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लेख
पुनर्जन्म के गुप्त रहस्य जानने हैं? || (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: अगर पुनर्जन्म नहीं होता तो ईश्वर ने किस आधार पर किसी को अमीर और किसी को गरीब घर में पैदा किया है?

आचार्य प्रशांत: आप अपना जो वैल्यू सिस्टम है वो किसी ईश्वर के ऊपर क्यों आरोपित या इम्पोज़ कर रहे हो? आपके हिसाब से अमीर होना बहुत बड़ी बात होती है और आपके हिसाब से गरीब होना बहुत खराब बात होती है क्योंकि आप पैसे के प्यासे हो। आप भयानक रूप से लालची हो तो आपके लिए अमीर होना बड़ी बात हो गई और आपके लिए गरीब होना खराब बात हो गई। आपको कैसे पता कि — जिस भी ईश्वर की आप बात कर रहे हैं, ईश्वर कौन है क्या नहीं, वो अलग मुद्दा है, उसकी कभी और बात करेंगे — आप जिस भी ईश्वर की बात कर रहे हैं कि वो आपको कहीं पैदा करता है, वो तय करता है कौन-सा बच्चा किस घर में पैदा होगा — आपको कैसे पता उस ईश्वर को भी ऐसा लगता है कि अमीर होना बड़ी बात है और गरीब होना खराब बात है, आपको कैसे पता?

सवाल पूछने वालों का कहना ये है कि "देखिए कर्मफल तो होता ही होगा न वरना किसी बच्चे का इतना अच्छा नसीब कैसे होता कि वो अमीर घर में पैदा हो रहा है। और किसी बच्चे का इतना खराब नसीब कैसे होता कि वो गरीब घर में पैदा हो रहा है।" तुम्हें कैसे पता कि अमीर घर में पैदा होना वास्तव में कोई बड़ी शुभ बात है? तुम्हें कैसे पता कि गरीब घर में पैदा होना वास्तव में बड़ी खराब बात है? तुम्हें कैसे पता? ये तुम्हारा अपना वैल्यू सिस्टम है, ये तुम्हारी आंतरिक मूल्य व्यवस्था है जिसको तुम एब्सल्यूट (निरपेक्ष) मान रहे हो। तुम्हें लग रहा है ऐसा ही तो है। क्यों ऐसा है? क्योंकि तुम्हें ऐसा लगता है। तुम मरे जा रहे हो पैसे के पीछे तो तुम्हें ऐसा लग रहा है कि पैसा बड़ी बात है एब्सल्यूटली (निरपेक्ष रूप से)।

तुम्हारी नज़र में बड़ी बात है, एब्सल्यूटली (सम्पूर्ण रूप से) बड़ी बात नहीं है बाबा! लेकिन तुम कह रहे हो — देखो वहाँ ईश्वर बैठा है, ईश्वर कह रहा है "ये वाला बच्चा है न, इसके पिछले जन्म में कर्म अच्छे थे तो इसको मैं कुछ पुरस्कार देना चाहता हूँ।" पुरस्कार क्या है? इसको बड़े सेठ के यहाँ पैदा कर दो। तुम्हें कैसे पता कि ईश्वर को लग रहा है कि बड़ा सेठ बड़ा आदमी है? हो सकता है कि ईश्वर की नज़र में बड़ा सेठ सबसे घटिया आदमी हो।

इसी तरीके से और भी एक से बढ़कर एक — लड़की काली-गोरी पैदा हुई है, तो इसने पिछले जन्म में कर्म अच्छे करे थे तो इसीलिए ये गोरी पैदा हुई है और इसने पिछले जन्म में कर्म खराब करे थे तो काली पैदा हुई है। माने तुम्हारा जो रेशियल प्रेज्यूडिस (नस्लीय पूर्वाग्रह) है, तुम्हारी आंतरिक व्यवस्था में जो रंगभेद घुसा हुआ है वही ईश्वर की व्यवस्था में भी घुसा हुआ है। ईश्वर भी खुद ऐसा समझता है कि काला होना बड़ी गड़बड़ बात है तो जिसको सज़ा देना होता है उसको वो अफ्रिका में पैदा कर देता है। मतलब तुम्हारा ईश्वर खुद एक ज़बरदस्त तरीके से रेसिस्ट (जातिवादी) है।

ये क्या बकवास है? ये कैसे सवाल हैं? कि, "अगर कर्मफल नहीं होता तो कोई भारत में और कोई अमेरिका में क्यों पैदा होता?" तुम्हें कैसे पता कि अमेरिका में पैदा होना बड़ी बात है? तुम्हें बड़ी बात इसलिए लगती है क्योंकि तुम पगलाए जा रहे हो कि बस किसी तरह से डॉलर मिल जाएँ। तुम्हें लग रहा है ईश्वर भी पगलाया हुआ है डॉलर के पीछे। क्या पता सबसे बड़ा सौभाग्य यही हो कि किसी को गरीब पैदा किया जाए? क्या पता? बोलो। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि गरीब पैदा होना बहुत बड़ा सौभाग्य हो? ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि किसी लड़की का काली होना और कुरूप पैदा होना उसके लिए सबसे बड़ा सौभाग्य हो? ऐसा क्यों नहीं हो सकता? लेकिन तुम्हारी अपनी मूल्य व्यवस्था है और उसको तुम सोच रहे हो कि ये सबकी है, यूनिवर्सल (सार्वभौम) है, एब्सल्यूट (निरपेक्ष) है।

प्र: अगर पुनर्जन्म नहीं है तो आत्महत्या करने के बाद तो फिर मुक्ति हो जाती होगी?

आचार्य: अरे बाबा कर्मफल का संबंध आगे तुम्हें क्या मिलेगा इससे नहीं होता। ये बहुत अच्छे से समझ लीजिए सबलोग। 'कर्म' आप अपना फल होता है। तुम जिस मन से, जिस बिंदु से कर्म कर रहे हो, तुम्हें फल मिल गया न। घटिया काम करने के लिए तुम्हें घटिया आदमी होना पड़ेगा। लो मिल गई सज़ा। अब आगे तुम्हें कोई और सज़ा काहे को मिले? आगे की किसी सज़ा की ज़रूरत ही नहीं है। इसी तरीके से ऊँचा काम तुम्हें ऊँचा हो करके ही करना होगा। तो लो ऊँचा होने का तुमको पुरस्कार मिल गया न। क्या पुरस्कार मिला? कि तुम ऊँचे हो गए।

बल्कि होता ये है कि कर्मफल कर्म से पहले ही आ जाता है, भविष्य में थोड़े ही आता है। तुम ऊँचे हुए तब तुमने ऊँचा कर्म किया, तो कर्मफल तुम्हें कर्म से पहले ही मिल गया। भविष्य की अब क्या परवाह करनी है। ऐसा थोड़े ही होगा कि आज तुमने कर्म किया, अब चार जन्म बाद तुम्हें उसका फल मिलेगा। कर्मफल तत्काल मिल रहा है, उसी समय मिल रहा है।

कहेंगे "नहीं, लेकिन लोग इतने बुरे काम करते हैं हमें तो दिखाई नहीं देता कि इनको सज़ा मिल रही है।" क्योंकि तुम्हारे पास आँखें नहीं हैं इसलिए तुम्हें दिखाई नहीं देता और ये तुम्हें सज़ा मिल रही है कि तुम्हारे पास आँखें नहीं है, अपना कर्मफल देखो। सज़ा तत्काल मिल गई; घटिया कर्म अपनी सज़ा आप है। बेहोशी में किया गया काम अपनी सज़ा आप है। वासना में किया गया काम अपनी सज़ा आप है। "लेकिन हमने तो देखा है कि वासना में तो लोगों को बड़ा सुख मिलता है", क्योंकि तुम्हें नहीं पता कि वो सुख उन्हें किसी दूसरे ऊँचे सुख से, आनंद से वंचित कर रहा है। तुम्हें क्यों नहीं पता? क्योंकि तुम स्वयं भी वंचित हो इसलिए तुम उल-जुलूल बातें कर रहे हो। समझ में आ रही है बात?

बड़े-से-बड़ा नुकसान हमारा इसी चक्कर में हुआ है कि कर्मफल आगे मिलेगा। हम सोचते हैं कि कर्मफल का सिद्धांत बताकर हम पापियों को डरा देते हैं। कि "तुम कुछ ग़लत कर रहे हो, तो तुम्हें आगे सज़ा मिलेगी।" आप पापी को जानते नहीं, वो बड़ा शातिर है। आप उसको बोलते हो "तुम कुछ ग़लत कर रहे हो न, अब तुम्हें आगे 'सज़ा' मिलेगी।" आपने अपनी ओर से किस शब्द पर ज़ोर डाला? सज़ा पर। और पापी ने जानते हो उसको कैसे सुना है? "तुम कुछ ग़लत कर रहे हो न, तुम्हें 'आगे' सज़ा मिलेगी।" पापी ने किस शब्द पर ज़ोर डाल दिया? "आगे।" तो बोल रहा है, "आगे देखा जाएगा। आगे की आगे देखेंगे। आज नहीं मिल रही न सज़ा।" आगे मिलेगी इसका क्या मतलब है? आज नहीं मिलनी। वो सुन रहा है — तुम कुछ ग़लत कर रहे हो न, तुम्हें 'आगे' सज़ा मिलेगी। वो सुन रहा है — आज नहीं मिलेगी। वो कह रहा है, "जब आज नहीं मिलनी तो आज हो जाए फिर। बताओ क्या-क्या पाप करने हैं?"

तो कर्मफल का सिद्धांत पाप को रोकता नहीं है। आपने जिस तरीके से कर्मफल के सिद्धांत को विकृत कर रखा है वो पाप को बढ़ावा दे रहा है। आप सोचते हो कि बोल देंगे "तू ज़्यादा खाता है न, अगले जन्म में चींटी बनेगा।" तो वो और ज़्यादा खाने लगेगा। वो बोलेगा, "माने ये जन्म सुरक्षित है। इस जन्म में कोई गड़बड़ नहीं हो रही, जो होगा अब अगले जन्म में होगा। आगे की आगे देखेंगे।" आपको उसको ये बताना है कि ग़लत खाने के लिए पहले तुझे ग़लत होना पड़ा और तुझे सज़ा मिल चुकी है, बच!

अब उसके हाथ का निवाला रुकेगा।

वैसे ही आत्महत्या वाली बात। आत्महत्या मूर्खतापूर्ण इसलिए है क्योंकि वो आपको आपकी उच्चतम संभावना तक पहुँचने से रोक देती है। अभी हो सकता है कि कुछ और ऊँचा हो जाता लेकिन आपने हार मान ली। हार क्यों मान ली? क्योंकि आपने कहा, "दुःख बहुत हो गया जीवन में, तो आत्महत्या करेंगे हम।" ठीक, आपने दुःख तो रोक दिया आत्महत्या करके लेकिन साथ-ही-साथ आपने आनंद की संभावना भी तो काट दी न। इसलिए आत्महत्या ग़लत है। तो आप कहेंगे, "नहीं, हमें पता है दुःख इतना बढ़ गया था और आगे कोई आनंद-वानंद मिलना-विलना नहीं था। हमें अच्छे से पता है।" तुम्हें अच्छे से पता है! तुम कौन हो? त्रिकालदर्शी हो? तुम्हें पूरा भविष्य ज्ञात है? तुम्हें कैसे पता कि आगे भी वही स्थितियाँ बनी रहती जिनमें आज तुम्हें दुःख था? तुम्हारा कितना बड़ा अहंकार है कि तुमने पूरा भविष्य नाप डाला? और तुमने कहा कि, "हमें अब पूरा पता चल गया है कि अगर हम बीस साल भी जीएँगे तो बीस साल दुःख-ही-दुःख रहेगा, तो आज हम आत्महत्या कर ही लेते हैं।" आत्महत्या में छुपा हुआ अहंकार है और अज्ञान तो है ही। इसलिए आत्महत्या ग़लत होती है।

जीवन का उद्देश्य है मुक्ति तक पहुँचना और मुक्ति का ही नाम आनंद है। तो जहाँ पर ये संभव है कि आपको आनंद मिल जाए, वहाँ आप काहे दुःख से ही घबरा करके दुःख की ही अवस्था में अपनी यात्रा का अंत किए ले रहे हो? थोड़ा ठहरो, थमो, धीरज धरो, कमर कसो।

और आत्महत्या अलग है आत्मोत्सर्ग से। इन दोनों में अंतर समझ लीजिएगा। आत्महत्या और आत्मोत्सर्ग दो बहुत अलग-अलग बातें हैं। आत्मोत्सर्ग क्या होता है? आत्मोत्सर्ग कहता है कि "जो कुछ भी है मेरे पास, यहाँ तक कि जीवन के अब जो बचे हुए पल भी हैं, उनको मैं न्यौछावर किए दे रहा हूँ आनंद पर और उनको मैं आनंद को समर्पित कर रहा हूँ। ये समर्पण अब अगर मेरी जान भी ले ले तो मैंने जान दे दी।" ये आत्मोत्सर्ग आत्महत्या नहीं कहला सकता। आप समझ रहे हो?

धर्मयुद्ध में एक योद्धा एक असंभव लड़ाई लड़ते हुए जान दे देता है, ये आत्महत्या नहीं है। आपकी नज़र में हो सकती है। आप कहेंगे, "सामने पाँच-सौ थे ये अकेला जाकर उनसे भिड़ गया, ये आत्महत्या ही तो है।" नहीं ये आत्मोत्सर्ग है। ये दुःख से घबराया नहीं है, ये परम मुक्ति के लिए जाकर भिड़ गया है, ये दूसरी चीज़ है।

तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि, "जीवन से चिपके ही रहो, चिपके ही रहो। जीवन बहुत बहुमूल्य चीज़ है। हाय! हाय! जीवन का कभी अंत नहीं करना; और दो घण्टे जियो। और चार घण्टे जियो। बिलकुल घिसटते-घिसटते जीते रहो।" मैं ये नहीं कह रहा हूँ। मैं कोई और बात कह रहा हूँ।

मैं कह रहा हूँ जीवन तुम्हें एक उद्देश्य के लिए मिला है। पूरा-का-पूरा जीवन उस उद्देश्य की ख़ातिर इस्तेमाल होना चाहिए। उस उद्देश्य की ख़ातिर अगर जान जाती है, तो फिर कोई दिक्कत नहीं है। उस उद्देश्य के लिए अगर जान देनी पड़ रही है फिर कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन दुःख से घबरा कर जान दे रहे हो वो बिलकुल दूसरी बात है। समझ में आ रही है ये बात?

युद्ध के मैदान में जान दे देना, जानते-बूझते जान दे देना एक बात है और जीवन की लड़ाईयों से घबराकर, दुःख से घबराकर ट्रेन के सामने कूद जाना, ये बिलकुल दूसरी बात है। जान देने का मन ही है अगर तो किसी ऊँचे लक्ष्य के लिए जान दो न।

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