आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
प्रकृति का समुद्र, ब्रह्म की नाव || (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
11 मिनट
71 बार पढ़ा गया

आचार्य प्रशांत: अभी हालत ये है, खासतौर पर जो वर्तमान पीढ़ी है उसकी, कि उसमे ज़्यादातर लड़के लड़कियों को अपने ही नाम का मतलब नहीं पता होता। अगर हमें इस बात से असुविधा हो रही होती कि हम कोई चीज़ नहीं जानते हैं तो हमें सबसे पहले किस चीज़ से असुविधा होती? हमें सबसे पहले तो अपने ही नाम से असुविधा हो जाती न। पर नहीं; जैसे हम अपने नाम को नहीं जानते न, वैसे ही हम अपने-आपको, अपने मन को भी नहीं जानते। पर हम ये जो देह है इसके साथ अपने पहले दिन से हैं। या ये कह दो हम अपना पहला दिन गिनते ही उसको हैं जिस दिन ये देह आई थी। तो रिश्ता पुराना हो गया है। इस पुरानेपन के कारण हमें ऐसा लगता है कि हम इसको जानते हैं।

एक बार को अपने भीतर से इस अंधविश्वास को हटाओ कि आपको कुछ भी पता है। पहले बड़ी भयानक सी अनुभूति होगी, लेकिन उसके बाद बड़ा हल्कापन आएगा। पहले तो डर जाओगे, खौफ़ आ जाएगा, कि "हाय राम! मुझे तो कुछ भी नहीं पता।" वास्तव में कुछ नहीं पता। मूर्खतापूर्ण आत्मविश्वास है बस ये कि, "मुझे कुछ भी पता है।" उसको हटाओ तो पहले डर लगता है, लेकिन उसके बाद बड़ा हल्कापन होता है। कुछ ना जानने में जैसी मौज है, वैसी जानने में तो बिलकुल ही नहीं है। जानना तो व्यर्थ का बोझ है। पहली बात बोझ है, दूसरी बात व्यर्थ का है। व्यर्थ का इसलिए क्योंकि तुमने ऐसी चीज़ का बोझ लिया है जो तुम्हारे काम नहीं आनी। क्योंकि उसका कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि तुम वास्तव में कुछ नहीं जानते हो। बस जानने का अभिनय करते हो। खुद को जताते हो जैसे कुछ पता है। बात समझ में आ रही है?

तो अब मूल प्रश्न पर फिर से आते हैं; ये ब्रह्म रूपी नौका से भवसागर पार करने का क्या मतलब है?

चलो वेदांत पर आओ, उपनिषदों के साथ हैं भई। जहाँ कहीं भी फँस जाया करो, याद रखा करो। दो ही तीन हैं और उन दो-तीन में भी असली एक है। दो-तीन हैं, उन दो-तीन में उस एक के अलावा बाकी दोनों जो हैं, उनको क्या हो जाना है? उस एक में प्रविष्ट हो जाना है, मिल जाना है, मिट जाना है। और जब दो-तीन नहीं बचते, एक ही बचता है तो उस एक को भी हम कहते हैं, "एक क्या कहें तुझे?" तो उसको भी हम कह देते हैं कि बस अस्ति, है। कैसे कह दें कि एक है कि शून्य है कि कितना है? बस है।

तो जो दो तीन हैं इन्हीं से देख लो कि नाव क्या होगी, पानी क्या होंगे, और जो नाव में बैठा है वो कौन होगा। संकेत हैं, सुंदर हैं, एक तरह का काव्य रचा गया है। क्या है, पानी क्या है? मन का विस्तार। मन के विस्तार को इस संदर्भ में तुम कह सकते हो माया का विस्तार, या प्रकृति कह सकते हो। विस्तृत तो प्रकृति ही होती है न। इधर-उधर चारो तरफ़ फैली हुई लहराती हुई, प्रकृति ही होती है। नाव में जो बैठा है, वो कौन है? अहं।

अब अहं और प्रकृति के मध्य कौन आ गया? ब्रह्म। नहीं तो अहं ने अपना भाग्य क्या तय कर रखा था? कि वो प्रकृति के विस्तार में डूब ही जाएगा। तो ब्रह्म वो है जो तुमको प्रकृति के विस्तार में डूबने से बचा देता है, नहीं तो प्रकृति में डूबना निश्चित है तुम्हारा। कोई है ऐसा जिसको पानी में डालो और डूब ना जाए? तो ब्रह्म वो है जो ऐसा जादुई कारनामा करके दिखा देता है कि तुम पानी में होकर भी डूब नहीं रहे हो।

(हाथ को क्षैतिज दिशा में लहराकर बताते हुए) ये (टेबल ऊपर) पानी का तल है, ठीक है? ये पानी का तल है। तुम नाव में हो । वास्तव में तुम्हारी टाँगे कहाँ पर हैं? जानते हो? पानी के तल के थोड़े अंदर तक हैं। तुम पानी में ही हो। लेकिन फिर भी पानी तुम्हे स्पर्श नहीं कर रहा। ये है ब्रह्म का जादू कि उसकी सहायता से तुम प्रकृति में होकर भी प्रकृति से अस्पर्शित बचे रह जाते हो। हो तुम पानी में ही और ब्रह्म की चतुराई देखो, वो पानी जो तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन था, जो तुमको डुबा लेने को तत्पर था, उसी पानी का उपयोग करके उसी पानी के पार निकल गए।

नाव चल किसमें रही है? पानी में ही। पानी का इस्तेमाल करके पानी के पार निकल गए। तो जो ब्रह्म की नाव पर बैठा होता है, वो ऐसा हो जाता है। प्रकृति में ही रहता है और प्रकृति का ही सुंदर और सुमति पूर्ण प्रयोग करके वो प्रकृति के पार निकल जाता है। प्रकृति उसकी दुश्मन नहीं हो गई। प्रकृति उसकी दोस्त हो गई। आम आदमी के लिए प्रकृति क्या है? एक ज़बरदस्त दुश्मन। जिसमें उसका डूबना तय है। और जो ब्रह्मस्थ है वो साथ तो ब्रह्म के है, दूरी उसने प्रकृति से बनाई है लेकिन दूरी बनाने के कारण प्रकृति उसकी दुश्मन नहीं हो गई है बल्कि दोस्त हो गई है, यही अजीब बात है।

आम आदमी प्रकृति में डूबा हुआ है, तब भी प्रकृति उसे कोई तोहफ़ा नहीं दे रही है, उससे कोई दोस्ती नहीं निभा रही। वो जितना डूब रहा है प्रकृति में उतना तबाह हो रहा है। ठीक? पानी में जितना डूबते जाते हो उतना मरते जाते हो। और ब्रह्मस्थ आदमी को देखो, वो प्रकृति से दूर है, प्रकृति जैसे उसको प्रसन्न हो करके भेंट दे रही हो, कह रही हो, "तुम मुझसे दूर हो इसीलिए मैं तुम्हारी मदद करूँगी, तुम्हे पार निकाल दूँगी।"

ये सूत्र पकड़ो। उससे (प्रकृति से) चिपकोगे, वो तुम्हें डुबा देगी, कहीं का नहीं छोड़ेगी। वो बुलाती है, "आओ, मुझमें डूब जाओ। आओ, आओ।"

तो क्या करना है, दूर भाग जाना है? तो फिर तो नदी कभी पार ही नहीं होगी, दूर भाग गए तो। नदी पार करनी है तो नदी में उतरना तो पड़ेगा। यहाँ हवाई यान का कोई प्रावधान नहीं है। नदी पार करनी है तो नदी में उतरना तो पड़ेगा। दो विकल्प हमने देख लिए। एक ये कि नदी में डूब ही गए, वो हमें बुला रही है "आओ, आओ, आओ, मेरे आग़ोश में समा जाओ।" तुमने कहा, "आहहह! क्या बात है!" बढ़ गए आगे और डूब गए। दूसरा विकल्प ये है कि भग गए डर के मारे। बोले, "अभी-अभी देखा है तीन-चार को डूबते हुए, हम ना डूबेंगे दादा। हम इसी किनारे पर घर बना लेते हैं, हमें पार जाना ही नहीं है।" ये दूसरा आदमी भी मूरख। सूनी इसकी ज़िंदगी।

ये जो तीसरा आदमी है इसको समझो। ये प्रकृति का आमंत्रण स्वीकार कर लेता है। बोलता है, "आ रहे हैं। तुमने बुलाया और हम चले आए, बस साथ ब्रह्म को भी ले आए। आएँगे तो, पर अकेले नहीं आएँगे। तुमने बुलाया है, 'आओ, आओ', हम आए हैं, पर हम जहाँ भी जाते हैं, एक हैं हमारे उनको साथ लेकर जाते हैं। उनको छोड़कर नहीं जाते कभी।" अब बात कुछ और हो जाती है। ध्यान रखो ये नहीं कहा जा रहा है कि जीवन से दूर रहना है। ये नहीं कहा जा रहा है कि जीवन की सरिता के प्रवाह का बहिष्कार कर देना है। फिर जी ही क्यों रहे हो? फिर तो जीवन का जो उद्देश्य है वो तुम पार कभी पा ही नहीं पाओगे। जीवन का उद्देश्य क्या है? पार जाना। पार कैसे जाओगे, अगर नदी में उतरोगे ही नहीं। तो नदी में उतरना भी है और डूबना भी नहीं है, ना डूबने के संकल्प का नाम है ब्रह्म।

नाव माने क्या हुआ? उतरना तो है पर डूबना नहीं है। हममें और प्रकृति के बीच में नाव के पेंदे, जितनी दूरी रहेगी - और नाव का पैंदा बहुत ज़्यादा मोटा नहीं होता है - फिर प्रकृति ही तुम्हारी सहयोगी हो जाती है। वो पानी जिनमें तुम डूब रहे होते, उन्हीं पानियों का इस्तेमाल करके तुम आगे बढ़ रहे होते हो। जैसेकि प्रकृति तुम्हारी दुश्मन हो ही ना और प्रकृति हमारी दुश्मन क्यों होगी भाई? प्रकृति तो माँ है।

माया को माया ही हम बोलते रहते हैं, माया तो माँ है। वो दुश्मन कहाँ से हो गई? उसी ने तो शरीर दिया है। जो तुम्हें शरीर दे वही तो माया है। तो माया का अपमान करने से लाभ क्या है? या तो ये कह दो कि तुम शरीर हो ही नहीं। जब तक तुम शरीर हो, तब तक तो तुम्हारी पहली पहचान ही माया (शरीर) से आ रही है। और जैसे माँ दुश्मन नहीं होती, वैसे ही प्रकृति और माया भी दुश्मन नहीं हैं। हाँ, तुममें बुद्धिमत्ता होनी चाहिए। माँ शरीर देती है लेकिन ये थोड़े ही बोलती है माँ कि "बुद्धि का विकास मत करना, मैंने शरीर दे दिया है। अब बस तुम शरीर ही बने रहना।" माँ शरीर देती है लेकिन साथ-ही-साथ तुम्हें ये संभावना भी देती है न, कि, "बेटा जन्म तो दे दिया है अब आगे तुम अपना विकास भी स्वयं करो।" तो प्रकृति दोनों है — तुम्हें डुबो देने वाला पानी भी, और भूलना नहीं कि प्रकृति का ही अंग है अहं, प्रकृति के ही एक तत्व को अहं कहते हैं। तो अगर अहं आत्मा से या सत्य से मिलने को आतुर है, तो माने कौन सत्य से मिलने को आतुर है? ख़ुद प्रकृति भाई।

तो ये मत कह देना कि ये जो नाव है, ये जो भवसागर है, ये सिर्फ़ तुम्हें डुबोने के लिए है। नहीं, वो तुम्हें डुबो भी सकता है और वो तुम्हें पार भी निकाल सकता है, जैसे कि उस भवसागर की ख़ुद ये इच्छा हो कि आए कोई ऐसा सूरमा, कोई विरला जो हमारा इस्तेमाल करके पार चला जाए। ये सब मूर्ख हमें बस अभद्र शब्द ही बोलते रह गए कि "ये नदी हमें डुबोने के लिए है, ये नदी हमें डुबोने के लिए है।" अरे बाबा! नदी तुम्हें डुबोने के लिए नहीं है, नदी तो तुम्हें पार लगाने के लिए है। पर तुम्हें इतनी बुद्धि ही नहीं थी कि तुम नदी का सदुपयोग कर पाते। तुम डूब रहे हो, ये तुम्हारी मूर्खता है न? नदी डुबो सकती है तुम्हारे शरीर को, तुमसे किसने कह दिया कि तुम शरीर भर बने रहो? शरीर भारी होता है, बुद्धि हल्की-से-हल्की होती है। बुद्धि नहीं डूबती। अगर तुम शरीर भर हो तो नदी में डूब जाओगे। पर अगर तुम चेतना भी हो तो नहीं डूबोगे। पानी में वही चीज़ डूबेगी न जो पानी से भारी हो। पानी से भारी क्या है? शरीर। चेतना बहुत हल्की है। बहुत ही हल्की है। वो डूबेगी ही नहीं पानी में। जिसके पास चेतना है वो नदी पार कर जाएगा। चेतना के ही ऊँचे उठने को, जीवन चेतना के सहारे बिताने को कहते हैं — ब्रह्म।

अब नाव का मतलब समझ लो। अगर तुम नदी पार कर रहे हो सिर्फ़ शरीर के भरोसे, तो डूब जाओगे। और अगर तुम नदी पार कर रहे हो चेतना के भरोसे, चेतना की ऊँचाई के भरोसे, तो तुम पार कर ले जाओगे। तो ब्रह्म फ़िर क्या हुआ? तुम्हारी चेतना की ही ऊँचाई का दूसरा नाम है ब्रह्म। तो ब्रह्म की नाव माने चेतना की नाव। शरीर बनकर जीवन नहीं जीना है। शरीर बनकर जीवन की नदी में जो उतरा, वो डूबा। और चेतना बनकर के जो जीवन की नदी में उतरा, वो पार कर गया।

क्या आपको आचार्य प्रशांत की शिक्षाओं से लाभ हुआ है?
आपके योगदान से ही यह मिशन आगे बढ़ेगा।
योगदान दें
सभी लेख देखें