, या तो दो तो मुफ़्त दो या फिर जो क़ीमत है बता कर दो या तो नेकी कर दरिया में डाल, कि दिया और याद ही नहीं रखा। स्मृति में भी न रहे कि क्या दे दिया और अगर कुछ पाने के लिए दिया है तो पहले से बता दो कि दे रहे हैं बदले में इतना चाहिए।

समझ में आ रही है बात ये।

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