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पशु बलि का क्या अर्थ है? ग्रंथों और पुराणों की कथाओं को कैसे पढ़ना चाहिए? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: बारहवाँ अध्याय।

देवी बोलीं – “देवताओं! जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इन स्तुतियों से मेरा सत्वन करेगा, उसकी सारी बाधा मैं निश्चय ही दूर कर दूँगी।”

“जो मधुकैटभ का नाश, महिषासुर का वध तथा शुम्भ-निशुम्भ के संहार के प्रसंग का पाठ करेंगे तथा अष्टमी, चतुर्दशी और नवमी को भी जो एकाग्रचित्त हो भक्तिपूर्वक मेरे उत्तम माहात्म्य का श्रवण करेंगे, उन्हें कोई पाप नहीं छू सकेगा। उन पर पापजनित आपत्तियाँ भी नहीं आएँगी। उनके घर में कभी दरिद्रता नहीं होगी तथा उनको कभी प्रेमीजनों के विछोह का कष्ट भी नहीं भोगना पड़ेगा।”

“इतना ही नहीं, उन्हें शत्रु से, लुटेरों से, राजा से, शस्त्र से, अग्नि से तथा जल की राशि से भी कभी भय नहीं होगा। इसलिए सबको एकाग्रचित्त होकर भक्तिपूर्वक मेरे इस माहात्म्य को सदा पढ़ना और सुनना चाहिए। यह परम कल्याणकारक है। मेरा माहात्म्य महामारी जनित समस्त उपद्रवों तथा आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकार के उत्पातों को शांत करने वाला है।”

“मेरे जिस मंदिर में प्रतिदिन विधिपूर्वक मेरे इस माहात्म्य का पाठ किया जाता है, उस स्थान को मैं कभी नहीं छोड़ती। वहाँ सदा ही मेरा सन्निधान बना रहता है। बलिदान, पूजा, होम तथा महोत्सव के अवसरों पर मेरे इस चरित्र का पूरा-पूरा पाठ और श्रवण करना चाहिए। ऐसा करने पर मनुष्य विधि को जानकर या बिना जाने भी मेरे लिए जो बलि, पूजा या होम आदि करेगा, उसे मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ ग्रहण करूँगी।”

“शरत्काल में जो वार्षिक महापूजा की जाती है, उस अवसर पर जो मेरे इस माहात्म्य को भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन-धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मेरे इस माहात्म्य, मेरे प्रादुर्भाव की सुंदर कथाएँ तथा युद्ध में किए हुए मेरे पराक्रम सुनने से मनुष्य निर्भय हो जाता है।”

“मेरे माहात्म्य का श्रवण करने वाले पुरुषों के शत्रु नष्ट हो जाते हैं, उन्हें कल्याण की प्राप्ति होती है तथा उनका कुल आनंदित रहता है। सर्वत्र शांति-कर्म में, बुरे स्वप्न दिखाई देने पर तथा ग्रहजनित भयंकर पीड़ा उपस्थित होने पर मेरा माहात्म्य श्रवण करना चाहिए। इससे सब विघ्न तथा भयंकर ग्रह-पीड़ाएँ शांत हो जाती हैं और मनुष्यों द्वारा देखा हुआ दुःस्वप्न शुभ स्वप्न में परिवर्तित हो जाता है।”

“बालग्रहों से आक्रांत हुए बालकों के लिए यह माहात्म्य शांतिकारक होता है तथा मनुष्यों के संगठन में फूट होने पर यह अच्छी प्रकार मित्रता कराने वाला होता है। यह माहात्म्य समस्त दुराचारियों के बल का नाश कराने वाला है। इसके पाठमात्र से राक्षसों, भूतों और पिशाचों का नाश हो जाता है। मेरा यह सब माहात्म्य मेरे सामीप्य की प्राप्ति कराने वाला है।”

“पशु, पुष्प, अर्घ्य, धूप, दीप, गन्ध आदि उत्तम सामग्रियों द्वारा पूजन करने से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, होम करने से, प्रतिदिन अभिषेक करने से, नाना प्रकार के अन्य भोगों का अर्पण करने से तथा दान देने आदि से एक वर्ष तक जो मेरी आराधना की जाती है और उससे मुझे जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी प्रसन्नता मेरे इस उत्तम चरित्र का एक बार श्रवण करने मात्र से हो जाती है।”

“यह माहात्म्य श्रवण करने पर पापों को हर लेता है और आरोग्य प्रदान करता है। मेरे प्रादुर्भाव का कीर्तन समस्त भूतों से रक्षा करता है तथा मेरा युद्धविषयक चरित्र दुष्ट दैत्यों का संहार करने वाला है। इसके श्रवण करने पर मनुष्यों को शत्रु का भय नहीं रहता।”

“देवताओं! तुमने और ब्रह्मर्षियों ने जो मेरी स्तुतियाँ की हैं तथा ब्रह्मा जी ने जो स्तुतियाँ की हैं, वे सभी कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। वन में, सूने मार्ग में अथवा दावानल से घिर जाने पर, निर्जन स्थान में, लुटेरों के दाँव-पेंच में पड़ जाने पर या शत्रुओं से पकड़े जाने पर अथवा जंगल में सिंह, व्याघ्र या जंगली हथियों के पीछा करने पर, कुपित राजा के आदेश से वध या बंधन के स्थान में ले जाने पर अथवा महासागर में नाव पर बैठने के बाद भरी तूफान से नाव के डगमग होने पर और अत्यंत भयंकर युद्ध में शस्त्रों का प्रहार होने पर अथवा वेदना से पीड़ित होने पर, सभी भयानक बाधाओं के उपस्थित होने पर जो मेरे इस चरित्र का स्मरण करता है, वह मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। मेरे प्रभाव से सिंह आदि हिंसक जन्तु नष्ट हो जाते हैं तथा लुटेरे और शत्रु भी मेरे चरित्र का स्मरण करने वाले पुरुष से दूर भागते हैं।”

ऋषि कहते हैं – “यों कहकर प्रचण्ड पराक्रम वाली भगवती चंडिका सब देवताओं के देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गईं। फिर समस्त देवता भी शत्रुओं के मारे जाने से निर्भय हो पहले की ही भाँति यज्ञ भाग का उपभोग करते हुए अपने-अपने अधिकार का पालन करने लगे। संसार का विध्वंस करने वाले महाभयंकर अतुल-पराक्रमी देवशत्रु शुम्भ तथा महाबली निशुम्भ के युद्ध में देवी द्वारा मारे जान पर शेष दैत्य पाताल लोक में चले आए।”

“राजन! इस प्रकार भगवती अंबिकादेवी नित्य होती हुई भी पुनः-पुनः प्रकट होकर जगत कि रक्षा करती हैं। वे ही इस विश्व को मोहित करती, वे ही जगत को जन्म देती तथा वे ही प्रार्थना करने पर संतुष्ट हो विज्ञान एवं समृद्धि प्रदान करती हैं। राजन! महाप्रलय के समय महामारी का स्वरूप धारण करने वाली वे महाकाली ही इस समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त हैं। वे ही समय-समय पर महामारी होती हैं और वे ही स्वयं अजन्मा होती हुई भी सृष्टि के रूप में प्रकट होती हैं।”

“वे सनातनी देवी ही समयानुसार सम्पूर्ण भूतों की रक्षा करती हैं। मनुष्यों के अभ्युदय के समय वे ही घर में लक्ष्मी के रूप में स्थित हो उन्नति प्रदान करती हैं और वे ही अभाव के समय दरिद्रता बनकर विनाश का कारण होती हैं। पुष्प, धूप और गन्ध आदि से पूजन करके उनकी स्तुति करने पर वे धन, पुत्र, धार्मिक बुद्धि तथा उत्तम गति प्रदान करती हैं।"

जी, क्या विशेष लगा?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, इसमें बताया गया है कि जो देवी का ध्यान करते हैं, उनको सांसारिक समृद्धि स्वतः ही मिल जाती है। लेकिन लोगों का तरीका उल्टा ही होता है, वे समृद्धि के पीछे जाते हैं, संसार के सुखो के पीछे जाते हैं। और कबीर साहब का भी एक भजन है जिसमें कहा गया है कि जीव को भी सुख तभी मिलता है जब जीव ‘उसके’ साथ रहता है। दूसरा इसमें एक प्रश्न था कि बलि की बात हुई यहाँ, तो इसको भी गलत समझा जाता है। बलि का यहाँ क्या अर्थ है?

आचार्य: नहीं, देखिए, जैसे एक स्थान पर यहाँ पर कहा गया है कि देवी प्रसन्न होती हैं जब उन्हें पशु अर्पित होते हैं, पशु, पुष्प, पत्र आदि। फिर बलि की भी बात हुई है। जब आप पीछे जाएँगे तो एक स्थान पर देवी कहती हैं चामुंडा से कि तुम चंड-मुंड नामक इन दो महापशुओं को मेरे पास ले करके आई हो, अतः मैं प्रसन्न हुई। अब से तुम चामुंडा कहलाओगी।

अब समझ रहे हो, किसको पशु कहा गया है? पशु कौन है?

सातवें अध्याय के पच्चीसवें और छब्बीसवें श्लोक हैं – "वहाँ लाये गए उन चंड-मुंड महादैत्यों को देखकर कल्याणमयी चंडी ने काली से मधुर वाणी में कहा – ‘देवि! तुम चंड और मुंड को ले करके मेरे पास आई हो, इसलिए संसार में चामुंडा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी’।"

और उससे ठीक पहले बाईसवें से चौबीसवाँ श्लोक जो हैं, देखिए उसमें क्या कहते हैं – "तदनंतर काली ने चंड और मुंड का मस्तक हाथ में लेकर चंडिका के पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा – देवि! मैंने चंड और मुंड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्ध-यज्ञ में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना।"

कौन है महापशु?

दैत्य हैं महापशु। आपके भीतर यह जो दानवीयता है, वही है पशु, उसी की बलि देनी है। तो जो देवी भक्ति का पूरा समुदाय है, वह बड़ी गलती करेगा अगर पशु से अर्थ समझेगा मुर्गा, बकरा या भैंसा इत्यादि। देवी ने स्वयं ही बता दिया है कि पशु कौन है। कौन है पशु? आपके भीतर जो दानव बैठा है, उसी की बलि देनी है, मुर्गे, भैंसे या बकरे की बलि नहीं देनी है। यह बात ग्रंथ स्वयं ही स्पष्ट किए दे रहा है कि पशु कौन है।

आपके अंदर जो पशुता है, वही पशु है, उसी की बलि देनी है।

प्र२: आचार्य जी, दुर्गा सप्तशती में कहानी के माध्यम से कोई चीज़ समझाई गई है और पुराणों में भी ऐसा रहा है, पर हमेशा यह होता है कि हम इनके अर्थ बाहर कर्मकांडों में ढूँढने लगते हैं। जैसे बलि की बात हुई तो किसी को मार दिया, पर आंतरिक तौर पर उनके अर्थ नहीं खोजते हैं। तो इन ग्रन्थों को या जहाँ पर भी कहानियाँ हैं या पुराण हैं, उनको पढ़ने का तरीका क्या है, सही तरीका क्या है?

आचार्य: देखो, अध्यात्म जगत को ले करके किस्सा-कहानी नहीं है।

अध्यात्म माने अपनी बात। जितना तुम जानते हो स्वयं को, आत्म को, उससे अधिक स्वयं को जानना अध्यात्म है। अधि-आत्म – और अधिक आत्म को जानना अध्यात्म है।

तो जो भी बात आध्यात्मिक ग्रन्थों में कही गई है, वह आपके ही बारे में होगी वरना वह आध्यात्मिक होती नहीं। कोई भी आध्यात्मिक ग्रंथ आपको सांसारिक जानकारी या ज्ञान देने के लिए नहीं होता, उसके लिए विज्ञान है, उसके लिए भूगोल है, उसके लिए इतिहास है। वो सब आपको सांसारिक जानकारी दे देंगे कि अतीत में क्या हुआ, किसी जगह पर क्या हुआ, पदार्थ में क्या चल रहा है, भौतिक जगत में क्या हो रहा है, यह सब आपको विज्ञान, भूगोल, इतिहास इत्यादि बता देंगे।

अध्यात्म आपको कुछ नहीं बताता बाहर का, बस आपके भीतर का ही सब कुछ बताता है। तो उसमें ऐसा लगे भी कि कोई बाहरी बात हो रही है तो गौर से पूछना, बात तो अंदरूनी ही होगी, मेरे अंदर की, मेरे मन की बात है ये।

हम गलती यह करते हैं कि अगर उसमें लिख दिया कि देवी ने ऐसा कहा कि मैं इस युग में उपस्थित होऊँगी तो तुम्हें लगता है कि यह कोई ऐतिहासिक बात है। ऐतिहासिक बात नहीं है, आंतरिक बात है। इतिहास नहीं हैं ग्रंथ, पुराण, अध्यात्म आदि। इसमें कुछ ऐसा नहीं है जो ऐतिहासिक हो। न भोगोलिक है, भले ही लिखा हो कि फलानी जगह पर ऐसा हुआ, पर वह जगह बाहर नहीं है, वह जगह भीतर है। आपके मन की जगह पर वह सब कुछ हुआ, हो रहा है आज भी, कल भी, लगातार।

यह हम बड़ी भारी भूल करते हैं कि हम आध्यात्मिक ग्रन्थों में विज्ञान खोजना शुरू कर देते हैं। लोग आते हैं, कहते हैं कि वेदों में तो पूरा विज्ञान छुपा हुआ है। नहीं, भाई, वेद आंतरिक जगत के शास्त्र हैं, उनका जगत से क्या लेना-देना? स्थूल भौतिक जगत से उन्हें क्या मतलब? पर चूँकि हम आंतरिक जगत से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं, तो हम वेदों को लेकर भी सोचने लगते हैं कि उसमें दुनिया के बारे में कोई जानकारी होगी। दुनिया के बारे में नहीं जानकारी है; आपके अंदर के जगत के बारे में जानकारी है।

वैसे हम सोचने लगते हैं कि फलानी घटना ज़रूर घटी थी, तो कोई बोलता है कि देखो, यह बारह हज़ार साल पहले की घटना है, यह तो चौबीस हज़ार साल पहले की घटना है, कोई लड़ रहा है कि यह तो तीन ही हज़ार साल पहले की घटना है। अरे बाबा, वह न बारह, न पंद्रह, न चौबीस, न तीन हज़ार साल; वह आज की घटना है, वह तुम्हारे भीतर घट रही है।

सब ग्रंथ तुम्हारे आंतरिक जीवन की कहानी बताते हैं, कोई ऐतिहासिक कहानी, किसी बाहर के जीवन की नहीं बताते। लोग ढूँढने निकल जाते हैं कि अच्छा, इस कहानी में यह लिखा है कि फलानी जगह पर ऐसा हुआ तो वहाँ कुछ अभी प्रतीक, कुछ निशान, कुछ चिन्ह, अवशेष वगैरह मिलेंगे। फिर किसी को मिल भी जाते हैं, वह बोलता है कि फलाना पत्थर मिल गया जिस पर देवी ने अपना पाँव रखा था। यह क्या है? बाहर का पत्थर नहीं ढूँढना है, भीतर का पत्थर ढूँढना है और कोशिश करनी है कि देवी उस पर पाँव रख दें, भीतर। बाहर क्या पत्थर वगैरह ढूँढ रहे हो?

बाहर कोई पत्थर मिल गया, उस पर देवी ने, देवता ने, कोई अवतार ने अपना पदचिन्ह अंकित किया था, वह मिल गया और फिर बहुत प्रसन्न हो जाते हो, पूजा शुरू कर देते हो। यह बिल्कुल नासमझी की बात है, बल्कि विक्षिप्तता की, और बड़ी यह भयानक बात भी है, क्योंकि जो आपको ऊँचे-से-ऊँचा ग्रंथ दिया गया है ताकि आप अंदर के जगत में जा सको, आपने उसका इस्तेमाल भी बाहर कुछ खिलवाड़ करने के लिए, कुछ उपद्रव करने के लिए कर लिया।

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