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लेख
समय, साधना और सुरति || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
20 मिनट
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वक्ता: खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति|

मौत को हमेशा याद रखो| मौत की स्मृति को ऐसे पहनो, जैसे तुम अपना पैबंद लगा लिबास पहनते हो| अपने कुंवारेपन को, लिये-लिये जियो| वही रास्ता है तुम्हारा| रास्ते पर चलने का सहारा, जो डंडा लेकर के चलते हो, रास्ते पर चलने का सहारा रहे- उसकी निरंतर प्रतीति| संतों के कहने का तरीका है, लाक्षणिक बातें हैं| मीठी बोली है|

जिन शब्दों पर ध्यान देना है, वो हैं कि “मृत्यु का स्मरण सदा बना रहे”, पहला| दूसरा, “तुम्हारा कुंवारापन अछूता रहे”| तीसरा, “सदैव उसकी प्रतीति होती रहे”| इन्हीं तीन को पकड़ो| पहले को लेते हैं,

मृत्यु का स्मरण सदा बना रहे|

क्या है ये बात कि ‘मृत्यु का स्मरण’ बना रहे? संसार देह से बंधा हुआ है| संसार और तुम्हारा नाता, देह का नाता है| ठीक है ना? जो वस्तुएं दिखती हैं, वो देह के समकक्ष हैं| जो विचार उठते हैं, संसार को देख कर, वो मन के समकक्ष हैं| संसार क्या है? वस्तु, और विचारों का विषय| तो देह और मन| मूलतः देह का नाता है| तुम संसार से बहुत आसक्त तभी हो सकते हो, जब तुम देह की प्रकृति को भूल जाओ| ज्यों ही तुम्हें ये याद आएगा कि ये देह ही लगातार विनष्टि की यात्रा पर है, ये देह ही ख़त्म होने को तैयार खडी है, तब संसार कैसे आकर्षित कर पाएगा तुमको? तब तो तुम्हें सत्य के करीब ही जाना पडेगा कि हकीकत क्या है, मामला क्या है असली| चाह कर भी, ये कष्ट भुला नहीं पाओगे कि जिस देह के माध्यम से सारे मेरे सुख, सारी मेरी रोमांचक कल्पनाएं हैं, वो देह बस मेहमान है कुछ दिनों की| अब गई, तब गई|

नानक हों, फरीद हों, कबीर हों, कहते ही रहें हैं कि मौत को याद रखो| कबीर कभी कहते हैं उड़ जाएगा हंस अकेला| कभी कहते हैं कि आया है, सो जाएगा| कभी कहते हैं कि जम के दूत, बड़े मजबूत| बार-बार कहते हैं, बार-बार याद दिलाते हैं| समझना चाहिये हमको कि संतों ने क्यों लगातार मौत की बातें की हैं| क्या वो जीवन विरोधी हैं? क्या संतों को जीवन से कुछ शिकायत है? क्यों हर संत मौत की बात करता ही करता है? इसलिये करता है कि तुम उसमें ना अटक जाओ, जो तुम्हें निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं दे सकता| जब मौत की बात करते हैं तो उसको हटाते हैं, जो क्षणभंगुर है| जब मौत की बात करते हैं, तो तुम्हें उसके करीब ले आते हैं, जो नित्य है| ज्यों ही देखोगे कि क्या नहीं रहने वाला है, त्यों ही उसकी तलाश शुरू होगी, जो समय की मार से अछूता रह जाएगा, जिसका समय कुछ नहीं बिगड़ सकता, जो अविनाशी है|

संत तो ऐसा कह गए हैं पर समाज उसके बिल्कुल विपरीत चलता है| संत कहते हैं, ‘मृत्यु का स्मरण’, ऐसा रखो जैसे तुमने लिबास धारण कर रखा हो| जैसे अपना ही कपड़ा होता है, बार-बार दिखता है कि क्या पहन रखा है| ऐसे याद रखो| और समाज कहता है, मौत की तरफ देखो मत, मौत को झुठलाओ, दबा दो इस तथ्य को कि तुम्हें जाना है| और हो सकता है कि बहुत करीब हो तुम्हारा जाना, पर भूल जाओ| दबा दो इस तथ्य को कि जो कुछ तुम अपना समझते हो, वो पूरी तरह से चला जाएगा| समाज तुम्हें एक झूठी सुरक्षा देने की कोशिश करता है| समाज कहता है कि ठीक है, मरना है, तो मरने से पहले माकन बना लो| समाज कहता है कि मरना है, तो मरने से पहले थोड़ी धन-संपत्ति छोड़ जाओ, रिश्ते-नातों के काम आएगी| समाज इन झूठे उपायों से, तुम्हारे मन से, मृत्यु को दूर करने की कोशिश करता है| ये खोखले उपाय हैं, झूठे आश्वासन हैं, इनसे कुछ होगा नहीं|

मृत्यु शरीर का आखरी तथ्य है| नहीं बचेगा ये रूप, बात ख़त्म| नहीं बचेगी ये पहचान| तुम जो हो, जो भी तुम्हारा नाम है, जो भी तुम्हार शरीर है, ना ये शरीर समय में वापिस आना है| ना ये पहचानें, ना ये नाम समय में वापिस आना है| जीवन अमर है, तुम्हारी पहचानें अमर नहीं हैं| ये जाएंगी, और पूरी तरह जाएंगी, इनका शतांश भी शेष नहीं बचेगा| अपने आप को धोखे में मत रखो| ये चले जाने हैं| जिससे भी तुम्हारा देह का रिश्ता है, उस रिश्ते की कोई कीमत नहीं, वो नहीं बचना है|

तुम तर्क कर सकते हो| “ठीक है, नहीं बचना है| जब तक है, तब तक उसको भोग लें, तो क्या बुराई है? ठीक है, नहीं बचना है| जब तक उसको भोग लें, तो क्या बुराई है?” कहां भोग पाते हो? समाज मृत्यु के तथ्य को जितना दबाने की कोशिश करता है, उससे तुम्हें एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिये कि डरता बहुत है मृत्यु से, नहीं तो इतना दबाता नहीं| अगर तुम किसी बात को बहुत दबाने की कोशिश कर रहे हो, तो आशय स्पष्ट है| वो बात तुम्हारे सामने बार-बार, बार-बार खड़ी हो रही है, अन्यथा इतना दबाते नहीं| मौत, अपनी पूरी भयावहता के साथ, अपने पूरे आखिरिपन के साथ, हमारे सामने बार-बार खड़ी होती है| तुम कहां भोग पाते हो? ये तर्क मत करो कि जब मरेंगे, तब मरेंगे, अभी भोग लेने दो| तुम भोग भी कहां पाते हो? भोग के लिये, योग चाहिये| और तुम्हारे पास है, सिर्फ मृत्यु का डर| तो कहां भोग सकते हो? हूं? कहा है ना कबीर ने,

‘माखन माखन संतों ने खाया, छाछ जगत बपुरानी|’

क्यों? क्योंकि संत होता है, मात्र संत ही होता है, ‘निर्भय’, और जगत लगातार मृत्यु में जीता है, मृत्यु के भय में| तो छाछ सी ही मिलती है उसे| छाछ माने? अवशिष्ट, बचा-खुचा| मूल नहीं, छाड़न| अभी कुछ दिनों पहले, वो भेजा था,

मरना हो मर जाइये, छूट जाए संसार|

ऐसी मरनी क्यों मारें, दिन में सौ-सौ बार|

हम तो दिन में सौ-सौ बार मरते हैं, और अजूबा ये है कि मृत्यु के तथ्य को दबाने की कोशिश करते हैं, जैसे की वो दबाया जा सकता हो| हर छोटी-बड़ी घटना, हमें भय में डालती है| हर भय, अंततः मृत्यु का ही भय है| ये हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, ये चाहिये| रक्षा के हमने इंतजाम इतने खड़े कर रखे हैं| सुरक्षा के हमने जितने इंतजाम खड़े किये हैं, वो सब अंततः मृत्यु के भय से ही हैं| कोई भोग नहीं है इस जीवन में| जैसा कहा मैंने, “भोग तो योग में ही संभव है”, भय में नहीं| तो ये बड़ा नीरस, सूना जीवन हो जाता है| जिसमें, अभी जो है, मात्र भय है, और उसके बाद, मृत्यु है| अभी क्या है?

श्रोता १: भय है|

वक्ता: मृत्यु का भय; और फिर समय में एक क्षण आता है जिसमें मृत्यु है; और जिसके बाद, एक अनन्त खालीपन| जिसका हमें कुछ पता नहीं| तो बचा क्या? अभी क्या है तुम्हारे पास?

श्रोता २: भय|

वक्ता: भय| और भविष्य में क्या है तुम्हारे पास?

श्रोता २: मृत्यु|

वक्ता: मृत्यु| और उसके बाद, एक अनन्त सन्नाटा| तो ये कौन सा जीवन है? कैसा जीवन है? जिसमें ना अभी कुछ है, ना आगे कुछ है| कुछ है ही नहीं| मृत्यु को जीतने का सूत्र दिया है नानक ने, अच्छे से पकड़िये इसको| मृत्यु को जीतने का सूत्र है- मृत्यु का सदैव स्मरण |मृत्यु को जीतने का सूत्र है, मृत्यु का सदैव स्मरण| जो मृत्यु को झुठलाता नहीं, जो मृत्यु से पीठ नहीं फेर लेता, वो अमरता की यात्रा पर निकल पड़ता है| जो प्रतिक्षण ये याद रखता है कि सब नश्वर है, उसने अमरता की तरफ कदम बढ़ा दिये| मृत्यु के पास आओ, मृत्यु को समझो, मृत्यु को गले लगाओ, अमर हो जाओगे| ठीक वैसे, जैसे कठोपनिषद में नचिकेता हो गया था| नचिकेता, यमराज के पास पहुँच कर अमर हो गया| बात सांकेतिक है, और संकेत दूर तक जाता है| समझो| और हम यमराज से?

कुछ श्रोतागण (एक स्वर में): डरते हैं, भागते हैं|

वक्ता: भागते हैं| और भागते भागते, मौत को प्राप्त हो जाते हैं| हम जहां जाते हैं, यमराज वहां पहले ही खड़ा होता है| भाग हम यम से रहे हैं| जहां जाते हैं, वहां वो हमसे पहले खड़े होते हैं| और नचिकेता, यम के पास अपने पांव चल कर गया कि मुझे जानना है| ‘मुझे जानना है| ये क्या है, डरे जा रहें हैं, डरे जा रहें हैं, डरे जा रहें हैं? अरे! मुझे जानना है’| और अमर हो गया| वही कह रहें हैं नानक| कठोपनिषद के संत, ठीक वही संदेश दे रहें हैं जो नानक ने दिया है| नानक, बिल्कुल उसी धारा के हैं जो कठोपनिषद से निकली है| आ रही है बात समझ में?

श्रोता ३: जब हम कह रहें हैं कि मौत को याद रखना है, तो इसका मतलब क्या है?

वक्ता: मतलब यही कि एक झीनी-सी स्मृति लगातार बनी रहे| आज सुबह, जब नमन ने पूछा कि छूटा, तो कष्ट हुआ, बुरा लगा| तो जैसे ही ऐसा क्षण आए, तुरंत ये स्मरण हो आए, ‘छूटना तो है ही’| और सब कुछ लगातार छूट ही रहा है| जो कुछ तुमने पीछे छोड़ा है, वो सदा के लिये ही छोड़ा है| याद रखना, जो छोड़ दिया, कभी वापिस नहीं आएगा| छोड़ा हुआ क्षण, कभी लौट कर आया है? मृत्यु ही तो है| हम मृत्यु को झुठलाते कैसे हैं? बार-बार अपने आप से ये कह कर कि जिसको छोड़ा है, वो वापिस आएगा|

याद रखो, जो भी पीछे गया, समय में, वो नहीं आएगा, नहीं ही आएगा| उसकी प्रकृति है क्षणभंगुर होना, नाशवान होना| वो गया, नहीं लौटा सकते| उम्मीद को तोड़ दो| जब उम्मीद टूटती है, तो सत्य सामने खड़ा होता है| तुम जिनको अपने घरों में पीछे छोड़ कर आए हो, अब जा कर के उनसे नहीं मिलोगे| पर हमारी कल्पना और हमारी आशा यही होती है कि जिन्हें छोड़ा है, उन्हीं को पाएंगे| ना, उनको नहीं पाओगे| पांच दिनों में, ना वो, वो हैं, जिन्हें तुम छोड़ कर आए थे, ना तुम, तुम हो, जो वहां से चले थे| सब बदल चुका है| सब नया है| हर क्षण ये याद रहे कि, गया| निरंतरता के भ्रम में मत फंसना, कुछ नहीं निरंतर है| निरंतरता का भ्रम ये होता है कि जगत से मेरा संबंध स्थायी है| क्या अर्थ है इस बात का कि बहन है, दोस्त है, यार है, कि भाई है, पत्नी है, माँ-बाप, इनसे मेरा, कोई स्थायी संबंध है? तुम दस साल, बीस साल, चालीस साल के स्थायी संबंध की कल्पना ही इसलिये कर पाते हो क्योंकि पहले तुम एक दिन के स्थायी संबंध की कल्पना करते हो| उससे भी पहले तुम एक पल के स्थायी संबंध की कल्पना करते हो| नहीं है स्थायी संबंध| कुछ स्थायी नहीं है| तुम हो ही नहीं|

बुद्ध ने इसलिये कहा था कि व्यक्ति होते ही नहीं, मात्र प्रक्रियाएं होती हैं| हम नदी की तरह होते हैं, नदी अपने आप में कुछ नहीं है| नदी एक प्रक्रिया है, एक बहाव है| इसलिये हिराक्लिटस ने कहा था, “एक ही नदी में, दो बार नहीं उतर सकते”| हिराक्लिटस ने, मृत्यु की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया था| मृत्यु यही है कि हम निरंतर परिवर्तनीय हैं, इसी का नाम मृत्यु है| और अमरता क्या है? अमरता है, ये जान लेना कि समस्त परिवर्तन सतही है| केंद्र पर, सब अचल है, सब अपरिवर्तनीय है| ये अमरता है| पर अमरता को वो जानेगा, जो पहले सतह की मर्त्यता को पूरी तरह जाने, और स्वीकार करे| ये जो कुछ दिख रहा है, ये लगातार मर रहा है, लगातार मर रहा है|

हम और तुम, लगातार मर रहें हैं| हम उसको बस मानना नहीं चाहते, अटकना चाहते हैं| स्थायित्व निरंतरता की तलाश में हैं| निरंतरता वहां है ही नहीं जहां हम खोज रहें हैं| स्थायित्व वहां है ही नहीं, जहां हम, खोज रहे हैं उसे| निरंतरता, स्थायित्व, अडिगता, निश्चलता, वास्तव में कहां है? वो केंद्र पर है| पर उस केंद्र तक तुम पहुंचोगे नहीं, अगर सतह पर ही झूठी उम्मीद लगा कर बैठे रहोगे| तुम कहोगे, अभी आसरा है, अभी उम्मीद है| ‘क्या पता, कुछ स्थायी, कुछ अविनाशी, सतह पर ही मिल जाए| क्या पता जगत में ही कुछ ऐसा पा लूं, जो नश्वर ना हो’| जगत में, कुछ ऐसा नहीं पाओगे जो नश्वर नहीं है| जगत का अर्थ ही है, ‘नाशवान’| जो प्रतिपल मर रहा है, सो जगत है| पर क्योंकि होना हमारा स्वभाव है, सतत होना हमारा स्वाभाव है, तो वो स्वभाव निरंतरता की तलाश के रूप में प्रकट होता है| निरंतरता मत मांगो, नित्यता मांगो| समझ में आ रही है बात? निरंतरता और नित्यता का अंतर समझ रहे हो? निरंतरता का अर्थ है कि समय चलता जाएगा, और मैं, समय में लगातार, मौजूद रहूंगा- ये निरंतरता है| और नित्यता का अर्थ होता है कि मैं, समय से बाहर हूं| नारायण उपनिषद कहता है;

नाहं कालस्य, अहमेव कालम् ||

निरंतरता की तलाश है कि काल की धारा बह रही है और मैं उस धारा में सतत बना रहूं| मैं आज भी रहूं, मैं सौ साल बाद भी रहूं, मैं हज़ार साल बाद भी रहूं| और आम तौर पर, अमरता का हम अर्थ भी यही लगते हैं| ऐसा हमारा समाज है| जब हमें पता चलता है, जब हम पढ़ते हैं कि फलाना अमर था, तो हम उसका अर्थ ये लेते हैं कि वो दस हजार साल जिया, या अभी तक जिये जा रहा है| ना, ना, ना, अमरता का ये अर्थ नहीं है| अमरता का अर्थ ये नहीं है कि वो समय में, निरंतर जीवित रहा| अमरता का अर्थ ये है कि उसने उस बिंदु को पा लिया जिसे मृत्यु छू नहीं सकती| अमरता, नित्यता है| अमरता है, केंद्र पर स्थापित होना| मृत्यु का स्मरण, तुम्हें सतह से हटाएगा| तुम्हारी झूठी आशाएं तोड़ेगा| तुम्हें संसार से बंधने नहीं देगा| और जो संसार से नहीं बंधा, उसकी केंद्र की तरफ जाने की यात्रा शुरू हो गई| तो मौत को लगातार याद रखो| ठीक है?

दूसरा उन्हों ने कहा, ‘कुंवारापन’, कि जियो जगत में, पर अपना कुंवारापन बचाना, संभालना| क्या आशय है? कुंवारेपन से क्या अर्थ है? ये कि सामान्य लेनदेन बना रहे, जगत है ही व्यापार| सामान्य लेनदेन बना रहे, पर ह्रदय तुम्हारा, दिल तुम्हारा, एक ही परम प्रेमी के लिये रहे| या तुम ये कहो कि आरक्षित है| हाथ से लेन देन कर सकते हैं, पर ह्रदय तुम्हें नहीं दे सकते| ह्रदय के आसन पर तो एक ही बैठेगा, ये है कुंवारापन| बाकि तुम्हें जो चाहिये, हमसे ले लो| पर दिल, तुम्हें नहीं दे सकते| कौन से दिल की बात कर रहा हूं? फ़िल्मी दिल की बात नहीं कर रहा हूं| हृदय, केंद्र, केंद्र पर, तो हम खाली ही रहेंगे| केंद्र पर तो परम की ही सत्ता रहेगी| हूं? बाकि जीवन है, देह है, जगत का कारोबार है, चलता रहेगा| लेकिन किसी कारोबार को, इतनी गंभीरता से नहीं ले लेंगे कि वो मन में बहुत गहरे प्रवेश कर जाए| सब सतह-सतह पर रहे, ऊपर-ऊपर| जैसे कि तुम सौ लोगों से बात कर रहे हो, लेकिन फिर भी मन में तुम्हारे प्रेमी की स्मृति लगातार बनी हुई है| जगत के काम-धंधों में लगे हुये हो, पर एक गहरा ध्यान है, जो टूट नहीं रहा है| ये है, कुंवारापन|

श्रोता ४: दुनिया से अभिज्ञान नहीं है|

वक्ता: अभिज्ञान नहीं है| हैं जगत में, पर जगत ‘के’ नहीं हो गये हैं|

दुनिया में हूं, दुनिया का तलबगार नहीं हूं|

बाज़ार से गुज़रा हूं, खरीददार नहीं हूं|

ये है, कुंवारापन| जगत बाज़ार है, गुज़रना होगा इससे| याद है, हमने पहले एक जेन कथा की थी कि गुरु की आखिरी सलाह है, ‘गुज़र जाना नदी से, उतर जाना नदी में, लेकिन पाँव को…’?

सभी श्रोतागण (एक स्वर में): गीला मत होने देना|

वक्ता: गीला मत होने देना| ये है, कुंवारापन| सब कर रहें हैं, सब हो रहा है, लेकिन आसन पर तो वही बैठेगा| वही बैठा ही हुआ है| तुम मेरे लिये महत्वपूर्ण हो सकते हो, पर इतने महत्वपूर्ण कभी नहीं कि उसे पदच्युत करके तुमको बैठा दूं| ये कभी नहीं होगा|

श्रोता ५: मतलब वो दिमाग में चिपके ना|

वक्ता: तुम जो भी हो, आवत-जावत हो| वो नित्य है| तुम मेहमान हो, वो घर का मालिक है| ये है कुंवारापन| बात आ रही है समझ में?

श्रोता ६: हां जी|

वक्ता: तीसरा शब्द है, ‘प्रतीति’| नानक कह रहें हैं, ‘तुम्हारा डंडा, तुम्हारा सहारा, जिसे टेक-टेक के तुम चलोगे, वो उसकी प्रतीति है’| वही सहारा है| क्योंकि बड़ा आसन है, हम जैसे हैं, उसमें फिसल पड़ना, गिर जाना| पांव तले ज़मीन ही खिसक जाती है, रपटीली है| कितना भी सम्हल कर चलें, गिर ही पड़ते हैं, अगर हाथ में ‘सुरति’ का डंडा न हो| हमें चाहिये| पता नहीं कितने लम्बे समय की हमारी यात्रा रही है और उसमें कितनी कमजोरियां, कितनी बीमारियां, हमने इकट्ठा कर ली हैं| किन कमजिरियों, बिमारियों की बात कर रहा हूं? धारणाएं, मान्यताएं| ठीक है? तो हमें चाहिये, सहारा चाहिये| एक ही सहारा हो सकता है| उसका निरंतर स्मरण, और कुछ अलग नहीं है| हम चाहें कुवारेपन की बात करें, चाहें मौत के स्मरण की बात करें, या चाहें राम नाम के निरंतर, आतंरिक जाप की बात करें| बात सब एक ही है|

(मौन)

जैसे तेल की धार होती है, पतली, टूटे ना| टूटना नहीं चाहिये| जहां टूटा, तहां फिसलोगे, तुरंत गिरोगे| इसमें कोई रियायत नहीं है| ये नहीं है कि अरे, ये हमेशा तो संभाले रहता है, अब पांच मिनट के लिये बेचारा बहक गया तो इसको थोड़ी रियायत, छूट मिलनी चाहिये| नहीं मिलेगी| तुम चढ़ रहे हो पहाड़ी पर, और तुमने एक हज़ार कदम, सम्हाल-सम्हाल कर रखे हैं| एक हजार एकवां कदम तुम लपरवाही में रखो, क्या पहाड़ी तुम्हें माफ़ कर देगी ये कह कर की इतनी ऊंचाई तक तो आ गया ना, अब बेचारे ने एक कदम गलत रख दिया तो अब सजा क्यों मिले? क्यों फिसले? बल्कि सावधान रहना, जितनी ऊंचाई पर पहुँच कर फिसलोगे…?

कुछ श्रोतागण (एक स्वर में): उतना ही तेज़ चोट लगेगी|

वक्ता: कहा था ना कल, मैंने? मार दोहरी होती है| जितनी ऊंचाई पर पहुंच कर फिसलोगे, उतनी ज़ोर की लगेगी| तो कोई ये ना सोचे कि इतना तो साध लिया| अब थोड़ा-बहुत अगर बहक भी लें, तो क्या बुरा हो गया| वो मालिक है| हम उसके होने से हैं| ज़रा सी भी कृतघ्नता अक्षम्य है| अक्षम्य ऐसे नहीं है कि मालिक आ कर सज़ा देगा| अक्षम्य ऐसे है कि सजा मिल ही जाएगी| भूलना ही सजा है| कह तो रहा हूं ना? पहाड़ी पर चढ़ रहे हो, ध्यान उचटा, क्या ये कहोगे कि पहाड़ी ने सजा दी? तुम भूले, तुमने अपने आप को सज़ा दी| तो,

खिंथा कालु कुआरी काइआ जुगति डंडा परतीति ||

जो तीनों बातें कही हैं, वो पहली बात में समां जाती है| “मैं समझता हूं”, वो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| मृत्यु का लगातार स्मरण रहे| लगातार स्मरण| ठीक?

श्रोता ७: सर, अगर निरंतर याद रहे कि सब कुछ छूटने वाला है, तो क्या उसे और भोगने का मन नहीं करेगा| और मन यही सोचेगा कि अगर नहीं किया तो..? वही भोगने वाला मन|

वक्ता: यही कि जा रहा है, तो भागते भूत की लंगोटी भली| भोग लो?

श्रोता ७: हां|

वक्ता: मतलब, इससे पहले की ये सब भाग जाए, इसको भोग लो?

श्रोता ७: यही होता है मुख्यतः|

वक्ता: इससे पहले कि जीवन ख़त्म हो, इसको भोग लो?

श्रोता ७: हां|

वक्ता: हमने उसकी बात की तो| तुम कहां भोग पाते हो? जल्दबाजी का कोई भोग होता है? जब तुम्हें पता है कि समय सीमित है, तो तुम लगातार जल्दी में हो| कि नहीं हो? भोग तो परम विश्राम में ही होता है| इसलिये कहा था, ‘योग में ही, भोग होता है’| यहां मृत्यु की छाया लगातार पड़ रही है ऊपर, और तुम बात कर रहे हो भोगने की| कहां हो पाता है? भोगने का अर्थ है, पा लेना| कुछ ऐसा पा लेना, जो तृप्त कर जाए, शांत कर जाए| भोगने का भी अर्थ वही है, जो योग का अर्थ है| दोनों में कोई अंतर नहीं है|

डरा हुआ मन, ऊपर-ऊपर से भले ही लगे कि भोग रहा है, तुम बाजारों में लोगों को देखो, तुम उनको मजे करते देखो, तुम उनको उत्सव, पार्टी करते देखो, तो ऐसा लग सकता है कि ये भोग रहें हैं| भोग थोड़े ही रहें हैं| इसलिये कहता हूं कि जब देखा करो कि कहीं पर कोई उत्सव मनाया गया है, रात भर पार्टी चली है, तो अगले दिन सुबह भी जा कर देखा करो कि वहां का हाल क्या है| और पूछा करो कि ये ख़त्म क्यों हो गई|

ऐसा होता है हमारा भोगना| जीवन से भागा हुआ| जीवन से बचता हुआ| जीवन से चुराया हुआ| जीवन क्या है हमारा? मौत से डरा-डरा| ऐसे नहीं| देखो, भोग तो तब है ना जब तृप्ति दे जाए| भोग तो तब है ना कि तृप्ति ऐसी मिल गई कि अब भोगने की ज़रुरत नहीं| वो भोग कैसा जिसमें भोग, पर अभी और भोगने की इच्छा शेष है? अगर भोगने की इच्छा शेष रह गई, तो भोग कहां? क्योंकि भोग का उद्देश्य क्या है? तृप्ति| कि ‘और नहीं चाहिये’| भोग-भोग कर अभी और चाहिये, तो अभी क्या भोगा? और भोग-भोग कर भी इसलिये तुम्हें और चाहिये, क्योंकि अंततः तुम्हें, ‘अमरता’ चाहिये| बिना अमरता के, भोग नहीं पाओगे|

श्रोता ८: सर, भोग मतलब, ‘उपभोग’? लेकिन वो खालीपन, वो छेद जो हमारे अंदर होता है, जिसको आदमी भरने की कोशिश करता रहता है, वो खालीपन भी तो उसी का है? हमें अमरता चाहिये, जिससे कि वो खालीपन भर जाए|

वक्ता: हां, हमेशा|

श्रोता ८: उसी से भरना चाहता है, लेकिन वो छोटे-छोटे कुछ समय तक रहने वाले सुखों को ढूंढता है|

वक्ता: हां| एकदम पकड़ लिया तुमने, यही है| तुम्हें तलाश उसी की है जो केंद्र पर बैठा है, जहां अमरता है| पर चूंकि समझ नहीं रहे हो, तो उसके विकल्प के तौर पर इधर-उधर की वस्तुएं उठाते रहते हो| पैसा-रूपया प्रतिष्ठा, करियर| तुम्हें चाहिये वही| तुम्हें और कुछ नहीं चाहिये|

-’ज्ञान सेशन’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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