आचार्य प्रशांत आपके बेहतर भविष्य की लड़ाई लड़ रहे हैं
लेख
पति-पत्नी को साथ रहना ही है, तो ऐसे रहें
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
23 मिनट
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प्रश्नकर्ता: जब मैं आपको नहीं सुनता था तो ऐसा सोचता था कि जो माता-पिता शादी करवाते हैं वह कुदरती घटना है। क्योंकि हम जन्मे वह भी कुदरती, तो जो समाज में शादी हुई वह भी कुदरती घटना है और जो लव मैरिज करते हैं वह आर्टिफिशियल है लेकिन आपको सुनते-सुनते ऐसा लगा है कि जो लव मैरिज है वह कुदरती लगता है और जो समाज में शादी होती है वह आर्टिफिशियल लगती है। मैं आपको जब नहीं सुनता था तभी मेरी शादी और सब हो गया था। यह मेरी धर्मपत्नी हैं।

लेकिन शादी के बाद आप जैसा प्रेम परिभाषित करते हैं हम वैसा प्रेम नहीं कर रहे हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम अलग होना चाहते हैं तो आगे हम साथ में भी रहना चाहते हैं और प्रेम जैसा आपने परिभाषित किया था वैसा करना चाहते हैं। हम दोनों घर में होम थिएटर लगाकर आपको सुनते हैं तो आगे के लिए हमारे लिए आप क्या सजेशन देंगे?

आचार्य प्रशांत: इन को आगे करके तो सवाल पूछ रहे हो।

(सभी श्रोता हँसते हुए)

दो लोग हैं एक दूसरे के लिए सहृदयता रखते हैं ज़ाहिर है कि यह अच्छी बात है। लेकिन जब किसी का भला चाहते हो तो यह ज़िम्मेदारी आ जाती है न? कि पता भी हो भलाई किस चिड़िया का नाम है। नहीं तो चाहने भर से थोड़े ही होगा।

बाहर गाड़ी खड़ी है मेरी, कुछ आवाज़ कर रही है पता नहीं वापस मैं शहर तक ठीक-ठाक पहुँचूँगा कि नहीं।

आप में से कितने लोग चाहते हैं मैं ठीक-ठाक पहुँच जाऊँ वापस?

सब चाहते हैं।

चाहने से क्या होगा?

उस इंजन का, उसकी प्रक्रिया और प्रणाली का, कुछ पता भी तो होना चाहिए न। या जाओगे और उसको फुसफुसाओगे कि देखो-देखो यह हमारे बड़े प्यारे मित्र हैं, इन्हें सकुशल पहुँचा देना, तो वो पहुँचा देगी? चाहने से कुछ हो जाएगा क्या?

तो यह बात सब चाहने वालों को समझना चाहिए न। चाहने भर से कुछ नहीं हो जाता। मन की जटिलताओं का, मन के खेलों का ज्ञान भी होना चाहिए, तभी दूसरों का भला कर पाओगे। नहीं तो बड़े अफसोस की बात हो जाती है कि लोग चाहते तो एक दूसरे का हित हैं, लेकिन अनजाने में अहित कर डालते हैं। अपना ही हित नहीं कर पाते लोग, दूसरों का हित कैसे करेंगे?

शुरुआत करी थी सवाल कि यह कहकर कि कुदरती क्या है? लव मैरिज, अरेंज मैरिज यह सब।

देखो! यह जो आयोजित विवाह होता है, यह आमतौर पर घर वालों की माया से निकलता है और जिसको प्रेम विवाह कहते हो वह स्त्री और पुरुष की आपसी माया से निकलता है। अब तुम्हें कौन सी माया चाहिए तुम चुन लो। एक विवाह वह होगा जिसमें घरवाले, बाकी सब रिश्तेदार मिल कर के अपने हिसाब से तय करते हैं तुम्हें किस के साथ होना चाहिए। वहाँ उनका गणित चलता है और एक दूसरा विवाह होता है जिसमें पुरुष और स्त्री आपस में ही तय कर लेते हैं, वहाँ उनका गणित चलता है। गणित लगाना आता किसी को नहीं है। तो अब तुम्हें किस तरीके से परीक्षा में फेल होना है गणित की, यह तुम चुन लो।

अरे! जब 'प्रेम' ही नहीं पता तो प्रेम विवाह कैसे कर डालोगे? और वैसे ही जब घरवालों से पूछता हूँ कि 'आयोजन' शब्द का अर्थ पता है क्या? योजना माने क्या होता है? आप जब कहते हो अरेंज मैरिज तब कौन यह व्यवस्था करता है, अरेंजमेंट करता है जानते भी हो? उसको नहीं समझा तो उसके द्वारा रची गई व्यवस्था पर भरोसा कैसे कर लिया? व्यवस्थापक कौन है? यह जो पूरी विवाह की व्यवस्था को रच रहा है वह कौन है? वह भीतर बैठा 'मन' है। वह कह रहा है इस तरह लड़के की शादी करा देनी है, इस तरह से लड़की की शादी करा देनी है। उसी ने तो सारी व्यवस्था रची है न? उस व्यवस्थापक को हम समझते हैं क्या? उसको हम समझ लें तो हम यह भी जान जाएंगे कि वो जो यह पूरी व्यवस्था रचता है- इसकी शादी यहाँ होनी चाहिए, इसकी शादी इस उम्र में होनी चाहिए, इसकी ठहर के करते हैं, इसकी शादी में ऐसा लेन-देन हो जाए। तो वह फिर जो व्यवस्था रचता है, हम वह व्यवस्था भी जान जाएंगे कि कहाँ से आती है और क्यों आती है?

वैसे ही जब लड़का-लड़की जब कहते हैं कि हमें प्यार हो गया है। तो हम पहले जान तो लें कि उनके लिए 'प्यार' का अर्थ क्या है? जब हम समझ जाएंगे कि वह किस चीज़ को प्रेम बोलते हैं तो हम यह भी समझ जाएंगे कि वह किस चीज़ को प्रेम विवाह बोल रहे हैं। यह कुदरती शब्द बड़ा झंझट का है। तुम कुदरती हटाकर मायावी कर दो। और माया तरह-तरह की होती है, जिस रंग की चुननी है, चुन लो। चाहे तो माता-पिता की तरफ की माया चुन लो, मामा की तरफ की चुन लो, ताऊ की तरफ की चुन लो, रिश्तेदारों की तरफ की चुन लो, कई बार घरों में पंडित वगैरह रिश्ते लेकर आते हैं उनकी माया चुन लो। यह सब नहीं करना है, इंकलाबी आदमी हो, तो अपनी व्यक्तिगत माया चुन लो। पर ले देकर चुनते तो सभी माया ही हैं। जो प्रेम का वास्तविक अर्थ नहीं समझा वह विवाह चाहे दूसरों के कहने पर करें और चाहे अपनी तथाकथित मर्ज़ी से करें उसने ले देकर चुनी तो माया ही है।

हाँ! कुछ लोगों को इसमें बड़ा संतोष रहता है कि जब माया ही चुननी है तो दूसरों की दी हुई क्यों चुने? हम अपनी चुनेंगे। जब पिटना ही है, तो यह तो रहे कि अपनी चप्पल से हीं पिटें। दूसरों का जूता काहे खाएं? तो इस तरह की संतुष्टि चाहिए हो तो तुम कह लो कि प्रेम विवाह ज़्यादा ऊंचा होता है। मुझसे पूछोगे तो मैं तो कहूँगा कि पीट तो दिए हीं गए। यह जो गाल लाल हो रहा है, उसकी लाली पर थोड़े ही लिखा है कि यह जो चप्पल थी वह तुम्हारी थी या ताऊ जी की?

"लाली तो लाली है क्या उभर के आली है!"

आ रही है बात समझ में कुछ?

हम प्रेम समझने को तैयार नहीं होते, प्रेम विवाह करने को बड़े उतावले रहते हैं। मुझे बड़ा ताज्जुब होता है एक से एक नमूने, जिंदगी में जिन्हें कुछ नहीं समझ में आता, जो कुछ नहीं जानते, चौदह साल के होंगे, सोलह साल के होंगे तभी से एक लफ्ज़़ वो जान जाते हैं। क्या? प्यार।

और वह ऐसे कभी सामने पड़े और मैं कहूँ कि तुझे गणित नहीं आती, तुझे भूगोल नहीं आता, तुझे यहाँ से लेकर वहाँ तक सीधे चलना नहीं आता, तुझे किसी आदमी से दो बात करना नहीं आता, तुझे अपना गुस्सा संभालना नहीं आता, तुझे कहीं पर समय से पहुँचना नहीं आता, तुझे इंसान बनना नहीं आता, तुझे प्रेम करना कहाँ से आ गया? या प्रेम ऐसी चीज़ है जिसको करने के लिए कोई पात्रता ही नहीं चाहिए। तो कहेंगे- "आचार्य प्रशांत तुम नहीं समझोगे! यह दिल की बात है दिल की, तुम जैसे पत्थर दिल आदमी को नहीं समझ में आएगी। अरे किताबों से बाहर निकलो बागीचो में उतरो, तितलियों के साथ खेलो, फिर तुम्हें पता चलेगा इश्क किसको कहते हैं?" तुम्हारे जैसे पाषाण हृदयों के लिए इश्क नहीं होता, हमसे पूछो न हम जानते हैं!

पूछो तुम कैसे जानते हो?

तो कहेंगे वो जो जुल्फें उड़ती हैं, वह इश्क है।

अच्छा और?

यह बड़े से बड़ा अचम्भा नहीं है दुनिया का?

की हद दर्जे का नाकाबिल आदमी होगा, जो कुछ नहीं कर सकता, लेकिन प्यार ज़रूर करता है।

कैसे भाई कैसे?

तो कहते हैं ऐसे थोड़े ही होता है आचार्य जी! प्यार करने के लिए कोई योग्यता, पात्रता थोड़े ही चाहिए? कोई सर्टिफिकेट थोड़े ही चाहिए।

चाहिए भाई चाहिए!

यह गलत लोगों ने तुम्हारे दिमाग में गलत शिक्षा भर दी है। कि प्यार तो कुदरती होता है, प्यार तो प्राकृतिक होता है। कि प्यार करना तो जानवर भी जानते हैं। यह मूर्खता की बात है जो तुम्हें सिखा दी गई है। तुम्हें बोल दिया गया है प्यार तो एक छोटे बच्चे से सीखो! यह पागलपन की बात है। छोटा बच्चा आसक्ति जानता है, प्रेम नहीं जानता। प्रेम सीखना पड़ता है। मनुष्य अकेला प्राणी है जो प्रेम जानता है। तुम बेकार की बात कर रहे हो अगर तुम कहते हो कि प्रेम जानवर भी समझते हैं। नहीं जानवर प्रेम नहीं समझते, जानवर सुरक्षा समझते हैं। तुम कहोगे नहीं मेरे घर में मेरा टॉमी है वह मुझसे बहुत प्यार करता है। तुम उसे रोटी डालते हो इसलिए तुम्हें प्यार करता है। कुत्ता है इसलिए प्यार करता है। कुत्ते पहले भेड़िए हुआ करते थे, इंसान के साथ रहने लगे। उनके जींस हीं ऐसे हो गए हैं कि उन्हें अब इंसान के साथ ही रहना है। वह तुम्हें देखेगा तो दुम हिलाएगा। क्योंकि प्रकृति ने उसे समझा दिया है कि उसकी जिंदगी ही इस बात पर निर्भर करती है कि मनुष्य उसे रोटी डालेगा या नहीं डालेगा। भेड़िया तुम्हें देखकर दुम हिलाता है क्या? और पड़ोसी का कुत्ता तुम्हें देखकर प्यार से तुम्हारी गोद में आ जाता है क्या? तब तो भगते हो बहुत ज़ोर से। कहते हो बुलडॉग और अपने वाले को कहते हो यह तो बहुत प्यारा है। आ जा! और वह आ भी जाता है और तुम्हारा मुँह चाटने लगता है तो तुम कहते हो देखो जानवरों को प्रेम पता है। जानवर तुम्हारे पास इसलिए आता है क्योंकि प्रकृति उससे ऐसा करवाती है। उस चीज़ में भी सौंदर्य है मैं उससे मना नहीं कर रहा हूँ। चिड़िया का एक जोड़ा साथ बैठा हुआ है। आवाज़ें कर रहा है और उसकी आवाज़ें गीत जैसी सुनाई पड़ रही हैं। उसमें सुंदरता है निश्चित रूप से है, पर वो प्रेम नहीं है।

प्रेम तो मूलतः आध्यात्मिक होता है। प्रेम करने की योग्यता तो सिर्फ उसकी है जो मन को समझ गया हो, जो मन की बेचैनी को जान गया हो। मन की बेचैनी का चैन के प्रति खिंचाव ही प्रेम है। इसके अलावा प्रेम की कोई परिभाषा नहीं है।

आचार्य जी देखिए! आप गलती कर गए न आपने प्रेम की परिभाषा दे दी। अरे! हम से पूछिए ना। हम आठवीं क्लास के लौंडे हैं लेकिन हम आपको बताएं देते हैं कि इश्क वो है, जिसे लफ्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता और यह हमें फिल्मों ने और शायरों ने बताया है।

तुम भी मूर्ख! तुम्हारी फिल्में भी मूर्ख! तुम्हारे शायर भी मूर्ख!

बेचैन हो न? चैन माँग रहे हो न? मन पर यही जो लगातार, आकर्षण छाया हुआ है कि कहीं पहुँच कर शांति मिल जाए, इसको ही प्रेम कहते हैं।

तो प्रेम सार्थक तब हुआ जब आप, उस दिशा जाएँ जहाँ वास्तव में शांति मिलती हो।

लेकिन प्रकृति और जो प्राकृतिक खिंचाव होता है जिसको आप प्राकृतिक प्रेम बोल देते हैं उसका ऐसा कोई इरादा नहीं होता कि आप को शांति मिले। अंतर समझना-

प्राकृतिक खिंचाव का नतीजा सिर्फ एक हो सकता है, 'संतान' और आध्यात्मिक खिंचाव का नतीजा होती है 'शांति'।

इसलिए प्राकृतिक खिंचाव सदा पुरुष का स्त्री से, स्त्री का पुरुष से होता है कुछ अपवादों को छोड़ दे तो। क्योंकि प्राकृतिक खिंचाव है ही इसीलिए कि या तो रोटी मिल जाए या घर मिल जाए, सुरक्षा मिल जाए या सेक्स मिल जाए संतान पैदा हो जाए। प्राकृतिक खिंचाव इन वजहों से होता है।

आध्यात्मिक खिंचाव किस लिए होता है? उसकी सिर्फ एक वजह होती है शांति मिल जाए। बात समझ में आ रही है? तुम जिसको कह देते हो अरे! मैं तो कुदरती तौर पर उसकी ओर आकर्षित हूँ या कि देखो! प्रेम तो प्राकृतिक होता है, सब जीवों में होता है। वो जो प्रेम है, वह प्रेम की बड़ी छोटी परिभाषा है। छोटी भी नहीं, मैं उसको गलत परिभाषा बोलता हूँ। उसे प्रेम कहना ही नहीं चाहिए, वह बस ऐसे ही है, कुछ भी! तो प्रेम करने के लिए पात्रता चाहिए। प्रेम करने के लिए वैसी आँखें चाहिए जो दूसरे को कम और खुद को ज़्यादा देखे। तुम्हारी आँखें जाकर दूसरे से ही चिपक गई है तो यह प्रेम की निशानी नहीं है। यह तुम्हारे पशु होने की निशानी है। पशु के पास कोई पात्रता नहीं होती, पशु के पास यह काबिलियत ही नहीं होती कि वह खुद को देख सके कि मेरे भीतर चल क्या रहा है? इस खोपड़ी में चल क्या रहा है वास्तव में? इंसान होने की विशिष्टता यह है कि तुम खुद को देख सकते हो, समझ सकते हो। जब तुम खुद को देखोगे, जब तुमको अपने भीतर की गड़बड़ का कारण समझ में आएगा जब तुम्हें अपनी बेचैनी का सबब समझ में आएगा तभी तो तुम खिंचोगे न- समाधान की ओर और चैन की ओर। समाधान की ओर खिंचना, चैन की ओर बढ़ना- यह प्रेम है।

"जा मारग साहब मिलें, प्रेम कहावे सोय।"

कितनी सीधी परिभाषा दे दी संतों ने-

"प्रेम-प्रेम सब कहे, प्रेम न जाने कोय। जा मारग साहब मिलें, प्रेम कहावे सोय।।"

पता करना हो, तुम्हें जो अनुभव हो रहा है अभी, वह प्रेम का ही है या किसी और चीज़ का? तो ऐसे जाँच लेना- कि जिस रास्ते पर तुम्हें, तुम्हारा यह प्रेम खींच रहा है, उस रास्ते पर तुम्हें साहब मिलेंगे या कोई और मिलेंगी ये देख लो। साहब समझ रहे हो न कौन? 'मुक्ति' की स्थिति को साहब कह दिया यहाँ। 'शांति' की स्थिति को 'साहब' कह दिया।

हम तो प्रेम के नाम पर बंधन और पकड़ लेते हैं और जानने वाले समझा गए हैं- प्रेम माने उधर को बढ़ाना जिधर को आज़ादी मिलती हो। जिसके साथ रहने से आज़ादी मिल जाए बस वही प्रेम के काबिल है। जिसके साथ रहने से बंधन बढ़ते हो जान लेना वहाँ खतरा है।

अब पूछ रहे हो कि हम पति-पत्नी हैं, टीवी पर इकट्ठे बैठकर आपकी बात सुनते हैं, तो एक दूसरे को वही दो जो प्रेम का धर्म है। प्रेम का धर्म है खुद आज़ाद रहना और दूसरे को आज़ादी देना। खुद शांत रहना और दूसरे को शांति देना। तुम अगर कहो कि तुम्हें किसी से प्रेम है और तुम उसकी जिंदगी में दिन रात चकल्लस भर दो तो तुम प्रेमी नहीं हो दुश्मन। लेकिन ज़्यादातर यही होता है प्रेम के नाम पर आप अगर अपने चित्त को परखेंगे, तो बड़े खेद की बात है कि आपको पता चलेगा कि आप को आपके दुश्मनों से कम तनाव रहता है आपका ज़्यादा सर दर्द आपके चाहने वालों की वजह से है। बोलिए यह बात सही है कि नहीं? आपको आपके दुश्मन तो क्या ही तनाव देते होंगे, उनकी बहुत हैसियत ही नहीं, दुश्मन तो दूर बैठा है। यह जो हमारे प्रेमीजन हैं, स्वजन हैं इन्होंने ही खोपड़ी खा रखी होती है। हाँ या न? तो यह प्रेम की निशानी नहीं है।

लेकिन हम कहते हैं, यही तो प्यार की बात है न? सारा कूड़ा किस पर डालेंगे? इंतजार करते हैं दिनभर कि वह लौटकर आए, वह लौटा नहीं कि दिन भर का जितना कूड़ा था डाल दिया उसके सर पर। इसी तरह साहब जी बाहर थे, तो बाहर तो हिम्मत है नहीं कि अपना सारा कूड़ा-कचरा, ज़हर किसी पर उलट दें। तो घर आते हैं वहाँ पत्नी मिल गई, बच्चे मिल गए उन पर उलट दिया। प्रेम के नाम पर यह सब चलता है। देखते नहीं हो? कोई अजनबी हो, उससे तो ढंग से बात कर लेते हो? अजनबी उसे कितना मुस्कुरा कर बात करोगे? करोगे कि नहीं करोगे? और सब गाली-गलौज, फूहड़पना किसके लिए आरक्षित रहता है? जिनको अपना कहते हो। अनजान लोगों के सामने तो हमारी छवि अच्छी ही रहती है न? हमारी असलियत क्या है हमारे अपने ही जानते हैं। सारी नंगई हमारी वहाँ दिखाई देती है। और इसी को तो हम प्यार कहते हैं कि दूसरों के साथ तो औपचारिकता है ना फॉर्मेलिटी, तो उनके साथ हम अपना असली रूप थोड़े ही दिखा सकते हैं? असली रूप तो तुम्हारे सामने ही दिखाएंगे न? हाँ असली रूप दिखा दो लेकिन तुम्हारा असली रूप इतना भयानक क्यों है?

असली रूप हमें ज़रूर दिखाओ श्रीमान जी! लेकिन यह तो बताओ- कि असली रूप इतना भयावह क्यों है? तुम असलियत में ऐसे हो क्या? लेकिन इसको हम प्रेम कहते हैं। सब कचरा जिस पर डाल सको, उसको तुम कह देते हो कि मेरा प्रेमी है। है न?

ये जो इतनी बातें होती हैं घंटों-घंटों। इन बातों में क्या एक दूसरे को अमृत पिला रहे होते हो? सब प्रेमियों की निशानी है दो-दो चार-चार घंटे लगे हुए हैं फोन पर और फोन पर नहीं तो आमने सामने बैठ कर एक दूसरे का भेजा चबा रहे हैं और मजाल है कि उधर से कचरा फेंका जा रहा हो और इधर से तुम फोन काट दो। बेवफा कहलाओगे। और कितना मज़ा आता है? पता होता है कि हम इधर से बेवकूफी की बातें पेले जा रहे, पेले जा रहे हैं और सामने एक मजबूर इंसान उसको झेले जा रहा है, झेले जा रहा है। फिर कोई आएगा और कहेगा - ओ पत्थर दिल इंसान तू नहीं समझेगा इस पेलने और झेलने का नाम ही तो इश्क है।

मैं पत्थर दिल ही सहीं, मैं बहुत खुश किस्मत हूँ कि मुझे ये बात समझ नहीं आती और इतना ही आपसे विनती कर सकता हूँ - न पेलो, न झेलो। इसी बात को हमारे बड़े लोग बोल गए थे- "न दैन्यम न पलायनम"। सरल करके बता दिया मैंने- न पेलो, न झेलो। आ रही है बात समझ में? कोई तुम्हारा प्रेमी बन गया है, उससे तुम एक रिश्ते में आ गए हो या किसी से तुम्हारी शादी हो गयी है, तुम उसके पति या पत्नी कहलाते हो। इसका मतलब ये नहीं है कि उसके सामने अब तुम बेहूदगी का नंगा नाच नाचो। सब को झटका लगता है। चाहे आयोजित विवाह हो या प्रेम विवाह हो। शादी के बाद जो रूप देखने को मिलता है झटका सबको लग जाता है। कहते हैं ये तो तुमने पहले दिखाया ही नहीं था? तो उधर से उत्तर आता है- surprize! कुछ तो बचा के रखना था बाद में दिखाने के लिए। तो ये रूप देखो हमारा। तुम्हें पता है हमारे दो और भी दाँत थे जो छुपे रहते थे। फिर वो दो दाँत निकलते हैं ऐसे। ये प्रेम की निशानी नहीं है। अगर आत्मीयता का मतलब ये है कि दूसरे के बाल नोचने हैं, गाली-गलौच करनी है या सर फोड़ना है तो बेगानापन बेहतर है, थोड़ी औपचारिकता, थोड़ी फॉर्मेलिटी ही बेहतर है।

प्रेम का मतलब ये है कि तू-तड़ाक करनी है, तो फिर थोड़ा बेगानापन ही सही है।

आप नहीं तो तुम ही बोल लो। कोई कह रहा था या जाने मैंने कहीं देखा कि लड़का-लड़की जान जाते हैं कि वो प्रेमी-प्रेमिका नहीं रहे, पति-पत्नी हो गए हैं जब वो एक-दूसरे से बद्तमीज़ी करने लगते हैं। पति-पत्नी होने की निशानी ही यही है कि अब आपको एके-दूसरे से बदतमीज़ी करने का अधिकार मिल गया। जब तक प्रेमी-प्रेमिका हो तब तक थोड़ा लिहाज़ रहता है और लिहाज़ इस नाते रहता है कि बेहूदगी करी तो अगला छोड़ के न चला जाए हमें। पर जब ये बिल्कुल पक्का हो जाता है कि सामने वाला अब छोड़ के नहीं जाने वाला, मुर्गा बिल्कुल फंस ही गया है पिंजड़े में, तो बदतमीजियां शुरू होती हैं। और कहा जाता है उसी से तो करेंगे जो हमारा अपना है? अपनी चीज़ ही तो तोड़ी जाती है। ये मत करना!

दो तरह के प्रेम होते हैं- एक वो जिसमें प्रेम का मतलब होता है अब तुम दूसरे को अपना सबसे निकृष्टतम और घृणास्पद रूप दिखा सकते हो, ये आमतौर का प्रेम है। जिसमें प्रेम का मतलब होता है कि अब तुम दूसरे के सामने अपना कुत्सित, सबसे नंगा, सबसे विकृत रूप दिखा सकते हो, खुल कर के, बिना किसी झिझक के। ये साधारण प्रेम है।

और एक दूसरा प्रेम है जिसमें तुम अपने ऊपर ये ज़िम्मेदारी रखते हो, इस बात को अपना धर्म मानते हो कि अगर प्यार करता हूँ तो दूसरे को अपना सबसे ऊँचा रूप ही दिखाऊँगा। इन दो तरीकों के प्रेमों में से कौन सा करना है ये चुन लीजिए।बड़ी ज़िम्मेदारी है -प्यार!

जिससे प्यार करो उसे ऊँचाई की तरफ़ ले जाओ!

जिससे प्यार करो उसे वो तक देने की कोशिश करो जो देने की तुम में साधारणतया काबिलीयत भी नहीं है।

खुद भी साहब तक जाना है और दूसरे को भी पहुँचाना है, यही प्रेम है।

हक़ भर नहीं जमाना है, घमासान ही नहीं मचाना है, साहब तक पहुँचाना है।

प्रश्नकर्ता: प्रेम का मतलब एक दूसरे की बात मानें? जिसको प्रेम करें उसकी बात मानें, इसका ये मतलब हुआ क्या?

आचार्य प्रशांत: ये बोला क्या मैंने इतनी देर से? क्या कर रहे हो?

प्रश्नकर्ता: मतलब हम आपसे प्यार करते हैं तो आपकी बात मानें, ऐसा हुआ न?

आचार्य प्रशांत: ये तुम मुझसे सवाल कर रहे हो कि देवी जी को सुना रहे हो? कहीं वो बार-बार तुमसे आग्रह करती हों कि मुझसे प्यार करते हो तो मेरी बात मानो, तो सामने बैठी हैं और उनके कंधे पर रखकर चला दिया तुमने। नहीं तो आपके प्रश्न का मेरी कही गई बात से कोई संबंध ही नहीं है। इतनी देर में क्या मैंने ज़रा इशारा भी दिया कि दूसरे की बात मानने का नाम प्रेम है? ऐसा कहा क्या?

तुम उसकी बात मानो वह तुम्हारी बात माने, दोनों की बातें आपस में मिलती नहीं, तो ले दनादन, दे दनादन।

तुम अपनी बात आज तक मान पाए खुद? सुबह पाँच बजे उठना हो, यह तुम्हारी अपनी ही बात हो, सुबह पाँच बजे उठना है, दौड़ लगानी है, कसरत करनी है, अपनी ही बात मान पाते हो? करीब साल भर हो गया जब पहले शिविर में आए थे। तब से अब तक, जो मैंने बातें कहीं वह मान ली?

प्रश्नकर्ता: सुधार आया है।

आचार्य प्रशांत: सवाल ऐसे पूछ रहे हो और कह रहे हो सुधार आया है?

इस ग़लतफ़हमी में कोई न रहे कि दूसरे की बातें मानने का नाम प्रेम है।

इस ग़लतफ़हमी में कोई न रहे कि अगर कोई तुमसे प्यार करता है तो तुम्हारी बातें वगैरह मानेगा या तुम्हारी इच्छाएं पूरी करेगा। यह बड़ी से बड़ी ग़लतफ़हमी है। घातक! हम सोचते यही हैं कि तू तो मुझसे प्यार करता है न, तो तू तो मेरी सारी हसरत चाहत पूरी कर। तुझसे तो जो मैं कहूँ वो मानना पड़ेगा। तुम दिन को अगर रात कहो हम रात कहेंगे।

कतई मोटी हो रही हो और वो सामने आकर पूछे? सोनू मैं मोटी हो रही हूँ क्या?

नहीं तुम तो सूख के कांटा हो गयी हो। दूसरे की बात नहीं माननी है । दूसरे तक 'सच' की बात पहुँचानी है। अब उसमें दिल दुखता हो तो दुखे, घाटा होता हो तो हो।

दमदार आदमी चाहिए सच बोलने के लिए और बड़ा प्रेमपूर्ण आदमी चाहिए सच बोलने के लिए। दूसरे की हाँ में हाँ मिला करके, दूसरे को धोखा दे देना तो बहुत आसान है। है कि नहीं? कोई आया आपके पास कोई मुद्दा लेकर के और आपने कहा हाँ बिल्कुल बिल्कुल बिल्कुल! आए आपके पास और कहे कि वह जो बगल की है न मिसेज गुप्ता, बड़ी डायन है और आप बोलो बिल्कुल बिल्कुल डायन है। मुझसे उसकी बिल्कुल नहीं पटती। हाँ हाँ वही डायन है।

यह तुम भला कर रहे हो?

यह तुम भला कर रहे हो अपने चाहने वाले का?

लेकिन इसमें आसानी बहुत है, तुम अपना काम करते जाओ और उधर से जो आवाज़ आ रही है तुम उससे हाँ में हाँ मिलाते जाओ। कोई दुविधा नहीं कोई तकलीफ़ नहीं होगी।

लेकिन यही तुम कह दो कि मेरी बात सुनो भाई! यह जो लड़ाई होती है न तुम्हारी और गुप्ता जी की, उसमें मुझे लगता है दोष दोनों तरफ से है। तो जैसे ही यह कहोगे, तो अब तुम्हारे लिए झंझट खड़ा हो जाएगा। क्योंकि तुमने इधर का भी दोष बता दिया। अपनी तरफ का भी।

प्रेम होता है न, तब आदमी यह झंझट बर्दाश्त करने के लिए तैयार होता है।

तब आदमी कहता है झंझट खड़ा हो तो हो। बोलूँगा तो मैं सच ही।

मुझे मालूम है मैंने सच बोला नहीं और मेरे ही घर में बवंडर खड़ा हो जाएगा लेकिन फिर भी बोलूँगा तो मैं सच ही।

सच इसलिए नहीं बोलूँगा कि मेरा अहंकार है, सच इसलिए बोलूँगा क्योंकि तुझसे प्यार है। लेकिन जब भी तुम सच बोलोगे उसको माना ऐसे ही जाएगा कि बड़े अहंकारी आदमी हैं, मेरा दिल दुखाते रहते हैं। मैंने तो थोड़ी सी बात कही थी कि मेरी और गुप्ता की लड़ाई में गलती हमेशा गुप्ता की होती है। यह मेरी इतनी-सी बात में भी राज़ी नहीं हो पाए, तुरंत मेरा ही दोष निकाल दिया। बोले देखो! जब तुम्हारी और मिसेज गुप्ता की लड़ाई होती है तो दोष दोनों तरफ से होता है। यह बहुत अहंकारी आदमी है इसको तो बहुत मज़ा आता है मेरी खोट निकालने में। यह बात अहंकार की नहीं प्यार की है। तुमसे ज़रा कम प्यार करते तो तुम्हारी खोट नहीं निकालते। तुमसे अगर हम ज़रा सा भी कम प्यार करते तो तुम्हारे दोष तुम्हे नहीं बताते। बात-बात में तुम्हारे दोष बताते हैं। तुम्हारे दोष बता-बता कर, तुम्हारी ही नज़रों में बुरे बन जाते हैं क्योंकि प्यार करते हैं-तुमसे।

आ रही है बात समझ में?

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