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संसार बीतता देखकर भी संसार समझ नहीं आता? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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कबिरा नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय।

वह पुर पट्टन यह गली, बहुरि न देखौ आय।।

~ संत कबीर ~

वक्ता: जो तमाशा करना है दस दिन कर लो, यहाँ पर दोबारा नहीं आओगे। बार-बार कबीर हमें स्मरण कराते हैं ‘मौत’ का। ‘मौत’ कबीर के यहाँ बार-बार, बार-बार सुनने को मिलेगी, पढ़ने को मिलेगी; कोई कारण होगा। जितना नाम कबीर ‘गुरु’ का लेते हैं, उतना ही नाम ‘यमराज’ का भी लेते हैं; कोई कारण होगा। हम सतत चैतन्य की बात करते हैं। हम कहते हैं कि, “हमें लगातार याद रहे, होश निरंतर बना रहे।”

जो स्मरण लगातार बना रहे, उन्हीं स्मरणों में से एक नाम है ‘मृत्यु’ का।

जिसे मृत्यु का लगातार होश नहीं बना हुआ है — उठते, बैठते, जागते, सोते — वो बिल्कुल बेहोशी में ही जी रहा है। मात्र सत्य है जो नित्य है, और माया यही है कि जो नित्य नहीं है उसको नित्य मान लिया। यही है मौत को भूल जाना, यही है माया। आप दिनभर जो काम करते हैं, ध्यान से देखिए, कितने काम कर पाएंगे यदि उस क्षण मौत की सुध आ जाए? और मौत की सुध के बिना जो काम हो रहा है, वो निश्चित रूप से ये मान कर हो रहा है कि, “मैं अमर हूँ”। ये भ्रम है, और इस भ्रम में जितने काम होंगे, वो दुःख, पीड़ा, क्लेश के अलावा कुछ और नहीं दे पाएंगे।

दोहरा रहा हूँ, माया यही तो है न कि जो, जो नहीं है, उसको वो समझ लिया। जिस भी क्षण आपको मृत्यु का बोध नहीं है, उस क्षण आपने मन और शरीर को अमर समझ लिया है। हाँ, हो सकता है कुछ समय बाद फ़िर याद आ जाए, पर वो बीता क्षण तो अमरता के झूठे आश्वासन में ही बीता है। इस कारण उस क्षण में जो कुछ भी हो रहा है, विचार है, कि कर्म है, वो सब झूठा ही झूठा होना है। उसका आधार ही झूठा है। उसके आधार में ये भाव बैठा है कि, “मैं रहूँगा, कि मैं हूँ, कि मेरी कोई सत्ता, कोई अस्तित्व है”। जब आधार ही झूठा है, जब बुनियाद ही झूठी है, तो उस पर इमारत कैसी खड़ी होगी?

मात्र मृत्यु के ही तीव्र बोध पर अमरता की इमारत खड़ी हो सकती है।

ये बात सुनने में थोड़ी विरोधाभासी लगेगी पर समझिएगा इसको। मृत्यु के ही तीक्ष्ण बोध पर अमरता की इमारत खड़ी हो सकती है।

जहाँ मृत्यु का बोध है, वहाँ अमरता है, और जहाँ अमरता का भ्रम है, वहाँ सिर्फ मृत्यु तुल्य कष्ट है।

जिसने दो क्षण को भी मौत को बिसराया, वो बहका-बहका ही घूमेगा। और मौत को लेकर कोई छवि मत बनाइएगा। नहीं आपसे, ये नहीं कहा जा रहा है कि मौत को याद करने का अर्थ है कि आप किसी लाश को, किसी चिता को या किसी यमराज को याद करें। मौत को निरंतर याद रखने का वही अर्थ है जो राम को या ब्रह्म को या ख़ुदा को निरंतर याद रखने का है, एक ही बात है।

मौत को याद रखने का कैसे ये अर्थ है?

फिलहाल आप इस अभिमान में हैं कि आप जीवित हैं। हम देहाभिमानी हैं, हम देह-धारी जीव हैं, यही हमारा अभिमान है, ठीक। हम द्वैत के एक सिरे पर बैठे हैं, द्वैत के एक सिरे पर बैठे-बैठे जिसने दूसरे सिरे को याद कर लिया, वो दोनों सिरों के पार चला जाता है। देहाभिमानी जब-जब मृत्यु को याद करेगा, देह से मुक्त हो जाएगा। मैं मृत्यु को चैतन्य रूप से याद करने की बात कर रहा हूँ। मैं मौत के डर की बात नहीं कर रहा हूँ; मैं मौत के तथ्य की बात कर रहा हूँ।

ये सूत्र है, इसको पकड़िये,

द्वैत के एक सिरे पर बैठ कर के जब आप दूसरे को भी याद कर लेते हो तो दोनों से मुक्त हो जाते हो। जो सुख में दुःख को याद कर लेगा, वो सुख और दुःख दोनों से मुक्त हो जाएगा। जो जीवित रहता मृत्यु को स्मरण करे रहेगा, वो जीवन और मृत्यु दोनों के पार चला जाएगा।

इसी कारण कह रहा हूँ कि –

मृत्यु को याद करना वैसा ही है जैसा राम को याद करना। क्योंकि, जीवन और मृत्यु के पार जो है उसी का नाम राम है।

मौत को याद रखना कोई खौफ़नाक स्मृति नहीं है। मौत को याद रखना वैसा ही है जैसे कोई बच्चा अपने घर को निरंतर याद रखे; इसमें खौफ कैसा है? मौत को याद रखना वैसा ही है जैसा सपने लेने वाले को अचानक याद आ जाए कि जगना भी है। क्योंकि मौत परम जागृति है; मौत कोई अंत नहीं है। हाँ, नींद से उठाना सपने का अंत ज़रूर है, पर वो परम जागृति है। सपने में आप जब तक हैं, तब तक सपने से उठाना एक अंत की भांति ही लगेगा। लेकिन जहाँ द्वैत है, वहाँ सत्य तो हो नहीं सकता, वहाँ तो सपना ही होना है।

श्रोता १: यहाँ अगर मृत्यु और जीवन दोनों एक ही हैं, तो फ़िर हम मृत्यु से पार जाने की बात क्यों कर रहे हैं?

वक्ता: हम जिसको जीवन कहते हैं न वो जीवन है ही नहीं। हम जिसको जीवन कहते हैं वो तो बस मृत्यु की छाया है। ठीक-ठीक बताओ, मौत न हो तो जीवन को जीवन कहोगी क्या? यदि कोई मरता न हो तो क्या आप ये दावा करेंगे कि आप जिंदा हैं? यदि मृत्यु घटती ही न हो तो क्या जिंदा-जिंदा भी कह पाएंगे अपनेआप को?

हमारा ये जो जीवन है, जिसको हम जीवन कहते हैं, ये जीवन है ही नहीं, ये मौत की परछाई है। इसी कारण हम हमेशा डरे हुए रहते हैं क्योंकि हमें अच्छे से पता है कि ये जीवन इसीलिए है क्योंकि मौत है।

जीवन वो नहीं है जो जन्म से शुरू होता है और मृत्यु जिसे काट देती है; जीवन वो है जिसमें जन्म और मृत्यु की लहरें बार-बार उठती रहती हैं, गिरती रहती हैं। जीवन निरंतर है, जीवन का कोई अंत नहीं हो जाना है मृत्यु से; और जीवन निरंतर है जीवन की कोई शुरुआत नहीं हो जानी है जन्म से। जन्म और मृत्यु तो समय में घटनी वाली घटनाएं हैं। जीवन ‘समय’ मात्र का स्रोत है, तो जीवन में जन्म और मृत्यु की कोई संभावना नहीं है।

श्रोता २: इसका मतलब कि जीवन के अंदर कई बार…

वक्ता: कई बार भी जब तुम बोलते हो तो वहाँ ‘समय’ का एहसास है; एक के बाद एक, एक के बाद है। ‘जीवन है’, ‘जीवन है’ — जन्म और मृत्यु बस प्रतीत होते हैं। देखो, ऐसा है जो कैटरपिलर होता है, वो जो तितली से पहले की अवस्था होती है, उससे पूछो तो मृत्यु हो गयी; पर तुम अच्छे से जानते हो कि जीवन लगातार चल रहा है, रूप बदल गया है। उसका न कोई आदि था न अंत हुआ है, रुप भर बदल गया है। हाँ, यदि तुम्हारा अभिमान या है, यदि तुम्हारी पहचान ये है कि “मैं क्या हूँ? मैं क्या हूँ?”

श्रोता २: कैटरपिलर।

वक्ता: तो तुम कहोगे मृत्यु हो गयी। मृत्यु सदा अभिमान की होती है। यदि तुमने ये मान रखा था कि मैं वो शरीर हूँ, तो मृत्यु हो जाएगी। पर अस्तित्व से पूछो तो कहेगा, “कैसी मृत्यु? रूप बदल गया।” मृत्यु होती है; किसकी होती है? अहंकार की होती है। और उसे मरना होता है, वही मरते हैं अन्यथा सिर्फ़ रूप बदलते हैं। और रूप बदलने से मेरा अर्थ ये नहीं है कि आत्मा एक शरीर से निकल कर दूसरे में प्रविष्ट हो जाती है, वो बेहूदा बातें नहीं कर रहे हैं हम।

अस्तित्व समय है, गति है, प्रवाह है। उसमें लहरें उठ रही हैं, गिर रही हैं। निरंतर उनके आकार बदल रहे हैं। बस यही है। हाँ, एक लहर को अपने लहर होने का अभिमान हो जाए तो मृत्यु की घटना ज़रुर घटेगी। और अमरता तुरंत संभव है ज्यों ही लहर, लहर न रहे। और लहर, लहर है भी नहीं; तुम ध्यान से देखो तो लहर का और सागर का तत्व तो एक ही है। हाँ, एक रूप है जिसने अपनेआप को प्रथक मान लिया सागर से। तत्व एक है, रूप अलग हुआ और उसके मन में प्रथकता आ गयी।

इसीलिए जानने वालों ने सदा कहा है कि मौत भ्रम है। मौत धोखा है। मौत जैसा कभी कुछ होता ही नहीं। पर समझना ये भी पड़ेगा कि जब मौत धोखा है तो जिसको हम ‘जीवन’ कहते हैं, वो भी धोखा है। क्योंकि दोनों जुड़े हुए हैं, दोनों एक ही द्वैत के दो सिरें हैं; युग्म है, द्वैत-युग्म। जब कबीर कहते हैं कि मौत को याद रखो, तो वो इतना ही कहते हैं कि, “ये बात याद रखो कि तुम अमर हो।” तो कबीर जब तुमसे कहते हैं कि, “मौत याद रखो”, तो ये नहीं कह रहे हैं कि ये याद रखो कि तुम ‘मर’ जाओगे। बात उल्टी है। कबीर कह रहे हैं कि “याद रखो कि तुम मर सकते ही नहीं”। ये कोई जीवन-विरोधी बात नहीं कर रहे हैं कबीर। अक्सर ऐसा लगता है कि संतो ने तो यही कहा है न कि, “सब मोह माया है। मौत सामने खड़ी है। मौत का फंदा तैयार है।” नहीं, ये नासमझी की बात है।

संत ये नहीं कह रहा है कि “मौत सामने खड़ी है”; संत कह रहा है कि “जिसको तुम जीवन समझते हो, वो निस्सार है। तुम असली जीवन में प्रवेश करो। और प्रवेश भी क्या करोगे, तुम उसमें हो ही, बस जानो।” अमरता पानी नहीं है, तुम अमर हो ही। किसी की मृत्यु आज तक घटी ही नहीं क्योंकि कोई कभी होता ही नहीं है; (हँसते हुए) जो होगा तो न मरेगा।

ये तो ठीक ही है कहना कि कोई मरता नहीं। उससे भी ज़्यादा ठीक है ये कहना कि मरने के लिए कोई है ही नहीं। कोई ‘होगा’ तो न ‘मरेगा’। हमें जिनके होने का भ्रम होता है वो बस भ्रम ही है; ‘है’ नहीं। हर लहर झंडा बुलंद करे हुए है कि “मैं हूँ”। और हर लहर दुःख भोग रही है, इस डर में जी रही है कि खत्म होने ही वाली हूँ। “मैं उठ रही हूँ, उठ रही हूँ, उठ रही हूँ और फ़िर नष्ट होकर रहूंगी।” नष्ट कहाँ हो रही है तू? वापिस जाएगी, फ़िर उठेगी, किसी और रूप में, किसी और आकार में उठेगी।

लहर, लहर है कहाँ?

लहर सागर है।

ये ध्यान की एक बहुत अच्छी विधि हो सकती है: ‘मौत का सतत स्मरण’ । एक गाँव में एक चर्च है, जैसे कि प्रथा होती थी कि जब गाँव में किसी की मौत होती थी तो गाँव में घंटा बजाया जाता था। एक बार एक आदमी आता है, गिरजाघर के पादरी से पूछता है: “घंटा बज रहा है आज, आज किसके लिए बज रहा है?”, तो पादरी जवाब देता है: “आस्क नॉट फॉर हूम दा बेल ट्विन्स, इट ट्विन्स फॉर यू”, मत पूछो किसके लिए बज रहा है, तुम्हारे ही लिए बज रहा है। और अगर ज़रा भी होश में होंगे हम, तो हमें दिखाई देगा कि लगातार मौत का घंटा तो बज ही रहा है; नगाड़ा बज रहा है बिल्कुल। हम बेहोश हैं, हमें दिखाई नहीं देता। हम जन्म-दिवस मनाए जाते हैं, और बड़े खुश होते हैं, “आज जन्मदिन है मेरा”। इससे ज़्यादा बेवकूफ़ी का उत्सव कोई हो नहीं सकता — जन्मदिन मनाना।

यहाँ सुधीजन कह गए हैं कि निरंतर, निरंतर याद रखो कि जन्म और मृत्यु दोनों झूठे हैं। और हमें चैन नहीं मिलता जब तक हम हैप्पी बर्थडे न बोल दें। तुम शुभचिंतक हो या उसे और नर्क में डाल रहे हो? तुम उसमें देहाभिमान और प्रबल कर रहे हो। तुम उसमें ये भावना और प्रबल कर रहे हो कि “‘मेरा’ जन्म हुआ था, और इस दिन हुआ था। और आज वो दिन फ़िर लौट कर आया है इतने सालों बाद, चलो ताली बजाओ। मेरा जन्म हुआ था।” यहाँ खेल ही सारा ये समझने का है कि जन्म नहीं है। और जिसका जन्मदिन मनाओगे, याद रखना, वो थर-थर कापेंगा मौत से। क्योंकि यदि जन्मदिन उत्सव की बात है तो मौत बड़े कष्ट की बात है। क्या हमें ये दिखाई नहीं देता? हम दुश्मन हैं अपने बच्चों के? क्या बात सीधी-साधी नहीं है? यदि जन्मदिन उत्सव है तो मृत्यु को क्या होना पड़ेगा? परम कष्ट; दुर्घटना; मातम। और मातम है ही इसीलिए क्योंकि जन्म, उत्सव है। जितनी बार जन्म का उत्सव बनेगा, उतनी बार आप मौत के और गहरे डर में गिरते जाओगे।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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