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लेख
पंख हैं पर उड़ान नहीं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
12 मिनट
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प्रश्नकर्ता: सर, हम मुक्त होते हुए भी मुक्त क्यों नहीं हैं?

आचार्य प्रशांत: कुछ सवाल महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन मैं कहता हूँ कि ये बहुत महत्वपूर्ण सवाल है। मुझे ये भी नहीं पता है कि ये जो सवाल पूछा गया है क्या उसे ये पता भी है कि उसने पूछा क्या है! लेकिन जो पूछा गया है वो बात बड़े काम की है। हो सकता है कि जानते-बूझते ये सवाल पूछा गया हो या हो सकता है कि अनजाने में पूछ लिया हो, लेकिन जैसे भी पूछा है, सवाल बड़े काम का पूछा है। मैं अगर ऑडियंस में होता तो तुम्हारे लिए तालियाँ ज़रूर बजाता।

(तालियों की गड़गड़ाहट)

कुछ तथ्यों पर ग़ौर करेंगे। फिर मैं तुमसे पूछूँगा कि इन तथ्यों से क्या बात पता चलती है।

पहला तथ्य: दुनिया मैं कोई ऐसा नहीं है जिसकी ये बहुत बड़ी आकांक्षा हो कि सब उससे नफरत करें। दुनिया में ना ऐसा कोई हुआ है और ना ऐसा कोई है जो ये चाहता हो कि उससे नफरत की जाए। वो जहाँ जाए उसे जूते पड़ें, लोग उसके ऊपर थूकें, छोटे-छोटे बच्चे कहें कि, “छी-छी, गन्दा”। हम सभी प्रेम पाना चाहते हैं।

इससे यह पता चलता है – प्रेम हमारा मूल स्वभाव है।

दूसरा तथ्य: दुनिया में कोई ऐसा नहीं है, ना हुआ, ना है, जो ग़ुलाम रहना पसंद करता हो। कोई ऐसा नहीं है जो कहता हो कि, “मुझे क़ैद में रखो, मुझे बंधन में रखो।” मजबूरी हो तो बात अलग है पर पसंद किसी को नहीं है।

इससे यह पता चलता है – हम सभी मुक्ति पाना चाहते हैं।

चाहने में तो ऐसा लगता है कि अभी चाह कर रहा हूँ, आगे हो सकता है ना भी करूँ। जैसे और कोई विकल्प हो। मैं तुमसे कह रहा हूँ, चूँकि, हम सभी गुलामी नापसंद करते हैं, इससे यह पता चलता है कि मुक्त रहना हमारा मूल स्वभाव है।

मैं एक कदम और आगे जाऊँगा और कहूँगा, हम और कुछ हैं ही नहीं मुक्ति के अलावा। क्योंकि जो चीज़ हमसे अलग नहीं हो सकती वो हम ही हैं। मुक्ति की चाह हमसे कभी अलग नहीं हो सकती। जो चीज़ मुझसे अलग नहीं हो सकती वो मैं ही हूँ। हाथ तो फिर भी कट कर अलग हो सकता है, लेकिन मुक्ति की चाह हमसे कभी अलग नहीं हो सकती।

तो अगर ये हाथ मैं हूँ तो इससे ज़्यादा सच्चा वक्तव्य है कि ‘मैं मुक्ति हूँ’। मैं ये कहूँ कि मैं ये शरीर हूँ, उससे भी ज़्यादा सच्ची बात ये है कि मैं मुक्त हूँ क्योंकि शरीर का कोई हिस्सा कट कर अलग हो सकता है लेकिन मुक्ति की आकांक्षा कभी अलग नहीं हो सकती।

इससे यह पता चलता है – मुक्ति हमारा मूल स्वभाव है।

तीसरा तथ्य: इसी तरीके से ये कहना भी उचित है कि ‘मैं सत्य हूँ’। हममें से कोई ऐसा नहीं है जो चाहता हो कि वो धोखे में रहे, झूठ में रहे। ना कभी ऐसा कोई हुआ था, ना है जो ये कहे कि, “मुझे जानना ही नहीं है, या कोई सवाल पूछूँ तो झूठ बता दिया जाए”, जो चाहता ही हो कि वो एक झूठी दुनिया में रहे या सब उसके साथ धोखा ही करें।

इससे यह पता चलता है – सत्य हमारा मूल स्वभाव है।

चौथा तथ्य: हममें से कोई ऐसा नहीं है जो चाहता हो कि वो उदास रहे। ना कभी ऐसा कोई हुआ था, ना आज है, जो ये चाहता ही हो कि वो उदास रहे। और जब उदास ना हो तो उसे अफ़सोस होता रहे, और वो इसी बात पर उदास हो जाए।

इससे यह पता चलता है – आनंद हमारा मूल स्वभाव है।

हम आनंद ही हैं। कोई ऐसा नहीं है जिसकी आकांक्षा ये हो कि ‘मुझे दुःख का जीवन जीना है’, एक छोटा बच्चा भी पैदा होता है तो उसे भी आनंद चाहिए। उसे भी तकलीफ दो तो वो रोएगा। वो भी खुश रहना चाहता है। छोटा बच्चा तो छोड़ दो, एक जानवर भी तकलीफ़ नहीं चाहता।

सत्य, प्रेम, मुक्ति, आनंद, जागृति, ये सब हमारा मूल स्वभाव है। ये हम ही हैं। ये हमें पानी नहीं होती हैं। जब तक हम हैं, तब तक सत्य है। ‘जिस क्षण तक मैं ज़िंदा हूँ, उस क्षण तक आनंद है।' करके नहीं पाना है।

हाँ इतना ज़रुर हो जाता है कि हम सीख इसका विपरीत लेते हैं। आनंद हमारा मूल स्वभाव होगा लेकिन हम दुःख सीख लेते हैं। बच्चा आनंदमय ही रहता है पर उसको सिखा दिया जाता है कि गंभीर हो जाओ। हँसना नहीं, गंभीर हो जाओ। माँ मंदिर लेकर गई है, वहाँ पर वो किलकारियाँ मार रहा है, इधर-उधर फुदक रहा है, सामने मूर्ति है, उसने जाकर माला झपट ली तो माँ डपट कर बोलती है, “यहाँ कोई खेल-कूद नहीं, यह गंभीर स्थान है।”

आनंद हमारा मूल स्वभाव है लेकिन हमें सिखा दिया जाता है कुछ और। प्रेम हमारा मूल स्वभाव है लेकिन हमें सिखा दी जाती है नफ़रत। ठीक इसी तरीके से मुक्ति हमारा मूल स्वभाव है लेकिन हमें ग़ुलामी सिखा दी जाती है। और यही तुम्हारे सवाल का जवाब है।

तुमने कहा हम मुक्त हैं और नहीं भी हैं। बात तुम्हारी सही है। मुक्ति तो मेरा मूल स्वभाव है लेकिन मैंने सीख ली है ग़ुलामी। सीख कैसे ली है? हमने कह दिया है कि मानना शुरू कर दो। जिस मुक्ति को मैं हमारा मूल स्वभाव कह रहा हूँ, वो मुक्ति है ‘मन की मुक्ति’ ( फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड )। उसके अलावा मुक्ति और कुछ होती भी नहीं है।

हमने ये सीख लिया है कि मन की मुक्ति पर समझौता किया जा सकता है इसलिए हम उसे छोड़ देते हैं। तो फिर मुक्त होते हुए भी हम मुक्त नहीं हो पाते। हैं मुक्त, पूर्ण रुप से लेकिन मुक्त रह नहीं जाते क्योंकि इस मुक्ति को हम खुद छोड़ देते हैं! ‘*फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड*’ क्या है? ‘ फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड * ’ कहती है कि, “मैं खुद जानूँगा।” और जाना जाता है ध्यान में, * अटेंशन में।

और ‘ फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड * ’ हम छोड़ते कैसे हैं? कि, “छोड़ न, जानने की ज़रुरत क्या है? ये बात जो कह रहे हैं बड़े-बड़े लोग हैं, ये मेरे शुभ-चिन्तक हैं, परिवार-जन हैं, शिक्षक हैं। ये सब बड़े-बड़े धर्म-ग्रंथों में लिखा हुआ है तो सच ही होगा।” अब तुमने * फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड पर ही समझौता कर दिया।

जैसे ही तुमने ये कहा कि, "मुझे खुद जानने की ज़रुरत क्या है? न्यूटन ने कहा है तो ठीक ही होगा, केपलर ने कहा है तो ठीक ही होगा, गीता में लिखा है तो ठीक ही होगा, या सब कर रहे हैं तो ठीक ही होगा", अब तुमने फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड पर ही समझौता कर दिया।

मुझे बहुत अफ़सोस होता है जब कॉलेज कैम्प्स में जाता हूँ और तुम्हारी उम्र के लोग मूर्खों जैसी बातें करते हैं। और बताता हूँ क्या होती हैं मूर्खों जैसी बातें। वो ये होती हैं – “सर, दुनिया ऐसे ही तो चलती है”, “सर, ऐसा ही तो होता है”, “सर, आपकी बातें बड़ी अव्यवहारिक हैं, ऐसा होता नहीं है”, “सर, दुनिया ऐसे नहीं चलती है”। मैं पूछता हूँ तुम अभी इतने से हो, अट्ठारह-बीस साल तुम्हारी उम्र है, तुमसे कह किसने दिया कि दुनिया ऐसे ही चलती है? क्या तुमने खुद देखा है अपनी नज़रों से?

(मौन)

तुममें से कितने लोग किसी कॉर्पोरेट ऑफिस के अन्दर भी गए हो? शायद ही कोई होगा। तो तुमसे कह किसने दिया कि दुनिया ऐसे चलती है? “नहीं सर ऐसे ही चलती है, पता है।” कैसे पता है? “सर, वो… वो… “ इसका कोई जवाब नहीं है तुम्हारे पास। और जवाब ये है कि किसी फिल्म में देख लिया या घर में किसी ने बोल दिया या दोस्तों ने बता दिया और फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड गई, खुद जानना गया!

एक छोटा बच्चा होता है, बड़ा उत्सुक होता है, बड़ा क्यूरियस होता है। वो छोड़ता नहीं है और उसके समझ में नहीं आई है तो तुम उसे लाख मनवा लेने की कोशिश कर लो, वो ये कभी भी नहीं कहेगा कि मान लिया। वो हद-से-हद ये करेगा कि समझ में नहीं आई तो चलो भूल जाते हैं, जाने दो। लेकिन मानेगा नहीं।

हम ऐसे हैं कि जिसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है पर माने बैठे हैं। मैं तुमसे पूछता हूँ; ‘शिक्षा’ शब्द का मतलब पता है? मुश्किल है। ‘धर्म’ का पता है? मुश्किल है। ‘कॅरिअर’ का मतलब पता है? मुश्किल है। ‘पैसे’ का मतलब पता है? मुश्किल है। ‘तनख्वाह’ का मतलब पता है? मुश्किल है। ‘भगवान?’ मुश्किल है। ‘मैं’ का मतलब पता है? बड़ा मुश्किल है। पता कुछ भी नहीं है पर इन्हीं शब्दों के आधार पर ज़िन्दगी हम जीये जा रहे हैं। गई फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड !

पता नहीं है पर मान लिया है। तुमने अभी से तय कर लिया है कि इस-इस तरीके से जीवन को जीना है। इसी बात को मैं कह रहा हूँ कि जवान होते हुए भी जवान हो नहीं। अभी से मान ही लिया है कि ‘यही जीवन है’!

पढ़ाई पूरी करनी है, उसके बाद तीन-चार तरह के विकल्प हैं, सॉफ्टवेयर जॉब कर ली या कोर जॉब कर ली, एम.एस. कर ली या एम.बी.ए. कर ली और उसके तीन-चार साल बाद शादी हो गई, फिर बच्चे हो गए। और फिर ठीक जैसी ज़िन्दगी हमने जी है, वैसी ही वो बच्चे भी जियें, ये हम पूरी-पूरी कोशिश करेंगे, और एक दिन मर जाएँगे। कहाँ है ‘*फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड*’ इसमें? कहानी पहले से ही लिखी जा चुकी है। मुक्ति कहाँ है इन सब में? तुमने सीख लिया है ये सब। एक छोटे बच्चे ने ये सब अभी नहीं सीख रखा।

‘मुक्त होते हुए भी हम मुक्त नहीं हैं’, ये बिलकुल ठीक बात है।

याद रखना कोई कानून, कोई संविधान, कोई व्यवस्था मुक्ति नहीं दे सकती अगर तुम्हारे पास फ्रीडम ऑफ़ दी माइंड नहीं है।

संविधान अधिक-से-अधिक यही तो बता देगा कि बोलने की स्वतंत्रता है। पर बोलोगे क्या तुम, जब बोलने के लिए कुछ है ही नहीं? जब मन ही मुक्त नहीं है तो बोलोगे क्या?

संविधान इतना तो ही बोल देगा न कि तुम्हें पूरा हक़ है अपनी निजी ज़िन्दगी को अपने हिसाब से जीने का, जिससे चाहे दोस्ती करो, जिससे चाहो प्रेम करो और जिससे चाहो शादी करो। पर जब मन ही मुक्त नहीं है तो तुम उस स्वतंत्रता का क्या उपयोग कर पाओगे? कुछ भी नहीं। तुम जाओगे और मैच करोगे अपनी जाति, अपना गोत्र, अपना धर्म और वहीँ पर जाकर शादी कर लोगे। गई *फ्रीडम*।

मूल मुक्ति मन की मुक्ति है। तुम्हें पूरी आज़ादी है कोई भी कॅरिअर चुनने की पर मैं नब्बे प्रतिशत आश्वस्त हूँ कि अगर मैं यहाँ पर दस कॅरिअर ऑप्शन्स लिख दूँ, तो आज से तीन साल बाद हम में से ज़्यादातर उन दस में कहीं-न-कहीं फिट कर देंगे अपने आप को। कहाँ है फ्रीडम ?

जब हमारे सारे कॅरिअर ऑप्शन्स पूर्वनिर्धारित हैं, तो फ्रीडम कहाँ है? फ्रीडम थी, पूरी उपलब्ध थी, कुछ भी कर सकते थे पर करोगे नहीं। कर कुछ भी सकते थे पर करोगे नहीं।

एक हाथी का बच्चा होता है। जब छोटा होता है तो उसके बहुत ताक़त तो होती है नहीं क्योंकि अभी पैदा हुआ है, पंद्रह-बीस दिन हुए हैं उसे, तो उसको एक खूँटे से बाँध दिया जाता है। और एक रस्सी है जो बहुत लम्बी नहीं है, छोटी-सी ही है। अब बच्चा अपनी पूरी कोशिश करता है मुक्त होने की क्योंकि मुक्ति हमारा मूल स्वभाव है।

वो पूरी कोशिश करता है। वो गोल-गोल घूमता है, सब तरीके अपना कर के देख लेता है। वो जितना घूम सकता है उस खूँटे के चारों ओर घूम लेता है। फिर महावत उसके चारों ओर एक बड़ा सर्किल बना देता है। वो ये पाता है कि कितनी भी कोशिश कर ले उस सर्किल के पार नहीं जा सकता।

आगे चलकर बड़ी मज़ेदार घटना घटित होती है। वो घटना ये है कि वो हाथी पूरा बड़ा हो जाता है लेकिन उसके बाद भी उसको उतनी ही पतली सी रस्सी से खूँटे में बाँध कर रखा जाता है और वो कभी भी उस सर्किल को पार नहीं करता, मुक्त होते हुए भी।

मुक्ति उसे पूरी है, पार कभी भी कर सकता है, लेकिन पार नहीं करता। फ्रीडम उसे पूरी है, पार भी कर सकता है, लेकिन पार करता नहीं है। इसलिए मुक्त होकर भी मुक्त नहीं है। यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है।

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