आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
समाज में ताक़त और इज़्ज़त की चाहत || (2020)

प्रश्नकर्ता: जिस समाज में मैं प्रतिदिन जी रहा हूँ, उसमें ताक़त और प्रतिष्ठा ही सब कुछ है। जिसकी हैसियत और उपाधि ना हो उसे कोई सुनता भी नहीं और जो समाज में ऊँचे स्थान पर बैठा है, वो कुछ अनर्गल ही क्यों न बके वो परम-सत्य मान लिया जाता है। मैंने कुछ ख़ास नहीं पाया जीवन में, क्या इस नीति अनुसार मैं सदा दबा-दबा ही जिऊँगा?

आचार्य प्रशांत: कई बातें हैं आपसे पूछना चाहूँगा इसमें। किनसे दबा-दबा? कह रहे हैं कि दुनिया में यही देखा है कि जिनके पास ताक़त है, सत्ता है, प्रतिष्ठा है वो कितनी भी व्यर्थ, अनर्गल बकवास ही क्यों न करें, लोग सुनते हैं। और जिनके पास नहीं है ताक़त, उनकी कोई नहीं सुनता। तो पूछ रहे हैं कि, "फिर मैं क्या करूँ? दबा-दबा जिऊँ?" तो मैंने पूछा है कि किससे दबे दबे? किससे दबे-दबे? बताते चलिए (प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए)

प्र: इसी बीच अपनी आवाज़ भी दब जाती है।

आचार्य: किसके सामने?

प्र: जो भी श्रोता रहता है।

आचार्य: वो जो श्रोता हैं, उन्हीं के बारे में अभी-अभी आपने क्या बताया?

प्र: अनर्गल ही क्यों न बकें, मान लेते हैं।

आचार्य: नहीं, नहीं; आपने समाज के बारे में कुछ बात हमसे कही, ठीक है न? हमें एक प्रारूप, एक मॉडल दिया। कुछ बात बताईं समाज के बारे में, क्या बात बताई अभी-अभी? बताई कि समाज के लोग ऐसे हैं कि वो गुण नहीं देखते, योग्यता नहीं देखते। वो ये देखते हैं कि कौन कितना चमका हुआ है, कितने किसके अनुयाई हैं, सत्ता किसके पास है, पैसा किसके पास है वगैरह-वगैरह, ये सब।

तो आपके अनुसार इस तरह के लोग हैं समाज में, ठीक है? मैं आपके कहे पर ही चल रहा हूँ। तो आपके अनुसार समाज ऐसे लोगों से निर्मित है, कैसे लोगों से? जो सच-झूठ की कुछ परख नहीं जानते, ठीक? जो भले-बुरे का कुछ भेद नहीं जानते।

आपने जैसा विवरण दिया उससे तो लग रहा है कि समाज के लोग अधिकांशतः क्या हैं बिलकुल? मूरख। आप ही ने कहा ये, मैं नहीं कह रहा हूँ। आप कह रहे हैं – दुनिया के लोग या तो सभी या फिर ज़्यादातर क्या हैं बिलकुल? मूरख। और ये किस बात से पता चलता है? कि वो किसी के भी पीछे लग लेते हैं। जहाँ भीड़ होती है वहीं पहुँच जाते हैं। जो भी ज़रा चमक गया उसी के अनुयाई हो जाते हैं, पिछलग्गू हो जाते हैं।

तो आपके अनुसार समाज ऐसे लोगों से बना हुआ है। अब ऐसे लोगों से आप अपने लिए प्रतिष्ठा या मान्यता क्यों माँग रहे हैं? भाई, जो आदमी आप ही के शब्दों में, आप ही के बयान में मूरख है, उस मूरख आदमी की प्रतिष्ठा आप पा भी लें तो आपको क्या मिल जाएगा? क्या मिल जाएगा? और मूरख आदमी से जो प्रतिष्ठा पहली बात जो माँगे और दूसरी बात ना पाने पर दुखी हो जाए, वो आदमी क्या मूरख से भी ज़्यादा?

प्र: मूरख।

आचार्य: हा! ये तो गड़बड़ हो गई। ख़ुद ही कह रहे हैं कि दुनिया कैसी है? मूरख है। फिर कह रहे हैं – "ये दुनिया मुझे सम्मान नहीं देती, मान्यता नहीं देती।" तो दुनिया अगर मूरख है और मूरख से जो मान्यता माँगे पहली बात और ना मिले मान्यता तो दुखी और परेशान हो जाए, उसको मैं क्या बोलूँ भाई! क्या बोलूँ?

प्र: आचार्य जी...

आचार्य: उसको आचार्य जी बोलूँ? (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: नहीं, मैं इसमें थोड़ा और आगे बढ़ाना चाहूँगा।

आचार्य: नहीं, नहीं, पहले मेरे सवाल का जवाब दो।

प्र: उसको मूर्ख ही मानेंगे।

आचार्य: उसको मूर्ख क्यों मानूँ, उसको मैं महामूर्ख मानूँगा।

प्र: महामूर्ख मानेंगे।

आचार्य: सवाल ख़त्म हो जाना चाहिए, बात आगे बढ़नी नहीं चाहिए लेकिन बढ़ाना चाहते हैं तो कहिए।

प्र: मतलब ऐसा भी होता है कि हमारे मित्र और सम्बंधी भी उनकी खुद की हित की बातें नहीं सुनते यदि हम प्रभावी और ताक़तवर नहीं हैं तो।

आचार्य: बहुत सतर्कता रखने की ज़रूरत है। कह रहे हैं कि अगर प्रेम है किसी से, और उसका भी कुछ भला वगैरह करना हो तो उसके लिए भी अपने पास सामाजिक प्रतिष्ठा, कुछ रुतबा होना चाहिए। नहीं तो भले ही वो आदमी अपना हो, अगर आप भिखारी हों, दो कौड़ी के हो, तो वो भी नहीं सुनता। अपने ही घर वाले यहाँ तक कि अपने ही जो सबसे निकट के माँ-बाप होते हैं, पति-पत्नी होते हैं, बच्चे, दोस्त-यार यही गुनना बंद कर देते हैं, सम्मान देना बंद कर देते हैं अगर आदमी बिलकुल ही शक्तिहीन नज़र आए।

हाँ ठीक है, आपकी बात में यहाँ पर दम है। अब इसके आगे कह रहे हैं कि, "लेकिन अगर मुझे उनसे प्रेम हो और मुझे उनके भले के लिए कुछ करना हो तो क्या करूँ? किसी का भला करने के लिए भी तो ताक़त चाहिए।" तो मैंने कहा – बहुत सतर्कता की ज़रूरत है। सबसे पहले अपने-आपसे पूछना पड़ेगा कि ये जो ताक़त आप माँग रहे हैं ये वाकई दूसरे का भला करने के लिए माँग रहे हैं या दूसरे पर हुकूमत करने के लिए माँग रहे हैं।

कह रहे हैं कि, "देखो ये जो दूसरा है जो मेरे घर में है", कोई भी हो सकता है भाई-बहन हो सकता है, माँ-बाप कुछ भी, कोई भी, मान लीजिए पत्नी है, "उसको मैं कुछ बात समझाना चाहता हूँ पर वो मेरी बात सुनती ही नहीं।" क्यों नहीं सुनती? "क्योंकि मेरे पास रुपए-पैसे की या समाज में प्रतिष्ठा की, शोहरत की ताक़त नहीं है।" नतीजा ये हुआ है कि मेरे घर के लोग ही मेरी बात नहीं सुनते। तो मैं कह रहा हूँ – बहुत सावधान रहिए। अगर वाकई किसी पारमार्थिक काम के लिए, वाकई किसी दूसरे के भले के लिए आप ताक़त इकट्ठा करना चाहते हैं तो एक चीज़ है। और दूसरे ने आपको इज़्जत नहीं दी इस बात से आहत हो करके आप ताक़त इकट्ठा करना चाहते हैं तो ये ताक़त आप दूसरे के भले के लिए नहीं इकट्ठा कर रहे, ये ताक़त आप दूसरे पर आधिपत्य करने के लिए इकट्ठा कर रहे हैं।

आधिपत्य समझते हो? अधिकार जमाना, हक़ कर लेना किसी के ऊपर। लेकिन हम इतनी आसानी से मानेंगे नहीं कि हम दूसरे पर शासन करने के, दूसरे पर चढ़ बैठने के इच्छुक हैं। तो हम कहेंगे – देखो, मैं ताक़त इकट्ठा कर रहा हूँ ताकि हम दूसरे का हित कर पाएँ।

ये तो अब आपका दिल ही जानता है कि हित करना चाहते हैं या हुकूमत करना चाहते हैं। और बड़ी-से-बड़ी हुकूमतें दूसरों के ऊपर दूसरों का हित करने के नाम पर ही होती हैं।

किसी देश में चले जाओ जहाँ तानाशाही चलती हो, वहाँ का जो तानाशाह होगा वो क्या कहेगा? आप उससे पूछो कि तुमने इस देश की सारी सत्ता क्यों हथिया ली? तो तुरंत क्या जवाब देगा? "भाई! इस देश का हित करने के लिए। यहाँ बड़ी गड़बड़ थी। अगर सारा शासन, सारी ताक़त मैं अपने हाथ में नहीं लेता तो देश बर्बाद हो रहा था तो इसलिए मैंने यहाँ पर तख़्ता पलट कर दिया, रातों-रात और सत्ता हथिया ली।" बात समझ रहे हो?

मैं इस बात से नहीं इंकार कर रहा हूँ कि कई बार बल की आवश्यकता होती है लेकिन बल के आग्रही जल्दी मत बन जाना। निन्यानवे प्रतिशत लोग जो बल के आतुर होते हैं, जो बल के पीछे भागते हैं, जिन्हें ताक़त चाहिए, हैसियत चाहिए, सत्ता चाहिए, उन्हें ख़ुद नहीं पता होता कि उनके वास्तविक मंसूबे कितने काले हैं।

कौन कहेगा कि वो वास्तव में पैसा-रूपया या प्रतिष्ठा इसलिए कमा रहा है क्योंकि वो दुनिया से खार खाए बैठा है या दुनिया से डरा हुआ है और उसे ताक़त इकट्ठा करने के बाद दुनिया को मज़ा चखाना है या दुनिया को सज़ा देनी है, ये कौन मानेगा? मानेगा कोई नहीं। पर अगर बहुत ईमानदारी से और बहुत ग़ौर से अपने इरादों में आप झाँकेंगे तो हो सकता है कि ऐसी ही नियत पाएँ। इससे बचकर रहिएगा।

अब आते हैं वो जो शेष एक प्रतिशत मामले होते हैं, जिनमें ताक़त आवश्यक होती है वास्तव में किसी का हित करने के लिए, परमार्थ के लिए। स्वार्थ के लिए नहीं परहित के लिए, परमार्थ के लिए। उस समय ये याद रखिएगा कि बाहरी ताक़त इकट्ठा करने से पहले आत्मिक ताक़त या आत्मबल का होना बहुत आवश्यक है। दूसरे का कल्याण करने के लिए सबसे पहले आपको ऐसा होना चाहिए जो अपना कल्याण करने की क्षमता रखता हो। दूसरे को आप सहारा दे सकें उससे पहले आप को मजबूत होना चाहिए, या नहीं? तो सर्वप्रथम आप में आत्मबल होना चाहिए। बाहरी बल नहीं, रुपए-पैसे वाली सत्ता नहीं, प्रतिष्ठा वाली ताक़त नहीं, सामाजिक रौब-रुतबा नहीं। ये सब बाद में आते हो तो आएँ, सबसे पहले आत्मबल।

और आत्मबल क्या होता है समझाइएगा ग़ौर से। आत्मबल होता है स्पष्टता के केंद्र से संचालित आपकी जीवन ऊर्जा का बहाव। क्या बात हुई ये? आत्मबल का मतलब है कि आप जब जान जाते हैं, बिलकुल आपको स्पष्ट हो जाता है कि कोई काम होना ही चाहिए या कोई काम बिलकुल नहीं होना चाहिए, उसके बाद आप अंजाम की परवाह ना करते हुए, फल की इच्छा ना करते हुए अपनी सारी ऊर्जा को निर्विकल्प भाव से उस काम में झोंक देते हैं – ये आत्मबल है। बात समझ रहे हैं? ये आत्मबल है।

आत्मबल की ख़ासियत ये होती है कि उसमें आपको कोई निश्चित अनुमान नहीं होता परिणाम का। कोई आपसे पूछे कि, "आप जो कर रहे हो इससे क्या मिलेगा, जीत या हार?" कोई आपसे पूछे कि, "आप जो कर रहे हो इसके परिणाम कब तक आ जाएँगे? और कैसे आएँगे?" तो आप साफ-साफ बता नहीं पाओगे। लेकिन फिर भी उस काम को करने के लिए आपकी ऊर्जा बिलकुल ललक रही होगी।

बिना ये जाने कि इस काम में आगे होने क्या वाला है, अपना हश्र, अपना अंजाम, क्या मिलेगा परिणाम कुछ पता नहीं। लेकिन आप फिर भी बिना कुछ जाने भी इतना बहुत साफ-साफ, बहुत स्पष्ट जानेंगे कि ये काम होना चाहिए। कैसे होगा, कब होगा, हम नहीं जानते पर हमारे सामने अब कोई विकल्प नहीं है, हमें इसी काम में लगना पड़ेगा – ये आत्मबल है।

आत्मबल मनोबल से बहुत-बहुत ऊँची बात है। मनोबल हमेशा अवलंबित होता है, आश्रित होता है परिणाम के लालच पर। मन बिना परिणाम का अनुमान लगाए कुछ कर ही नहीं सकता। उसमें कोई ललक, कोई प्रेरणा ही नहीं उठेगी आगे बढ़ने की जब तक उसके सामने कोई दृश्य, कोई छवि, कोई चित्र, कोई लालच, कोई लक्ष्य ना रख दिया जाए। और बड़ा लक्ष्य रख दो, और बड़ा आकर्षक, लुभावना लक्ष्य रख दो फिर देखो कि मनोबल कैसे बढ़ता है।

कोई आकर के दो-चार हौंसला बढ़ाने वाली बातें कर दे कि डरो नहीं, तुम जीत कर रहोगे, फिर देखो मनोबल कैसे बढ़ता है। आत्मबल इस बात पर ग़ौर करता ही नहीं कि जीत के रहेंगे या हार के मरेंगे। आत्मबल इस बात पर बिलकुल ग़ौर करता नहीं। तो दूसरे का भला करने के लिए मैं कह रहा हूँ सबसे पहले कौन सा बल चाहिए? आत्मबल।

अब एक मज़ेदार घटना घटती है बहुत बार, ज़रूरी नहीं है कि घटे लेकिन बहुत बार घटती है। वो ये है कि अगर आत्मबल है आपके पास तो फिर अपने कार्य के निष्पादन के लिए, जो काम आप कर रहे हो उसको निपटाने के लिए जो बाहरी तरीके का बल चाहिए, धनबल, जनबल, बाहुबल वो अपने-आप आ जाता है। आत्मबल अगर है तो जो बाहरी किस्म का सांसारिक बल चाहिए वो फिर अपने-आप आ जाता है।

लेकिन वो आपकी अपेक्षा अनुसार नहीं आता। आपने हो सकता है पैसा माँगा हो, पैसे की जगह आपको चार साथी मिल जाएँ। आपकी मनोकामना पर आश्रित नहीं होगा जो आपको मिलेगा। पर मिल ज़रूर कुछ-न-कुछ ऐसा जाएगा जो आपके काम के पूरे होने में आपकी मदद करेगा, जो आपके काम के पूरे होने के लिए आवश्यक होगा। मिल ज़रूर जाएगा। समझ में आ रही बात?

तो कुल मिलाकर हमने क्या बात कही? पहली बात तो हमने ये कही कि अगर पता ही है कि दुनिया मूरख है तो मूरख की बातों का बुरा क्यों मानते हो? एक तरफ तो किसी को कहो कि, "वो देखो सड़क पर पगला चला जा रहा है।" उसके बाद छाती पीट-पीटकर रोओ कि, "पगले ने हमको गाली दे दी।" तो मैं कहूँगा – एक नहीं, कितने पगले हैं? दो। ख़ुद ही कह रहे हो कि वो पगला है और फिर जब वह तुम्हारा सम्मान नहीं कर रहा तो परेशान हो रहे हो, ये क्या बात है भाई? ये पहली बात कही।

फिर हमने दूसरी बात कही कि अगर सही में तुम्हें इमानदारी से दूसरे का हित करना है तो बहुत सतर्कता से अपने-आपसे सवाल पूछो कि दूसरे का हित करना है या हुकूमत करनी है। अगर असली इरादा हित से ज़्यादा हुकूमत करने का है तो सतर्क हो जाओ ये तुम अपने लिए ही गड्ढा खोद रहे हो।

फिर आगे बढ़े, हमने कहा – अब मान लो सही में, वास्तव में तुम कोई सच्चे ही आदमी हो और तुम चाहते ही हो कि जन-कल्याण हो जाए या कम-से-कम किसी एक का भला हो जाए तो? तो फिर हमने आत्मबल की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। बाकी ताक़तें पीछे-पीछे आती हैं आत्मबल के। तुम निकल पड़ते हो, कारवाँ बढ़ता जाता है।

तुम्हारे पास पहले से ही कोई तयशुदा योजना नहीं होती। कोई तुमसे पूछे – बताइए-बताइए अगले तीन वर्ष की आप की क्या योजना है, कुछ ब्लूप्रिंट , कुछ प्लान है, दिखाइए? आप कहेंगे – "ये सब हम नहीं जानते। हाँ अगले हफ्ते का कुछ पूछ लो तो हमारे पास कुछ छोटी-मोटी योजना है। हाँ, 'महीने-दो महीनें का भी हम आपको कुछ बता सकते हैं पर बहुत आगे की हमने सोची ही नहीं है।" इतनी हमारे पास सूचना नहीं है, सामग्री नहीं है कि बहुत आगे की सोच सकें। हमने तो छलाँग मार दी है और भरोसा हमें ये नहीं है कि हम गिरेंगे नहीं, भरोसा हमें ये भी नहीं है कि हम अगर गिरेंगे तो हमें चोट नहीं लगेगी; भरोसा हमें ये है कि गिरे, कि टूटें; छलाँग तो मारना ज़रूरी है। चोट भी लगेगी, मौत भी आ सकती है, पूरा खात्मा हो सकता है लेकिन इतना जानते हैं कि ये काम ज़रूरी है। ऐसे ही जीना होगा। परिणाम का हमें बिलकुल कोई भरोसा नहीं है लेकिन इतना भरोसा है पूरा कि हमारे पास अब कोई विकल्प नहीं है, कोई रास्ता नहीं बचा। हमें नहीं पता क्या होगा। पर अब तो एक ही मार्ग शेष है – ये आत्मबल है।

आत्मबल बिलकुल आश्रित नहीं होता परिस्थितियों पर। आत्मबल ये नहीं कहता कि, "जब सही मौसम आएगा तब फूल खिलेंगे।" आत्मबल ये नहीं कहता कि, "समाज की ओर देखो, संसार की ओर देखो, ये इकट्ठा करो, वो इकट्ठा करो।"

आत्मबल ऐसा है जैसे रौशनी। कितना भी घना हो अंधेरा, रौशनी उसका सम्मान थोड़े ही करती है, या करती है? आत्मबल भी इसी तरह से घुप्प, घनघोर, मीलों तक, योजनों तक फैले हुए अंधेरे का भी सम्मान नहीं करता, भले ही वो जो रौशनी है वो एक दिए की टिमटिमाहट के बराबरी ही क्यों न हो। दीया भी देखा है कैसी उद्दंडता से खड़ा रहता है। दूर-दूर तक कहीं कुछ ना हो, अमावस की रात हो और वो भी बदराई, कि तारों की रौशनी भी ना आती हो, सब कुछ बिलकुल स्याह काला, तो भी दिये की अकड़ देखो। कोई वो अंधेरे को हमेशा के लिए हरा थोड़े ही देता है, कि हरा देता है? अंजाम हम सबको पता है, क्या होगा थोड़ी ही देर में। क्या होगा? दिया बुझ जाएगा, अंधेरा फिर काबिज हो जाएगा। पर दिया बिलकुल मस्त है, बिंदास। ये आत्मबल है।

हम जो हैं हमारे पास रौशन होने के अलावा चारा क्या है – ये आत्मबल है। मैं दिया हूँ, मैं प्रकाश नहीं फैलाऊँगा तो और करूँगा क्या? रौशनी के बिना मेरी हस्ती क्या – ये आत्मबल है।

मैं दिया हूँ, मेरा इस्तेमाल क्या कुँए से पानी भरने के लिए करोगे? मैं दिया हूँ, मुझे क्या हवाई जहाज़ बनाओगे? मैं निर्विकल्प हूँ, मेरे पास और कोई रास्ता नहीं है। मेरा स्वभाव है प्रकाशित होना, मैं और करूँ क्या – ये आत्मबल है। और अगर जल नहीं सकते तो मिट जाएँगे। मिट्टी का दिया है, नहीं जलेगा तो मिट्टी ही हो जाएगा। वो कहता है – मिट्टी तो मैं हूँ ही, कुछ दिनों के लिए मिट्टी से उठा हूँ, कुछ दिनों के लिए मौका मिला है रौशन हो जाने का, रौशन हो लेता हूँ इससे पहले कि पुनः मिट्टी हो जाऊँ।

नहीं तो बड़ा अफसोस रहेगा कि मिट्टी से उठे फिर मिट्टी हो गए और जीवन भर भी मिट्टी ही रहे। इससे भला तो ये होता कि मिट्टी से कभी उठते ही नहीं। मिट्टी से ही उठे, मिट्टी ही हो गए और पूरा जीवन कैसे गुज़ारा? मिट्टी-मिट्टी, टट्टी-टट्टी; इससे भला क्या होता? जन्म ही ना लेते। पहले भी मिट्टी, बाद में भी मिट्टी और अगर बीच में भी मिट्टी-ही-मिट्टी रहनी है – मिट्टी माने संसार, मिट्टी माने पदार्थ – अगर जीवन भर भी मिट्टी-ही-मिट्टी रहनी है तो भैया पैदा काहे को हुए?

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