आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
सामान लौटाओ, चैन से सोओ

आचार्य प्रशांत: कोई ऐसा नहीं है जो समाप्त हो जाना चाहता हो। बड़ी अजीब बात है ये; कोई आयु हो, कोई वर्ण हो, कोई रंग हो, कोई लिंग हो, कोई देश हो, कोई काल हो - जैसे हम सब के भीतर बने रहने की एक निरंतर अभीप्सा रहती है। कोई बात तो होगी? बात ये है कि मिट जाना हमारा नैसर्गिक स्वभाव है ही नहीं। मिट जाना एक झूठ है जो हमें प्रतीत होने लग जाता है। उस झूठ का कोई मेल नहीं बैठता, हमारी आत्मा से तो फिर भीतर एक खलबलाहट उठती है।

मौत इसीलिए किसी को भाती नहीं। मौत वास्तव में इसलिए नहीं भाती क्योंकि मौत एक असंभावना है। मौत घटित हो नहीं सकती लेकिन लग ऐसा रहा है कि मौत आ रही है। ये जो असमायोजन है, ये जो बेमेल घटना है, जो अनहोनी है, ये हमको विचलित कर जाती है। भीतर ही भीतर हम जानते हैं कि मिट तो हम सकते नहीं, लेकिन बाहर-बाहर जो कुछ है वो हमको पूरे तरीके से यही प्रमाणित कर रहा है कि तुम तो मिटोगे। अब भीतर वाले की बात झुठलाई नहीं जा सकती और बाहर वाले की बात अनसुनी नहीं की जा सकती। हम फँस जाते हैं। भीतर एक घर्षण शुरू हो जाता है। इसीलिए मौत इतना बड़ा मुद्दा है हमारे लिए।

जब तक जगत से संबंधित कर रखी है तुमने अपनी केंद्रीय मूल आत्यंतिक हस्ती, तब तक तुम मिट जाने के, मौत के भय में ही जियोगे। मृत्यु के पार जाने का सिर्फ एक तरीका है कि तुम उन सब चीजों की अनित्यता देख लो, अनात्मिकता देख लो, जो इस जगत की हैं।

खेल है जगत, एक चक्र है जगत, बच्चों का खिलौना जैसे एक लट्टू है जगत। बच्चा उठाता है उसे ज़मीन से घुमा देता है, फिरने लगता है लट्टू; या कोई फिरकी है जगत। कितनी देर तक अपनी धुरी पर नाचेगा लट्टू? एक समय आएगा जब गिर ही जाएगा। जब तक नाच रहा है लट्टू, ताली बजा कर हँस लो। पर ये उम्मीद क्यों कि नाचता ही रहेगा लट्टू? लट्टू के नाचने को आधार बनाकर तुमने एक दुनिया रचा ली। तुमने जैसे लट्टू पर घर ही बना लिया। थोड़ी देर में लट्टू लुढ़क जाएगा, साथ में घर भी। इसका क्या अर्थ है? कोई रिश्ता ही न रखें दुनिया से? नहीं, वही रिश्ता रखो जो बच्चा लट्टू के साथ रखता है। जब तक खिलौना है, खेल लो। लेकिन पता रहे कि खिलौना है और पता रहे कि सदा तुम्हें बच्चा नहीं रहना है। अभी बच्चे हो, खिलौना मन बहलाव के लिए है।

तुम्हें आगे जाना है, तुम्हें बड़ा होना है, तुम्हें विशाल वृहद होना है, तुम्हें ब्रह्म ही हो जाना है। तुम्हें खिलौनों से ऊपर उठ जाना है। खिलौनों में कोई बुराई नहीं, पर खिलौनों से ही खेलते रह जाने में जीवन की व्यर्थता जरूर है। कोई बच्चा खिलौने से खेल रहा हो, सुंदर लगता है। मीठी बात है, बच्चा खिलौने से खेल रहा है। और 20 साल बाद आप आए वो अभी भी खिलौने से ही खेल रहा है। और इतना ही नहीं उसने अपने खिलौने को खूब सजा लिया है। खिलौने को बड़ा कर लिया है। अपने आकार के अनुपात में एक बहुत बड़ा लट्टू ले आया है या लट्टूओं की पूरी एक फ़ौज खड़ी कर ली है। तो ये बात न मीठी है, न प्यारी है, ये बात तो विक्षिप्तता का द्योतक है। समझ में आ रही है बात?

आगे बढ़ना है, अतिक्रमण कर जाना है, लाँघ जाना है। वो सब कुछ जो तुम्हें अभी तक प्रतीत होता रहा है वो सिर्फ इसलिए है ताकि उसका उपयोग करके आगे बढ़ सको। वो इसलिए नहीं है कि तुम उसी के साथ अपनी एक शाश्वत पहचान बना लो।

समझ में आ रही है बात?

मृत्यु उन्हीं को आती है जो समय का सदुपयोग नहीं करते।

ये जो समय है न, जो मार देता है, इस समय में ही अमरता के द्वार भी हैं। उन द्वारों को लेकिन तुम्हें ठीक मौके पर खोल देना होगा। मौत, काल, समय पर्याय होते हैं एक दूसरे के। पर इसी काल में अमृत की कुंजी भी है। अब काल को भयानक मान लो डरावना या काल को अपना सहायक मान लो; है तो काल तुम्हारी सहायता के लिए ही।

तुम उसको व्यर्थ जाने दो, तुम निरर्थक कामों में काल को गुजार दो, तो ये तुम्हारा चुनाव है। हम जीते हैं ऐसे हैं जैसे मौत के सामने घुटने टेक चुके हैं। हमने तो जैसे आशा भी छोड़ दी है। हमने मान ही लिया है कि खत्म तो हमें हो ही जाना है। और इस धारणा, इस भ्रांतिपूर्ण धारणा के ऊपर फिर हम अपने कर्मों का, अपने इरादों का, अपने संबंधों का, अपने जीवन का पूरा महल खड़ा करते हैं। एक महल की बुनियाद में जो धारणा है वही भ्रांतिपूर्ण है तो यह महल स्थाई और स्थिर कैसे हो सकता है?

बात समझ रहे हो?

हमारी हालत ऐसी है जैसे किसी किले को, किसी गढ़ को लगे कि दुश्मन ने घेर लिया चारों तरफ से और अब हार पक्की है; हार पक्की है। तुम्हारा एक किला है जिसको किसी बहुत ताकतवर शत्रु ने चारों तरफ से घेर लिया है और तुम्हें भरोसा हो गया है कि बच तो सकते नहीं, हाँ कुछ समय बाद हार होगी। क्योंकि दुर्ग की दीवारें ऊँची है। कुछ सुरक्षा व्यवस्था भी है। तो दुश्मन आकर के तुम पर विजय करेगा, तुम्हें मार ही देगा, इसमें थोड़ा समय लगेगा। तो उस समय को तुम मुझे बताओ कैसे व्यतीत करोगे?

जब तुमने धारणा ये बना ही ली है कि दुर्ग के बाहर दुश्मन है, जो तुम्हारे अस्तित्व को ही समाप्त कर देगा तो अब क्या तुम इस दुर्ग के भीतर जो तुम्हारा समय है उसको आनंद में, उल्लास में, बोध में ,प्रकाश में बिताओगे? क्या रहेगी तुम्हारी मनोस्थिति? तुम निरंतर घबराए हुए रहोगे हो। हो सकता है कि तुमने गणित किया हो कि दुश्मन को दुर्ग फतह करने में अभी चार महीने लग जाएंगे। हो सकता है आकलन ये भी हो कि चार साल लग जाएंगे। तुम्हें पता है तुम्हारे पास अभी सालों बाकी है। लेकिन फिर भी भीतर ही भीतर कैसे रहोगे? लगातार बेचैन।

मस्त हो करके सो पाओगे क्या?

दीवार के पार काल खड़ा हुआ है, हाथ में तलवार लेकर के नंगी और तुम्हें पता है कि तुम्हारी सुरक्षा का कोई उपाय नहीं। आज नहीं तो कल वो आएगा ही, तुम पर चढ़ बैठेगा और तुम्हें पूरा मिटा देगा। ऐसे जीता है ये पूरा संसार; ऐसे जीता है आम आदमी। वो घुटने ही टेक चुका है। इस बात से तो हम जैसे पूरी तरह सहमत हो ही चुके हैं कि कीड़े-मकोड़ों जैसी हस्ती है हमारी।

बरसाती कीड़े देखें हैं? क्या हस्ती होती है बेचारों की? उनमें से कई तो ऐसे होते हैं जिनका कुल जीवन काल ही मात्र कुछ घंटों का होता है। जानते हो? वो संध्या समय अंडों से बाहर आते हैं और अगली सुबह होने से पहले उनका अंत हो जाता है। उनको तो फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि उनकी चेतना किसी भी प्रकार की ऊँचाई के लिए लालायित ही नहीं है। वह तो प्रकृति मात्र हैं उनके लिए वो आठ घंटे का समय ही पर्याप्त है। पर जब मनुष्य कीड़े-मकोड़ों सा जीवन जीने लग जाता है तो उस जीवन से ज़्यादा विकृत और वीभत्स कुछ होता नहीं।

अब किले के भीतर तुम्हारे पास मान लो कई महीनों का, सालों का समय है। इन महीनों में, सालों में बीच में होली-दीवाली भी आएंगे। तो ऐसा तो नहीं कि तुम त्यौहार मनाओगे नहीं, मनाओगे तो; ऊपर-ऊपर उत्सव रहेगा अंदर-अंदर शोक। भले ही जैसे एक आपसी समझौता हो और कोई किसी दूसरे से शोक की बात न कर रहा हो लेकिन आँखों में डर की डोर सारी कहानी बयान कर देगी। ऊपर-ऊपर सब चल रहा है; शादी विवाह भी चल रहा है। अब एक लड़का एक लड़की दुर्ग के भीतर एक-दूसरे से आकर्षित थे, तय किया गया कि चलो भाई इनका ब्याह कर दो। ब्याह भी चल रहा है और ब्याह में नाच-गाना भी चल रहा है। ढोलक बज रही है, ढोल बज रहा है, बांसुरी, शहनाई सब बज रहे हैं। भीतर ही भीतर मातमी धुन! ऐसा है ये संसार।

और संसारी ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने-आपको संसार से ही प्रजात मानते हैं। हम अपने-आप को मृत्यु-धर्मा मानते हैं। जो अपने-आप को मृत्यु-धर्मा मान लेगा, वो जियेगा भी ऐसे जैसे मरा हुआ है। ऊपर-ऊपर से जी रहे हैं, अंदर-अंदर मरे हुए हैं।

जैसे कि प्राणघातक बीमारी का कोई मरीज़, जिसको बहुत अल्पायु में ही सूचना दे दी गई है कि तुम ज़्यादा जियोगे नहीं। तुम्हारे पास पाँच साल और हैं बस। अब वो पाँच साल जियेगा तो ऊपर-ऊपर से हो सकता है कि वो सामान्य दिखने का प्रदर्शन भी करें, भीतर-भीतर सहमा हुआ है, आशंकित है। एक आँख से वैभव को देख रहा है, उत्सव को देख रहा है। कामना के तमाम विषयों को देख रहा है और दूसरी आँख से वो दुर्ग के बाहर जो दुश्मन का परचम लहरा रहा है उसको देख रहा है। ये आदमी पूरे तरीके से सुख को भी कहा भोग पाएगा। इसकी एक नज़र तो मृत्यु पर है। हम सब ऐसे ही हैं।

लेकिन जब एक पूरे समाज के साथ, पूरी पृथ्वी के साथ ये स्थिति बन जाती है, तो थोड़ी देर पहले जैसा कहा गया, एक मूक समझौता कर लेते हैं सब आपस में, वो क्या होता है? कोई मौत का नाम नहीं लेगा। दुश्मन बाहर है, अब यह बात तो सर्वविदित है कि हम सबको मारा जाना है। पर हम इतना डर गए हैं कि हम उसकी चर्चा भी नहीं कर सकते। चर्चा करने का लाभ भी तब होता जब चर्चा करने से दुश्मन को परास्त करने की, मौत के पार जाने की कोई विधि निकलती, कोई संभावना बनती। पर बात करके क्या करेंगे?

हमने बिल्कुल आशा तोड़ दी है। हमने बिल्कुल सर झुका दिया, हमने बिल्कुल घुटने टेक दिए हैं। ऊपर-ऊपर से हम कितने भी जांबाज़ बनते रहें, दिल खुश बनते रहें, दिलदार बनते रहें, स्फूर्तिमान दिखे, उमंगित दिखे, प्रफुल्लित प्रमुदित दिखे, भीतर ही भीतर धारणा यही है कि मैं इधर से आया था इधर को चला जाऊँगा। इस धारणा के साथ कौन आनंदित रह सकता है? इस धारणा के साथ कैसा जीवन? बात समझ में आ रही है?

इसलिए उपनिषद हमारी इस धारणा को बहुत ज़ोर से झकझोर देना चाहते हैं। कह रहे हैं - “तुम क्यों मानते हो कि तुम मात्र प्रकृति का उत्पाद हो। शरीरों की, भूतों की निर्मित्ति हो। तुममें ऐसा क्या डर बैठ गया है कि तुम अपने भीतर के दैवीयता को और चेतना को अपनी पहली पहचान नहीं मान सकते?” और जितना, याद रखो, तुम अपने आप को भौतिक उत्पत्ति मानोगे उतना ज़्यादा भौतिक वस्तुओं के प्रति तुम्हारा आकर्षण भी रहेगा और उन पर निर्भरता भी। क्योंकि भौतिक संसार का तो नियम ही यही है। कोई भी मुझे भौतिक वस्तु दिखा दो जो दूसरी वस्तुओं पर निर्भर न करती हो, दिखा दो? ये तौलिया कहाँ रखा है? (तौलिया दिखाते हुए)

प्रश्नकर्ता: चादर पर।

आचार्य: चादर कहाँ रखी है?

प्र: मेज़ पर।

आचार्य: मेज़ कहाँ रखी है? मंच पर। मंच कहाँ पर है? फर्श पर। फर्श किस पर है? धरती पर। धरती किसके गिर्द घूम रही है?

प्र: सूर्य के।

आचार्य: सूर्य को उसके स्थान पर, उसकी कक्षा में कौन रखे हुए हैं? बाकी सब तारे। यहाँ कुछ भी है, जो अनाश्रित हो? यहाँ कुछ भी है, जो अपनी सत्ता से मुक्त घूमता हो? किसी की अपनी कोई सत्ता ही नहीं है यहाँ। किसी को कोई मुक्ति ही नहीं है यहाँ। तुमने भी अपने-आपको ऐसा ही मान लिया तौलिया जैसा तो तुम भी क्या हो गये? एक के नहीं, सब के गुलाम। ये तौलिया सिर्फ इस चादर पर ही आश्रित थोड़े ही है, श्रृंखला लंबी है। तुमने भी अगर अपने-आपको इसी की तरह है पार्थिव मान लिया तो तुम भी हर एक पर निर्भर हो गए। देखो अपनी गुलामी, क्या करोगे?

इसीलिए तो हम इतनी आशंका में जीते हैं। दुनिया में कहीं कुछ भी हो रहा हमारे कान खड़े हो जाते हैं। बात समझ में आ रही है? क्योंकि तुम हर चीज़ पर आश्रित हो। दुनिया में कहीं भी कुछ भी अगर ज़रा सा अपनी जगह से विस्थापित हुआ तो उससे तुम्हारी भलाई पर आँच आ जाती है। अब कहने को तो ये तौलिया रखा हुआ है चादर पर, पर अगर भूकंप आ जाए तो तौलिया की हालत खराब होगी कि नहीं होगी? तौलिया क्या कह सकता है कि मैं तो सिर्फ निर्भर हूँ चादर पर? नहीं। समझ रहे हो?

इसी तरीके से कोई उल्कापिंड आकर के पृथ्वी से टकरा जाए, तो इस तौलिये की हालत खराब होगी कि नहीं होगी? सूर्य की सतह से भी ऊष्मा की बड़ी-बड़ी लपटें उठती हैं, उनमें तापमान भी होता है और उनका अपना एक चुंबकीय क्षेत्र भी होता है, सोलरफ्लेयर्स होते हैं। वो भी जब हो जाते हैं तो पृथ्वी की सेहत पर असर पड़ने लग जाता है। अब देखो बेचारे तौलिये की मजबूरी! इस पूरे ब्रह्मांड में कहीं कुछ भी हो रहा हो, इसकी जान पर आफ़त आ जाती है। हमने भी अपने-आपको बना रखा है इस तौलिये जैसा। तो बताओ अब तुम चैन की नींद कैसे सोओगे? दुनिया में कहीं कुछ भी हो रहा होगा तुम्हारा दिल धक से रह जाएगा।

बाहर खरगोशों को देखा है न? इधर वाला (एक तरफ इशारा करते हुए) किवाड़ खोलते हो, वो खरगोश क्या करते हैं? भाग जाते हैं (हाथ से इशारा करते हुए)। उधर वाला किवाड़ खोलते हो वो खरगोश फिर क्या करते हैं? भाग जाते हैं (हाथ से इशारा करते हुए)। जबकि उनको पूरी सुरक्षा से उनके घर में रखा हुआ। दीवार के पार भी कोई बिल्ली कर देती है म्याऊँ, तो खरगोश क्या करते हैं? फिर एक कान नहीं, दोनों कान खड़े कर लेते हैं (हाथ से इशारा करते हुए)। ऐसी हमारी हालत है।

अब समझ में आ रहा है कि बहुत सारे लोग समाचार-पत्र इतना क्यों चाटते हैं? क्योंकि कनाडा में भी किसी बिल्ली ने म्याऊँ कर दी तो यहाँ के खरगोश की सेहत पर असर पड़ेगा। हम इतने आश्रित हैं। इसमें कुछ मज़ा नहीं है! उपनिषद तो आनंद के पुजारी हैं। ये सारा उपक्रम ही किस लिए किया जा रहा है? आनंद के लिए। इसमें क्या आनंद है? निर्भरता, पराश्रियता।

तो बड़ा नायाब रास्ता निकाला गया है। कहा है, एक काम करते हैं; ये सब जो दूसरों पर निर्भर ही रहता है इसका विसर्जन ही कर देते हैं। इससे नाता ही ज़रा दूर का ही रखते हैं। समझ में आ रही बात?

जैसे कि तुमने किसी एक कपड़े ले रखे हो; ठीक है? तुम कपड़े पहन के सो रहे थे और तुमको उसने बोला हुआ है कि कभी भी आऊँगा और जो कुछ मेरा है वो लेकर जाऊँगा। और तुम उसके कपड़े पहन के सो रहे हो और ज़रा से खटके पर नींद जाती है उचट। तो अगर तुममें सत्य और आनंद के प्रति जरा भी अनुराग है तो तुम क्या करोगे? तुम कहोगे कि होंगे बड़े शानदार, बड़े महंगे कपड़े, अज़ी हम नंगे ही भले। तुम सारे कपड़े उतार दोगे और वहाँ द्वार के पास रख दोगे, फेंक नहीं आओगे बस उससे ज़रा दूरी बना लोगे। और कपड़ों पर एक ज़रा सी पर्ची रख दोगे कि भैया! भैंसे वाले भैया! आना चुपचाप ये वस्त्र हैं तुम्हारे, इनको उठा ले जाना। हम मौज की नींद में है, हमारी नींद में खलल मत डालना। जो तुम्हारा है उस पर तुम्हारा अधिकार है, ले जाना लेकिन जो तुम्हारा है उससे हमने ज़रा दूर का रिश्ता कर लिया। हम अंदर वाले कमरे में हैं, जिसको उपनिषद कहते हैं – हृदय की गुहा। हम अपने अंदर वाले कमरे में सो रहे हैं। कपड़े हमने जरा दूर रख लिए, तुम जब आना कपड़े लेकर चले जाना। हमें परेशान मत करना। तुम्हारे कपड़े अगर हम पहने हुए हैं तो सो नहीं पाएंगे और सोना हमें बहुत प्रिय है। सारा खेल ही विश्रामों का है। अगर विश्रांति नहीं मिली तो जी किसलिए रहे हैं?

बात समझ में आ रही है?

ये सही रिश्ता है तुम्हारा और जगत के बीच का; दो हाथ की दूरी बनाकर रखो। त्याग का माने ये नहीं होता कि कपड़े फेंक आए, फेंक कहाँ आओगे? ज़रा दूरी बना लो। इतनी दूरी बना लो कि वो जब कपड़े ले जा रहा हूँ तो तुम्हारी नींद न ख़राब हो। वो आया, कपड़े ले गया तुम मस्त सोते रहे। या ये चाहते हो कि नींद भी कच्ची रहे और जब वो आए तो तुम्हें झकझोर कर उठाए और थप्पड़ मार के नंगा करें? इससे अच्छा खुद ही नंगे हो जाओ ना। पर हममें से ज़्यादातर लोग ऐसे ही जीते हैं। जब जी रहे होते हैं तो चैन नहीं कि कोई कपड़े उतार ले जाएगा और कपड़े उतारने वाला जब आता है तो हम कपड़े ऐसे (दोनों हाथों को छाती से लगाकर इशारा करते हुए) सहेज के पकड़ लेते हैं कि नहीं नहीं नहीं! ये मेरे कपड़े थोड़े ही है, ये तो मैं ही हूँ। ये कोई बाहरी परिधान भर थोड़ी है, ये तो मैं ही हूँ। इसे ले मत जाना, इसे ले मत जाना। अब वो काहे को छोड़ेगा अपना माल। वो लगाता एक सीधे हाथ का, एक उल्टे हाथ का; नंगे हुए तो हुए बेईज्ज़ती और हुई। ऐसे जीते हैं और ऐसे ही मरते हैं।

कोई फायदा?

उपनिषद कह रहे हैं अपनी गरिमा वापस पाओ। तुम ऊँची से ऊँची गरिमा के अधिकारी हो। तुमसे ज़्यादा सम्मान का कोई पात्र नहीं। मंदिरों में जिन मूर्तियों के सामने तुम सर झुकाते हो, वो आदर तुम वास्तव में अपनी ही आंतरिक संभावना को दे रहे हो और अगर तुमने देवताओं को और ईश्वर को आदर दिया और अपनी ही संभावना के प्रति बेहोश रहें तो फिर तुम सारे मंदिर व्यर्थ ही गए।

बात समझ में आ रही है?

उपनिषदों के प्रति अगर तुम सम्मान भाव से भरे रहे और अपने जीवन के प्रति तुममें कोई सम्मान नहीं, तुम्हारा जीवन ऐसे ही बीत रहा है; लतियाए जा रहे हो, गरियाए जा रहे हो। कभी भैंसे वाला, कभी बकरी वाला, कभी बिल्ली वाला, कभी गधा वाला; जो आ रहा है वही तुमको दो लत्ती लगा रहा है तो क्या ख़ाक जी रहे हो।

उपनिषद बार-बार कह रहे हैं- ‘अमृतस्य पुत्र:’, अमृत के बेटे हो। अरे! उसकी तो लाज रख लो जो बाप है तुम्हारा। क्यों भूल गए कौन हो तुम? जैसे कोई युवराज अपने महल से घूमने निकल पड़ा हो और किसी संयोग से, संयोग भी नहीं कहूँगा, भाई युवराज है अपना ही शासन है तो पहुँचे किसी जगह पर एकदम ताजी ताड़ी छानी जा रही थी। बोले, लाओ। अब युवराज को कौन इंकार करेगा? तो उनको दे दी गई। अब युवराजों के युवराजों जैसे ही चलन, आम आदमी लेगा तो थोड़ा आदमी जैसी मात्रा में लेगा। युवराज है तो घड़ा भर के अंदर और ऐसा झटका लगा कि सब भूल ही गए।

अब 6 महीने हो गए हैं और इधर-उधर घूम रहे हैं हाथ में कटोरा लेकर के कि मैं तो भिखारी हूँ, मैं तो भिखारी हूँ।

हँस क्या रहे हो, वो हम हैं। उपनिषद तुम्हें झकझोर कर जगा रहे हैं कि अरे! युवराज उठो, तुम्हारा राज्य, तुम्हारा बाप, तुम्हारी गरिमा, तुम्हारी शान, सब तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं। तुम ये क्या भिखारी बने घूम रहे हो? तुमने कैसे अपनी इस गई गुजरी हालत को ही अपना यथार्थ मान लिया? किन्हीं मौकों पर तो ऐसा लगता है जैसे ऋषि क्रोधित हैं। तुम्हारी दुर्दशा पर क्रोधित हैं तुमसे। तुमसे पूछ रहे हो जैसे कि हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी अपने आपको इतना बर्बाद कर लेने की?

समझ में आ रही है बात कुछ?

पर मन, अहंकार एक क्षण को भी तुमको ये कौंधता ही नहीं कि शायद मैं जो बना बैठा हूँ, वो मेरी एक भूल है, वो मेरा ही एक निर्णय है, वो मेरी तकदीर नहीं, नियति नहीं, वो मेरा ही भ्रांतिपूर्ण चुनाव है। तुमको ये बात ज़रा भी चमकती ही नहीं। तुम आश्वस्त हो पूरी तरह से; मैं तो ऐसा ही हूँ।

जब कहते हैं ऋषि तुमसे कि देह नहीं हो तुम तो वो तुम्हें तोड़ देना चाहते हैं, तुम्हारी हर मान्यता से। क्योंकि तुम्हारी हर मान्यता उठ तो तुम्हारी देह से ही रही है न? कह रहें हैं- कुछ नहीं हो तुम। जितना तुमने ख़ुद को मान रखा और जैसा तुमने दुनिया को मान रखा है, वो सब बातें ही झूठी हैं।

और फिर देहधारी के लिए एक सीमा तक मान्यताएं आवश्यक भी हैं। पर कैसीं मान्यताएं? वैसी मान्यताएं जो जीवन के लिए विष समान हो? ऐसी मान्यताएं जो तुम्हारे जीवन के पौधे को बड़ा ही न होने दें, हरा ही न होने दें। मान्यता और मान्यता में भी भेद होता है न? मान्यता ही रखनी है तो जीवनमुखी मान्यता रखो न?

असतो मा सदगमय

अरे! असत् की मान्यता क्यों रख रहे हो सत् की भी तो रख सकते हो?

मृत्योर मा अमृतम् गमय

मान्यता रखनी ही है तो मृत्यु समर्थक मान्यता क्यों रख रहे हो? मृत्यु माने समझते हो? मृत्यु समर्थक मान्यता माने नहीं कि ये मान्यता कि देह मरेगी, मृत्यु समर्थक मान्यता माने भय समर्थक मान्यता, विनाश समर्थक मान्यता, देह समर्थक मान्यता।

देह तुम्हारी पशु की ही है। कृपा करो ये बात समझो! तुम्हें लाभ क्या मिल रहा है देह, देह करके? अगर सिर्फ देह की बात करोगे तो तुम्हारी देह में और बंदर की देह में बहुत कम अंतर है। किसी वैज्ञानिक से पूछोगे तो वो कहेगा 99.5% डीएनए समान है, शायद और ज़्यादा। शेर के सामने ले जाकर आदमी का माँस डाल दो और चिंम्पैंजी का माँस डाल दो, वो भेद नहीं करेगा। वो कहेगा - बढ़िया! माँस-माँस एक जैसा। शरीर के तल पर वास्तव में बताना कितना अंतर है तुममें और पशुओं में?

तुम जो दवाइयाँ खाते हो, पहले उनका परीक्षण भी पशुओं पर कर दिया जाता है, बेचारे! क्यों कर देते हैं पशुओं पर परीक्षण? क्योंकि तुम्हारी और पशु की देह बहुत हद तक एक जैसी है। जो दवाई पशु के लिए ठीक है, तुम पर भी ठीक होगी। और जो घातक दवाई होती है, जो पशु को मार देती है वो तुम तक पहुँचने नहीं दी जाती। तुम्हें भी मार देगी वो।

वैसे तो हम बड़े आहत हो जाते हैं कोई हमारा अपमान करदे और दिन-रात जो हम स्वयं अपना अपमान करते हैं एक पूर्णतया भौतिक जीवन जी कर; भौतिक जीवन माने देह केंद्रित जीवन। जो देह केंद्रित जीवन जी रहा है उसने अपने आपको जानवर घोषित कर दिया कि नहीं कर दिया? क्योंकि देह तुम्हारी बराबर देह जानवर की। सबसे बड़ा अपमान हम स्वयं नहीं करते अपना? ऋषि पिता हैं; उन्हें नहीं भाता हमारा अनादर। तो सब उपनिषदों में सब श्लोकों में भिन्न-भिन्न विधियों से उनका उद्देश्य एक ही है - तुम्हें सही रास्ते पर लाना। तुम्हें तुम्हारे यथार्थ से अवगत कराना।

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