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लेख
नींबू-मिर्च का टोटका, और झाड़-फूँक का विज्ञान || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। मेरा प्रश्न मन के ऊपर है, जिसे मैं तीन पॉइंट्स (बिंदुओं) में थोड़ा डिस्क्राइब (वर्णन) करना चाहूँगा। पहला है, झाड़-फूँक। दूसरा, नींबू-मिर्च या सिंदूर वगैरह का टोटका। तीसरा रहेगा, मेरे पैर का दर्द।

पहली बात, कुछ साल पहले मेरे घर में माहौल बहुत तनावपूर्ण था। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से हम लोग ठीक नहीं थे। फिर किसी के कहने पर हम लोग कहीं किसी बाबा के पास गए तो उन्होंने कुछ झाड़-फूँक वगैरह करा। और मैंने ये ऑब्ज़र्व (अवलोकन) करा कि उसके बाद मेरे घर का माहौल थोड़ा ठीक हो गया। क्या हुआ, मुझे अब तक समझ नहीं आया।

दूसरा है ये नींबू-मिर्च का टोटका जिसके बारे में हम बचपन से सुनते आए हैं, कि चौराहे पर नींबू-मिर्च या नींबू के ऊपर सिंदूर हो, या आपको कुछ लगता हो संदिग्ध सा, उसको न छुएँ, उससे दूर रहें।

मैं विज्ञान का छात्र रहा हूँ, तो मैं जब बड़ा हुआ तो मेरा इन सब पर ज़्यादा विश्वास नहीं था। लेकिन अभी भी जब मैं किसी चौराहे पर किसी ऐसी चीज़ को देखता हूँ तो भले ही मैंने कितना भी समझा लिया हो अपने मन को, ये फिर से वहीं पर आ जाता है। बैक टू स्क्वॉयर वन (जस का तस)। मतलब दोबारा से वो डर आ जाता है, ये इतना गहराई से बैठ गया है मुझमें।

तीसरा है, ये पैर का दर्द। मैं व्यायाम वगैरह करता हूँ, पार्क भी जाता हूँ। पार्क थोड़ा जंगल जैसा है। तो हुआ ये एक दिन कि दायें पैर के निचले हिस्से में दर्द शुरू हो गया। दर्द सहने लायक़ था तो मैंने सोचा कि नस इधर-उधर हो गयी होगी, अपनेआप ठीक हो जाएगा। लेकिन जब मैं सोने के लिए जाता तो ये बहुत दर्द करता और ऐसा पाँच-छः दिन चला। तब मुझे लगा कि शायद कुछ और ही बात है।

तो मैंने अपने बड़ों से जब बात की इस दर्द के बारे में तो उन्होनें मुझे मंदिर जाने की सलाह दी। तो मैं एक मंदिर में गया और उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और एक मंत्र पढा, शायद गायत्री मंत्र था, और आधे घंटे बाद वो दर्द गायब हो गया। मुझे नहीं पता क्या था। जब उनसे पूछा कि ये क्या चमत्कार था, तो उन्होंने कहा कि किसी ग़लत जगह पर पैर आ गया होगा।

अब ये चीज़ बार-बार मेरे साथ हो रही हैं तो ये उन्हीं चीज़ों को याद दिला देती हैं। जैसे 'कंतारा' की मूवी हो। तो फिर मेरा विश्वास जो कमज़ोर होना चाहिए था इन चीज़ों के प्रति, बढ़ जाता है।

तो इन्हीं के ऊपर मेरा प्रश्न है कि ये चीज़ें कैसे हटाऊँ? मतलब कैसे हट जाऊँ इन चीज़ों से? कैसे अपने मन को कहूँ कि ये भाई सब ग़लत हैं, धारणाएँ हैं बस, और कुछ नहीं। डर से कैसे हटूँ?

आचार्य प्रशांत: तरीक़ा तो मेरे पास बहुत ज़बरदस्त है, पर वो मेरे ही जैसा तरीक़ा है; पता नहीं आज़मा पाओगे कि नहीं। मुझे तो बचपन से ही बड़ा मज़ा आता था। मैं कहीं पर नींबू-मिर्ची टोटका रखा देखूँ तो सीधे उसके ऊपर गाड़ी चढ़ाता था।

प्र: नहीं, ये बात तो ठीक है कि आप करते हैं लेकिन उसके साथ भी एक दिक्क़त थी। मैंने भी कई बार करा है, लेकिन बात ये होती है कि मैं फिर उसी तर्क को अपने को समझा रहा होता हूँ। मतलब वापस उसी चीज़ पर आ जाता हूँ।

आचार्य: कैसे समझा लोगे? जब बार-बार उस पर चढ़ा रहे हो, फिर भी ज़िंदा हो, तो अपनेआप को क्या प्रमाण देकर समझा लोगे?

प्र: ये चीज़ें बार-बार, मतलब हर बार नहीं चढ़ा पाता हूँ मैं।

आचार्य: हर बार चढ़ाओ न (श्रोतागण हँसते हैं)! दूसरे चौराहे पर हो तो रास्ता बदलकर चढ़ाओ। मान लो, जा रहे हो, वहाँ नहीं है दूर कहीं है, तो थोड़ी दूर पर ऐसे डीटूर (घूमकर) ले लो। ऐसे चढ़ाकर आ जाओ।

देखो, कुछ चीज़ों पर जवाब देना भी प्रश्न को महिमामंडित करने जैसा हो जाता है। मैं इसमें क्या समझाऊँ? ये किस तल का विवाद है कि नींबू-मिर्ची, खोपड़ा, जादू-टोना, क्या... क्या बोलूँ मैं इसमें? नींबू-मिर्ची रखने से क्या हो जाएगा? रख दो यहीं पर, फिर से रख दो। क्या?

और सच बोल रहा हूँ, मुझे ये बड़े मज़े की, फ़न की चीज़ रहती थी, जहाँ दिखे उस पर चढ़ा दो, नींबू बोलता है 'पट्ट'!

और उसमें और भी लोग रखते हैं, कुछ और भी। सिंदूर रख देते हैं और क्या-क्या चीज़ें रखते हैं? ये कितनी पिछड़ी हुई मानसिकता है। ये अशिक्षा का परिणाम है। अविद्या में अशिक्षा। मेरे पास कुछ होता ही नहीं है इस पर बोलने को। क्या बोलूँ इस पर? समस्या क्या है इसमें?

प्र: समस्या ये है कि जो ये मन के ऊपर परतें जम गयी हैं न।

आचार्य: वो ऐसे ही हटेंगी। देखो, इसको गंभीरता से लेते रहोगे तो ये बात बनी रहेगी। कुछ चीज़ों का इलाज़ यही होता है कि उनको गंभीरता से लो ही मत; उनको चुटकुला बना दो। हास्य, ह्यूमर भी बहुत अच्छा उपाय होता है कई तरह की मूर्खताओं के ख़िलाफ़।

एकदम ही कोई मूर्खतापूर्ण विषय चल रहा हो और तुम उसमें गंभीरतापूर्वक शामिल हो जाओ, भले ही उस विषय के विरोध में, तो भी उस विषय को ही ताक़त मिल जाती है। ऐसा लगता है कि ये विषय इस लायक़ तो है न कि इस पर कुछ बात की जाए। तो उसका तो एक ही तरीक़ा है, चुटकुला। उसके मज़े ले सकते हो, और क्या कर सकते हो?

जैसे तुम्हारे सामने कोई एक जादूई बीज रख दे। बोले, 'ये जादूई बीज है। इसमें क़रामाती शक्तियाँ हैं और एकदम महान बीज है, सीधे आसमान से उतरा है। ऐसा है वैसा है। अब इसको आप ले जाकर के और अपने घर में किसी गुप्त स्थान पर रख दीजिए, जहाँ किसी को पता न चले, कोई छूने न पाए। ख़ासतौर पर बच्चों की निगाह नहीं पड़नी चाहिए। और बिना नहाए-धोए इसको स्पर्श भी मत करिएगा।' तो ऐसे ही घूमते-टहलते जाओ, ऐसे बीज उठाओ और खा जाओ। यही जवाब है। और क्या जवाब हो सकता है इसका?

प्र: अच्छा, इसके बारे में एक चीज़ पूछना चाहूँगा कि ये आया किस जगह से? क्या कारणों से आया है?

आचार्य: ये आया है आदमी के भीतर के संशय से। चूँकि हम कुछ नहीं जानते, इसीलिए हम किसी भी चीज़ पर विश्वास करने को तैयार रहते हैं। मैं पूछा करता हूँ, आपकी ज़िंदगी में कुछ भी ऐसा है जिस पर आप बिलकुल विश्वास नहीं कर सकते? आप जिन चीज़ों पर बहुत दृढ़ता से यक़ीन करते हैं, कोशिश करके आपको उनके खिलाफ़ भी आश्वस्त करा जा सकता है। आप जिन चीज़ों को मानते हैं कि ये तो सच हैं निश्चितरूप से; कोई आकर कई तरह के तर्क और प्रमाण देकर आपको उन चीज़ों के ख़िलाफ़ भी आश्वस्त कर सकता है। कर सकता है कि नहीं?

दिल टटोलिए और बताइए कि आपके पास कुछ भी ऐसा है, जिसको आप कभी झूठ नहीं मानेंगे? कुछ भी ऐसा है क्या? कुछ भी ऐसा है? आपका दोस्त कौन है। कौन अच्छा था, कौन बुरा था। किस घटना में क्या हुआ, हर चीज़ के खिलाफ़ आपको कोशिश करके और तर्क-वर्क देकर के आश्वस्त करा जा सकता है। एक व्यक्ति को यहाँ तक भी आश्वस्त करा जा सकता है कि उसके माता-पिता वो हैं ही नहीं जिनको वो आज तक माँ-बाप मान रहा था।

आप प्रेम करते हैं और हमेशा भीतर खटका बना रहता है कि कहीं किसी दिन धोखा न मिल जाए। किसी भी चीज़ को लेकर के हम में पक्का यक़ीन थोड़े ही होता है। क्यों नहीं होता पक्का यक़ीन? कारण समझिएगा। कारण आध्यात्मिक है। क्योंकि हम में अपनी हस्ती को लेकर ही पक्का यक़ीन नहीं है। हम नहीं जानते हम कौन हैं, तो हम दुनिया में किसी चीज़ पर भी पक्का यक़ीन कैसे कर सकते हैं? और जब किसी भी चीज़ को लेकर शत-प्रतिशत आश्वस्ति नहीं है तो फिर कुछ भी सच भी तो हो सकता है न?

जब कुछ भी पूरी तरह सच नहीं है तो फिर सच और झूठ के बीच में एक बड़ा विशाल क्षेत्र है, जिसमें सबकुछ है। कुछ भी सच हो सकता है, कुछ भी झूठ हो सकता है। आप किसी भी चीज़ को दृढ़ता से अस्वीकार नहीं कर पाएँगे, एक संभावना बनी रहेगी; क्या पता सच हो! और किसी भी चीज़ को दृढ़ता से स्वीकार भी नहीं कर पाएँगे, एक संभावना बनी रहेगी; क्या पता झूठ हो! हर चीज़ आपके लिए एक आधे-अधूरे से अनिश्चित क्षेत्र में रहेगा। ये आत्मज्ञान की कमी से है।

हाँ, बस उसमें संभावनाएँ, प्रोबेबिलिटीज़ अलग-अलग रहेंगी। किसी चीज़ को आप मान लेंगे कि ये निन्यानवे प्रतिशत झूठ है और किसी चीज़ को आप मानेंगे कि ये शायद एक प्रतिशत झूठ है। लेकिन कुछ भी न आपके लिए शून्य प्रतिशत हो सकता है, न शत-प्रतिशत हो सकता है। पक्का, पूर्ण कुछ होगा ही नहीं आपके जीवन में, क्योंकि पूर्णता तो भीतर से ही आनी है। तो भीतर हमेशा एक डर बना रहेगा, एक संशय बना रहेगा।

अभी गीता के चौथे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में कृष्ण कह रहे थे कि "बड़े-से-बड़ा लाभ ये हो जाता है कि आत्मज्ञान के कारण संशय हट जाते हैं"। वरना तुम संशयात्मा ही बने रह जाते हो और संशय से बड़ा नर्क दूसरा नहीं है।

आप किसी भी चीज़ को लेकर निश्चित ही नहीं हो पाते। कभी भी पूरी नींद आ ही नहीं सकती, हमेशा खटका बना रहेगा, 'कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाए'! जिन चीज़ों को बहुत क़ीमती, बहुत महत्वपूर्ण समझते हो, उनको लेकर भी धुकधुकी मची रहेगी, छिन न जाए, धोखा न दे दे, टूट न जाए, नकली न निकल जाए कहीं!

और जब हर चीज़ को लेकर के यही है कि क्या पता सच हो, क्या पता झूठ हो, तो फिर आदमी खेलता है सुरक्षा का खेल। आदमी लगाता है रिस्कएवर्स स्ट्रेटेजी (जोखिम विरोधी रणनीति)।

अच्छा बताओ, ये पानी है। मुझे निन्यानवे प्रतिशत भरोसा है कि ये पानी है लेकिन एक प्रतिशत शक है कि ये ज़हर है। अब मैं इसे पीने का फ़ैसला निन्यानवे प्रतिशत के पक्ष में करूँगा या एक प्रतिशत के? देखा! एक प्रतिशत की ताक़त। ये होता है अंधविश्वास।

निन्यानवे प्रतिशत तो मुझे पता है वो नींबू-मिर्ची से कुछ नहीं होगा। निन्यानवे प्रतिशत मुझे भरोसा है पानी साफ़ है। निन्यानवे प्रतिशत मुझे पता है नींबू-मिर्ची से कुछ नहीं होता, लेकिन शत-प्रतिशत मेरे जीवन में कुछ भी नहीं है तो एक प्रतिशत संदेह बना रहता है कि क्या पता ये ज़हर हो, क्या पता नींबू-मिर्ची से कुछ हो जाए।

तो आदमी कहता है, ' रिस्क (जोखिम) कौन ले'! आदमी कहता है, 'भाई, मान ही लो न कुछ होता है। भाई दूसरा पानी ले लेंगे। भाई मान लेंगे कि नींबू-मिर्ची है'।

इस तरीक़े से अंधविश्वास आगे बढ़ता है। वो आपके भीतर के आत्मसंदेह का फ़ायदा उठाता है। हमारे भीतर जो स्पष्टता और पूर्णता की कमी है, उसका फ़ायदा उठाकर अंधविश्वास आगे बढ़ता है।

तर्क में तो आप भी कह देंगे, 'कुछ नहीं होता ये सब, बेकार के टोने-टोटके हैं'। तर्क में आप भी कह देंगे लेकिन व्यावहार में आप कहेंगे, 'अगर एक प्रतिशत भी संभावना है कि इससे कुछ होता है तो मैं ही क्यों ज़िंदगी दाव पर लगाऊँ'?

भाई, आपसे कहा जाए, 'ये फ्लाइट (विमान) जा रही है। एक प्रतिशत संभावना है ये क्रैश (दुर्घटना) करेगी; आप चढ़ेंगे क्या? एक प्रतिशत भी बहुत ज़्यादा है। आप कहेंगे, 'न बाबा न, एक प्रतिशत'!

एविएशन (विमान चालन) में क्रैश होने की संभावना दस-पचास लाख में एक की होती है। और तब भी लोगों के दिल धड़कते रहते हैं। जबकि ये सिद्ध है कि जब आप हवाई यात्रा कर रहे होते हैं तो वो सड़क यात्रा, ट्रेन यात्रा, इन सबसे कहीं ज़्यादा सुरक्षित होती है। मरने की कहीं ज़्यादा संभावना सड़क पर है। प्लेन क्रैश (विमान दुर्घटना) करेगा, ये करोड़ में एक की संभावना होती है। लेकिन फिर भी सड़क पर चलते हुए उतना आपका दिल नहीं धड़कता, पर वहाँ पर धड़कता है। सब बता भी दिया जाए तो भी।

ये अंधविश्वास है हमारे भीतर का जो आँकड़ों पर नहीं चलता; नामों पर, घटनाओं पर चलता है। उदाहरण के लिए, एक बार फ़लाने दिन फ़लाने पार्क में मेरी टाँग में दर्द हुआ, तो वो फ़लाने टोटके से उतर गया। अब यहाँ पर आँकड़ें नहीं हैं। यहाँ पर क्या है? यहाँ नाम है, यहाँ जगह है, यहाँ घटना पूरी है। आँकड़ों पर आप नहीं चल रहे हैं।

मैं पूछ रहा हूँ, 'आपको ज़िंदगी में कितनी बार पाँव में दर्द हुआ है'? आप कहोगे, 'साहब, कम-से-कम सौ बार तो हुआ होगा'। और सौ-के-सौ बार उसका इलाज़ या तो प्राकृतिक रूप से हो गया या वैज्ञानिक दवाई के द्वारा हुआ। पर उन आँकड़ों की बात आप नहीं करोगे, आप एक घटना की बात करोगे। 'पता है, चंदननगर में एक व्यापारी रहा करता था।'

और ये चीज़ मन पर छा जाती है। नाम, घटनाएँ, याद हो जाती हैं न। आँकड़ें बताओ न, आँकड़ें? कितना, हाऊ मच ? और जितना आप बता रहे हो कि इतनी घटनाएँ हुईं इस तरह की, वो तो नॉर्मल स्टैटिस्टिकल नॉइज़ (सामान्य संख्यिकीय शोर) कहलाती है।

'एक भूतिया सड़क है। भूतिया सड़क है साहब, हम बता रहे हैं हम उसके दूसरी तरफ़ रहते हैं। पाँच दुर्घटनाएँ होती तो हमने अपनी आँखों से देखी हैं। हम झूठ बोल रहे हैं क्या?'

नहीं, आप सच बोल रहे हैं, पाँच दुर्घटनाएँ आपने होती देखी हैं। पर उसमें से गाड़ियाँ कितनी निकल चुकी हैं?

'साहब, गाड़ियाँ तो लगभग पाँच लाख निकल चुकी हैं।'

तो बेटा, पाँच-बटे पाँच-लाख कितना होता है? थोड़ा आँकड़ों की बात करेंगे?

'नहीं, नहीं, पर मैंने वो पाँच दुर्घटनाएँ होती देखी हैं। मैंने लोगों को तड़पते देखा है, मैंने ख़ून बहते देखा है, मैंने गाड़ियों को टकराते देखा है। मैंने ये सब देखा है।'

नहीं, आपने देखा है वो ठीक बात है लेकिन जो आपने देखा है वो पाँच लाख में पाँच बार हुआ है। और आप उनकी बात क्यों नहीं कर रहे जो दुर्घटनाएँ नहीं हुईं? उन लोगों की बात कौन करेगा जो उसी सड़क से सुरक्षित निकल गए?

पाँच लाख लोग निकले, पाँच दुर्घटनाएँ हो गईं, आपने घोषित कर दिया सड़क भूतिया है। क्योंकि जो पहली दुर्घटना हुई थी, उसमें वो बेचारा पड़ा हुआ था और कोई उसको अस्पताल नहीं ले जा रहा था। तो उसने मरते-मरते श्राप दिया कि जैसे मैं यहाँ मर रहा हूँ, तुम सब यहाँ मरोगे। तो इसलिए ये सड़क हो गई भूतिया।

और आपने देखा कि पाँच दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं। देख लिया आपने, बिलकुल ठीक। लेकिन उन आँकड़ों की बात कौन करेगा जो यहाँ से निकल गए और उन्हें कुछ नहीं हुआ? और वो निन्यानवे दशमलव नौ-नौ प्रतिशत लोग हैं पर आप उनकी बात नहीं करना चाहते। ये क्या भेदभाव है? वो जो शून्य-दशमलव शून्य-एक है, उसकी खूब बात करनी है; निन्यानवे दशमलव नौ-नौ की बात नहीं करनी है। क्यों नहीं करनी है? रिस्क कौन ले!

और अच्छा लगता है, रोमांच आता है न! ज़िंदगियाँ हमारी ऐसी ही होती हैं उदास सी, ऊबी हुई सी। जैसे ही कोई बताए इधर भूतिया सड़क है, एकदम नींद खुल जाती है। 'हाँ, बताओ ज़रा क्या चल रहा है? भूत, भूत, भूत! कहाँ बताया भूत?'

कोई सो रहा हो, उठ न रहा हो, उसको बोलो सूरज चढ़ आया, तो नहीं उठेगा। उसको बोलो भूत चढ़ आया, वो तुरंत उठेगा। 'किसको भूत चढ़ आया, बताओ'?

तो हम ऐसे ऊबे हुए लोग हैं न, इसमें रोमांच आता है, बड़ा अच्छा सा लगता है। और आपकी ज़िंदगी जितनी डल , ऊबी हुई होगी, जितनी प्राणहीन आपकी ज़िंदगी होगी, उतना आपको इन चीज़ों में रस आएगा। और भारत देश ही ऐसा है। यहाँ ज़िंदगियाँ हैं ही सबकी बेरंग, बेरौनक, बेरस। तो यही एक तरीक़ा मिलता है, 'अच्छा'!

और जिन लोगों पर सबसे ज़्यादा ये भूत-प्रेत वगैरह का असर होता है, आप ग़ौर से देखिएगा, ये वो लोग हैं जिन्होंने सबसे ज़्यादा दमित, सप्रेस्ड जीवन जिया होता है। समाज के जिस वर्ग से ज़्यादातर वो लोग आते हैं जिनके ऊपर भूत-प्रेत और ये सब चुड़ैल चढ़ते हैं, देखिएगा वो लोग कौन हैं।

वो लोग हैं ज़्यादातर जिन्हें घर में मुँह खोलने की भी आज़ादी नहीं होती। जो अपनेआप को किसी भी तरह से अभिव्यक्त कर ही नहीं पा रहे होते अपनी ज़िंदगी में। तो फिर जो उनका अवचेतन होता है, जो उनका सबकॉन्शियस (अचेतन मन) बल्कि अनकॉन्शियस माइंड (अचेत मन) होता है, वो कहता है, अब ख़ुद को अभिव्यक्त करने का यही तरीक़ा निकला है।

ज़िंदगी में कभी नाचने को मिला नहीं, तो अब नाचने का यही तरीक़ा है कि कुछ चढ़ गया है तो अपना झूम-झूमकर नाच रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वो योजना बनाकर के, ऐसा सोचकर करते हैं। पर ये भीतरी एक माँग होती है, वो आपको करना पड़ेगा। मुँह खोलने को कभी मिला नहीं, तो लो आज कुछ चढ़ गया है तो पूरा मुँह खोलेंगे। और ऐसा-ऐसा बोलेंगे जो कभी कोई नहीं बोलता।

खुल के जियो तो इन सब चीज़ों से फिर थ्रिल (रोमांच) लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। ये सस्ता रोमांच है, चीप (सस्ता) थ्रिल्स।

समझ में आ रही है बात?

और आँकड़ों पर चला करो; घटनाओं पर नहीं। आँकड़ें! ये नहीं होता कि एक चीज़ दिख गई। पूछो, कितनी चीज़ों में से एक चीज़ दिख गई? जो एक चीज़ तुम्हें दिख गई वो बिलकुल ठीक हो सकती है, पर कितनी चीज़ों में से दिखी है वो एक चीज़, बताओ न?

बहुत सारे होटलों में अभी भी वो तेरहवें फ्लोर (मंज़िल) में रूम नंबर (कमरा संख्या) लिखते हैं — चौदह-सौ-बारह, चौदह-सौ-ग्यारह, चौदह-सौ-दस। वो कहते हैं, 'हमारे यहाँ पर तेरहवीं मंज़िल है ही नहीं। नहीं, तेरहवीं मंज़िल पर जो लोग रहते हैं न, उनको दिल का दौरा आ जाता है'।

आया भी होगा किसी को। मैं पूछ रहा हूँ, उनकी बात कौन करेगा जो तेरहवीं मंज़िल पर रहे, उन्हें कुछ नहीं हुआ? और क्या बारहवीं मंज़िल पर जो रहे, उसमें दिल का दौरा आने वालों का अनुपात कुछ कम है क्या? तेरहवीं की तो बात तुम कर रहे हो क्योंकि तुमने अंधविश्वास चला लिया; बारहवीं और चौदहवीं मंज़िल की बात क्यों नहीं कर रहे?

भाई, तेरहवीं मंज़िल पर एक लाख लोग रहे, उसमें से चार को दिल का दौरा आया। बिलकुल आया था। और उन चार का नाम लेकर आप कह सकते हो — ये देखिए घटनाएँ। पहला ये राहुल भट्ट, दूसरा ये, और चार आप नाम बताओगे, लोग कहेंगे, 'देखो प्रमाण के साथ बताया है कि तेरहवीं मंज़िल ख़तरनाक होती है। प्रमाण के साथ बताया है'।

वो प्रमाण नहीं है, वो अशिक्षा है, इललिट्रेसी (निरक्षरता) है। स्टेटेस्टिक्स (सांख्यिकी) नहीं पढ़ी कभी। वही चीज़ बारहवीं मंज़िल के लिए भी बता दो। वही चीज़ चौदहवीं मंज़िल के लिए भी बता दो। और पाओगे कि बारहवीं और चौदहवीं में भी जो प्रतिशत है, जो अनुपात है, प्रोपोरशन , वो लगभग वही है।

तो आप जो घटनाएँ बताते हो, घटनाओं में डील मत किया करो। ये अशिक्षा की निशानी हो जाती है। गणित क्यों पढ़ाई जाती है बचपन से? इसलिए कि बस किसी तरीक़े से बोर्ड पास कर लो? गणित पढ़ाई जाती है ताकि जीवन में गणित का उपयोग कर सको। किस क्लास (कक्षा) में थे जब रेशियो एंड प्रोपोरशन (अनुपात और समानता) पढ़ाया गया था? छठी में, पाँचवीं में? वो इसलिए पढ़ाया गया था कि नंबर आ जाए बस? पाँचवीं से छठी में पहुँच जाओ? वो पढ़ाया गया था कि इस तरह का अंधविश्वास जब सामने आए तो थोड़ा भेजा, थोड़ा गणित लगा सको।

सबसे बुरा हाल देखेने को मिला था कोविड के दिनों में। वाह, मेरा हिंदुस्तान! ऐसी-ऐसी मूर्खतापूर्ण, ऐसी-ऐसी अशिक्षित बातें, और वही फैल रही हैं, वही फैल रही हैं। आज भी न जाने कितने लोग को यक़ीन है कि कोविड था ही नहीं। सिर पीट लेता हूँ अपने देश की दुर्दशा देखकर।

उनके सामने तुम कोई वैज्ञानिक बात रख दो, आँकड़ें रख दो, साक्ष्य-प्रमाण रख दो, उन्हें समझ में ही नहीं आता। वो कहते हैं, 'हमको पता है न, हमें हुआ था। वो लैब (प्रयोगशाला) ने बोला — पॉज़िटिव। हमने कहा — अजी, हटाओ। पॉज़िटिव क्या होता है, हम नींबू-मिर्ची, नारियल पानी करेंगे, ठीक हो जाएँगे। देखिए, हम ठीक हो गए।'

मेरे भाई, बिना किसी दवाई के भी ठीक होने की एक संभावना होती है। तो ये बहुत संभव है कि आप बिना किसी दवाई के भी कोविड से उबर जाओ। बिलकुल ऐसा हो सकता है। लेकिन, लेकिन, लेकिन, बिना दवाई के कोविड से उबरने की संभावना होती है अस्सी प्रतिशत। माने बिना दवाई के भी पाँच में से चार लोग ठीक हो जाएँगे। और सही दवाई के साथ कोविड से उबरने की संभावना होती है निन्यानवे दशमलव पाँच प्रतिशत। ये अंतर है बस।

और मुझे बताओ कि अगर देश में पचास करोड़ लोगों को संक्रमण हुआ था और कोई दवाई नहीं लेता, तो बीस प्रतिशत के हिसाब से कितनी मौतें हो जातीं? अस्सी प्रतिशत फिर भी बच जाते। कोई दवाई नहीं दो, अस्सी प्रतिशत लोग बच जाएँगे; लेकिन वो बीस प्रतिशत कितना ज़्यादा हो जाता। लेकिन आप बार-बार, 'नहीं मैं हूँ न। मैं, मैं प्रमाण बनकर खड़ा हूँ। मैंने कोई दवाई नहीं ली, ठीक हो गया।'

साहब, आप ही नहीं ठीक हो जाते, पाँच में से चार लोग ठीक हो जाते। एक ही होता जो जाता। लेकिन जब पचास करोड़ में एक बटा पाँच जाएँगे, तो कितने चले जाते? दस करोड़ चले जाते। ये समस्या है बस।

चालीस करोड़ तो निश्चित रूप से अपनेआप ठीक हो जाते। या आप जो भी बता रहे हैं कि बैंगन खा लो, कद्दू सिर पर रख लो, उससे ठीक हो जाता है। या कुछ भी मत करो बस दौड़ने निकल जाओ। या बैठ जाओ ऐसे एक मुद्रा लगाकर और ज़ोर-ज़ोर से हवा लो। बताया था कि आक्सीजन तो बहुत है ही, क्या करना है, ज़ोर-ज़ोर से हवा लो, ठीक हो जाओगे।

आँकड़ों की बात करता है पढ़ा-लिखा मन। घटनाओं की बात नहीं करता, नामों की चर्चा नहीं करता। आप अस्पताल में जाएँगे, डॉक्टर तो आपको नाम लेकर पुकारेगा भी नहीं। आप वहाँ पड़े होंगे ऑपरेशन टेबल पर, तो भी आपको कहेगा, ' द पेशेंट (मरीज़), द पेशेंट '। ये पढ़े-लिखे मन की निशानी है। नाम से क्या फ़र्क पड़ता है, मेरे लिए आप एक आँकड़ा हो।

अब ये बात भावनाओं को थोड़ी दर्दनाक लगती है। कहता है, 'मैं बस तुम्हारे लिए एक आँकड़ा हूँ! तुम्हारी ज़िंदगी में मेरे नाम तक का कोई महत्व नहीं है'!

आप नाम पकड़ना चाहते हैं।

'हमारे गाँव में एक 'मुदगर भईया' रहते थे।'

अरे भाई, 'मुदगर भईया' आपके लिए व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण हो सकते हैं। पर कुल मिलाकर के देखें तो दस हज़ार मामलों में वो सिर्फ़ एक (मामला) हैं। तो उनके साथ जो भी हुआ, वो उनके नाम के आधार पर, एक घटना के आधार पर, स्टैंडअलोन इवेंट (एकाकी घटना) के आधार पर, निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

इसी बात का फ़ायदा ये सब टीवी चैनल भी उठाते हैं। वो आपके सामने एक सनसनीखेज़ घटना ला देंगे। कहेंगे, 'देखा, मुझे तो पता ही था पूरे देश में यही चल रहा है'।

वो एक घटना है, उससे ये कैसे साबित हो गया कि पूरे देश में वही चल रहा है? एक आपको वहाँ पर तस्वीर दिखा दी गयी है — 'ये देखिए, सहारनपुर के फ़लाने कस्बे की तस्वीर है। इससे साबित होता है कि पूरे उत्तर प्रदेश में यही चल रहा है'।

एक तस्वीर देखकर के तुमने जान लिया कि लगातार यही चल रहा है? हर समय यही चल रहा है, दस साल से यही चल रहा है? हर जगह और हर समय यही चल रहा है? एक तस्वीर से तुम इतना जान गए, कैसे? इतना तुमने निष्कर्ष निकाल लिया? पर वो निष्कर्ष निकालने के लिए आपको मजबूर किया जाता है।

और मन होता है कल्पनाशील। जब आप सत्य नहीं जानते तो कल्पनाओं का सहारा लेते हो न? और सारी गड़बड़ शुरू हो रही है, हमने कहा — अपने आंतरिक सत्य के अज्ञान से। उसको आप जानते नहीं, तो कल्पनाओं में तुरंत भागते हो। एक तस्वीर देखकर के पूरी कहानी बना लेते हो। कुछ आपको पता नहीं कि वो कहाँ से आयी होगी।

वो दो मिनट की क्लिप (झलक) हो सकती है, कहीं से कोई आपको कुछ दिखा रहा है टीवी पर। अब वो दो मिनट की क्लिप का आगा क्या है, पीछा क्या है, संदर्भ क्या है, क्यों बनी, कैसे बनी, कहीं खेल में तो नहीं बनी, कहीं झूठमूठ तो नहीं बनी; कुछ पता नहीं। लेकिन मन एक पूरा बड़ा किस्सा रच लेगा। और पूरे यक़ीन के साथ कहेगा, 'हाँ, हमें पता है, वहाँ तो है ही ये सब।'

ये अलग बात है कि हमें हमारे अंधविश्वासों में भी पूरा यक़ीन होता नहीं है। वहाँ भी जब मौक़ा मिलता है तब कहते हैं, 'हटाओ'। यही भारतीय आदमी जब भारत से बाहर पहुँच जाता है, तो थोड़े ही इतने टोने-टोटके करता है। वहाँ मिलते ही नहीं इस तरीक़े के झाड़-फूँक वाले बाबा, करोगे कैसे?

आदत मत डालिए, जो नहीं पता उसको भी मान लेने की, कि पता है। सारा खेल उपनिषदों में इसी का है। जो नहीं जानते उसे जानने की कोशिश करो और जो जानते ही हो उस पर सवाल खड़ा करो। विश्वास नहीं करना है, विश्वास नहीं करना है; सवाल करना है, सवाल करना है। वेदान्त जैसे यही एक बात हर श्लोक से आपसे चिल्ला-चिल्ला कर कहता है — "क्यों मान लेते हो कुछ भी"?

और वेदान्त आपसे कहता है कि "पहला अंधविश्वास है आपका, आपकी अपनी हस्ती"। आप अपनेआप को जो मान रहे हो, आप ही वो नहीं हो तो दुनिया में क्या चल रहा है, आपको कैसे पता होगा? अपनेआप को ही ग़लत कुछ माने बैठे हो। अपने विषय में आपकी जो भी मान्यताएँ हैं, वही मूलतया ग़लत हैं तो आप बाहर किसी के बारे में क्या जानोगे? जब जानते नहीं तो तड़पते हो। क्योंकि स्वभाव तो क्या है? सच्चिदानंद। उसमें सबसे पहले क्या आता है? सत्। और सत् माने वो जो निश्चित है।

तो स्वभाव तो है जानने का और जानते कुछ हो नहीं, बस मानते हो। मन तड़पता है, तो मन कहता है कि जो माना है उसी को मान लेंगे कि जान लिया। समझ रहे हो बात को?

मन आतुर है सत्य के लिए और हमारे पास है सिर्फ़ विश्वास। मन किसके लिए आतुर है? सत्य के लिए। और हमारे पास क्या हैं सिर्फ़? विश्वास। लेकिन मन को तो सत्य चाहिए। और मन फिर सत्य के लिए इतना बौरा जाता है कि वो विश्वास को ही कहने लग जाता है कि ये सत्य है।

मन की चाल समझ रहे हो? जैसे किसी छोटे बच्चे को कोई दोस्त न मिले तो वो अपने गुड्डे को कह दे, यही मेरा दोस्त है। वैसे ही हम हैं। हमें सत्य नहीं मिलता तो हम विश्वास को ही सत्य बना लेते हैं। हमें सत्य नहीं मिला न, तो हमने अपनी मान्यताओं, धारणाओं इन्हीं को कह दिया कि यही सत्य हैं। ये सत्य तो हैं नहीं, आप इनको माने ही बैठे हो सत्य तो भी ज़िंदगी में चैन तो आता नहीं, उल्टे परेशानी ही रहती है। इससे कहीं बेहतर है न कि इन सबको परे रखकर के सच्चाई के लिए ही कुछ निष्ठा बना लो।

शुरू में दिल धड़केगा लेकिन जान-बूझकर कोशिश किया करिए अंधविश्वास-विपरीत काम करने की। कि फ़लाने दिन बाल नहीं कटाने, दाढ़ी नहीं बनानी; ठीक उसी दिन कराओ। मैंने ज़िंदगी भर यही करा है। एक बार पता बस चल जाए, फ़लानी चीज़ वर्जित है। फिर हो ही नहीं सकता कि मैं उसको आज़माऊँ नहीं।

लोगों की आदतें होती हैं एक तरह चलने की, जो स्वीकृत रास्ता है उस पर चलना है। मैं अस्वीकृत रास्तों पर जान-बूझकर इतना चला कि मेरी उल्टी सी आदत बनने लग गई, कि जो अस्वीकृत है उसी पर चलो। क्योंकि भीतर बड़ा विद्रोह था, क्रोध था, ये सब देखकर कि ये चल क्या रहा है।

आ रही है बात समझ में कुछ?

मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप मेरा अनुकरण करें। लेकिन मैं लंच करता हूँ रात के आठ बजे और डिनर सुबह के पाँच बजे। सिर्फ़ इसलिए कि ये जो सदाचारी, सात्विकतावादी, अनुशासनवादी खेल चल रहा है, इससे बड़ी चिढ़ सी है। क्योंकि मैंने देखा है कि इसने कितना शोषण किया है लोगों का। और इसका पूरा इस्तेमाल नालायकी बढ़ाने के लिए ही हुआ है। दो बजे रात नहाता हूँ। करने को नहीं बोल रहा हूँ, आपसे संभाला नहीं जाएगा, आप मत करिएगा। और कोई अच्छी चीज़ भी नहीं है ये, मत करिएगा, बिलकुल नहीं।

लेकिन बड़ा को-रिलेशन (सह-सम्बन्ध) रहता है पॉज़िटिव (सकारात्मक)। ये जितने लोग इस तरह के होते हैं न, शुचितावादी, सात्विक क़िस्म के, अच्छे बच्चे टाइप्स (तरह के), यही सबसे ज़्यादा अंधविश्वासी भी निकलते हैं। ये सुबह उठता है ब्रह्ममुहूर्त में एकदम, नहाता है, धोता है फिर दही चाटता है।

अब जहाँ ये नहाने-धोने के साथ दही चाटना आ गया, वहाँ मुझ पर फिर फ़ितूर आ जाता है। मैं कहता हूँ, माने जो नहाने-धोने वाले होते हैं सही समय पर, ये नहा-धोकर दही चाटेंगे फिर बाहर निकलेंगे। तो ठीक है, जैसे मुझे तुम्हारी दही नहीं चाहिए वैसे मुझे तुम्हारा नहाना-धोना भी नहीं चाहिए।

तुम कहते हो, 'सुबह-सुबह नहाओ'।

मैं आधी रात को नहाऊँगा। देखते हैं, क्या होता है। अभी तक तो कुछ नहीं हुआ। अच्छा ही हुआ, जो हुआ।

मेरी माँ को मुझसे बड़ी समस्या थी। वो बोलती थी, 'अघोरी कहीं का'। हरकतें ही सारी वही थीं। उनको सचमुच लगता था ये अघोरी निकल गया।

ये कुछ-न-कुछ रिश्ता सा बन गया है धार्मिक होने में, परंपरावादी होने में, सात्विक होने में, और अंधविश्वासी होने में। इन चारों के बीच एक हैवी को-रिलेशन (गहरा सह-सम्बन्ध) बन गया है। बन गया है कि नहीं बन गया है? ये चारों चीज़ें जब पाएँगे आप, तो लगभग एक साथ ही पाएँगे। और ये बड़ा ख़तरनाक एक गठजोड़ है कि जो धार्मिक है वो अंधविश्वासी भी होगा। जो धार्मिक है वो परंपरावादी भी होगा। जो धार्मिक है वो सात्विक क़िस्म का, सांस्कृतिक जीवन भी जीता होगा। कि जो धार्मिक है वो संस्कृतिवादी भी होगा।

ये बहुत सब अलग-अलग चीज़ें हैं, आपने इनको एक कैसे बना दिया? धर्म का अंधविश्वास से क्या सम्बन्ध? धर्म का परंपरा से क्या सम्बन्ध? कि जो भी धार्मिक है वो रीति-रिवाज़ों का भी पालन करता होगा; धर्म का इन सब चीज़ों से क्या सम्बन्ध? लेकिन आपके हिसाब से ये सबकुछ एक है। इनको एक मत रखिए। धार्मिक बनिए अंधविश्वासी नहीं। धार्मिक बनिए परंपरावादी नहीं।

मुझे लेकर लोगों को इसीलिए तो भ्रम हो गया है। वो देखते हैं कि मैं धर्म की बात करता हूँ, तो उनको लगता है मैं भी सांस्कृतिक टाइप (प्रकार) ही होऊँगा। ये तुम्हें ग़लती हो गयी। मैं वो नहीं हूँ जो सोच रहे हो। मुझे कृष्ण से और गीता से और उपनिषदों से मतलब है, बाक़ी ये सब जो दंद-फंद हैं, इनसे मुझे कोई मतलब नहीं है। तुम्हारे अंधविश्वास, तुम्हारी ये ज़्यादातर सड़ी-गली परम्पराएँ, इनसे मुझे क्या लेना-देना!

लेकिन जो ग़लत समझ बैठे हैं, उनकी भी बहुत भूल नहीं है क्योंकि ज़्यादातर यही होता है, कि जो राम का नाम ले रहा होगा, वो राम के नाम से दुर्भाग्यवश जो बहुत सारे अंधविश्वास जुड़ गए हैं, उन सारे अंधविश्वासों को भी मान रहा होगा।

छोटे बच्चे खेल खेला करते थे। वो 'रामचरितमानस' ले लेते थे और कहते थे कि उसमें यूँही खोलो कोई भी पन्ना और उसमें जिस दोहे-चौपाई पर तुम उँगली रख दोगे, आज तुम्हारे साथ वही होने जा रहा है। जो राम सत्य का प्रतीक हैं; देखो, हमने उनके काव्य के साथ भी क्या कर डाला।

ये सब चीज़ें आप एक साथ पाते हैं कि नहीं, कि जो धार्मिक होगा वो टोना-टोटका भी मानता होगा। वो तमाम तरह की परम्पराएँ भी मानता होगा। आप उसको पाएँगे कि वो एक ख़ास तरह के कल्चर (संस्कृति) में भी चल रहा है और वो भाषा हिंदी बोलता होगा।

अब मुझको भी लेकर लोगों को यही भ्रम हो जाता है। वो कहते हैं, 'एक तो ये गीता की बात करते हैं, दूसरे हिंदी बोलते हैं। तो इसका मतलब है हमारे ही टाइप (प्रकार) के हैं।'

नहीं बाबा, तुम्हें भ्रम हो रहा है। मुझे हिंदी से प्रेम है, मुझे कृष्ण से प्रेम है; मुझे तुमसे नहीं प्रेम है। तुम अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा, अपना पोंगा-पांडित्यवाद और अपने अंधविश्वास अपनी जेब में रखो; मैं तुममें से एक नहीं हूँ। तुम मुझसे वही उम्मीदें मत कर लेना जो अपने बिरादरों से करते हो।

इन चीज़ों को एक साथ नहीं चलना चाहिए। इन्हीं चीज़ों के एक साथ चलने के कारण आज हिंदी की इतनी दुर्दशा हो गयी है। हिंदी भी प्रतीक बन गयी है मानसिक पिछड़ेपन का। क्योंकि जो हिंदी बोल रहे हैं, वो ज़्यादातर बातें ही उल्टी-पुल्टी कर रहे होते हैं। तो जैसे ही कोई बोलता है, मुँह खोलता है, हिंदी में कुछ कहता है, तुरंत लगता है कि ये ज़रूर कोई फ़ालतू बात ही करेगा।

इन चीज़ों को एक साथ क्यों जोड़ रखा है? मैं चाहता हूँ ये चीज़ें सब अलग-अलग हों। ऊँची-से-ऊँची बात कही जाए हिंदी में। जो राम का नाम ले, वो पिछड़ा न हो। एकदम जो खुले विचार के लोग हों, वो लें राम का नाम।

अभी क्या है, आप जिन लोगों को पाओ कि वो ज़्यादा धर्म की बात करते हैं, राम और कृष्ण करते हैं, वो सब कैसे लोग होते हैं? ज़्यादातर वही दिमाग़ से पिछड़े हुए, इधर-उधर की बातें, कई बार तो कम शिक्षित, नफ़रत से भरे हुए एकदम। ऐसे ही होते हैं न? ये नहीं होना चाहिए। जो सबसे उच्च कोटि का मन हो, वो नाम ले राम का, वो गीता का श्लोक उचारे।

आप समझ रहे हैं इन बातों को?

धर्म का अंधविश्वास से कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए। और अंधविश्वासी का सबसे ज़्यादा विरोध, धार्मिक लोगों से उठना चाहिए। ये है आदर्श स्थिति कि जहाँ कोई अंधविश्वास की बात करे तो उसका खंडन करने सबसे पहले एक धार्मिक मन खड़ा हो जाए। और धार्मिक से मेरा अर्थ है सच्चे अर्थो में धार्मिक, माने आध्यात्मिक।

हो उल्टा गया है। जो धार्मिक है वही अंधविश्वासी है। बल्कि जो नास्तिक है, उसकी कम सम्भावना है अंधविश्वासी होने की। इसीलिए लोग जैसे-जैसे फिर पढ़ते जाते हैं, आगे बढ़ते जाते हैं, वो धर्म से टूटते जाते हैं। कहते हैं, 'धर्म से हमारा कोई लेना-देना नहीं'।

ये सब चीज़ें आप देखते हैं एक साथ या नहीं? एक व्यक्ति जब ज़िंदगी में आगे बढ़ता है, प्रगति करता है, वो हिंदी को छोड़ देता है और वो धर्म को छोड़ देता है। कुछ अपवाद होंगे पर अधिकांशतः ऐसा होता है कि नहीं? वो इसीलिए क्योंकि हिंदी वालों को आप पाओगे कि वो सब अंधविश्वासी और फूहड़ बातें कर रहे हैं। निन्यानवे प्रतिशत ऐसे ही हैं।

इसीलिए मैंने जान-बूझकर अपना सारा काम हिंदी में रखा। मैंने कहा, जहाँ सबसे ज़्यादा गंदगी है वहीं पर जाकर तो सफ़ाई करनी होगी न। मेरे लिए भी बहुत आसान था, मैं अंग्रेज़ी में ही कार्यक्रम आगे बढ़ाता। और बहुत लोगों ने बोला भी — 'आप अंग्रेज़ी में बोलिए न, तो शिक्षित लोग और उच्चवर्ग के लोग आपको सुनेंगे। आप हिंदी में बोलते हो; देखो, कैसे लोग आपको सुन रहे हैं'।

मैंने कहा, 'नहीं, मुझे हिंदी में बोलना है ज़्यादा। अंग्रेज़ी में बोल देंगे। कोई अंग्रेज़ी में बात करेगा, अपनी ओर से बोल देंगे; मेरी बात हिंदी में रहेगी। क्योंकि वहाँ ही ये सब चल रहा है और हर किसी को ऐसा ही है।

मैं आईआईटी में गया तो वहाँ पर फ्रेशर्स के ही दिन चल रहे थे। उसी समय पर कविता थी मेरी 'मैं' नाम से, 'मैं'। तो मैगज़ीन थी वहाँ की, शायद कोर्नकोपिया थी या कैंपस रम्पस नाम से चलती थी। उसमें वो छप गई। वो छप गई, लोगों को बड़ा अच्छा लगा और बात फैल गयी कि फ्रेशर्स बैच में एक कोई है और धाँसू लिखता है। तो सीनियर्स (वरिष्ठ) थे जो कुछ जानते थे हिंदी, उन्होंने कह दिया, इसका नाम होगा, 'निराला'। तो अच्छी बात है।

लेकिन उसका प्रभाव ये हुआ कि जो वहाँ पर दिल्ली की जनता थी फ्रेशर्स बैच में — जो मुझे जानते नहीं थे, अभी तो सब फ्रेशर्स (शुरुआती) ही हैं, एक-दूसरे को कितना ही जानते हैं — उन्होंने जब वो कविता देखी तो मेरा नाम रख दिया 'एचएमटी'।

जो हिंदी वाले लोग थे, उन्होंने तो कहा, 'प्रशांत त्रिपाठी निराला'। अब तरीक़े उनके। और जो थोड़ा आधुनिक क़िस्म के लोग थे — अब आईआईटी दिल्ली तो उसमें दिल्ली की बहुत सारी जनता, चंडीगढ़ के लोग — उन्होंने कहा, ये एचएमटी है। और एचएमटी बोलकर के, जब उनकी पार्टी हुई तो उसमें मुझे बुलाया नहीं। और कोई मुझे पार्टी में न बुलाए, ये मुझे बर्दाश्त नहीं। और कैंपस की पार्टी, फ्रेशर्स वाली, समझिए किस तरह की होगी। बिलकुल मस्त।

'एचएमटी' माने हिंदी मीडियम टाइप्स। कहें, 'हिंदी में लिखता है तो ये तो संस्कारवादी होगा न! ये तो सांस्कृतिक आदमी होगा, इसको हम कैसे बुला लें वो गंदी वाली पार्टी में?

मैंने कहा, मैं सबसे गंदा हूँ, सबसे पहले मुझे बुलाओ। तुम हिंदी देखकर के गच्चा खा गए।

ये होता है कि हिंदी बोल रहा है, तो थोड़ा उसी तरीक़े का होगा, एचएमटी। एचएमटी समझते हो न? तब चलती थी। क्या? घड़ी होती थी एचएमटी।

मैंने कहा, अब इनका जो है भ्रम खंडन करना ही पड़ेगा। तो फिर जो मैंने धूम मचाई पार्टी में, मैंने कहा, लो बेटा, बताओ अब एचएमटी या क्या। ये होती है असली हिंदी।

समझ में आ रही है बात?

इन चीज़ों को एक-दूसरे का पर्याय मत बनने दीजिए। ये न हो कि ये सब समानार्थी हो जाएँ कि आप हिंदी बोलो तो किसी को लगे तुरंत कि पिछड़ी हुई सोच का होगा। नहीं, ऊँची-से-ऊँची बात, खुली-से-खुली बात बोलिए, हिंदी में बोलिए।

आप राम का भजन करो तो किसी को ये न लगे कि चित्त से उदार नहीं होगा और दूसरे लोगों से नफ़रत ही करता होगा, क्योंकि राम का नाम ले रहा है न! राम के नाम का मतलब ही है दुनियाभर से नफ़रत करना। ये नहीं होना चाहिए।

आप राम का नाम लो और कटिंग एज़ टेक्नोलॉजी (उत्कृष्ट तकनीक़) का आपको पता होना चाहिए। मन गहराई से वैज्ञानिक होना चाहिए।

वैसे ही मैं कुर्ता पहनता था तो उससे भी कईयों को — 'अच्छा! कुर्ता पहन लिया है'। कुर्ता पहन लिया है माने बाबा बन गया है।

मेरे बैचमेट्स (सहपाठियों) को भी अजीब लगा। एक आया एक बार यूएस से तो मिल रहा है मुझसे पंद्रह साल बाद। वो आया, उसी दिन मैं संवाद लेकर पहुँचा था। बोलता है, 'यार पीटी, तू बाबा बन गया'।

मैंने कहा, 'ठहर'। मैंने कुर्ता वहीं उसके सामने उतार दिया। नीचे थी टी-शर्ट। उसमें लिखा था, आई एम व्हाट आई एम। मैंने कहा, 'ये रहा मामला। तुम कुर्ता देखकर के क्या सोचने लग गए भाई! कुर्ते ने कब कहा कि कुर्ता प्रतीक बन गया बहुत और चीज़ों का? ये कहानी तुमने मन में क्यों बना रखी है? तुम कुर्ता नहीं पहनने दोगे मुझे!

और कुर्ता मैं इसलिए पहनता था, पहले मैं जाता था तो यही शर्ट (कमीज़) और ट्राउज़र (पैंट) पहन करके। अब लंबे घंटों की यात्रा और उसके बाद उसको पहन करके बैठना। अब मेरा निकलने लगा था पेट। और ट्राउज़र थे सब पुराने तो वो क्या करते थे पेट में? वो घुसते थे, तकलीफ़ करते थे। तो मैंने कहा, पजामा बेहतर है। इसी तरीक़े से शर्ट पहनकर कौन बैठे इतनी देर तक, टाइट भी लगती है। कुर्ता डाल लो ढीला-ढाला, बढ़िया रहेगा। तुमने कुर्ते को किस बात का प्रतीक समझ लिया? ये मत करिए।

नहीं तो ये हो जाएगा कि कुर्ता बस होली-दिवाली के लिए बचेगा। आम आदमी हिंदुस्तानी लिबास से भी दूर चला जाएगा। इतना ही नहीं, जब भी किसी को हिंदुस्तानी लिबास में देखा जाएगा तो यही माना जाएगा कि ये पिछड़ी सोच का कोई अंधविश्वासी जैसा होगा। ये मत होने दीजिए।

बात आ रही है समझ में?

ज़्यादातर धार्मिक लोग तो मॉडर्निटी (आधुनिकता) से ही घबराते हैं। और वेदांत है पोस्ट-पोस्ट मॉडर्न (उत्तर आधुनिक)। इसीलिए जो धार्मिक आदमी होगा, आप पाएँगे कि अधिकांशतः उसे उपनिषदों से डर सा लगता होगा। दूर-दूर ही रहता होगा।

आप पूछेंगे, 'उपनिषद्'?

वो कहेगा, 'हम नहीं जानते'।

आप वेदान्त कहेंगे।

वो कहेगा, 'वेदान्त वगैरह पता नहीं, बताओ नारियल कहाँ फोड़ना है'?

ये जो नारियल फोड़ने वाला धर्म है, इसको वेदांत से बड़ी नफ़रत रहती है।

वेदान्त क्या है? सुपर मॉडर्न , बियोंड मॉडर्निटी। जिसको आप मॉडर्निटी (आधुनिकता) कहते हैं, उसका एक तत्व होता है — विश्वास नहीं, विचार। ठीक? विश्वास नहीं, विचार। और वेदान्त कहता है, "निश्चित रूप से विचार और ऐसा विचार कि विचार संसार से भी आगे बढ़कर बन जाए आत्मविचार।"

रमण महर्षि कहा करते थे, आत्मविचार। बोलते थे, ज़रा इधर भी तो सोचो।

आधुनिकता ने और उदारवादी मूल्यों ने तो आपको यही कह दिया कि दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है उसको मान मत लेना। प्रयोग करेंगे, जानेंगे, पूछेंगे, चर्च की सत्ता को स्वीकार नहीं करेंगे। हम सोचेंगे हमें कैसे जीना है और अपने क़ायदे ख़ुद बनाएँगे। ठीक है? ये बात यूरोप से आयी। आधुनिकता भी और उदारवाद भी।

लेकिन जो बात आपके पास बहुत पहले से है उसको पकड़ के रखिए। वो और आगे की है। वो बस लिब्रलिज्म (उदारवाद) की नहीं है, वो लिबरेशन (मुक्ति) की बात है। जब आप कहते हो कि मुझे लिबरल (उदार) होना है, तो उसका ताल्लुक होता है संसार से। कि संसार को लेकर मैं लिबरल हूँ, दूसरों को लेकर मैं लिबरल हूँ, कि भाई, तुम्हें जो ठीक लगता है तुम करो।

और लिबरेशन का अर्थ होता है कि मैं स्वयं को भी लिबरेट (मुक्त) कर देना चाहता हूँ। लिबरल वैल्यूज़ (उदारवादी मूल्य) कहती हैं, किसी दूसरे को अपने ऊपर नहीं चढ़ने देना है। और लिबरेशन कहता है, दूसरे को तो अपने ऊपर नहीं ही चढ़ने देना है, ख़ुद भी अपने ऊपर चढ़ के नहीं बैठ जाना है।

लिबरल वैल्यूज़ कहती हैं, किसी दूसरे की ग़ुलामी नहीं स्वीकार करनी है। लिबरेशन कहता है, अपनी भी दासता से मुक्त हो जाना है। तो वेदान्त पिछड़ेपन के लिए नहीं है। आप यहाँ बैठे हो और आप पिछड़ी सोच की बात करोगे तो आपका-हमारा कोई रिश्ता नहीं।

वेदान्त तो बहुत-बहुत विकसित, उदारवादी और अति आधुनिक सोच का है। उसमें परंपरागत नैतिकता जैसा कुछ नहीं है। आपकी मान्यताओं, धारणाओं वगैरह के लिए वेदान्त में कोई स्थान नहीं है। किस्से-कहानियाँ ये चलते ही नहीं वेदान्त में।

वेदान्त का सम्बन्ध आपके पहनावे से नहीं है। तो ये मत सोचिएगा कि एक तरह का जो पहनावा रखते हैं, वो लोग धार्मिक हैं। नहीं। आप में से कई ऐसे भी हो सकते हैं जो आमतौर पर शर्ट-पैंट पहनते हों, यहाँ आने के लिए आपने कुर्ता पहना हो। ऐसी कृपा मत करिए।

कुर्ता-पजामा और वेदान्त, इनका आपस में कोई जोड़ नहीं है। मैं नहीं कह रहा कि ये दोनों विपरीत हैं, पर इनका आपस में कोई निश्चित सम्बन्ध भी नहीं है। शर्ट-पैंट पहनकर भी आप वेदान्ती निश्चित रूप से हो सकते हैं। और वेदान्त कोई विचारधारा भी नहीं है कि मैं कह दूँ, 'वेदान्ती'।

एकाध-दो बार तो मैंने देखा है। देवी जी घूम रही होंगी — अब सत्र में आयी हैं। ख़ासतौर पर ऋषिकेश में बहुत बड़े होते हैं, वहाँ पर चार सौ, पाँच सौ लोग — तो वहाँ वो साड़ी पहने हैं, उनसे चला नहीं जा रहा है ठीक से। उनको देखकर मुझे एकदम ख़याल आया कि ये आमतौर पर साड़ी पहनती नहीं हैं। क्योंकि उधर जब होता है तो विदेशों से भी लोग आते हैं। ये पहनती नहीं हैं, इनको लगा हैं कि ये आचार्य जी हैं न।

अरे भईया, आचार्य माने बताने वाला। कहे, आचार्य जी के सामने अगर स्कर्ट में चले गए तो नाराज़ हो जाएँगे। भाई, आचार्य जी ने जीवनभर स्कर्ट वालियों से ही ताल्लुक रखा है। क्यों नाराज़ हो जाएँगे? स्कर्ट और साड़ी के खेल में कहाँ फँस गए तुम? अध्यात्म परिधानों की बात थोड़े ही है।

अब उनसे चला नहीं जा रहा है ठीक से। मैं वहाँ बैठा हुआ देख रहा हूँ, चाय दी गई है, ये देखो अभी गिर पड़ेंगी। पर इनको लगा वेदांत महोत्सव है तो इसमें स्कर्ट पहनकर कैसे बैठ सकते हैं।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि साड़ी में कोई समस्या है। उल्टा-पुल्टा मत समझिएगा कृपा करके। बहुत अच्छा परिधान है साड़ी। बड़ी शालीनता, बड़ी गरिमा है उसमें। लेकिन सम्बन्ध मत जोड़िए।

ये जो आपने अपनी परंपरागत संस्कृति का और अध्यात्म का थोथा सम्बन्ध बना दिया है, ये मत जोड़िए। आप ये सम्बन्ध बनाओगे तो सब पढ़े-लिखे लोग और छिटकते चले जाएँगे अध्यात्म से। वो कहेंगे कि इसमें तो आना ही उनको है जो पिछड़े लोग हैं। पिछड़ेपन का सम्बन्ध मत जोड़िए अध्यात्म से।

अब जैसे तुमने मुझसे जो सवाल करा, उदाहरण बताता हूँ, कोई साइंटिफिक कॉन्फ्रेंस हो रही होती, क्या ये सवाल तुम कर पाते वहाँ पर? अब आप समझ रहे हैं न क्या बात है?

वहाँ इनकी हिम्मत भी नहीं होती कि ये बात कैसे कह दूँ। भाई, यहाँ सब साइंटिफिक लोग बैठे हैं, उनके सामने मैं ये कैसे टोना-टोटका की बात कह दूँ, और पूछूँ कि मेरे पाँव में हुआ था फिर ऊपरी हवा का चक्कर था फिर झाड़-फूँक हुई तो ठीक हो गया। इनको पता होता है ये बात वहाँ पर नहीं की जा सकती।

यहाँ पर ये बात क्यों कर रहे हो? यहाँ पर तो एकदम नहीं की जा सकती ये बात। मैं नहीं कह रहा मत करो; अच्छा किया कि किया। पर मैं तुम्हारे पक्ष से कह रहा हूँ कि जैसे तुम उन जगहों पर ये बात नहीं उठाते, वैसे ही यहाँ भी मत सोचा करो कि ये जगह अंधविश्वास जैसी बातों के लिए अनुकूल है। एकदम नहीं अनुकूल है।

अच्छा, तुम अपोलो या फोर्टिस या एम्स जाकर के ये कहोगे किसी डॉक्टर से कि डॉक्टर वो चौराहे पर आज नींबू-मिर्ची पर पाँव पड़ गया था इसलिए हैमस्ट्रिंग (घुटने के पीछे की मांसपेशी) खिंच गयी है, ये बोलोगे? बहुत ज़ोर से डाँटेगा न डॉक्टर! अगर इतना बोल दिया कि नींबू-मिर्ची पर पाँव पड़ गया था, इसलिए आज इधर दर्द हो रहा है। डॉक्टर बहुत ज़ोर से डाँटेगा। बोलोगे भी नहीं क्योंकि पता है कि ये बात मूर्खता की है।

तो वैसे ही यहाँ भी समझा करो। अध्यात्म में, वेदान्त में, ये टोने-टोटके के लिए नहीं कोई जगह है।

और इसीलिए पश्चिम ने — बड़ा होशियार है पश्चिम — उसने भारत से वही लिया है जो बस लेने लायक़ चीज़ थी। धर्म का जो आपका पूरा क्षेत्र है, उसमें से सब बाक़ी व्यर्थ बातें छोड़कर के पश्चिम ने अद्वैत वेदान्त उठा लिया है। और अद्वैत वेदान्त में इतना आनंद लिया है उन्होंने, कि इंतिहा नहीं। और बाक़ी बातें कह रहे हैं कि ये भारतीयों के लिए ही छोड़ दो। इनके टोने-टोटके इनके लिए छोड़ दो।

कोयले की खान में से जो हीरे-मोती हैं, बस वो ले गये हैं विदेशी। और उनके लिए अद्वैत, नॉन ड्यूएलिटी एक बड़ा ऊँचा, सेक्रेड , पवित्र शब्द है। और भारत से ही लिया है उन्होंने। उनकी बाक़ायदा कॉंफ्रेंसिस (वार्ताएँ) होती हैं। एक का नाम है सैंड — साइंस एंड नॉन ड्यूएलिटी (विज्ञान और अद्वैत)। क्योंकि उनको दिख रहा है कि अद्वैत और विज्ञान ये बिलकुल एक साथ हैं। और बाक़ी सब जो झाड़-फूँक है, ये हिंदुस्तान है। वो इनका चलने दो।

कितने बदनसीब हैं हम कि हमें विरासत में जो ऊँचे-से-ऊँचा मिला, वो हमने किसी दूसरे के सुपुर्द कर दिया है। और हम ख़ाक लेकर के बैठ गये और उसी को चाट रहे हैं। नींबू-मिर्ची, टोना-टोटका, झाड़-फूँक, और ये सब कुर्ता-पजामा, साड़ी, तिलक, चंदन, चोटी, नारियल; हमारे लिए धर्म यही बन कर रह गया है।

लाओ रे नींबू-मिर्च लाओ, यहाँ रखो। आज अपना भाई करके दिखाएगा। बाक़ी तंत्र के जो शास्त्र हैं, पढ़े तो मैंने भी हैं पूरे। जो श्लोक कहोगे, उसमें फूँक दूँगा। वैसे ये सब तो तंत्र शास्त्र में भी कहीं नहीं हैं, ये भी बता दूँ। ये जो चलता है, ये कहीं पर भी नहीं है।

इससे सम्बन्धित कुछ?

प्र२: आचार्य जी, जैसे आपने बताया कि हमारे पास कुछ भी ऐसा नहीं है जिस पर हम ट्रस्ट (भरोसा) कर सकें। तो जो हम आपसे सीख रहे हैं, वो तो हमें ख़ुद भी पता चल रहा है न कि वो हमारे लिए बेनिफिशियल (लाभदायक) हो रहा है।

आचार्य: प्रयोग करोगे तो पता चलेगा, बैठे-बैठे नहीं।

प्र: प्रयोग कर रहे हैं, तो वो पता चल रहा है कि वो तो सही है। तो उसको हम ट्रस्ट कर सकते हैं?

आचार्य: उसको भी यही कहो कि फ़िलहाल! फ़िलहाल, टेंटेटिवली , अभी के लिए। अभी के लिए ये बात ठीक लग रही है, लेकिन हमने किसी भी बात को पूर्ण सत्य नहीं घोषित कर दिया है।

ऋषि सब पागल थे क्या जो बार-बार बोलते रहे कि सत्य कोई बात नहीं होता! जब सत्य कोई बात नहीं होता, तो कोई बात सत्य कैसे हो सकती है? जब सत्य कोई बात नहीं होता, कोई सिद्धांत नहीं होता, कोई निष्कर्ष नहीं होता; तो कोई भी बात जो आपको ठीक लग गयी, वो सत्य कैसे हो सकती है?

तो वो अभी उपयोगी लग रही है, जहाँ तक आपकी बुद्धि जाती है, जहाँ तक आपका अनुभव जाता है, आपको ठीक लग रही है तो बस इतना कहिए, 'फ़िलहाल'। क्या? फ़िलहाल।

लेकिन हमने मुद्दा बंद नहीं कर दिया है। फाइल क्लोज़ नहीं कर दी है। हमने ये संभावना खुली रखी है कि भविष्य में कभी इससे भी ऊँची और बेहतर बात पता चलेगी तो आगे बढ़ेंगे न।

विज्ञान इसीलिए ज़बरदस्त है, वहाँ जो भी कुछ बताया जाता है — विज्ञान में भी और फिलॉसफी (दर्शन) में भी — उसके साथ में ये भी बता दिया जाता है कि ये जो बात है ये फॉलसिफाई (खंडित) कैसे की जा सकती है।

मैं आपके सामने कुछ रख रहा हूँ और साथ-ही-साथ ये भी बता रहा हूँ कि अगर कुछ और है जो प्रमाणित हो जाए, तो जो मैंने रखा है वो फॉलसिफाई हो जाएगा, माने ग़लत सिद्ध हो जाएगा।

तो ये संभावना हमेशा रखिए कि अभी आप जहाँ तक पहुँचे हैं, उसके आगे भी कुछ हो सकता है। और निश्चित जानिए कि आप जहाँ कहीं भी पहुँचे हों, उसके आगे कुछ होता-ही-होता है।

तो इसीलिए कभी भी मुद्दे पर ढक्कन नहीं लगा देना चाहिए। बस इतना कह देना चाहिए, 'फ़िलहाल। हाँ, बात ठीक है, अभी के लिए। अभी के लिए ठीक है। और अभी के लिए ठीक है तो अभी इस पर अमल कर रहे हैं'।

और अमल अगर इस पर ठीक से किया तो संभावना यही है कि और ज़्यादा बेहतर, और ऊँची बात कुछ खुलेगी।

बिना प्रयोग करे कुछ मत मानना। और न ऐसा कर देना कि मान लिया और प्रयोग नहीं किया। प्रयोग करना माने जीना। जियोगे तो ही भीतर दृढ़ता आएगी।

नहीं तो बातों का क्या है, एक बात इधर से, दूसरी बात उधर से। दूसरी बात पहली बात को काट देगी।

अभी मेरी बात सुन रहे हो तो लगेगा ठीक है। कोई और इधर-उधर की बात सुनोगे तो लगेगा वो ठीक है। बातों से कुछ नहीं होता; जी कर देखो, तब कुछ पता चलता है।

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