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लेख
निंदनीय क्या, संसार या अज्ञान?
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रयदूषितं।

असारं निन्दितं हेयमि ति निश्चित्य शाम्यति॥९- ३॥

अनुवाद: यह सब अनित्य है, तीन प्रकार के कष्टों (दैहिक, दैविक और भौतिक) से घिरा है, सारहीन है, निंदनीय है, त्याग करने योग्य है, ऐसा निश्चित करके ही शांति प्राप्त होती है।

~ अष्टावक्र गीता ( अध्याय - ९, श्लोक – ३)

आचार्य प्रशांत: थोड़ा टेढ़ा है मामला, ध्यान से समझिएगा। जो अनित्य है, अनित्य माने जो लगातार बदल रहा है लगातार। जो अनित्य है ही, जो असार है, उसकी निंदा भी अनित्य और असार ही होगी। नहीं समझ रहे हो आप? अच्छा मैं एक सवाल पूछता हूं, बताइएगा ठीक ठीक। यहां पर एक छाया पड़ती है या वही सांप और रस्सी वाला क्लासिकल उदाहरण ले लो: यहां पर रस्सी रखी हुई है, अनित्य है, असार है, आपने उसको सांप समझ लिया है, या फूलों की बड़ी प्यारी माला समझ लिया है या कुछ भी समझ लिया है। अब जब सत्य दिखे, तो क्या आप उसकी निंदा करोगे? क्या निंदा करोगे उसकी? वह अनित्य भी और असार भी है। तो क्या करोगे उसकी? कुछ नहीं करोगे? हां! निंदनीय अगर कुछ है तो यह है कि मन वही प्रातिभासिक में अटक कर रह गया है, और स्पष्टतया देख भी नहीं पा रहा है।

संसार नहीं निंदनीय है, संसार को ठीक ठीक न देख पाना निंदनीय है। स्पष्ट समझिएगा! संसार नहीं निंदनीय है, संसार नहीं असार है। जब वह कह रहे हैं कि निंदा करने योग्य है, तो बात थोड़ी सी पेंचदार है। निंदा संसार की नहीं करनी है, निंदा उस मन की करनी है जो भटका हुआ है। निंदा का अर्थ यह है कि मैं नहीं देख पा रहा हूं कि संसार मन में ही है। निंदा योज्ञ सिर्फ वह स्थिति है जहां पर उसे देख पाने के लिए जो दूरी आवश्यक है मन से, मैंने वह दूरी नहीं बनाई है। अर्थात् अंततः निंदनीय हैं सिर्फ साक्षी भाव का अभाव।

दो तीन कदम हैं इस बात में, समझिएगा। पहली बात, वह नकली है तो क्या वह निंदनीय हुआ? निंदनीय तो यह बेवकूफ हुआ न जिसको दिख नहीं रहा है कि वह नकली है। क्या रस्सी आकर कहा था कि मुझे असली समझो? क्या रस्सी की कोई इच्छा हैं तुम्हें बेवकूफ बनाने की? क्या संसार ने तय कर रखा है कि तुमको पीड़ा देगा और बेवकूफ बनाएगा?

तुम्हारी पीड़ा किस कारण हैं? अपने कारण है कि तुम संसार को नहीं समझ पा रहे हो। यह तो पहला कदम है; संसार कहा हैं? मन में। मन को समझ पाओ, इसके लिए क्या ज़रूरी है? थोड़ी दूरी पर रहना, साक्षित्व का होना। तो अंततः निंदनीय क्या हुआ? क्या संसार, क्या मन? साक्षी भाव का अभाव। क्योंकि संसार में तो कुछ है ही नहीं निंदनीय। उसने थोड़ी कहा था कि मैं तुम्हें पीड़ा देना चाहता हूं। वह तो रस्सी पड़ी हुई थी, तुमने सोचा कि यह वरमाला है और फिर वरमाला नहीं निकली तो तुम अब उदास हो रहे हो कि, हाय! मैं तो रह गया ऐसे ही। वह रस्सी थोड़ी कहने आई थी कि मैं वरमाला हूं। और तुम रो रहे हो कि बीवी मिलते मिलते रह गई। अरे, वह थी ही कहां बीवी! तुम्हें लग रहा है कि वह वरमाला रखी था, थी ही नहीं।

संसार नहीं निंदनीय है, क्यों? मन बेचारा करे क्या? मन का तो काम ही है, कहीं जाना? वस्तुओं की ओर जाना, संसार की ओर जाना। तो अंततः दोष किसका? दोष उसका, जो देख सकता हैं पर सोया पड़ा है, वहीं साक्षी भाव का अभाव।

निंदा संसार की मत कर बैठिएगा।

प्रश्नकर्ता: न दुनिया में।

आचार्य: न दुनिया में, न मन में। न दुनिया में, न में न मन में।

दुनिया और कुछ कर नहीं सकती, रस्सी और कुछ कर नहीं सकती पड़े रहने के अलावा। क्या उसके पास कोई विकल्प है? मन कुछ और कर नहीं सकता भटकने के अलावा, क्या कोई विकल्प है? पर तुम कुछ और कर सकते थे। तुम जान सकते थे, तुमने जाना नहीं। तो निंदा किसकी? निंदा किसकी? न रस्सी की, न मन की, निंदा तुम्हारे विचलन की। और यह तुम्हारे से अर्थ मन नहीं है। आ रही है बात समझ में?

प्र: एक भोले आदमी को कोई नहीं छल सकता

एक स्टूडेंट है जो फोर्थ ईयर में आ कर कहता है, कॉलेज धोखेबाज़ निकला। उससे पहले जाए तो एडमिशन एक धोखा था, उससे पहले जाए तो स्कूलिंग धोखा थी।

आचार्य: जिन लोगों ने यह हरकत कर दी है और पता नहीं कैसे जीते होंगे वह? इन्होंने यह कह दिया कि संसार निंदा योग्य है, त्याग करने योग्य है। कैसे जीते होंगे, क्या खाते होंगे, क्या पीते होंगे, क्या छूते होंगे!

प्र: इस श्लोक का जो अर्थ लिखा है वो होगा भी नहीं!

आचार्य: कुछ होगा भी नहीं। बिल्कुल, क्या है बताइए?

प्र: इसका अर्थ यह है अनित्य, असार, निंदनीय, इन सब चीजों का त्याग कर ही सानिध्य प्राप्त हो सकती है। यह जानकर यह संसार अनित्य है, यह तीन ताप से दूषित है, असार् है, निंदनीय है, हेय है, यह जानकर ही शांति प्राप्त होगी।

आचार्य: पर इसमें अभी भी भाव यहीं आ रहा हैं न कि संसार निंदनीय हैं।

प्र: संसार तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। यह इन्होंने पुष्टि भी नहीं की है कि...।

आचार्य: सही बात तो यह है कि कहा जाएगा कि संसार शब्द तो लिखा भी नहीं हुआ है। जो असार् है, जो अनित्य है, उसको जानकर के जीवात्मा शांति को प्राप्त करता है। और क्या निंदनीय हैं, भूलिएगा नहीं। यह बात कतई स्वीकार योग्य नहीं है कि संसार निंदनीय हैं।

प्र: संसार तो इसमें आया ही नहीं हैं।

आचार्य: यह मतलब इनका अपना आविष्कार हैं।

प्र: लेकिन इसमें यह कही नहीं कहा गया है कि संसार में व्याप्त हैं। यह बस यह कहा गया है कि को भी अनित्य है, जों भी असार् है, जो भी निंदनीय हैं, उसको जान कर...

आचार्य: आप शांति को प्राप्त करते है । यह बात तो बिल्कुल सरल है, बिल्कुल सीधी है। जो अनित्य है, उसको अनित्य जानो, यही ठीक। और कुछ नहीं कहा।

प्र: अगर दुनिया, ईश्वर की अभिव्यक्ति है, तो वह निंदनीय कैसे हो सकती है?

आचार्य: बहुत बढ़िया। यह भूल चूक हो भी न जाएं। हम संसार को पूरी तरह से निंदनीय नहीं भी कहते हैं, तो भी संसार में कुछ कामों को तो निंदनीय बोल ही देते है। ज़रा बाहर निकालिए इससे। वह मोरालिटी हो जाती है। कुछ भी निंदनीय नहीं हैं, कुछ भी वर्जित नहीं है। और यह बात मैं सबकुछ जानते हुए बोल रहा हूं कि हम क्या क्या कर सकते हैं, मन क्या क्या करामात दिखा सकता है, उसके बाद भी कह रहा हुई, कुछ वर्जित नहीं हैं, कुछ निंदनीय नहीं हैं। जीने के कोई फार्मूले हो नहीं सकते। कोई बंधे बंधाए नुस्खे, कोई तय शुदा रास्ते हो नहीं सकते।

जो मन निंदनीय किसी को कहता है, उसी मन ने ही यह कल्पना करी है कि वह निंदनीय है। जो मन यह ठप्पा लगा रहा है कि फ़लाना कृत्य निंदनीय है, उसी मन ने ही कल्पना करी हैं कि निंदनीय है। कहीं आकाशवाणी नहीं हुई है कि क्या निंदनीय है और क्या नहीं। उसी, ठीक उसी मन का काम है, जैसे कोई जज खुद ही नियम बनाए और फ़िर खुद ही उस नियम के आधार पर किसी को फांसी चढ़ा दे और कहे कि यह तो बिल्कुल सार्वभौम सत्य है; यह पाप होता है। पाप होता है, यह कहा किसने? बात देखते हैं कितनी दूर तक जाती है!

कितनी सारी मानसिक पीड़ा निकलती ही इसी बात से है कि कुछ है जिसपर आपने ठप्पा लगा दिया है निंदनीय होने का। और फिर वही जब आपको मिलता नहीं है तो आप पीड़ा में रहते है, मन।

आपने ही ठप्पा लगाया है न निंदनीय होने का इस बात पर कि मैं बड़े घर में नहीं रहता हूं, और अब दिन रात इसी आग में जल रहे है - कि मेरा तो २ बी एच के ही है। आप ही ने तो ठप्पा लगाया है, और किसने कहा, और कौन कह सकता है? आप ने ही तो कहा है न कि यह निंदनीय है, यह नहीं है और फिर उसी की आग में खुद जल भी रहें है।

रसायन, रसायन है। मोलेक्यूल, मोलिक्यूल है। हार्मोन, हार्मोन है। उनका काम है उछलना। शरीर शरीर है, ७०% पानी है, ३०% कुछ और है। त्वचा, त्वचा है। कोई सिल्की सॉफ्ट स्किन नहीं होती; सब पंच-महाभूत हैं, फिर सब ठीक हो जाएगा। त्वचा, त्वचा है; सिल्क नहीं होती।

प्र: इंडस्ट्री बंद हो जाएगी , कॉस्मेटिक की।

आचार्य: दाढ़ी, दाढ़ी है; उगने दो। रोज़ क्यों उसपर..? बाल काटने से कुछ नहीं आ जाएगा, सब पंच-महाभूत, मतलब एलीमेंट्स हैं, केमिकल्स हैं, उनको इससे ज़्यादा वरीयता मत दो। सांस सांस है, अब थोड़ी सी बदबू दे रही है या थोड़ी सी सुगंध दे रही है, उससे कोई विशेष अंतर नहीं पड़ जाता। पसीना, पसीना है। उसमें तुम छिड़क-छिड़ककर डिओडरेंट, थोड़ी खुशबू पैदा भी कर दोगे तो कोई तुम्हारा सत्व नहीं बदल गया। और त्वचा का लव से कोई लेना-देना नहीं है कि इस इट लव नो इट इस डव; यहीं समझा रहा है वह। समझ रहे हैं न बात को? खून, खून है। मवाद, मवाद है। उसमें कोई और महत्व नहीं हैं, रसायन ही हैं सब, काहे के लिए इतना उत्तेजित हो रहे हो?

वहीं थूक मिट्टी में पड़ता हैं, उससे आम निकल कर आता है, उसे बड़े मज़े में चबाते हो। जितना सुबह-सुबह उत्सर्जन करते हो, वहीं सब खाद बनती हैं बढ़िया, वहीं खाते हो बिल्कुल और पैसे दे देकर। सब पंच-महाभूत हैं।

जीवन मुक्त होने से पहले वहीं विदेह मुक्ति बड़ी ज़रूरी है। सबसे पहले तो देह को देह जानना कि यह रहीं हड्डी और यह रही -

हाड़ जले ज्यों लाकड़ी, केश जले ज्यों घास

लकड़ी ही है और घास ही है। और थोड़ी देर में यह सब कटवा देते हो जिसके पीछे अभी लगे हुए हो - ओह! माइ गॉड, पता नहीं क्या क्या! और जब जा कर वह सैलून में कटवाते हो, तब भी लगे रहते हो? और जो प्रेमी जन है तुम्हारे, जो घूम रहें थे कि ज़ुल्फो की छांव में मुझे आशियाना बनाने दो, वह जो कटवा कर आई हो ज़ुल्फे, वह दे दो उसको - ले बना ले आशियाना। ज़ुल्फ तो वही हैं, बल्कि और तुम्हें हाथ में दे दिए, जो करना है इससे करना, देख भी नहीं रहीं हूं, जाओ कोने में जो करना है इन ज़ुल्फो का करो। जितने शायर है, सब पगलाएं हुए हैं, लहरों में बहुत होता हैं, ज़ुल्फो को लेकर, तो दे ही दो, लो, मुढ़ा कर सब हाथ में दे दो - ले, रख!

आंखो में झील हैं; हमारे यहां भी वह शायर हुआ करते थे, वह लोकल हॉस्टल में, झा था - बिहारी - तेरी आंखों की झील में मेरे दिल का स्टीमर चलता हैं; जो पीछे बैठे थे वे बोले - फक्क फक्क फक्क फक्क! फिर वह बन ही गया, तेरी आंखों में मेरे दिल का स्टीमर चलता हैं, फक, फक, फक।

अरे, काहे की झील, काहे का स्टीमर, आंख माने आंख, है! तिलचट्टे के भी होती हैं, छिपकली के भी होती हैं। कहां से झील आ गई उसमें? काज़ल लगा लगा और क्या नहीं, वह आंखो में। डॉक्टरों से पूछिए आंखों की हक़ीक़त और बौराये रतें हैं कि ये वो, और जाकर ब्रेस्ट सर्जन से पूछिए उसकी हक़ीक़त, वह बताएगा। सब पंच-महाभूत हैं।, मिट्टी में ही मिल जाता हैं, थोड़ी देर में। अधराए हुए हैं, लगा लगा फोटो चिपक रही हैं। फेसबुक में जो फोटोज़ को देख कर लग रहा है कि आदमी कम-से-कम छह फुट का होगा यह। वह खिचवाईं इसी अर्थ में गई हैं, एंगल ही पूरा यही हैं, नीचे से ऊपर। उससे ज़्यादा तो हम अपने होने पर भी ध्यान नहीं देते जितना अपनी फोटो यानि छवि, जितना हम छवि पर ध्यान देते हैं। इतना तो हम अपने होने पर भी ध्यान नहीं देते जितना अपने छवि पर देते हैं। इतना सोच कर नहीं, सारी सोच ही इसीलिए हैं, छवि के लिए।

प्र: दूसरे हमें कैसा देखे, उस पर ज़्यादा निर्भर होते हैं।

आचार्य: सवाल अभी यह है ही नहीं कि दूसरे हमें कैसा देखते हैं। सवाल अभी यह है कि आप 'हमें' को यह समझते हो, पंच-महाभूत। आप इसको 'मैं' माने बैठे हो। यहां अभी दूसरो का उतना प्रश्न नहीं। चलिए एक बार को यह भी मान लीजिए कि दूसरे हमें कैसा देखते हैं, और वह हम का मतलब कुछ और हो जाए तो बड़ा मज़ा आए। अभी तो उस हम का मतलब ही हैं, मेरी ऊंचाई। तो तुम बड़े अच्छे हो, ठीक है! सेल्फ डेवलपमेंट के नाम पर खप्पचियां आनी चाहिए कि नीचे बांध लो। हो गईं, बढ़ गई ऊंचाई।

प्र: नई ऊंचाइयां।

आचार्य: नई ऊंचाइयां, वह किसी ने कविता लिखी भी है न, उतने ऊंचे उठो कि जितना गगन है। तो सर्कस में घूम रहे होते हैं, वह जोकर होता है जो वह नीचे लगा करके, वह उठ गया उतना ऊंचा जितना गगन हैं। अब क्या, उसी को बोलो बुलंद इतना, बुलंदी का यहीं तरीका हैं।

प्र: कैसे कर लेते हैं?

आचार्य: नहीं, यही अभ्यास थोड़ा सा। जो लोग बड़े खास तौर पर साफ सुथरे रहने के आदी हैं, उनसे एक छोटी सी गुज़ारिश है - कई लोग होते हैं जिनको सफ़ाई, ज़ुनून - थोड़ा सा गंदे भी रह लीजिए। कुछ बदल नहीं जाएगा। जिस चीज़ को आप देह के ऊपर इतना साफ कर रहे हो, वह देह के अंदर बिल्कुल रची-बची हैं। मतलब अंदर की खाल को छू रही है तो कोई बात नहीं पर बाहर की खाल को छू गई तो आप पांच बार नहाओगे। हमारे यहां तो परंपरा हैं, की लोग हैं जो जाते हैं जब टॉयलेट, तो वहां से यहां यहां तक पांव धोते हैं, यहां यहां तक हाथ धोते हैं और मुंह धोते हैं, करीब करीब नहा ही लेते हैं। कपड़े वपड़े भी, सब कुछ हो जाता हैं।

प्र: सिर्फ एक चीज़, अगर यह सफाई, यह बेवकूफ़ी दिख जाए, तो खासकर गृहणियों के पास काम नहीं रह जाएगा। पूरे दिन धूल झाड़ना, और चादर जिसमें एकदम सलवट न हों।

आचार्य: अरे, कल नींद नहीं आई मुझे ठीक से, ये आने वाले थे तो ओमकार को मैंने बोला कि कमरा ऐसा तैयार कर दो बिल्कुल जैसे होटल का होता है। और उसने साफ़ कर दिया है और बड़ा मस्त साफ कर दिया है और अंदर खुशबू वुशबू भी डाल दी है, बढ़िया अच्छा साफ कर दिया है एकदम। कल ढाई बजे तक करीब इन्होंने छोड़ दिया था, और चार बजे इधर-उधर करवट बदलता रहा। एक तो नई सी गंध कमरे में, अभी तक है, और ऊपर से कुछ बदला-बदला सा लग रहा हैं, वह जो तकिए में से तेल की खुशबू उठती थी, आ नहीं रही हैं, सब अनजाना सा; ज़ुनून - बिल्कुल सफ़ाई।

इतना समय अगर ध्यान को दे दिया होता, किसी भी और चीज़ को दे दिया होता, पढ़ने को दे दिया होता तो ज़िन्दगी बदल जाती, वास्तव में बदल जाती। इतना समय इस पंच-महाभूत की सफाई को दिया है। और यहां भी हुआ है, कई बार हुआ है, लोगों ने यह कारण दिए है न आने के, कि सफाई करनी है। हम मुस्कुरा ही दिए थे भीतर ही भीतर, क्योंकि कुछ और कर नहीं सकते थे, कि सफाई तो यहां भी होती है। पर ठीक है, तुम जो वाली करना चाहते हो, वही कर लो; सर, आज कपड़े धोने हैं इसलिए यहां नहीं आएंगे। मेरे अपने घर में होता है, क्यों नहीं? सफाई करना है इसलिए नहीं आ सकते। अरे! काहे की सफाई करनी है?

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मेल न जाय।

काहे की सफाई करनी है? मैं नहीं कह रहा हूं कि ज़बरदस्ती गंदे रहो। पर यह जो गलत प्राथमिकता है, इसकी बात कर रहा हूं। और अक्सर यह होता है, जो जगह सबसे ज़्यादा साफ होती है, वहां अंदर ही अंदर सब से ज़्यादा रोग पनप रहा होता हैं। जो जगह आपको बिल्कुल चमचमाती साफ मिलेंगी, वहां अंदर ही अंदर एकदम मामला गड़बड़ ही गड़बड़ होता है। बाहर की सफाई, भीतर की सफाई का परिणाम हो तो बात दूसरी है। पर जब बाहर की सफाई सिर्फ बाहर की सफाई हो तो आडंबर है, ढोंग है; वह सिर्फ अपने आप से भागा जा रहा है, समय काटा जा रहा है।

कबीर कहते हैं - तासों तो बगुला भला, तन-मन एकहि अंग॥

बाहर ठीक उतने साफ रहो जितने भीतर हो। और अगर भीतर साफ नहीं हो तो बाहर गंदा ही रहने दो। शायद नील्स बोह्र थे जिसने कहा था - जितना समझता हूं, उतना ही बोलूंगा। उससे ज़्यादा बोलने की कोशिश नहीं करता हूं। यह वही बात है करीब-करीब कि जहां समझ खत्म हो जाती है, वहां शब्दों को भी रोक दो फिर, वहां हाथ जोड़ लो कि भाई या तो मैं जानता नहीं या जो जानता हूं, कह नहीं सकता।

प्र: वो व्यक्त हो जो जड़ से जुड़ा हो।

आचार्य: बस, तो बाहर की सफाई हो, बेशक हो पर ज़रा समझ बनी रहे कि क्या प्राथमिक है, क्या नहीं। बड़ी साफ सुथरी गाड़ी है और उसमें बैठ कर जा कहां रहे हो? उससे बेहतर तो कहीं यह है कि गाड़ी भले गंदी है।

प्र: जाना कहां है और क्या करना है, वह ज़रूरी है।

आचार्य: फ़िर उसमें अक्सर यहीं देखा जाता है कि जो बड़ी साफ सुथरी गाड़ियां होती हैं, वह सब ऐसी दिशाओं में जा रही होती है, नर्क।

आयन राएंड का जो पूरा ऑब्जेक्टिवइस्म है वह इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि फॉर्म, फॉलोज, फंक्शन। आप किसी ऑब्जेक्टिविट से पूछोगे कि गाड़ी कितनी साफ होनी चाहिए तो कहेगा सिर्फ शीशा साफ होना चाहिए, क्योंकि सिर्फ उसी के साफ होने की ज़रूरत हैं। फॉर्म, फॉलोज़, फंक्शन - वह कहेगा छत गंदी ही रहने दो, अच्छा ही है गंदी है, क्या हो गया! यह वैसी ही बात है कि दिल्ली मेट्रो में जितने पिलर्स हैं, क्या वे आपको पेंटेड दिखते है? क्या पेंटेड दिखते हैं? क्या सजाए गए हैं? उनको एक फॉर्म दे दी गई है जो उसका फंक्शन है, उसके अलावा कोई सज्जा नहीं कर दी गई। जितनी ज़रूरत है, उतना कर दिया गया, आगे कुछ करना नहीं है।

जो हमलोग की डॉर्मिटरीज थी अहमदाबाद में, डॉरमेट्री क्या क्लासरूम भी, वो प्लास्टर्ड भी नहीं थीं, पत्थर थी। ईंटे लगी हुई हैं, प्लास्टर भी नहीं हैं। फॉर्म, फॉलोज, फंक्शन - ज़रूरत कहा हैं, क्यों करें, क्यों करें?

थोड़ा सा यह करके देखिएगा, यह आखिरी बात है जिसपर आज हम रुक सकते हैं, गाड़ी सबके पास हैं, सभी चलते हैं किसी न किसी से। देख कर देखिएगा कि वास्तव में इसमें कहां पर सफाई ज़रूरी हैं। और अगर लोहे के ऊपर धूल पड़ी हुई है तो अंतर क्या पड़ जाता हैं? साइंस की दृष्टि से देखे तो दोनों मोलेक्यूल्स हैं और कोई अंतर भी नहीं पड़ रहा हैं। और जो हिस्से उसके वास्तव में साफ होने चाहिए, उसका इंजन पूरा साफ होना चाहिए पूरे तरीके से, क्या वह साफ हैं? तो बाहर जो है उसे मैं गंदा रहने ही दूंगा, बिल्कुल रहने दूंगा, कोशिश भी नहीं करूंगा साफ करने की। टायर गंदे हैं, अरे हद से हद रियर व्यू मिरर साफ कर लो की दिखना चाहिए साफ। बाइक हैं तो गद्दी साफ कर लो। गाड़ी है, तो शीशे पर पानी डाल लिया, और क्या बाहर अधिक से अधिक हैडलाइट देख लो। हालांकि उसपर भी अगर थोड़ी धूल जमी हैं तो कुछ हो नहीं जाएगा। वर्ना क्या ज़रूरत है सफाई की।

दुनिया की जितनी परंपराएं हुई हैं उसमें जितने भी सिद्ध हुए हैं, कम-से-कम मैंने तो किसी को बहुत साफ नहीं देखा।

प्र: गंदे भी नहीं होते। आप यह भी नहीं कह सकते कि वह गंदे हैं क्योंकि बहुत साफ होना और बहुत गन्दा होना बराबर हैं।

आचार्य: गंदे भी नहीं हैं, चमक भी नहीं रहे हैं। नहीं, कुछ तो गंदे भी हैं। तुम्हारे शिव जो हैं, वह तो भस्म में ही डूबे हुए हैं। जिस दृष्टि से गंदे और साफ का निर्धारण किया जाता है। चारो तरफ उनके माहौल ही पंच-महाभूतो का ही है। अब बैल बैठा है तो बैल गोबर भी तो करता होगा। और सब पिशाच-विशाच घूम रहे हैं तो पिशाच लोग तो बड़े सभ्य लोग तो हैं नहीं कि उनको लगी हो तो - एक्सक्यूज मी प्लीज़ करते होंगे। तो वहां चारो ओर सोच लो कैसा माहौल होता होगा। और पिशाच भी वह हैं जो गांजा-धतूरा चढ़ा कर बैठें हैं। कोई गिरा हुआ है, फिर वह उल्टी भी मार रहा है। तो पूरा माहौल ही शिव के चारो ओर यही है। और गंगा की ज़रूरत ही फिर इसलिए पड़ती होगी। मूल रूप से वह निरंतर स्नान है कि सफाई चलती रहे। नहीं तो यह सब फैला रहे हैं यहां, ये जो दुर्गन्ध उठ रही है, करेगा कौन उसको?

सूफ़ी हैं, वह घूमते ही रहते हैं, कपड़े ही फटे हुए हैं। और कपड़े पर पैबंद न लगा हो उनके जब तक सूफ़ में, तब तक वह सूफ़ी नहीं। जो सूफ़ी अभी बिल्कुल सूटिंग-शर्टिंग पहन कर घूम रहा है, वह सूफ़ी नहीं, वह भगा दिया जाएगा, भग! ओस मत आना। तो ज़बरदस्ती फाड़ थोड़ा उस पर, यह भी नहीं कि बिल्कुल मिलता जुलता रफू करा लिया हैं। आमतौर पर तो गहरे रंग का होता है उनका, तो गहरे रंग का तो भी लाल चिंदी लगा हुआ, पता चलना चाहिए।

जीसस को देखिए। कहां से लग रहा है कि वह बड़े साफ आदमी है। हमनें तो कहीं नहीं लिखा बाइबल में कि जीसस रोज़ दो बार स्नान करते थे और इसलिए जीसस कहलाए। सुबह-सुबह जीसस ने स्नान करा हो फिर कहा हो, अब आओ कुछ बात करते है।

प्र: महात्मा गांधी ने जो कहा है कि, स्वच्छता, भक्ति से भी बढ़कर है, इसका क्या?

आचार्य: अभी हम एक अलग कोटि के लोग की बात कर रहे है न। अभी हम असली महात्माओं की बात कर रहे हैं।

प्र: तीर्थंकर वगैरह, साधु वगैरह, सबपर वह बावलियां चढ़ी हुई, लताएं चढ़ी हुई, सफाई तो!

आचार्य: शायद जैनों में ही तो कोई तीर्थंकर थे जो खड़े हो गए थे तो उनके वह दीमक वीमक लग गई थी, यह सब हो गया था। और आदमी एक जगह खड़ा हुआ है तो यह तो नहीं लिखा है की टट्टी पेशाब करने जाता था, फिर खड़ा हो जाता था। अब जहां खड़ा है, वहां सींच भी रहा है, सब हो रहा है।

प्र: नहीं! वह तो बोल देते थे कि उनको होता ही नहीं था।

आचार्य: उनको होता ही नहीं था। पर बेल चढ़ रही है तो समझिए न, बेल को खाद कितनी मिल रही हैं। बेल ऐसे नहीं पैदा हो गई। थोड़ा बाहर कि सफाई से ध्यान हटेगा तो कहीं और जा पायेगा। कम चमकिये।

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