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लेख
रिश्ते और भावनाएँ || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
25 मिनट
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प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी, मैं आपको 2014 से लगभग सुन रही हूँ। उस समय बहुत छोटे-छोटे ग्रुप में आप शिक्षा दिया करते थे। तो अचानक से एक दिन वीडियो पॉप-अप हुआ — एंड आई वॉज लिसनिंग (और मैं सुन रही थी) स्वामी सर्व प्रियानंद हावर्ड स्कूल ऑफ डिविनिटी , वहाँ से वो वेदांत की शिक्षा देते हैं तो वो वीडियो मैं सुन रही थी।

अचानक से आपका भी उसमें आया, यूट्यूब पर। एंड आई क्लिक्ड फॉर दैट (मैंने उस पर क्लिक किया)। तो फ़िर मैं वहाँ उस वीडियो पर रुक गई। एंड कोन्सटेंटली फ्रॉम देट ईयर, डे ओर दी अनादर आई एम गोईंग थ्रू विथ यॉर लर्निंग। एंड टुडे इट्स वैरी मीनिंगफुल डे आई केन फील, आई केन रियलाइज़ हाऊ इट फील्ज़ व्हेन यू मीट यॉर टीचर ऑफलाइन (और लगातार उस वर्ष से हर एक दिन मैं आपके सीख के साथ चल रही हूँ। और आज ये एक बहुत ही सार्थक दिन है, मैं महसूस कर सकती हूँ कि जब आप अपने शिक्षक को ऑफ़लाइन देखते हैं तो कैसा महसूस होता है)।

तो मैंने जो सुना है, जाना है, पढ़ा है तो जीने की काफ़ी कोशिश करी है। और जो संघर्ष जीवन में आते रहते हैं रिश्तों को लेकर, और रिश्तों को लेकर अमूमन बहुत ज़्यादा संघर्ष रहते हैं लोगों के जीवन में। तो मैंने भी नीचे-से-नीचा और ऊँचे-से-ऊँचा स्वरूप भी लगभग देखा ही है, अभी तक की उम्र में। लेकिन मैं कहीं पर जैसे अटकी नहीं हूँ। अभी मेरे साथ एक… अभी मैंने अपने पिता को शरीर रूप में खोया है। और यहाँ पर मैं अपनेआप को — डेस्पाइट ऑफ ऑल दी कोगनेटिव रियलाइजेशन्स (तमाम संज्ञानात्मक अनुभूतियों के बावजूद)— यहाँ पर मैं अपनेआप को असफल पा रही हूँ।

आई एम नॉट गेटिंग आऊट ऑफ दी थिंग्स ओर आई एम ट्राईंग टू रिकलेक्ट माईसेल्फ दो एंड एज़ वेल एज़ आई एम अ साईकोलॉजिस्ट टू, द थिंग इस हियर आयरनी (मैं चीज़ों से बाहर नहीं निकल पा रही हूँ। हालाँकि मैं अपनेआप को याद दिलाने की कोशिश कर रही हूँ। और साथ ही मैं एक मनोवैज्ञानिक भी हूँ। ये एक विडंबना है) बहुत अच्छे से मैं सी.बी.टी. और कोगनेटिव रीइंटरप्रेटेशंस (संज्ञानात्मक पुनर्व्याख्या) लोगों को देती हूँ। एंड दे वर्क एज वेल (और वो काम भी करता है)। मैंने भी हमेशा अपने ऊपर उनको लागू किया है। बट यहाँ पर मैं फेल्योर फील (असफलता महसूस) कर रही हूँ।

इतना ज़्यादा सब्जेक्टिव (आत्मपरक) क्यों हो जा रही हूँ, जबकि कोगनेटिव लेवल (संज्ञानात्मक स्तर) पर मुझे सब मालूम है कि ये तो सत्य है और तो सभी के साथ होता है। सभी को जाना है‌। बट फीलिंग्स एंड रिएक्शंस आई एम नोट एबल टू कॉम्बैट ऑफ (मैं भावनाओं और प्रतिक्रियाओं का मुकाबला करने में सक्षम नहीं हूँ), ये लगभग एक महीने से ज़्यादा हो गया है। और जैसे मैंने अपना फोकल पॉइंट (केंद्र बिंदु) खो दिया है। मेरी सेलुलर मेमरी (याद्दाश्त) पापा के उस रूप को भूल नहीं पा रही है और मैं आगे नहीं बढ़ पा रही हूँ। यही मेरी जिज्ञासा है कि ये इतना सब मेहनत करने के बावजूद भी ऐसी जगह पर अटकना ये तो बेवकूफी ही है, मूर्खता ही है। फ़िर क्या सीखा है?

आचार्य प्रशांत: ये प्रकृति है। ये प्रकृति है, आपका अपने पिताजी से प्राकृतिक रिश्ता है। और प्रकृति को अधिकार है कि वो अपनी व्यवस्था के अनुसार काम करें और उससे सम्बंधित जो दुःख आए या भावनाएँ आए, उनका अधिकार छीनना नहीं चाहिए।

कोई निकट सम्बन्धी हैं वो नहीं रहे, आपने एक प्राकृतिक उनसे सम्बन्ध रखा था। उनके शरीर से आपका शरीर आया है। तो उसी शारीरिक व्यवस्था के कारण आपमें दुःख के भाव भी आएँगे ही आएँगे। मैं कह रहा हूँ ये उन भावों का अधिकार है, वो आएँगे। अपने पिताजी के साथ आपने आत्मीयता का जीवन भर एक सम्बन्ध रखा है। उसी सम्बन्ध ने इन भावनाओं को अधिकार दिया है प्रबल वेग से आने का। ये आएँगी।

अभी जो शोक की, दुःख की भावनाएँ हैं। या कुछ खो गया, कुछ नुकसान हो गया, कुछ मिट गया, ऐसी जो भावना है वो भावना यूँ ही नहीं आ रही। मैं कह रहा हूँ वो भावना अपने हक का इस्तेमाल करके आ रही है। हम अपने निकट लोगों के साथ जैसा जीवन जीते हैं, वो जीवन ही अधिकार दे देता है बाद में दुःख और शोक की भावनाओं को प्रकट होने का। तो ये भावनाएँ आएँगी, इनको आप रोक नहीं सकती, आप कुछ और कर सकती हैं। वेदांत आपको प्रकृति को रोकना नहीं सिखाता। वेदांत आपको प्रकृति से ‘परे जाना’ सिखाता है। ‘परे जाना’।

और परे जाने का अर्थ है कि प्रकृति अपना काम करें उसके अतिरिक्त आप अपना काम करते रहिए। प्रकृति को उसका काम करने से आप रोक नहीं सकती। ये जो दुःख क्षोभ की भावना है, आप नहीं रोक पाएँगी। ये एक तरह का कर्मफल है। इसको बर्दाश्त करना होगा। आप ये कर सकती हैं कि दुःख कितना भी रहे, भावनाएँ कुछ भी कहें, जो उचित हैं वो आप करती चलिए।

उदाहरण के लिए आप एक प्रैक्टिसिंग साइकॉलोजिस्ट हैं, आप अपना काम मत छोड़िये आप दिन भर में कुछ और भी सार्थक काम करती होंगी अपने व्यवसाय के अतरिक्त— आप उनको भी मत छोडिए। आप कहिए कि ‘यह दुःख मौजूद हैं तो मौजूद रहे, इस दुःख के साथ भी मैं वो करती रहूँगी जो मुझे करना है’।

दुःख का अधिकार है मौजूद रहना। अगर मुझे दुःख बिलकुल नहीं चाहिए था, तो फ़िर मुझे वैसे सम्बन्ध भी नहीं रखने चाहिए थे जैसे मैंने जीवन भर रखें। जैसे मैंने सम्बन्ध रखें हैं, जैसा मेरा जीवन-दर्शन रहा है, दुःख तो उसके परिणाम के तौर पर आना ही है। विशुद्ध आध्यात्मिक प्रेम का सम्बन्ध तो पिताजी से नहीं रहा होगा। किसी का भी नहीं रहता। उस सम्बन्ध में मोह भी शामिल है, ममता भी शामिल है, देहभाव भी शामिल है। तो जहाँ मोह है, जहाँ ममता है, जहाँ देहभाव है, वहाँ दुःख तो अवश्यम्भावी है, आएगा। तो उसको तो अब पुराने जीवन का चाहे कर्मफल मान लीजिए, चाहे प्रसाद मान लीजिए। उसको तो आपको बर्दाश्त करना होगा।

हम कह रहे हैं प्रकृति से परे चले जाओ, प्रकृति आपको जो कुछ दे रही है वो तो आपको मिलेगा-ही-मिलेगा। जैसे प्रकृति से आपको देह दी है। इस देह में तमाम तरह की गतिविधियाँ होती हैं, आप उनको रोक नहीं सकती। आप अभी भी मुझसे बात कर रही हैं तो हृदय धड़क रहा है, शरीर और न जाने कितनी तरह की गतियाँ कर रहा है। उन्हें कौन रोक सकता है? हाँ आप उन गतियों से निरपेक्ष हो करके अभी शायद इस चर्चा को ध्यान दे रही हैं, है ना? ऐसे जीना है।

प्रकृति अपनी गति कर रही है, हम अपनी गति कर रहे हैं। प्रकृति यदि समय के इस पल में दुःख देना चाहती है, तो दुःख हमें लेना पड़ेगा। ये ऐसी सी बात है जैसे हिसाब चुकाया जाता है। कहीं से कुछ भोगा है, तो हिसाब तो चुकता करोगे न। दुःख हिसाब चुकता करने जैसी चीज़ है। तो वो हिसाब आप चुका लीजिये। लेकिन इतना बड़ा नहीं हो जाना चाहिए दुःख कि वो आपको आपके कर्तव्य से ही विमुख कर दे। आप कह दे कि ‘अभी तो शोक-काल चल रहा है’। और शोक-काल कई लोगों के दस-दस, बीस-बीस साल भी चल जाते हैं। क्योंकि शोक भी एक नहीं होता, और एक ही प्रकार का नहीं होता। शोक भी श्रंखलाबद्ध हो के आते हैं; कभी छोटा, कभी बड़ा, कभी इस दिशा से, कभी उस दिशा से, कभी मानसिक, कभी भौतिक, कभी शारीरिक, कभी आर्थिक।

तो ये सब लगे रहेंगे। इनके साथ आप अपना काम करती रहिए। कोई तरीका नहीं है कि आपको कहा जा सके कि ऐसा कर लीजिये तो दुःख कम हो जाएगा। वो आपके हाथ की बात ही नहीं है। कोई आपसे कहे कि 'ऐसा कर लो दुःख कम हो जाएगा।' वो ऐसी सी ही बात है कि आपको महीना बीतने के बाद कोई कहे कि 'ऐसा कर लो तो बिजली का बिल कम हो जाएगा।' महीना तो बीत गया अब जितना बिल आना हैं वो तो आएगा-ही-आएगा। हाँ आगे का आप कम कर सकते हैं, वो अलग बात है। तो जितना बिल आना है वो आएगा।

शोक एक प्रकार का भुगतान होता है। मैंने कहा हिसाब बराबर करने की बात है। जो चीज़ आपको भोगनी थी वो आप भोग चुके हो। अब भुगतान तो करोगे न? वो दुःख है। ठीक है? अब बस इतना कर लीजिएगा कि जो धर्म का, कर्तव्य का रास्ता है उसको मत छोड़ दीजिएगा। सुबह उठिए तो कहिए कि 'दुःख तो पृष्ठभूमि में लगातार बना ही रहेगा, दुःख के साथ मुझे और क्या करना है?' दुःख हटाने के लिए मुझे कुछ नहीं करना है। दुःख के साथ मुझे क्या करना है? जो करना है दुःख के साथ करना है। साथी मनवा दुःख की चिंता क्यों सताती है, दुःख तो अपना साथी है। ये तो साथ रहेगा-ही-रहेगा। जैसे साँस साथ है, ये साँस क्या है? दुःख है। ये साँस दुःख है, तो जैसे साँस रहती है, दुःख ऐसे ही रहेगा।

प्रश्न ये नहीं है कि दुःख है या नहीं है‌। प्रश्न ये है कि दुःख के अलावा क्या है आपके पास? दुःख तो सबके पास है। तो दुःख की चिंता छोड़िए, दुःख तो अपना साथी है। दुःख के अलावा जीवन को सही रखिए। फ़िर अगर जीवन सही है, तो ऐसा भी होता है कि धीरे-धीरे दुःख भी कम हो जाता है‌। जब तक कम नहीं हो रहा, तब तक कम से कम जीवन को सही रखिए।

देखिये जो दोष बताए गए हैं अध्यात्म में, हमको ये पता होता है कि काम, क्रोध, मद, मोह यही सब दोष होते हैं। शोक भी एक दोष बताया गया है, शोक भी एक दोष है। जैसे आप बचते हो —जो आध्यात्मिक लोग होते हैं वो कोशिश करते हैं कि हम भय से बचें, हम लोभ से बचें, हम काम से बचें— उसी तरीके से शोक से भी बचना होता है। शोक भी एक दोष है। और शोक से बचने का तरीक़ा यही होता है कि शोक है तो है, हम अपना काम कर रहे हैं‌। सारे शोक के साथ भी, सारे शोक के मध्य भी, हम अपना काम कर रहे हैं। ऐसी उम्मीद बिलकुल मत रखिएगा कि दुःख यकायक कम हो जाएगा। नहीं होता।

प्र: आई एम डूईंग माय ड्यूटीज़ लाइक मेकेनिकल वे (मैं अपना कर्तव्य यांत्रिक तरीके से कर रही हूँ)। जैसे किसी ने चाबी भर दी हो एंड यू आर डूइंग योर ऑल गिवन ड्युटीज़ एंड इवन चूज़ेन ड्युटीज़ एज वेल, बट स्टिल बैक ऑफ दी माइंड समथिंग इज हैंग्ड (और आप अपने दिए गए कर्तव्य और यहाँ तक ​​कि चुने हुए कर्तव्य भी निभा रहे हैं। लेकिन अभी भी मन में पीछे से कुछ अटका हुआ है)।

आचार्य: वो इसलिए है, क्योंकि अहम् शोक के साथ जुड़ना चाहता है, ड्युटीज़ (कर्तव्यों) के साथ नहीं। तो ड्युटीज़ को कहता है मैकेनिकली चलने दो। यंत्रवत जो अपना कर्तव्य है, वो चल रहा है। और मन कहाँ जाकर जुड़ गया है? दुःख के साथ। उसको थोड़ा सा बदलिए। दुःख रहेगा, मन को कहिए 'दुःख के अलावा थोडा सा कर्तव्य की ओर भी ध्यान दे लो।' शोक तो है, और हम शोक का सम्मान करते हैं, और हम कह रहे हैं शोक का अधिकार है रहने का। पर थोड़ा ध्यान ज़रा सा कर्तव्य की ओर भी दे लो। बस ऐसे। और कड़ी रहिए मजबूत रहिए।

यह ऐसी सी बात है, जैसे, जैसे किसी ने आपके सिर पर बोझ रख दिया है, और सिर से बांध दिया है। बहुत सारा बोझ रख दिया है, खुल नहीं सकता, उतर नहीं सकता, चलना तो लेकिन है न? चलेंगे ज़रूर, बोझ के साथ चलेंगे‌, चलना नहीं रोक देंगे। बोझ है, और हम उतार नहीं सकते, क्या करें। ये कुछ हिसाब है प्रकृति का वो बराबर कर रही है। ये उसने हमें यह(सिर) दे दिया है, अब सिर पर बोझ रख दिया, उतार नहीं सकते। ठीक है, रख दो बोझ, हम बोझ के साथ चलेंगे।

प्र: थैंक यू सो मच, थैंक यू (बहुत धन्यवाद)।

प्र२: आचार्य जी, चरण स्पर्श। मेरा नाम विकास है, पिछले साल मैंने अपने पिताजी को खो दिया। और उसके बाद से परिस्थिति बस काफ़ी समय अकेले गुज़ारना पड़ा मुझे। और आपसे मतलब ऐसा लगाव हो गया है कि बिना सुने रहा नहीं जाता, लगातार आपको सुनता हूँ। अपनी तरफ़ से कोशिश होती है कि हाँ, आपकी बातों को अपनी ज़िंदगी में उतार पाएँ।

एक चीज़ छोटे मुँह … फ़िर भी कहना चाहूँगा कि जैसे आप कहते हैं कि कबीर साहब को आप अंतिम समय में अपना सुनना चाहेंगे। तो अब कुछ ऐसा हो गया है कि लगता है कि मैं भी आपको सुनता हीं रहूँ। मैंने मतलब विशेषकर पिछले एक साल में जो झेला है, उसके बाद से मुझे जो समझ में आया कि कभी-कभी हम अपनी जो भावनाएँ भी होती हैं, उनको सही नाम नहीं दे पाते हैं।

जैसे विशेषकर कोरोना आया, और उससे बचने की कोशिश में कभी क्रोध आया, कभी अशांति हुई। लेकिन मूलतः मैं देख पा रहा हूँ कि डर ही तो था। जितना ही बचने की कोशिश करी या परिवार को बचाने की कोशिश करी, उतना ही उसमें और उलझते चले गए।

तो अब मेरी माँ हैं ज़िंदगी भर काफ़ी पूजा-पाठ इन सब चीजों में काफ़ी उन्होंने अपना समय बिताया है। और उनके शब्दों में कहूँ तो उनका कहना है कि कभी विश्वास नहीं था कि मुझसे पहले चले जाएँगे। मतलब मेरे पिताजी। तो आपकी बातों को मैं समझ रहा हूँ।

मेरा प्रश्न ये है कि जैसे कि आप जो बातें कहते हैं। काफ़ी कुछ समसामयिक होती हैं, काफ़ी कुछ किताबों से सम्बंधित होती हैं उपनिषदों से, वेदांत से, उनसे सम्बन्धित होती हैं। तो बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो कि उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जिन्होंने मतलब बहुत समय गुजारा नहीं है, धार्मिक ग्रंथों के साथ‌। उनकी पूजा ही करी है, उनका अध्ययन हुआ या उस पर जो स्वाध्याय हुआ, ये सब काम किया नहीं है, बहुत। और शायद उनके मन में हिचक भी रहती है कि हम किसी से पूछे। मेरे मन में भी ये हिचक रहती है कि मैं अपनी तरफ़ से कुछ कहूँ तो क्या उन्हें और बुरा तो नहीं लगेगा।

क्योंकि जो घटना हो चुकी है। इससे ऑलरेडी (पहले से ही) उनके मन में काफ़ी चोट है। जो कि सब कोई यही मानते हैं कि ‘हाँ, कुछ तो गड़बड़ हुई होगी, तभी तो ऐसा हुआ है’। तो बिना और चोट पहुचाएँ बिना उसमें… मतलब इस राह पर कैसे उनको आगे और प्रेरित किया जाए? ये मेरा प्रश्न है।

आचार्य: ये एक अवस्था ऐसी होती है, जब आपके लिए ज्ञानी से ज़्यादा संत उपयोगी होता है। कबीर साहब के भजन, साधारण आम बोलचाल की भाषा में। सरल भी हैं, उनसे सम्बन्ध भी बैठा पाएँगी, और छुपा हुआ ज्ञान भी है उसमें। और जैसा उन्होंने पूजा-पाठ का जीवन जिया है, उससे भी भजनों का नाता आसानी से बैठ जाएगा। तो अभी मैं ये सलाह नहीं दूँगा कि उनको सीधे उपनिषदों तक ले आओ।

वेदांत का ही मर्म संतों की वाणी में उपस्थित हैं, तो भजन। किसी समय पर अगर अनुकूल लगे, तो उनको लेकर के आना। अगर आपको लगे कि सुन पाएँगी या सुनती हैं, तो उनसे कुछ दो बातें कहना चाहूँगा। नहीं आ सकतीं तो ऑनलाइन भी बात करा सकते हो। लेकिन वो भी तभी करना जब उनकी तरफ़ से कुछ सहमति दिखाई दे। नहीं तो जो भाव का मार्ग है, भक्ति, वो उनके लिए ज़्यादा अनुकूल होगा।

एक तो हमको जो, जो दुःख प्रतीत होता है वो ये है कि कोई छिन गया। और वो निसंदेह दुःख की घटना है। लेकिन जो बात हम समझते नहीं है, वो ये है कि हमें ये अधिकार किसने दिया था कि हम मान के चलें कि कोई नहीं छिनेगा। जैसे आपकी माता जी कहती हैं कि 'कभी सोचा नहीं था कि वो हमसे पहले चले जाएँगे।'

मृत्यु को हमें आम बोल-चाल की और रोज़ की चीज़ बनाना चाहिए। हम उसे दूर की चीज़ बना लेते हैं। है वो दूर की चीज़ नहीं, वो है बिलकुल निकट की चीज़। वो निकट की चीज़ फ़िर जब झपट्टा मार देती है, तो हमें सदमा लग जाता है। क्योंकि हमने कभी सोचा नहीं होता है कि वो इतने निकट थी। उसे इतनी दूर कब बनाइए मत।

आम बोल-चाल में, आते-जाते, हँसी-मज़ाक में भी, मौत का ज़िक्र करते रहिए। क्योंकि वो एकदम अगल-बगल है या सिर के ऊपर है, तलवार की तरह लटक रही है। उसकी बात न करके हम उसके वार को अपने लिए और दुःखदायी बना लेते हैं। वार वो कभी भी करेगी। मौत को लेकर के हमें जो कष्ट होता है या जीवन में जो अपघात हो जाते हैं या जो नुकसान हो गए कोई चीज़ छिन गई, उनको लेकर के हमें जो कष्ट होता है। वो कष्ट वास्तव में एक घटना से नहीं निकल रहा है। वो कष्ट एक बुरी घटना से नहीं, एक बुरे जीवन-दर्शन से निकल रहा है।

हम कहते हैं कि अभी एक बुरी घटना हुई, उसने हमको बड़ी तकलीफ दे दी। घटना तो चलो बुरी होगी, वास्तव में बुरा है आपका जीवन-दर्शन। और हमारा जो जीवन-दर्शन है, वो सुख-धर्मा है। वो सुख को ही केंद्र में रखता है, सुख ही की तरफ़ भागता है। तो उसके लिए बड़ी आफत की बात हो जाती है कि दुःख आ गया। और जब आप सुख इतनी बात करोगे और सुख को इतना महत्त्व दोगे, सुख को इतना भोगना चाहोगे, तो दुःख तो अवश्यम्भावी है। दुःख तो आना-ही-आना है।

आप जितना ज़्यादा सुख केंद्रित होते जाओगे, उतना ज़्यादा जीवन में आप दुःख को आमंत्रित करते जाओगे। अभी दोनों तरफ़ से चोट पड़ेगी। आप और ज़्यादा, और ज़्यादा सुख माँग रहे हो। और जितना आप और ज़्यादा, और ज़्यादा सुख माँग रहे हो, उतना आपको और ज़्यादा, और ज़्यादा दुःख मिल रहा है। जो माँगोगे उसका विपरीत मिलेगा। ये बात स्वीकार क्यों नहीं करते? ये बात अपनेआप को लगातार याद क्यों नहीं दिला कर रखते‌? मौत को चुटकुला क्यों नहीं बनाते? हमारे चुटकुलों में मौत शामिल क्यों नहीं है?

गंभीर नुकसान हो गया! ये बात हमारे लिए हँसी-मज़ाक की क्यों नहीं है? ये बात हमें एक थपेड़े, एक झटके, एक सदमे की तरह क्यों मिले? हम उस बात के लिए पहले से तैयार क्यों नहीं हैं?

तैयार इसलिए नहीं है क्योंकि जीवन-दर्शन बड़ा रुग्ण है। उस जीवन-दर्शन के केंद्र में ये प्रश्न ही कहीं नहीं कि ‘मैं कौन हूँ’। वो जीवन-दर्शन केंद्र में रखता है; 'मैं सुखाकांक्षी हूँ, मुझे सुख चाहिए, मुझे मज़े करने है।' कभी स्थूल, कभी सुक्ष्म। कभी शारीरिक, कभी मानसिक, कभी कैसे।

जिसने ये याद रख लिया 'मैं कौन हूँ?', वो जी उठता है। क्योंकि मौत उसके लिए बड़ी सुपरिचित चीज़ हो जाती है। उसको लगातार दिखता है कि वो खो ही रहा है। उसको लगातार दिखता है कि प्रकृति का अर्थ ही है बदलाव, सृजन-विनाश। इसमें कौन सा स्थायित्व?

ऐसा नहीं कि फ़िर उस पर मृत्यु जैसी घटना कोई चोट नहीं करेगी। पर कम हो जाएगी चोट। और ऐसा नहीं कि उसका बाकी जीवन वैसा ही रहेगा जैसा सदा से था, बस उस पर मृत्यु का असर नहीं पड़ेगा। पूरा जीवन ही बदल जाता है। अरे भाई, जिस पर छोटे-छोटे नुकसान ही बहुत असर डाल जाते हों, उस पर मौत जैसा नुकसान तो रीढ़ तोड़ देने वाला असर डालेगा ही न।

सबसे पहले तो आपको वो व्यक्ति बनना होगा, जो छोटे-छोटे नुकसानों को हँस कर झेल जाता हो। जिसको छोटे नुकसान पता भी न चलते हों। आप अगर जीवन ऐसा जी रहे हैं, जहाँ आपको सौ-पचास रुपए का घाटा भी अखर जाता है, तो मौत तो करोड़ों-अरबों का घाटा है। वो तो तोड़ देगी आपको।

जीवन ऐसा जियो जिसमें एक साफ़ बोध हो; ‘मैं यहाँ पाने के लिए नहीं आया हूँ, ये जगत ही लुटेरों का है, मेरा जन्म लुटने के लिए हुआ है। बस राहत की बात ये है कि लुट वही सब कुछ सकता है जो जगत से ही आया है। जो कुछ संसार दे रहा है उसके अतिरिक्त कुछ कमा लूँ, तो धन्य हो गया। और जो संसार से मिला है उसको बचाने की कोशिश करते रहना मूर्खता है। बल्कि मुझे तो लगातार याद रखना है कि संसार से मुझे (विभिन्न वस्तुओं की ओर इशारा करके) ये मिला, ये मिला, ये मिला। मुझे इसको अपना नहीं मान लेना है। ये गया!’ फ़िर तमाम तरह के नुकसान जिसमें मृत्यु शामिल है, वो थोड़ा सा कम दुःख देते हैं।

फ़िर जब कोई आपको बताता है मान लीजिये कि आपके पास जीने के लिए सिर्फ़ तीन ही महीने है। तो आपको उतना सदमा नहीं लगता, आपको ये बात एक तथ्य की तरह लगती है; 'अच्छा तीन महीने है, तो अब जरा देखूँ इन नब्बे दिनों में क्या करना है।' क्योंकि आप पहले से ही तैयार होते हो। और हम सबको पहले से ही तैयार रहना चाहिए।

यह बात अच्छे पालन-पोषण और अच्छी संस्कृति का हिस्सा होनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति मृत्यु के लिए प्रतिपल तैयार है। और वो तैयारी सिर्फ़ तब हो सकती है, जब आप देख रहे हैं कि मृत्यु तो प्रतिपल घट ही रही है। मृत्यु का अर्थ है छिनना। मृत्यु का अर्थ है अस्तित्व का अनस्तित्व हो जाना। और वो बात तो लगातार हो ही रही है। जो अभी है, वो थोड़ी देर में नहीं है। कौन बच सकता है मौत से? मौत आपको आँसू दे जाए, उससे पहले मौत को चुटकुला बना लीजिए‌। इतना गंभीरता से लेंगे मृत्यु को, तो मरने से पहले सौ बार मरेंगे।

अभी क्रांतिकारियों के विषय में पढ़ रहा था —नाम गड-मड हो जाएँगे, क्योंकि सब एक से ही हैं मेरे लिए— तो भगत सिंह थे, सुखदेव थे, राजगुरु थे। उनको ले जा रहे हैं अभी फाँसी देने के लिए। उनके पास आए देखने क्या कर रहे हैं; ‘चलो भाई तुम्हारा फाँसी का समय हो गया है’। वो कसरत कर रहे हैं! वो कसरत कर रहे हैं, इसे कहते हैं मौत को चुटकुला बनाना।

उनको लेने आए हैं; ‘चलो फाँसी देनी है’। बोल रहे है– 'अरे रुक जाओ अभी, कसरत पूरी हो जाने दो।' समझ में नहीं आएगी आपको, ये बात, ये जीवन, ऐसा मन। कोई कसरत कैसे कर सकता है? वो मरने वाला है। वो उनको ले जाने आये हैं, वो गीता पढ़ रहे हैं, और जिस पन्ने को पढ़ रहे हैं उसको मोड़ दिया —पन्ने को मोड़ा इसलिए जाता है, जब दोबारा पढें तो पता चलेगा— वो पूछ रहा है– अब काहे को मोड़ रहे हो? तुम्हारी फाँसी है। बोलें 'किसने कह दिया कि हम मर जाएँगे?' ये जवाब है। 'हम पूरा पढ़ेंगे‌। किसने कह दिया हम मर जाएँगे?' ये जवाब है।

वह वहाँ खड़े हुए हैं तीनों, उनको फाँसी दी जा रही है। तो वहाँ पर जो अंग्रेज आया था —एक बुलाया जाता है अफसर, जो खड़ा रहेगा फाँसी के समय और फ़िर वो सत्यापित करता है सर्टिफाई करता है कि हाँ भई इनकी मौत हो गई— तीनों उसको देख कर आपस में हँस रहे हैं, कि देखो ये गोरा यहाँ खड़ा हुआ है, कितना बेवकूफ लग रहा है। और उसका मज़ाक भी बना रहे हैं, बोल रहे है– 'यह देखो, तेरी बहुत बड़ी किस्मत है, तू हम जैसों को देख रहा है लटकते हुए।'

उसको समझ में नहीं आ रहा है गोरे को, मुँह कहाँ छुपाऊँ। आम तौर पर जो लटक रहे होते हैं; कोई बेहोश हो गया होता है, कोई रो रहा होता है, कोई माफ़ी माँग रहा होता है, ये मेरा मज़ाक उड़ा रहे है खिल्ली उड़ा रहे हैं उसकी।

फ़िर वो लटकाने के लिए काला नकाब पहनाया जाता है, बोल रहे हैं – 'हमें नहीं पहनना, हम तो जब लटकेंगे तो तु हमारी शक्लें देख। हम लटकते हुए भी मुस्कुरा रहे होंगे, तू देख।' बोल रहे है– 'हमें फाँसी नहीं दो, हमें गोली मार दो, गोली।' बोल रहे हैं – गोली क्यों मार दें? —अंग्रेजो से बोल रहे हैं फाँसी नहीं चाहिए, गोली मारो— बोल रहें हैं– 'फाँसी तो कैदियों को देते हैं, हम तो योद्धा हैं हमने तुमसे आमने-सामने की जंग लड़ी है। तो युद्ध में फाँसी से थोड़े ही मरते हैं, युद्ध में तो गोली खा कर मरते हैं न। तो हम भी गोली खा कर मरेंगे, हमें गोली मारो। चलो गोली मारो हमें।'

उनको समझ में ही नहीं आ रहा कि ये कौन लोग हैं? कहाँ से आ गए? पूछ रहे हैं– 'मर क्यों रहे हो भाई? क्यों मर रहे हो? तुम्हें ज़रूरत क्या पड़ी है कि जा करके बम फेंक आए, फ़िर आत्मसमर्पण कर रहे हो? भाग काहे नहीं गए, बम फेंक भी दिया तो? बोले– 'मरना ज़रूरी है, ऐसे ही थोड़े ही मर रहे हैं।'

मज़े की बात सुनो, बोल रहे हैं– 'अभी हमारी उम्र कम है। और अभी हम देश भर के लिए आदर्श है, अभी कोई नहीं कहता कि हमारे चरित्र में कोई खोट है। ज़्यादा जिएंगे तो जैसे सबके जीवन के गुण-दोष प्रकट हो कर के आते हैं जनता के सामने, हमारे भी जीवन के कुछ गुण-दोष जनता के सामने आ जाएँगे। फ़िर हम उतना ऊँचा आदर्श नहीं रह जाएँगे। अभी अगर हम मर गए तो देश भर के करोड़ों जवानों लोगों को बिलकुल अनुप्रेरित कर जाएँगे। तो अभी मर जाएँ ज़्यादा अच्छा है।'

यह अपने मरने की बात कर रहे हैं या गाजर-मूली काटने की बात कर रहे हैं? जैसे कोई चर्चा करता है कि आज रात के खाने में क्या बनाना है। वैसे अपने मरने की बात कर रहे हैं। देखो ऐसा करते हैं मर जाते हैं। अगर मर जाएँगे तो देश भर में क्रांति की लहर फैल जाएगी।

अपने बारे में इतने निर्वयक्तिक तरीके से बात। जैसे अपनी मौत की नहीं बात कर रहे हो, जैसे किसी बूंद के भाप बन जाने की बात कर रहे हो, जैसे पेड़ से किसी पत्ते के झड़ जाने की बात कर रहे हो, जैसे अपनी तो बात ही नहीं हो रही है। जैसे चर्चा करी गई है कि अब उचित रणनीति क्या रहेगी? और कोई कह रहा हो कि अब उचित नीति है कि हमें मर जाना चाहिए। ठीक है। तो कैसे मरे?

एक काम करते हैं जाकर असेंबली में बम फोड़ देते हैं, फ़िर आत्म समर्पण कर देंगे। तो क्या होगा उससे? देखो हम लोग ऐसे प्रसिद्ध काफ़ी हो गए हैं। लेकिन अभी भी हमें वही लोग जानते है न बस, जो थोड़ा अखबार पढ़ लेते हैं, जो थोड़ा जागरूक किस्म के हैं। तो अभी भी हमें देश में बहुत ज़्यादा लोग नहीं जानते, लेकिन अगर हमें फाँसी हो जाए, वो भी तीनों को फाँसी हो जाए, तो सोचो कितना बड़ा सैलाब आएगा। बोले– 'हाँ, ये बात तो सही है, ये बात तो सही है। तो चलो मर जाते हैं।'

यह बांकपन देखो, ये जवानी देखो, मौत के प्रति ये खिलंदड़ अंदाज देखो। और ऐसे जियोगे तो जी लिए। नहीं तो फ़िर तो यही है कि अरे ये क्या हो गया? वो क्या हो गया?

और मुझे मालूम है ये बहुत ऊँचा आदर्श है। ये नहीं आसान है, नहीं सबके लिए संभव है। लेकिन फ़िर भी इसका उल्लेख करना आवश्यक है न। नहीं तो तुमको ऐसे ही लगता रहेगा हा मौत! हा मौत! अरे मौत आ गई! क्या करें, क्या करें, क्या करें?

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