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लेख
पढाई, संसार, और जीवन के निर्णय || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
15 मिनट
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल मेरी परीक्षा है, लेकिन मन शांत नहीं है। मैंने प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय वर्ष में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। पर इस वर्ष ऐसा हो रहा है कि मन बड़ा अशांत है। कुछ ही घण्टे बचे हैं। आपका आशीर्वाद मिल जाएगा तो कल का दिन बहुत ही अच्छा जाएगा।

आचार्य प्रशांत: आशीर्वाद लेने से क्या होगा, जाकर पढ़ाई करो बेटा। यही आशीर्वाद है। और मन को क्यों इतना महत्त्व दे रहो कि शांत है या अशांत है। हो गया मन शांत, तो उससे क्या पा जाओगे?

मन तुम्हारी छाया है। तुम दृढ़तापूर्वक चल पड़ो कहीं को, छाया को पीछे-पीछे आना ही पड़ेगा। ऐसा हुआ कि किसी की छाया ने कहा हो कि “मैंने तो खूँटा पकड़ लिया, अब तुम्हें आगे नहीं जाने दूँगी”? तुम छाया का निर्धारण करते हो, छाया तुम्हारा निर्धारण नहीं कर सकती।

मन तो तुम्हारा तुम्हारे पीछे-पीछे आएगा, तुम जान तो दिखाओ।

मन की शांति-अशांति, सहमति-असहमति, इनकी परवाह नहीं किया करते। जानते हो मन पर कितने तरह के प्रभाव पड़ते हैं इधर से, उधर से? गिनती भी नहीं कर पाओगे। लाखों सालों के संचित प्रभावों का नाम है ‘मन’। उसको तो कोई भी, किधर को भी खींच सकता है। लेकिन ये याद रखो कि तुम्हारी ताक़त, आत्मा की ताक़त, मन पर पड़ते किसी प्रभाव की नहीं है।

दोनों बातें बोल रहा हूँ।

एक तो ये कि मन पर करोड़ों प्रभाव आजतक पड़े हैं, और मन ने उनको सोख लिया है, अंगिकार कर लिया है। वो तुम्हें कभी इधर को, कभी उधर को ढकेलते रहते हैं। और दूसरी बात मैं कह रहा हूँ कि मन पर आजतक जितने प्रभाव पड़े हैं उनका कुल सामर्थ्य जोड़ भी लिया जाए, तो वो भी आत्मा के सामर्थ्य के आगे कुछ नहीं।

तो तुम आत्मिक रूप से, हार्दिक रूप से बढ़ो किधर को भी, मन आएगा छाया की तरह पीछे-पीछे। मन की औक़ात नहीं कि वो चू-चपर करे। चू-चपर कर भी रहा है तो करने दो, पीछे तो उसे आना ही पड़ेगा। आगे मैं कुछ नहीं बोलूँगा, चलो चुपचाप पढ़ाई करो।

प्र१: मेरे पिताजी ने कंप्यूटर साइंस से ग्रेजुएशन कराया था मुझे, जिसे करने में मेरा मन नहीं लगा। फिर मैं योग के क्षेत्र में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने में लग गया। पिछले चार वर्षों से योगशिक्षा दे रहा हूँ, लेकिन फिर भी बहुत सफलता नहीं मिली है। ख़ास आमदनी भी नहीं होती है।

इस स्थिति में मैं क्या करूँ? मेरे लिए अगला क़दम क्या है?

आचार्य: जगत को कुछ ऐसा दोगे जो उसके लिए वास्तव में मूल्यवान हो, और उसको समझा भी पाओ कि क्या मूल्य दे रहो हो तुम, तो जगत तुमको वो देगा जिसको तुम ‘सफलता’ इत्यादि बोलते हो। या फिर तुम जगत को बुद्धू बनाने लग जाओ, तो भी जगत तुमको सफलता दे देता है। तो जो ये तथाकथित सफलता है, ये दो ही तरीकों से आती है।

अच्छा है कि तुम सही तरीका चुनो, लोगों को वो दो जो वास्तव में मूल्य रखता है। जो विधियाँ योग इत्यादि की तुम सिखा रहे हो, देखो कि लोगों को क्या उससे वास्तव में लाभ हो रहा है। लाभ हो रहा होगा तो वो क्यों नहीं तुम्हारे पास लौटकर आएँगे? क्यों नहीं तुम्हारा काम आगे बढ़ेगा?

पर दूसरी बात और भी देखो।

लोगों को पता भी चलना चाहिए कि उन्हें लाभ हो रहा है। क्या तुम ठीक से इस बात को सम्प्रेषित कर पा रहे हो, बता पा रहे हो कि लोगों को लाभ हो रहा है? कई बार देना ही काफ़ी नहीं होता, जताना भी पड़ता है। समझाना भी पड़ता है कि क्या लाभ हुआ, क्योंकि जिसको लाभ दे रहे हो, वो हो सकता है कि इस स्थिति में ही ना हो कि लाभ को समझ पाए।

अगर हठयोग की तुम बात कर रहे हो, तो उसमें ऐसा होगा नहीं, क्योंकि लाभ बहुत स्पष्ट और स्थूल होता है। दैहिक तल पर होता है, दिख ही जाता है कि शरीर को लाभ हुआ है। कुल मिला-जुलाकर तुमने जो क्षेत्र पकड़ा है, वो तो अच्छा ही है। उसमें या तो अपनी प्रवीणता, अपनी योग्यता को बढ़ाओ, या फिर लोगों को समझाओ कि तुम योग्य तो हो ही, बात बस कम्युनिकेशन (सन्देश) की है।

आज के समय में जब तन-मन मनुष्य के दोनों बेकार, बीमार होते ही जा रहे हैं, उस समय में यदि कोई कहे कि योग जैसी साधना सिखाने के बावजूद उसे मूल्य-महत्त्व नहीं मिल रहा है, तो इसका मतलब जो सिखाया जा रहा है, अभी उसमें ही प्रवीणता नहीं है। और गहराई से अपने क्षेत्र में प्रवेश करो। जो तुम्हारे सामने सीखने वाले शिष्य, साधक आते हैं, उनसे और गहरे सम्बन्ध स्थापित करो। मात्र सिखाओ ही नहीं, समझाओ भी।

प्र३: मेरी मनोस्थिति अभी ये है कि ना ही मुझे संसार में फैले हुए इस जाल का ज्ञान है, और ना ही मुझे गुरु के वचनों की पूरी समझ है। हाँ, एक आकर्षण ज़रूर है गुरु के व्यक्तित्व के प्रति। क्या ऐसा करना सही रहेगा कि गुरु को ही एक उदाहरण मानकर, उनपर विश्वास रखकर ही मैं चल पड़ूँ, और वही चीज़ मुझे आख़िर तक ले जाएगी?

आचार्य: हाँ, बिलकुल हो सकता है, लेकिन अगर गुरु को उदाहरण बना रहे हो तो फिर उसमें अपनी मान्यताएँ और अपना व्यक्तित्व बीच में मत लाना। गुरु को तुमने उदाहरण बनाया, गुरु तुम्हारे सामने कई तरह के उदाहरण रखते हैं। वो कभी नहीं कहेंगे कि – “मुझसे या मेरे निजी व्यक्तित्व से ही चिपककर रह जाओ।” वो तुमसे सब चाँद-तारों की बात करेंगे, उनकी ओर भी देखना।

क्योंकि कई बार इसमें हमारा स्वार्थ भी छुपा होता है कि बस हम ‘गुरु’ नामक एक ही व्यक्ति की ओर देखेंगे। उस व्यक्ति की भौतिक सीमाएँ होती हैं, उस व्यक्ति की एक स्थिति होती है, उस स्थिति में वो हो सकता है कि भौतिक रूप से सर्वांग-सर्वगुण सम्पन्न ना हो, तो इससे ‘गुरु’ को आदर्श बनाने वाले को सुविधा हो जाती है।

हुए हैं कई संतजन, उदाहरण के लिए, जो शारीरिक रूप से ज़रा बेडौल थे। रामकृष्ण परमहंस के गुरु थे तोतापुरी महाराज। अब तुम देखोगे तो, उनकी थी इतनी बड़ी तोंद। अब तुम ख़ुद मोटे आदमी हो, तुमने कहा, “मैं तो गुरु को ही उदाहरण बनाऊँगा”, ये स्वार्थ की बात हो गई न। तुमने गुरु पकड़ा ही इस दृष्टि से है कि जलेबियाँ चलती रहें।

तो ठीक है, तुम्हारी निष्ठा सम्माननीय है, सुन्दर है। तुम गुरु को ही उदाहरण बनाना चाहते हो, लेकिन फिर गुरु तुम्हें अन्य जिन उदाहरणों की ओर प्रेषित करे, वहाँ जाने से इंकार मत करना।

आओ गुरु के पास। और फिर गुरु कहे, “वहाँ चले जाना”, तो ये मत कहना कि – “इतनी तो आपमें श्रद्धा रखता हूँ कि आप तक आ जाऊँगा। लेकिन इतनी श्रद्धा नहीं रखता कि आप जिधर को भेजेंगे वहाँ को चला भी जाऊँगा।” ये बात बेईमानी की हो गई। गुरु के पास आ रहे हो अगर, तो गुरु जब दूर भी भेजे, तो दूर चले जाओ। जिस दिशा भेजे उस दिशा चले जाओ। ये मत पूछो कि, "मिलेगा क्या?"

ठीक है?

प्र४: अध्यात्म जीवन में अवतरित होने के बाद सांसारिक और पारिवारिक कार्यों में मन नहीं लगने का क्या समाधान है?

आचार्य: सांसारिक-पारिवारिक कार्यों से मन नहीं उठ जाता अध्यात्म की वजह से।

अध्यात्म की वजह से बेवकूफ़ी से मन उठ जाता है।

अध्यात्म का बिलकुल विरोध नहीं है संसार-परिवार-समाज से।

अध्यात्म तो जीवन को सच्चाई और सौन्दर्य देने का विज्ञान है।

अध्यात्म का विरोध है तो बेवकूफ़ी से।

जहाँ कहीं भी मूर्खता होती है, विवेकहीनता होती है, छद्म षड़यंत्र होते हैं, छल और प्रपंच होते हैं, अज्ञान का अँधेरा होता है, अध्यात्म उनपर रौशनी डालता है। उन सबको ख़त्म कर देता है अध्यात्म।

अध्यात्म का काम है सच्चाई को, निर्भीकता को, सुन्दरता को आगे बढ़ाना।

लेकिन ये सुनने को ख़ूब मिलता है कि जबसे जीवन में अध्यात्म आया है, तबसे परिवार में समस्याएँ बढ़ गई हैं, इत्यादि। अध्यात्म तो बेवकूफ़ी के ख़िलाफ़ है। अध्यात्म जीवन में आया, परिवार में समस्याएँ बढ़ गईं, इससे क्या बात समझ में आती है? इससे तो यही पता चलता है कि परिवार बेवकूफ़ियों का अड्डा था, और है। तो अध्यात्म आया नहीं कि बेवकूफ़ियों पर चोट पड़ रही है करारी।

पेट में कीड़े हों, और तुम कीड़े मारने की दवाई खाओ, और भीतर से आवाज़ आए ज़ोर से, “अरे, ये दवाई बड़ी घातक है, ये तो मार ही डालेगी”, तो क्या ये तुम्हारी आत्मा की आवाज़ है? ये कीड़ों की आवाज़ है। वो दवाई शरीर के लिए घातक नहीं है, वो दवाई कीड़ों के लिए घातक है। तो अध्यात्म कीड़े मारने वाली दवाई है। उससे अगर किसी को तकलीफ़ हो रही है तो वो कीड़ा है। बल्कि कीड़ा कौन है ये जानने के लिए अध्यात्म सर्वोत्तम विधि है। जिनको अध्यात्म से तकलीफ़ होती है, वो ही कीड़े हैं।

अध्यात्म ताप है।

मोम के पुतले खड़े हों, और लोहे के पुतले खड़े हों, अध्यात्म आग है, जला दो आग। जो पिघलने लगे और हाय-हाय करने लगे, जान लेना यही नकली है, यही मोम का था। अन्यथा पता नहीं चलता। दूर से देखो तो मोम पुतला भी लकड़ी के, लोहे के, ताँबे के, किसी भी रंग में रंग सकते हैं उसको।

पर अध्यात्म तो आग है, लपट है। उसके सामने तो मोम त्राहिमाम शुरू कर देता है। अब कीड़े भीतर से चिल्ला रहे हैं, “अरे, अरे, ज़हर खा लिया है तुमने। अब मरोगे!” तो कीड़ों की सुन मत लेना। कीड़े अपने स्वार्थ के लिए तुम्हें भटका रहे हैं। तुम नहीं मरोगे। ज़हर नहीं खा लिया तुमने, तुमने दवा खाई है।

परिवार में सच्चाई होनी चाहिए, रिश्तों में मधुरता होनी चाहिए, रस होना चाहिए, प्रेम होना चाहिए, निष्कामता होनी चाहिए। उसकी जगह पारिवारिक रिश्ते अगर भ्रम पर, मोह पर, स्वार्थ पर, कामनाओं पर आधारित हैं, तो अध्यात्म से उन रिश्तों पर चोट तो पड़ेगी न।

और याद रखना –

अध्यात्म रिश्तों की कालिमा, मलिनता, कलुष के ख़िलाफ़ है, रिश्तों के ख़िलाफ़ नहीं है।

ये भी बड़ा भ्रम व्याप्त है समाज में कि – “साहब, अध्यात्म तो रिश्ते तोड़ देता है।” नहीं, रिश्ते नहीं तोड़ देता है अध्यात्म। अध्यात्म रिश्तों की सफ़ाई करता है।

अध्यात्म रिश्तों की सफ़ाई करता है, मैल हाय-हाय करके चिल्लाती है कि, “बर्बाद हो गए, बर्बाद गए।” मैल ही बर्बाद हुई है, कीड़े ही बर्बाद हुए हैं, मोम का पुतला ही पिघला है। लोहे के पुतले नहीं पिघले, शरीर को हानि नहीं हुई। वस्त्र को हानि नहीं हुई है, मैल को हानि हुई है। वस्त्र तो अब निखर कर, चमक कर सामने आएगा।

जो रिश्ते आध्यात्मिक बुनियाद पर बनते हैं, उनसे प्यारे रिश्ते दूसरे होते हैं क्या? और जो रिश्ते आध्यात्मिक बुनियाद पर नहीं हैं, उनके साथ तुम जी कैसे लेते हो, बताओ? वो रिश्ते नहीं होते, वो रक्त-पिपासु कीड़े ही होते हैं फिर, जो तुम्हारी आँत के भीतर पल रहे हैं बस, और ख़ून पीना चाहते हैं।

रिश्ते तोड़ने की कोई बात नहीं है। संतों के रिश्ते तो पूरे संसार से बन जाते हैं। अध्यात्म अगर रिश्ते तोड़ने का खेल होता, तो संत क्यों कहते, “पूरा ब्रह्माण्ड ही हमारा परिवार है”? अध्यात्म तो रिश्ते बनाता है, रिश्ते जोड़ता है – सुन्दर तरीक़े से, साफ़ तरीक़े से।

प्र५: प्रणाम, आचार्य जी। कुछ समय पहले मुझे आपके दर्शन-सत्संग का लाभ मिला था। तब आपने मुझे नेति-नेति एवं शास्त्र अध्ययन के लिए प्रेरित किया था। मैं पूर्ण प्रयास से दोनों कर रहा हूँ। बहुत से व्यक्ति, वस्तुएँ, विचार सहज ही छूट रहे हैं। शास्त्र अध्ययन से अब मुझे यह आभास स्पष्टता से मिल रहा है कि आप एवं सभी शास्त्र एक ही हैं। प्रश्न उठने कम हुए हैं, बल्कि अब तो कोई प्रश्न उठता ही नहीं। और जैसा है, उसका स्वतः शास्त्रों से सहज उत्तर मिल जाता है।

आगे यहाँ से मेरे लिए क्या मार्गदर्शन है, कृपया बताएँ।

आचार्य: ठीक जा रहे हो, बस चलते रहो। अभी जहाँ पहुँचे हो, उसको बस शुरुआत भर मानो। शास्त्र अनंत राशि हैं। जितना उनमें गहरे जाओगे, उतनी उनमें सम्पदा पाओगे। शुरुआत में ही लाभ होने लगा है, लक्षण बहुत शुभ है। अब आगे बढ़ते रहो। जितना मिला है, उससे सन्तुष्ट होने की कोई बात नहीं। बहुत है अभी पाने को।

प्र६: आचार्य जी, आपके मार्गदर्शन के अनुसार मैं कुछ समय से बैडमिंटन खेल रहा हूँ। कल शाम मुझे कुछ रुचि हुई, और मैंने गूगल सर्च करके देखा, तो मैंने कहीं पढ़ा कि शटल कॉक बनाने के लिए,पक्षियों की ह्त्या की जाती है। यह पढ़कर मैं बहुत उदास हुआ। क्या मुझे यह खेल अब आगे खेलना चाहिए?

आचार्य: तुम ये जो बात बता रहे हो, ये आज से दशक-दो दशक पहले की है। बहुत दिनों से मैंने बैडमिंटन खेला नहीं है, इसीलिए शायद ठीक-ठीक ब्यौरा ना दे पाऊँ। लेकिन थोड़े से पैसे अगर और ख़र्च करोगे, तो अर्टिफिशियल (कृत्रिम) शटल कॉक आती हैं अब, प्लास्टिक या किसी अन्य पदार्थ की बनी हुई। वो चलती भी ज़्यादा हैं। पर मुझे लग रहा है कि वो थोड़ी महँगी होती होंगी।

देखो, आदमी के रचे जितने खेल हैं, उनमें आदमी की बीमारियाँ और वृत्तियाँ भी परिलक्षित तो होती ही हैं। अब क्रिकेट खेलते हो आप, उसमें जो गेंद होती है वो चमड़े की होती है। बल्ला लकड़ी का होता है। विकेट भी लकड़ी के हुआ करते थे, अब शायद लकड़ी के नहीं होते हैं। गिल्लियाँ भी लकड़ी की होती थीं, अब शायद लकड़ी की नहीं होती हैं। तो ये सब जिस समय की खोज हैं, उस समय की सब बीमारियाँ और दुर्गुण भी इन खेलों में दिखाई तो देंगे ही न।

बैडमिंटन खेलते हो तुम, रैकेट पर जो पट्टा लगा होता है, वो भी मैं समझता हूँ कि किसी समय में चमड़े का ही होता था। अब धीरे-धीरे चीज़ें बदलेंगी। लेकिन फिर भी ये पक्का ही है कि आदमी ने जो कुछ भी आविष्कृत किया है, उसमें आदमी की बीमारियाँ भी सम्मिलित हो ही जाती हैं।

लोहे का खनन नहीं होगा, या एलुमिनियम का खनन नहीं होगा, तो बैडमिंटन का रैकेट बनना बड़ा मुश्किल है। इसी तरीक़े से हम प्लास्टिक से होने वाले ख़तरों की बात करते हैं – बैडमिंटन रैकेट का जाल, बैडमिंटन की शटल, रैकेट के तार, मैं समझता हूँ इन सब में आज भी प्लास्टिक का प्रयोग तो हो ही रहा है।

तो खेलों की उपयोगिता है, निश्चित रूप से है। खेलना चाहिए। लेकिन हाँ, एक बिंदु आता है जब दिखने लगता है कि अगर खेल आदमी ने रचा है, आदमी ने ईजाद किया है, तो उसमें आदमी के दुर्गुण भी हैं। खेल में ही हैं, खेल की रचना में ही हैं।

हमारे खेल, देखते नहीं हो, एक दूसरे को पछाड़ने के खेल हैं? हम खेलते समय भी एक-दूसरे को पछाड़े बिना नहीं खेल सकते। अब कहने को खेलने गए हैं, लेकिन वहाँ भावना यही है कि दूसरे पर भारी पड़ें।

हमारा ऐसा कोई खेल है ही नहीं जो प्रेम का हो।

हमारा ऐसा कोई खेल है ही नहीं जिसमें हार कर जीता जाता हो।

हमारा कोई खेल है ही नहीं जिसमें तुम्हें अंक इस बात के मिलेंगे कि तुमने डूबते को सहारा कितना दिया।

हमारे खेल सारे यही हैं कि – “पटक कर मारो। बचना नहीं चाहिए।”

और कुछ तो ऐसे ही हैं कि मुँह पर मुक्का पड़ना चाहिए, तभी अंक मिलेंगे। और इतनी ज़ोर से मारो कि गिर ही पड़े, दोबारा उठे ही नहीं, तो नॉक-आउट मिल जाएगा, बढ़िया!

हम ही ने रचे हैं न, तो हमारे ही जैसे हैं। हम जैसे, वैसे हमारे खेल। पर तुम अभी खेलो। अभी खेलो। अभी इतना आगे नहीं बढ़े हो तुम कि सब खेलों की निरर्थकता तुमको दिखने लग जाए।

ज़रा अट्ठारह-बीस साल के हो जाओ, तब मैं देखूँ कि तुम अन्य खेलों में फँस रहे हो या नहीं। जब देखूँगा कि तुम किसी खेल में नहीं फँस रहे हो, तब मैं कहूँगा, “तुम चिड़िया को भी छोड़ दो।” अभी तो बहुत चिड़ियाएँ आएँगी, उनको छोड़कर दिखाओ पहले। फिर शटल कॉक को छोड़ने की बात करना।

ये चिड़िया और कॉक का खेल तो अभी शुरू होना बाकी है तुम्हारी ज़िंदगी में। उससे ऊपर उठे तो फिर ये रैकेट भी छोड़ना। नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी। गहरी वृत्ति बची रहेगी, ऊपर-ऊपर की चीज़ें छोड़ दोगे, उससे कोई लाभ नहीं होगा।

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