आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
सफलता, बुरा वक़्त और ज्योतिष विज्ञान
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
24 मिनट
142 बार पढ़ा गया

प्रश्नकर्ता: जैसे राबिया और हसन के वक्त में राबिया ने कहा कि सत्य बताने का एक टाइम आएगा और तभी तुम उस बात को जानोगे क्या इसकी तुलना ऐसे हो सकती है कि जब तक अपना वक्त नहीं आता, अच्छे वक्त की चाभी नहीं मिलती।

आचार्य प्रशांत: बहुत बुरा वक्त तो हमारा चल ही रहा है। कौन है जिसका अच्छा वक्त चल रहा है? प्रमाण दिए देता हूँ- कोई है यहाँ जो बुरे वक़्त से डरा हुआ नहीं है? और डर ही तो फिर बुरे वक्त का लक्षण है न? तो चल रहा है बुरा वक्त। आप डरते हो कि बुरा वक्त आ जाएगा और 'डर' से ज़्यादा बुरा क्या हो सकता है? हम सबका बुरा वक्त ही चल रहा है। वास्तव में वक्त जब तक चल रहा है बुरा ही चलेगा। इसीलिए वक्त से आगे की बात की जाती है। घड़ी जब तक टिक-टिक कर रही है वो टाइम की नहीं, टाइम बम की टिक-टिक है कि फटेगा अब। उस फटने को आप मौत बोल लीजिए, कोई अनर्थ बोल लीजिए, कोई दुर्घटना बोल लीजिए, कुछ बोल लीजिए, कोई आशंका, कोई अंदेशा।

आप कहेंगे 'आशा' भी तो होती है कि कुछ नया आएगा। आशा होती है कि आगे कुछ आएगा तो अभी क्या चल रहा? अच्छा वक्त अगर आगे आना है, तो अभी क्या चल रहा है? 'आशा' भी इसी बात का प्रमाण है कि अभी तो बुरा वक्त ही चल रहा है न?

इस कहानी को पढ़कर के, राबिया के वक्तव्य को लेकर के एक नया बहाना खड़ा मत कर लीजिएगा कि राबिया ने हसन को बता दिया कि देखो बेटा जब वक्त आता है तभी सत्य से साक्षात्कार होता है तो अभी तो हमारा जैसा चल रहा है चलने दीजिए, अभी हमारा वक्त आया नहीं!

यह बड़ी गड़बड़ हो जाती। आपने अभी कहा न कि धार्मिक ग्रंथों में जो लिखा है वह पढ़ना चाहिए। देखो यही होता है कहानी पढ़ी और उसमें से अपने मतलब की बात निकाल ली। मतलब की बात क्या है? कि वक्त आने पर ही, सत्य की ओर अनुगमन करना चाहिए। वक्त अभी हमारा आया नहीं तो, अभी तो हमारा चलने दो यूँ ही।

सबका वक्त आ चुका है। कोई नहीं है ऐसा जिसका वक्त नहीं आया है। सब जहाँ खड़े हैं, वहीं से उनका रास्ता खुलता है। किसी को अभी और कहीं जाने की जरूरत नहीं है। यह सारे फल पके हुए हैं। सब का वक्त आ चुका है। बड़ा बहाना रहता है कि हमारा वक्त तो अभी आया नहीं। हम नन्हे-मुन्ने हैं और जब कुछ कहते हैं कि हमारा वक्त नहीं आया तो उनके समकक्ष कुछ खड़े हो जाते हैं कि हमारा तो बीत गया अब इस जन्म में क्या होगा अब आगे देखेंगे। वक्त के साथ तो बड़ा लोचा है किसी का आता नहीं, किसी का बीत जाता है।

प्र: आज मैं शिविर के लिए जा रही हूँ तो मैं खुश भी हूँ कि जा रही हूँ पर मैं बहुत सरे ज़रूरी काम छोड़कर के जा रही हूँ तो आज मेरी सुबह नींद डर से टूट गई थी, मुझे डर लग रहा था। सुबह उठ कर सोचा मैंने कि क्यों हो रहा है फिर एकदम से समझ में आ गया कि नहीं आज मैं सत्र में जा रही हूँ तो इसके बारे में सोचना कि आज मैं बड़े आराम से बैठूंगी। क्या यही अंडरस्टैंडिंग की शुरुवात है कि समझ में आने लग गया है कि क्या होता है?

आचार्य: देखो यह बात सिर्फ़ तब तक कह रही हो, जब तक शिविर में नहीं हो कि बहुत सारे जरूरी काम हैं। वह जरूरी काम अभी याद भी इसीलिए आ रहे हैं क्योंकि तुम्हारी वर्तमान मानसिक स्थिति उन कामों से ही निर्मित है, वह काम मन पर छाए हुए हैं। जो कुछ भी मन पर छाया हुआ है, मन को वही महत्वपूर्ण लगेगा। शिविर में जाने के बाद हम लोग भूल जाते हैं कि काम है नहीं है, तारीख क्या है? फोन कहाँ है? लौटना है वापस नहीं लौटना है? चार दिन का होता है, पाँच-पाँच, सात-सात दिन चलता है। उसके बाद भी खींच कर वापस लाना पड़ता है कि चलो बहुत हो गया! तब काम कहाँ खो जाते हैं? काम यदि वास्तव में महत्वपूर्ण होते तो खो कैसे जाते? कामों में कोई नैसर्गिक महत्व नहीं है। कोई इनेट(innate) वैल्यू नहीं है। काम महत्वपूर्ण है, यह आपको काम ने हीं बताया है। काम भूल जाइए, उस काम की महत्ता भी भूल जाएँगे। ये ऐसी ही बात है कि आपकी ज़िन्दगी में कोई रहे और जो आपको बार-बार बोलता रहे देखो मैं तुम्हारे लिए सब कुछ हूँ। जब तक वह व्यक्ति है आपकी ज़िन्दगी में तब तक यह एहसास भी रहेगा कि यह सब कुछ है मेरे लिए क्योंकि वह एहसास आपको दिलाया किसने? उसी व्यक्ति ने। उस व्यक्ति को छोड़ दीजिए, यह एहसास भी चला जाएगा कि - यही तो है सब कुछ। ये काम, ऐसे होते हैं। आ रही है बात समझ में? देख रहे हो इसमें अपूर्णता का भाव कैसे निहित है? काम छूटेगा तो कुछ नुकसान रह जाएगा। तुम ऐसे हो नहीं वास्तव में, जिसका कोई काम, कोई नुकसान कर सकता हो। काम कर लो! लेकिन इस डर से नहीं कि कोई नुकसान बचाना है।

प्र: लेकिन वो डर जाएगा कैसे?

आचार्य: शिविर में आकर।

यहाँ पर आकर! कामों के बीच में बैठकर तो नहीं जाता।

अभी तो समाधान दिया कि जब तक वह व्यक्ति तुम्हारे जीवन में मौजूद है, यह एहसास भी मौजूद रहेगा कि यह व्यक्ति तो परम महत्वपूर्ण है।

प्र: इस बात को सुना, समझा, लेकिन इस बात को पूरा एहसास करने तक कैसे जाएँ?

आचार्य: आपको पूरा एहसास नहीं करना है, जितना समझ में आया, उतना होने देना है। उसको रोकिए मत न! यह रोकने का एक बहाना है कि अभी तो मुझे पूरा एहसास हुआ नहीं। पूरा होगा कब यह बताओ? किसको आज तक पूरा हुआ है? जितना हुआ है, उतने के साथ ईमानदारी है क्या?

भाई! मुझे किसी की पूरी बात समझ में नहीं आ रही है। जितनी समझ में आ रही है क्या मैं उसके प्रति ईमानदारी रख रहा हूँ? आप सीढ़ियाँ चढ़ रहे हो, रोशनी ज़रा मध्यम है, पूरा ऊपर तक का नहीं दिखाई पड़ रहा, एक-एक पायदान नजर आ रही है। क्या बोलोगे?

कि जब तक सारी सीढियाँ, पूरा स्टेयरकेस देख नहीं लेता तब तक चढूंगा नहीं और मज़ेदार बात यह है कि जब अगले पायदान पर कदम रखते हो, तो उसका अगला अपने आप दिखाई देना शुरू हो जाता है। जब तक आगे नहीं बढ़ोगे, तो आगे का रास्ता दिखाई कैसे देगा? पूरा कभी वहाँ से नहीं दिखाई देगा, जहाँ पर खड़े हो। जहाँ खड़े हो वहाँ से जितना दिखता है उस पर बढ़ो आगे।

प्र: एस्ट्रोलॉजी द्वारा जीवन का समाधान कर सकते हैं?

आचार्य: क्या जीवन की समस्याएँ एस्ट्रोलॉजी से हैं?

प्र: कहते तो हैं शनि ग्रह बैठा है, बृहस्पति बैठा है, बृहस्पति इसको देख रहा है उसको देख रहा है..?

आचार्य: एक आदमी होता है उसकी ज़िन्दगी में हज़ार व्याधियाँ है। वह एक व्याधि का दोष देता है बीवी को, दूसरा देता है पड़ोसी को, तीसरा देता है मां को, चौथा देता है देश काल परिस्थिति राजनीतिज्ञों को, उस आदमी और इस आदमी में क्या अंतर है? जो अपनी पहली परिस्थिति का ज़िम्मेदार बताता है शुक्र को, दूसरी का बुध को, तीसरी का मंगल को। हमें किसी और पर दोषारोपण करना है कोई और नहीं मिला तो चाँद सितारे ही सही, इन्हें कर दिया। यह बस मत मानना कि तुम्हारा अपना मन व्याधिग्रस्त है, यह मत मानना।

बुरा समय क्यों चल रहा है? बुरा समय इसलिए चल रहा है भाई साहब क्योंकि आप बेहोश हैं। पर यह सुनना ज़रा अहंकार को चोट पहुंचा जाता है तो शनि की फ़लानी दशा चल रही है इसीलिए बुरा वक्त चल रहा है। शनि की दशा चल रही है हम तो निर्दोष हैं, जेल में डाल दो शनि को। आप अगर मेरी बात अभी नहीं सुन रहे हो तो इसमें ग्रह और जालौर सितारे क्या कर सकते हैं? बल्कि ग्रहों और चाँद और सितारों की सोच-सोच कर के आप पक्का किए दे रहे हो कि आपको कुछ सुनाई न दे।

प्र: हम दूसरों पर अपना दोष देते हैं जिससे कि वह हम पर नहीं आए तो ऐसा क्या है जो ईमानदारी से अपना दोष अपने ऊपर लेने नहीं देता?

आचार्य: मैंने अपने ऊपर दोष ले लिया तो उससे मेरा आकार घट जाएगा, उससे मेरी कीमत, मेरी महत्ता घट जाएगी। मेरी कीमत, मेरी महत्ता हमेशा दूसरों की दृष्टि में होती है, मैं छोटा हो गया तो दूसरों से मुझे जो कुछ मिलता है वह मिलना बंद हो जाएगा तो एक नकाब पहने रहना आवश्यक होता है कि मैं बड़ा हूँ, अपने ऊपर किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी लेना बड़ा घाटे का सौदा लगता है, किसी और को ज़िम्मेदार बना दो।

प्र: क्या हम अभी शिविर में जाने के लिए निर्णय कर सकते हैं?

आचार्य: यह उन से पूछिए जिन्होंने निर्णय लिया है न जाने का। यह सवाल हम पूछ लेते हैं क्या(शिविर में)जाने का निर्णय ले सकते हैं? न जाने का कैसे लिया था? तब पूछा था, न जाने का लिया जा सकता है क्या?

प्र: ख़ुद ही कर लिया।

आचार्य: ऐसा हो नहीं सकता कि वह नहीं लिया। क्योंकि वह तो आमंत्रण था। आमंत्रण ठुकराया है न? ये निर्णय ही है। कोई आप को आमंत्रित करता हो और आप नहीं गए हैं तो क्या आपने निर्णय नहीं लिया है?

प्र: अगर निर्णय ही न लिया हो?

आचार्य: यही तो निर्णय है कि निर्णय नहीं लूँगा।

प्र: किसी ने निर्णय लेना ही छोड़ दिया?

आचार्य: निर्णय नहीं लेना, यह बहुत बड़ा निर्णय है।

प्र: वो बस जे रहा है जिसे आप कहते हैं आज में जीना, वो शायद उसमें यकीन करता हो!

आचार्य: यह दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती कोई आप कहते हैं वर्तमान में जी रहा और वह सोचता है की चीजें अपने आप घटित हो जाएँगी। यह एक साथ नहीं चलता है। कोई यह नहीं कहता कि चीजें अपने आप घटित हो जाएँगी। चीजें अगर घटित होने के लिए उसको माध्यम बना रही होती हैं, उसका सहयोग माँग रही होती है, उसकी अनुशंसा माँग रही होती हैं तो वह अपने हाथ पीछे नहीं खींचता कि जो होना होगा अपने आप होगा। मैं क्या करूँ? मैं तो अब निर्णय के पार चला गया हूँ।

प्र: कई बार रिस्क लेने में डर लगता है। आप लगातार चले जा रहे हो और आपको अचानक से कोई निर्णय लेना है और आप ले नहीं पा रहे हो, तो इसे में क्या करें?

आचार्य: देखिए प्यार की बातें होती हैं इसमें समझाना क्या है? बुलाया जाता ह, कोई खिंच जाता है कोई नहीं खिंचता। इसमें क्या समझाया जाए? जिन्होंने प्रेम जाना है उन्हें पता होता है कि वहाँ निर्णय वगैरह की जरूरत होती नहीं है। जो तय होना होता है वह पहले ही हो जाता है।

प्रेम जीवन में रहे, यह आपको तय करना होता है। जो मैं बोल रहा हूँ, यह मात्र उन पर लागू होती है जो पहले प्रेम में है, सत्य को समर्पित हैं। जो आदमी अहंकार को विसर्जित कर चुका है, वो तो ये कह दे, अब तो जो होना है वो होगा। पर जिसने अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आध्यात्मिकता को सहारा बना लिया हो, वो यदि ये बोले कि अब जो होना हो सो होगा, वो ऐसी ही बात है कि आप किसी के ऊपर पत्थर फेंक दें और गिर रहा है पत्थर और आप कहें देखो- मैं थोड़े ही कुछ कर रहा हूँ? अब तो जो होना होगा सो होगा। अब जो होना होगा सो होगा नहीं, अब वही हो रहा है जो तुम चाहते थे। अब जो घट रहा है वो अस्तित्व की मर्ज़ी नहीं है। जो घट रहा है वो तुम्हारी मर्ज़ी है। आपकी सीट के नीचे बम लगा दिया जाए और फिर कहा जाए- अब तो जो होना होगा सो होगा। ऐसे थोड़े ही है।

प्र: हम जो भी करते हैं वो तभी क्यों करते हैं जब हमको उस चीज़ से प्रेम हो?

आचार्य: नहीं उस चीज़ से प्रेम नहीं होता है। प्रेम में तो आप बहुत कुछ ऐसा कर जाते हैं जो कि बड़ा अकरणीय होता है। प्रेम का किसी चीज़ से या किसी कर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। प्रेम मन की वो स्थिति होती है जिसमें मन कह रहा होता है- वही हो जो ठीक है। फिर उसके लिए जो कीमत देनी हो हम उसके लिए तैयार हैं। प्रेम का संबंध किसी व्यक्ति, वस्तु वगैरह से नहीं है। प्रेम का संबंध सिर्फ़ मन के सत्य के प्रति आकर्षण से है। मन कहता है -जिधर सच्चाई है उधर को चलेंगे वही हमें खींच रही है, उसी से आकर्षण है हमारा। अब फिर जो होता हो सो हो। प्रेम का मतलब है कि मन कह रहा है कि जिधर शांति है उधर जाना है, जिधर चैन है उधर जाना है कीमत जो अदा करनी पड़ेगी देंगे क्योंकि चैन कुर्बान कर दिया तो वह बहुत बड़ी कीमत हो जाएगी। उसकी तुलना में बाकी सारी कीमतें छोटी हैं, तो हम दे देंगे। क्या हो जाएगा कुछ काम छूट जाएगा, घर वाले नाराज़ हो जाएँगे, ये हो जाएगा, वो हो जाएगा यह कोई कीमतें हैं? ये अठन्नियाँ-चवन्नियाँ हैं, इनको फेंको और आगे बढ़ो।

प्र: लाइफ में सक्सेसफुल होने की डिज़ायर करना सही है?

आचार्य: आपको यह सिखाया न गया होता कि इस-इस स्थिति को सफलता कहते हैं तो क्या आप तब भी सफलता के पीछे भाग रहे होते? आप सफलता के पीछे अगर भाग रहे हो, तो भी आप सफल हो गए क्या? आप वही सब तो कर रहे हो न, जो आपके आकाओं ने आपको सिखा दिया? आपके मन से वो सारी बातें निकाल दी जाएँ जो ठूंस दी गई हैं कि ऐसे हो गए, इतना पा लिया, इतना कर दिया तो सफल कहलाओगे! ये सब बातें अगर आपके मन से निकाल दी जाएँ। निकाल इसलिए दी जाएँ क्योंकि कभी डाली गई थीं। यह सब बातें निकाल दी जाएँ तो भी क्या सफलता के पीछे ऐसे ही पागल रहोगे? मन से इन बातों का विसर्जन ही सफलता है। सफलता इसमें नहीं है कि जो कुछ सिखा दिया गया है कि हासिल करने योग्य है, वो हासिल कर लिया। सफलता इसमें है कि जो कुछ सिखाया-पढ़ाया गया है उसकी हकीकत जान ली, ये सफलता है।

प्र: हमें कोशिश ही नहीं करनी चाहिए?

आचार्य: यह भी मैं बता दूँ तो मैंने सिखा-पढ़ा दिया न? कोई सिखा-पढ़ा रहा है हासिल करो! मैं बता दूँ हासिल न करो! तुम मुझमें, उनमें अंतर क्या रहा?

मैं कह रहा हूँ जो कुछ भी सिखाया पढ़ाया गया है, जो भी कुछ मन की सामग्री बन गया है उसको एक बार देख तो लो, जांच तो लो! यही सफलता है। मतलब बात बड़ी उक्ताने वाली नहीं लग रही?

बच्चा पैदा होता है, उसको सफलता-विफलता से कोई लेना-देना नहीं और फिर उसको आप यह सब ठूसना शुरु कर देते हो इतने पैसे कमा लो सफल माना जाएगा ऐसा दिख तो सफल होगा, ऐसा बोल तो सफल होगा, यहाँ पहुंच, उस देश में जा, यह सब कर तो तू सफल होगा।

यह बात कहीं से उस बच्चे के भीतर से नहीं उठी है। भूलिएगा नहीं ये उसमें ड्रिल करके डाली गई है। अब वह इन बातों को बिल्कुल अपने अंतःस्थापित कर ले और इन्हीं के पीछे भागता रहे। तो भाग कर इन्हें हासिल भी कर लिया, तो क्या आप इन्हें सफलता कहेंगे? बोलिये?

प्र: अगर कोई कुदरतन किसी चीज के लिए आकर्षित हो- चाहे वो दौड़ हो, चाहे वो कोई भी काम हो और वह उस चीज को पाने के लिए पूरा अपना दम लगा दे और उसको हासिल भी कर ले। तो इसमें तो कोई बुराई भी नहीं है?

आचार्य: कुदरतन कोई नहीं आकर्षित होता आपने जिस्म शब्द का इस्तेमाल किया 'कुदरत' उसको समझिए पहले। जिसको आप कुदरत कह रहे हैं वह और कुछ नहीं संस्कार हैं। आप जो है वह आकर्षण- विकर्षण के खेल में नहीं पड़ता। नैसर्गिक रूप से, स्वाभाविक रूप से, आपको कोई आकर्षण हो ही नहीं सकता। हाँ, शरीर को आकर्षण होते हैं, प्रकृति को आकर्षण होते हैं, मन को आकर्षण होते हैं यह कुदरतन नहीं कहे जा सकते। इनके पीछे नहीं जाया जाता। इनका सच जाना जाता है। जो पीछे जाता है, हासिल करता है, आपको क्या लगता है वह हासिल करके रुक जाता है? देखा है कभी कोई कार हासिल करके रुक गया हो और कहे कि बस पूर्ण विराम! ये कल्पनाएँ होती हैं- ये हासिल कर लूँगा तो रुक जाऊँगा। हासिल करके भीतर का खोखलापन, भीतर की बेचैनी और बढ़ जाती है।

प्र: जब शांत चाहिए होती है तब हमें अपनी ज़रूरते पूरी करने लगने लगते हैं और हम अपनी इच्छाएं पूरी करने लगते हैं जिससे हम संसार की ओर खींचे चले जाते हैं तभी हम संसार में आगे निकलना चाहते हैं।

आचार्य: अभी आप यहाँ बैठे हैं, अभी आप किस से आगे हैं किस से पीछे हैं? आप कह रहे हैं आप संसार में पीछे रह जाते हैं अगर आप सफलता वगैरह का पीछा न करें तो। जो सवाल है उस पर ध्यान दें! मैं पूछ रहा हूँ अभी आप यहाँ बैठे हैं, इतने लोग हैं यहाँ, आप किस-किस से आगे और किस-किस से पीछे हैं? आप सभी यहाँ बैठे हैं, इस क्षण कोई इस तरह का विचार कर रहा है? कितने लोगों से आप आगे हैं? कितने लोगों से आप पीछे हैं?

प्र: कोई सवाल नहीं है।

आचार्य: कोई सवाल नहीं है न? यह सवाल ही कब उठता है? जब आप का माहौल खराब होता है। तब आप होड़ में होते हैं, तब आप प्रतिस्पर्धा में होते हैं और खराब माहौल में जो कुछ भी आपके मन में आता है, जिस होड़ में आप फँस जाते हैं, वह होड़ आपने जीत भी ली, तो कुछ ऐसा ही जीत लिया जो मूलतः खराब था।

प्र: जब चूहे की दौड़ में जीत रहे हैं तब भी चूहे ही हैं। फिर हार से डर क्यों लगता है?

आचार्य: डिफीट से तो दर्द होगा ही होगा। डिफीट और दर्द तो एक हैं पर फिर पूछ रहा हूँ आप इस हॉल में किस-किस से डिफिटेड हैं? पर आप सोचना शुरू कर सकते हैं कि आप इससे डिफिटेड हैं और जैसे ही आप ये सोचना शुरू करेंगे आपको दर्द, हो ही जायेगा। हार-जीत का गणित सिर्फ़ प्रेम के अभाव में लागू होता है। हार-जीत का गणित बस ध्यान के अभाव में लागू होता है। जहाँ ध्यान है, जहाँ प्रेम है वहाँ सोच कौन रहा है, जीते कि हारे?

क्यों भूल जाते हैं आप कि जीवन आगे और पीछे निकलने का नाम है, ये भी आपको दूसरों ने सीखाया है। ये बात कोई आपके अन्तः स्थल से नहीं उद्भूत हो रही। कोई और आ के आपको ये बता जाता है कि देखो! ज़िन्दगी का मतलब है आगे निकलना और पीछे जाना। अगर ये बात आपकी अपनी होती तो ठीक इस वक्त भी आप गिन रहे होते कितनों से आगे और कितनों से पीछे? क्योंकि जो स्वभाव है, वो तो छूट नहीं सकता। प्रतिस्पर्धा आपका स्वभाव होता तो अभी इस समय भी आप क्या कर रहे होते? प्रतिस्पर्धा कर रहे होते, पर आप नहीं कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा स्वभाव नहीं है, प्रतिस्पर्धा संस्कार हैं और ये संस्कार हमें वो लोग दे देते हैं जो ख़ुद बड़े अनाड़ी हैं। कोई माँ-बाप हो गया इससे ये थोड़े ही हो जाता है कि वो कुछ जान गया। कोई शिक्षक हो गया इससे ये थोड़े ही हो गया कि उसे कुछ पता है।

अब देखिए न इतनी उम्र हो गयी और एक छोटे बच्चे के मन में जो धारणा डाल दी गयी थी कि तुम्हे आगे निकलना है, वो छोटा बच्चा वही धारणा लेकर घूम रहा है, पिछले चार दशकों से,पाँच दशकों से घूम रहा है। आध्यात्मिकता का मतलब है उस सब की निवृत्ति।

कुछ तो हम यूँ ही, व्याधियाँ लेकर पैदा हुए थे- शरीर रूप में। और बाकी इधर-उधर से हमारे भीतर डाल दी गईं। इन सब की निर्ज़रा कर देनी है, इन सब से पिंड छुड़ा लेना है। ये है आध्यात्मिकता।

प्र: दूसरों को चोट लगे तो?

आचार्य: आपको दूसरों की चोट से मतलब नहीं होता। आपको मतलब होता है दूसरों की चोट से जो आपको चोट लगने का ख़तरा है उससे। ठीक इस समय, जितनी देर में मैंने पिछले तीन-चार शब्द बोले, दुनियाभर में सैकड़ों लोग मर गए होंगे। ठीक? और हज़ारों को चोटें लगी होंगी। उससे आपको कोई तकलीफ़ हो रही है क्या? नहीं हो रही है न? पर अपने पड़ोसी को आप चोट मार दें तो आपको चोट लगेगी क्योंकि वो आप तक लौटती है। न लौटती तो कोई ख़तरा नहीं होता। ख़तरा यही है कि पड़ोसी को चोट लगी तो, फिर मुझे भी पड़ेगा!

आप जिनको कहते हैं कि हमें इनसे इतना प्यार है कि हम उन्हें चोट नहीं पहुँचा सकते। वो प्यार इत्यादि नहीं है। वो बस डर है कि इसको चोट लगी तो ये छोड़ेगा नहीं! और हम कह बिल्कुल इस रूप में देते हैं कि देखिये हमें तो फलानों से इतना प्यार है कि हम आध्यात्मिकता के नाम पर उनका दिल नहीं तोड़ सकते, चोट नहीं पहुँचा सकते।

सीधे बताओ न कितना लेते हो उनसे महीने का? तुम उनको चोट दोगे, तुम्हे महीने का जो मिलता था वो मिलना बंद हो जाएगा। तुम उन्हें चोट दोगे, तो उनके घर में तुम्हारा दाख़िला बन्द हो जाएगा, तुम उन्हें चोट दोगे, तो उनके संपत्ति के वारिस नहीं रहोगे। तुम उन्हें चोट दोगे, तो तुम्हारा हक नहीं रहेगा उनके शरीर पर, मन पर। ये कोई प्रेम है? इसको ऐसे दिखाते हो कि बड़ी करुणा उठी है। हम तो किसी को चोट नहीं पहुँचाना चाहते और ये बात अक्सर हांडी-चिकेन खाते हुए बोल रहे होते हो।

प्र: सबसे ज़्यादा चोट अपने आप को लगती है, अपनी आदतें छोड़ते वक्त अगर वो आदत बहुत लंबे समय से बनी हुई है तो उस आदत को तोड़ने में चोट अपने आप को हीं लगती है।

आचार्य: मज़ा बहुत आता है। जब चोट लगती है तो ये कहने का हक और प्रधान हो जाता है, मुझे चोट लगी। देखा है शरीर के जिस हिस्से पर चोट लगती है वो कैसे अपना एहसास कराने लगता है? मैं हूँ! हमें भी चोट में बड़ा मज़ा आता है।

चोट लगती है तो हम कह पाते हैं - मैं हूँ! आपके अंगूठे में चोट लग जाए तो अंगूठा चिल्लायेगा, क्या?

मैं हूँ! चोट न लगी हो तो अंगूठा कभी बोलता है वो है? आपको अभी पता है आपके पास अंगूठा है? पर अभी चोट लग जाए तो अंगूठा है बिल्कुल पता चलेगा।

इसी तरीके से मन भी चोट माँगता है- जब चोट लगती है तो फिर मन भी-मैं हूँ! और मैं क्या हूँ वो जोड़ लीजिये। मैं पीड़ित हूँ, मैं बीमार हूँ, मैं चोटिल हूँ, घायल हूँ, जो भी हूँ, मैं हूँ।

स्वास्थ्य का तो मतलब होता है- अनुपस्थिति। अदृश्य हो जाना, आप है ही नहीं। बीमारी का मतलब होता है-हैं और बड़ी ज़ोर से हैं। जितनी बड़ी बीमारी उतने ज़्यादा आप होंगे।

प्र: तो ये जो आदत हो गयी है चोट खाने वाली?

आचार्य: उन चोटों को ध्यान से देखो अभी। तुम चोट खाती हो और उसके मज़े लेती हो। अन्यथा चोटे चल सकती नहीं थी। जो वास्तविक चोट लग रही है उससे अनभिज्ञ हो क्योंकि ज़िन्दगी को देख नहीं रही हो, नफा-नुकसान का कुछ पता नहीं है। जिसको तुम कहती रही हो कि चोट लगती है, वह छोटी-छोटी चोटों की बात कर रही हो तुम, जो बड़ी वाली लग रही है उसका तुम्हें कुछ पता नहीं है। ऐसी ही बात है कि किसी का पर्स खो जाए तो वह गिने कि उसमें सिक्के कितने थे? एक, दो का था, एक पाँच का था, एक दस का था। वह यह नहीं गिन रहा है उसमें हजार और पाँच सौ के नोट कितने थे? तुम अभी छोटी वाली चोटें देख रही हो, जो बड़े नुकसान तुम्हारी ज़िन्दगी में चल रहे हैं उनका तुम्हें कुछ पता नहीं है।

देखो मुझसे बात करोगी तो यही ख़तरा है, मैं इधर-उधर की करूँगा नहीं, मैं तो सीधे ज़िन्दगी पर ला दूँगा। इसीलिए सुनना बड़ा कड़वा पड़ता है। मैं बोल दूँगा क्या चल रहा है? कैसा चल रहा है? बाहर जूता ठीक से उतारा है? आध्यात्मिकता तो यही है। कितने बजे आए थे? क्या कर रहे थे? गाना-वाना गाया? आध्यात्मिकता तो यही है।

प्र: यहाँ से जब जाते हैं तो कुछ समय तक मन शांत रहता है। ३ दिन मन पूरा शांत रहता है, ४ दिन डामाडोल हो जाता है और ५ दिन वो ही हमको भी गम ने मारा, तुमको भी गम ने मारा और व्ही सब काम शुरू हो जाते हैं।

आचार्य: पहले 3 दिन आप आखिरी तीन दिन की तैयारी कर रहे होते हैं। वह आ नहीं सकते थे बिना आपकी अनुमति के।

प्र: मई देख रहा था कि जी उठा और जीने की कोशिश करी पर ज़्यादा देर तक टिक नहीं पाए।

आचार्य: एक भ्रांति और दूर कर देते हैं कि आध्यात्मिकता कोई कवच वगैरह नहीं है जो आपको टूटने से सुरक्षा दे देगा। आध्यात्मिकता का मतलब यही है कि टूटेंगे तो शान से टूटेंगे।

प्र: ज़्यादा टूटता हूँ। वैसे कम टूटता हूँ पर इससे ज़्यादा टूटता हूँ।

आचार्य: बिल्कुल ज्यादा टूटता है। आध्यात्मिकता का मतलब ही यही है कि अब डर नहीं रहा टूटने के ख़िलाफ़।

पहले तो डरे-डरे घूमते थे कि टूट गए तो न जाने क्या होगा? अब कहते हैं क्या होगा? टूटी ही तो जाएँगे। तोड़ दो! कर क्या लोगे? तोड़ दोगे! तोड़ दो!

यह भ्रांति मन से निकाल दीजिए कि आध्यात्मिक आदमी को सुख-दुःख का कोई अनुभव नहीं होता। उसे सुख-दुःख का और गहराई से अनुभव होता और ज़्यादा गहराई से वह जीवन में स्थापित रहता है। सारे उतार-चढ़ाव न सिर्फ़ देखता है बल्कि उनमें साझेदार बनता है। जो आ रहा है तोड़ने के लिए उसे आने दीजिए न! शौक से टूट जाइए।

वही सब तो टूटेगा जो टूट सकता है, जो अटूट है वह कैसे टूटेगा?

आध्यात्मिकता का अर्थ है कुछ अटूट मिल गया है तो बाकी सब को अब टूट जाने दो। टूटने दीजिए! क्या हो गया?

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें