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लेख
सकारात्मक सोच- मात्र भ्रम || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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श्रोता: सर, कहीं ऐसा पढ़ा था कि एक दिन में 60,000 से ज्यादा विचार मन में आते हैं और इसमें कुछ विचार सकारात्मक होते हैं और कुछ नकारात्मक भी होते हैं । तो मुझे ये जानना है कि नकारात्मक विचारों पर कैसे काबू किया जाए?

वक्ता: (व्यंग्य कसते हुए) “मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू”

(सभी हँसते हैं)

सकारात्मक विचार आओ-आओ, नकारात्मक विचार जाओ-जाओ । सकारात्मक सब मिल जाये, नकारात्मक चाहिये नहीं । और मन का नियम ये है कि बिना नकारात्मक के सकारात्मक होता नहीं ।

तुम्हारा छठा सेमेस्टर अब चल रहा है, तो पाँच सेमेस्टर का अनुभव अब ले चुके हो । कभी एग्जाम में बैक लगी है आज तक?

श्रोता: सर, एक भी नहीं ।

वक्ता: अच्छा, कभी बैक लगने की संभावना बनी थी कि, “इस विषय में पता नहीं पास हों न हों” ?

श्रोता: हाँ सर ।

वक्ता: कभी ऐसा भी हुआ होगा कि पेपर बहुत अच्छा हुआ था और पता था कि बैक आ ही नहीं सकती, ऐसा भी हुआ है ?

श्रोता: जी ।

वक्ता: अब दो पेपर हैं, मान लो एक ही सेमेस्टर में हैं; एक पेपर में संभावना है कि शायद फेल हो जायें और दूसरे पेपर में संभावना है ही नहीं फेल होने की । तुम जाते हो, रिजल्ट लग गया है और तुम पाते हो कि तुम दोनों में पास हो गए । पेपर A में संभावना थी फेल होने की, पेपर B में संभावना थी ही नहीं फेल होने, पेपर A को लेकर आशंकित थे, पेपर B में आशंका जैसा कुछ था ही नहीं । A, B दोनों में पास हो गए, दोनों में से ज्यादा ख़ुशी कौन देगा?

सभी श्रोतागण: A

वक्ता: ख़ुशी मिले, इसके लिए ज़रूरी क्या था? B में पास करके उतना अच्छा अनुभव नहीं होगा जितना A का रिजल्ट देखकर होगा । तो वो जो ख़ुशी मिली A में पास होकर के, वो किस कारण मिली ?

श्रोता : क्योंकि उसमें तनाव था, आशंका थी ।

वक्ता : ख़ुशी के लिए पहले दुःख चाहिए, सकारात्मकता के लिए पहले नकारात्मकता चाहिए । तो यदि तुम्हारा सवाल ये है कि सकारात्मकता कैसे बढ़ायें तो सीधा उत्तर ये है, नकारात्मकता बढ़ाके । ख़ूब नकारात्मकता बढ़ा लो, ख़ूब डर जाओ कि कुछ होने वाला है, फिर जब वो नहीं होगा तो बड़ी शान्ति का अनुभव होगा ।

हम मन के मूलभूत द्वैत को नहीं समझते । मन में जो कुछ होता है वो अपने जोड़े के साथ होता है, पर चूँकि हमारी नज़रें पूरे को नहीं देख पातीं तो इसलिए हम सिर्फ सुख को देख पाते हैं और ये नहीं समझ पाते कि ये सुख मिल ही इसीलिए रहा है क्योंकि हम बहुत दुःखी हैं । जो दुःखी नहीं हो, उसे सुख मिल ही नहीं सकता और चूँकि हमें सुख चाहिए, इसलिए हम ख़ूब-ख़ूब दुःखी होते हैं । ख़ूब दुःखी हो जाओ, फ़िर सुख मिले जायेगा । और होता भी यही है, जितना दुःखी होगे, उतना सुख मिलेगा ।

अच्छा, अभी एक प्रयोग करते हैं । सब लोग यहाँ दो घंटे से बैठकर साँस ले रहे हो । साँस लेकर सुख मिल रहा है किसी को ? कोई विचार भी आया कि सुख मिल रहा है साँस लेकर ?

श्रोता : नहीं ।

वक्ता : नहीं आया न?

अब मैं तुम्हें सुख दिलवाऊँगा ।

(सभी हँसते हैं)

वक्ता : अभी, और वो भी साँस जैसी छोटी चीज़ से । सब लोग अपनी-अपनी नाक बंद कर लो और तब तक बंद रखो जब तक कि जान ही निकलने न लगे । करो और फिर देखना कि साँस का सुख क्या होता है ।

(सभी अपनी साँस रोक लेते हैं)

वक्ता : पूरी ताक़त से रोकना, जब तक बर्दाश्त हो तब तक रोक कर रखना ।

(कुछ सेकेंड बाद)

वक्ता : अब सांस लो ।

(सभी साँस लेते हैं और पुलकित हो उठते हैं)

वक्ता: दो करोड़ रूपये की साँस है ये ।

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

वक्ता: इस एक साँस के लिए तुम कुछ भी दे सकते थे । किस आदमी कि नाक बंद कर दी गयी हो वो एक साँस के लिए कुछ भी देने को तैयार हो जायेगा । अन्यथा साँस तो आती-जाती रहती है, कोई सुख नहीं है उसमें । इतनी साँसें लीं, कोई सुख मिला आज तक? कभी कहा कि “अहा, साँस ली” !

(सभी श्रोतागण मुस्कुराते हैं)

वक्ता: तो दुःख इकट्ठा करो, सुख अपनेआप मिल जाएगा । पर लोग तुमको यही सिखाते हैं कि, “लिव इन होप” । वो तुमको सिखायेंगे कि मोटिवेशन बड़ी महत्त्वपूर्ण चीज़ है, “*बी मोटीवेटेड*” । वो तुमको ये नहीं बताएँगे कि मोटिवेशन के साथ *डीमोटिवेशन*जुड़ा हुआ ही रहेगा ।

सकारात्मक विचार की कोई ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल कोई ज़रूरत नहीं है । कोई भी विचार बिल्कुल वैसा ही है कि, “मैंने बात को समझा नहीं पर उसका अपने अनुकूल, जो मुझे भाता है उसके अनुसार मैंने कोई अर्थ कर लिया । मैं तुम्हारे सामने लिख दूँ ‘X’ और मैं कहूँ कि बताओ ये क्या है तो कुछ सकारात्मक विचारक हैं, वो कहेंगे कि, “सर ये कोई सकारात्मक इकाई है” । कुछ नकारात्मक विचारक हैं तो वो कहेंगे कि, “सर ये ज़रूर नकारात्मक इकाई है” । अब सवाल ये उठता है कि दोनों में से बेहतर कौन है ?

सभी श्रोतागण *(एक स्वर में)* : कोई नहीं ।

वक्ता: दोनों में कोई कुछ नहीं हैं क्योंकि समझे तो दोनों ही नहीं हैं । दोनों ने अपने-अपने मन के अनुरूप सकारात्मक या नकारात्मक कह दिया । दोनों तुक्के चला रहे हैं, एक सकारात्मक तुक्का चला रहा है और दूसरा नकारात्मक तुक्का चला रहा है । एक तीसरा भी है, जो कहता है कि “मैं देखूँ ज़रा कि ये ‘X’ का चक्कर क्या है?” तो पता चलता है कि ‘X’ के पीछे एक इक्वेशन है और कई सारी बातें हैं । वो उसको हल करता है, वो ज़रा विवेक का इस्तेमाल करता है और वो पता कर लेता है कि ‘X’ वास्तव में क्या है और उसको पता चलता है कि ‘X’ वास्तव में शून्य है । न सकारात्मक, न नकारात्मक ।

तुम्हें क्यों कुछ सोचना है किसी चीज़ के बारे में, उसको जान ही लो न । सकारात्मक का मतलब है मैंने उसके बारे में एक विचार बनाया और नकारात्मक का भी यही अर्थ है । जब विचार तुम्हारे अनुकूल है तो तुम उसे सकारात्मक बोल देते हो, जब विचार तुम्हारे प्रतिकूल है तो तुम उसे नकारात्मक बोल देते हो । विचार बनाते ही क्यों हो किसी चीज़ के बारे में, उसे जान ही लो कि वो क्या है, क्यों तुक्के मार रहे हो कि ‘X’ क्या है और क्या नहीं । जान ही लो न कि क्या है । पर हम चाहते हैं कि सकारात्मक विचार मिले और कड़वा-कड़वा थू, वो नहीं हो पाएगा । जितनी भी तुमने सीख पाई है, सकारात्मक विचार की, सकारात्मक मन की, कृपा करके उसको भूल जाओ । और बहुत कुछ चल रहा है, मोमबत्तियाँ बिक रहीं हैं जिनसे सकारात्मक ऊर्जा निकल रही है । और बड़ी महँगी मिलती हैं ये खुश्बूदार मोमबत्तियाँ । और लोग खरीद भी रहे हैं ।

दसवीं तक भी पढ़ाई की है तो ये पता होना चाहिये कि एनर्जी वेक्टर नहीं है कि उसमें कुछ सकारात्मक होगा और कुछ नकारात्मक । एनर्जी के साथ प्लस या माइनस लगाते हो क्या ? तो ये पॉज़िटिव एनर्जी क्या होती है ?

तुममें से बहुत लोग है जो ऐसी ही बातें करते रहते हैं । ऐसे ही इस्तेमाल करते हैं कि, “बंदा बड़ा सकारात्मक है, बंदा बड़ा नकारात्मक है” । पर कभी पूछा क्या कि किसके परिपेक्ष में?

चलो, मैं इंजीनियरिंग का ही एक और एग्जामपल रखता हूँ तुम्हारे सामने । यहाँ एक खाली ग्राफ-पेपर रखा हो तुम्हारे सामने । इसमें क्या अभी कुछ भी पॉज़िटिव या कुछ भी नेगेटिव है?

सभी श्रोता *(एक स्वर में)* : नहीं ।

वक्ता: अब मैं इसमें दो एक्सिस बना देता हूँ । अब क्या हुआ? अब उस ग्राफ में एक-एक बिंदु पॉज़िटिव या नेगेटिव हो गया । कोई भी बिंदु पॉज़िटिव है या नेगटिव ये किस बात पर निर्भर करेगा…?

श्रोता: ओरिजिन पर ।

वक्ता : और ओरिजिन किसने तय किया है?

श्रोता: हमने ।

वक्ता : तो कुछ भी पॉज़िटिव है या नेगटिव ये किस बात पर निर्भर करता है? कि तुम ओरिजिन कहाँ बना रहे हो । तुम ओरिजिन बदल दो तो जो पॉज़िटिव है वो नेगेटिव हो जाएगा ।

आदमी का ओरिजिन उसका अहंकार है । तुम हिन्दू हो तो कुछ तुम्हारे लिए पॉज़िटिव है और अगर मुस्लिम हो तो बिल्कुल दूसरी चीज़ ही तुम्हारे लिए पॉज़िटिव है । ओरिजिन बदल दो तो जो पॉज़िटिव है वो नेगेटिव हो जाएगा ।

समझदार व्यक्ति समझता है, वो कहता है, “न कुछ पॉज़िटिव है, न कुछ नेगेटिव है । सब ओरिजिन का खेल है और मैं ओरिजिन का गुलाम बनूँ क्यों? मुझे ज़रूरत क्या है कि मैंने अपना ओरिजिन कहीं पर भी रखूँ ? मैं मुक्त हूँ, खुला हूँ, मैं किसी भी बात से बंधूँ क्यों” ? ओरिजिन का अर्थ है केंद्र । वो कहता है, “जो मेरा असली केंद्र है वो मुझे मिला हुआ है तो मैं अपना कोई नकली केंद्र बांधूँ ही क्यों” ? ऐसे आदमी के जीवन में समझ मात्र रहती है, सकारात्मक और नकारात्मक नहीं रहते । वो समदर्शी हो जाता है । सुख-दुःख बराबर, शीतोष्ण बराबर । आई बात समझ में?

सभी श्रोता *(एक स्वर में)* : जी सर ।

~ ‘संवाद’ पर आधारित । स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं ।

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