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लेख
नैहरवा हमका न भावे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2023)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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नैहरवा हमका न भावे हमका न भावे, नैहरवा… नैहरवा नैहरवा, नैहरवा नैहरवा

साईं की नगरी… परम अति सुन्दर जहाँ कोई आवे न जावे चाँद सूरज जहाँ पवन न पानी कौ संदेसा पहुँचावे दरद यह साईं को सुनावे नैहरवा…

आगे चले पंथ नहीं सूझे पीछे दोष लगावे केहि बिधि ससुरे जाऊँ मोरी सजनी बिरहा जोर जरावे विषय रस नाच नचावे दरद यह साईं को सुनावे नैहरवा…

बिन सतगुरु अपनों नहीं कोई जो यह राह बतावे कहत कबीरा सुनो भाई साधो सपने न प्रीतम आवे तपन यह जिया की बुझावै नैहरवा…

मुझे मायके के घर में कोई दिलचस्पी नहीं है। मेरे प्यारे का शहर सबसे खूबसूरत है, जहाँ कोई आता-जाता नहीं है। वहाँ चाँद, धूप, हवा या पानी भी नहीं है। वहाँ मेरा सन्देश कौन ले जाएगा? फिर मेरा दर्द मेरे प्रियतम को कौन बताएगा? मुझे मायके के घर में कोई दिलचस्पी नहीं है।

आगे बढ़ने के लिए रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा। तो इसके लिए अतीत को दोष दे रहा हूँ। किसी भी विधि को लगाकर जल्द-से-जल्द मैं अपने प्रियतम से मिलना चाहता हूँ। विरह की आग मुझे जला रही है। विषय का मोह मुझे अपनी धुन पर नृत्य करा रहा है। फिर मेरा दर्द मेरे प्रियतम को कौन बताएगा? मुझे मायके के घर में कोई दिलचस्पी नहीं है।

गुरु के अलावा और कोई मेरा अपना नहीं है जो मुझे सही रास्ता बता सकता है। कबीर साहब कहते हैं, 'सुनो रे, साधक! सपने में भी प्रीतम नहीं आता। जो मेरे दिल की तपन को बुझा सके। मुझे मायके के घर में कोई दिलचस्पी नहीं है।'

आचार्य प्रशांत: एक समय था जब एकदम छोटे समूहों में लोगों के साथ — आप लोगों के साथ, हिमालय तरफ़ चले जाते थे लगभग हर महीने। कभी साथ में पन्द्रह-बीस लोग हों, कभी तीस-चालीस। जो अधिकतम हुआ था, वो हुआ था कि पचास लोग थे एक बार जब चोपटा है केदारनाथ के पास, वहाँ गये थे। नहीं तो ऐसे ही रहता था; बीस लोग, तीस लोग, चालीस लोग। और उनके साथ पहाड़ों पर जाने का वो सिलसिला लगभग दो-हज़ार-दस में शुरू हुआ था और दो-हज़ार-सोलह तक चला होगा।

हो सकता है आप में से कुछ लोग उस समय साथ रहे भी हों; कम ही होंगे। तो क्या होता था कि पूरा समय होता था और एकदम अकेलापन। जो वहाँ पर जगह भी लेते थे, वो ऐसी रहती थी कि आसपास कई किलोमीटरों तक कोई हो न। या तो एकदम पहाड़ के ऊपर जहाँ थोड़ा ट्रैक करके जाना पड़ता था या फिर गंगा किनारे के कैंप। वो कैंप अब बन्द कर दिये गए हैं। ग्रीन ट्रिब्यूनल ने ठीक ही निर्णय लिया है कि गंगा को बचाने के लिए गंगा के तट पर अब कैंप नहीं लग सकते।

तो वहाँ ऐसा नहीं होता था कि सुबह कोई समय बँधा हुआ है कि लोग उस समय आएँगे, और न रात कोई समय बँधा होता था कि लोगों को वापस घर जाना है। जो आ गया, सो आ गया।

और वो दो-हज़ार-दस, बारह, चौदह का समय था, उस समय कोई निश्चित भी नहीं होता था कि जहाँ आये हैं, वहाँ सिग्नल रहेगा ही। बल्कि सिग्नल नहीं ही रहता था। सिग्नल नहीं ही रहता था तो एक बार वहाँ पहुँच गये, तो दुनिया से कट जाते थे पूरी तरीक़े से। इंसान दिखाई भी नहीं देता था, न दृष्टि से, न फ़ोन पर।

और रीडिंग्स (पठन सामग्री) का कम-से-कम इतना ऊँचा ढेर जाता था वहाँ पर। और इतना ऊँचा ढेर सब लोगों के लिए नहीं, एक-एक व्यक्ति के लिए। तो ऐसे-ऐसे उतने बण्डल होते थे, जितने लोग होते थे। और उस दरमियान जितने ग्रन्थ पढ़े जा सकते थे, पढ़े गये; सबने पढ़े। पढ़ते थे, बात होती थी; पढ़ते थे, बात होती थी।

कैमरे का कोई विशेष काम नहीं था। एकदम छोटा-सा कैमकॉर्डर रहता था। उससे रिकॉर्ड हो गया तो हो गया, नहीं हुआ तो नहीं हुआ। आप बहुत पुरानी रिकाॅर्डिंग्ज़ , पुरानी विडियोज़ देखेंगे तो उसमें आपको दिखाई देगा। वैसा था!

और गाने पर बहुत ज़ोर रहता था। ख़ूब गाते थे सब। तो जितने संस्कृत के ग्रन्थ हैं, वो तो रहते ही थे। तो उनको पढ़ो, उनको समझो। साथ-ही-साथ सन्तवाणी पूरी रहती थी। कबीर साहब हों, बाबा बुल्लेशाह हों, शेख़ फ़रीद हों, दादू दयाल हों, मीरा बाई हों, पलटू दास हों।

मौज! गाओ!

और ग्रुप्स (समूह) बना दिये जाते थे, पाँच-पाँच, सात-सात लोगों के। उनके सामने गीत या भजन आ जाता था। और वो ख़ुद ही उसकी धुन तैयार करते थे और फिर ख़ुद ही आकर के उसको गाकर के सबको सुनाते थे। पहले वो गा लेते थे, उसके बाद जो पूरा समूह होता था, वो गाते थे। और गाते-गाते अपना, लोगों का मन करे, नाचने भी लग जाएँ।

जवान लोग होते थे ज़्यादातर। वो जगह भी ऐसी ही होती थी जहाँ जवानों के अलावा कोई टिक न पाए। वहाँ बहुत सुविधा वगैरह, कुछ नहीं होती थी। एकदम… खाने-पीने को मिल जाता था, वही बड़ी बात थी।

तो वो बड़े एकदम आनन्द-अमृत के दिन थे। अभी हम जो बात करेंगे, मैं आशा में हूँ बहुत मीठी, बहुत ऊँची होगी। लेकिन वो तब की जो बात थी, वो अलग ही थी। फिर दिखाई दिया कि बात बीस-पचास लोगों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, आगे बढ़नी चाहिए। तो संस्था फिर वाॅर मोड (युद्ध शैली) में आ गयी पिछले चार-पाँच साल से। और ये लगभग असम्भव हो गया कि उतनी आज़ादी, उतनी उनमुक्तता, उतनी बेपरवाही के साथ लोगों को वहाँ पर लेकर जाएँ और बातचीत का और गाने का कार्यक्रम हो पाये।

वो दिन दूसरे थे; गा रहे हैं, गा रहे हैं, गा रहे हैं। सुबह चार बजे मैं ही जाकर के ढोल बजा-बजा कर सबको उठाता था —

आया था किस काम को, तू‌ सोया चादर तान। सूरत सम्भाल रे ग़ाफ़िल, अपना आप पहचान।।

उन सबकी कोई रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है, कुछ फोटोज़ होंगी अधिक-से-अधिक। या छोटी-मोटी कोई विडियो, किसी ने कुछ बना लिया तो। तो सुबह से काम संगीतमय शुरू हो जाता था, म्यूज़िकल ; और रात, देर रात तक। बीच में एक अलाव या बाॅनफ़ायर जला ली गयी। सब गाते-गाते ही सो जाते थे। नौ, दस, ग्यारह जब बजने लगे, तो सब जाते थे आसपास जहाँ कोई झरना दिखा या नदी दिखी, तो उसमें एक-दूसरे को पटक-पटककर नहा भी लिये। और यही था।

खाने-पीने की कोई सुध नहीं। फिर वापस आये, फिर चलो; अब नेक्स्ट (अगली) रीडिंग तैयार है, अब इसको जल्दी-जल्दी पढ़ो। पढ़ो, फिर परफ़ॉर्म (प्रस्तुत) करो; पढ़ो, फिर परफ़ॉर्म करो। उसके बाद समझो जो बोला है, उसको समझो। समझो, गाओ, यही चलता रहता था।

अब ये कई सालों बाद आज हो रहा है कि सन्तों के गीतों पर बात होगी आपके साथ। कम-से-कम चार साल तो हो गये होंगे, पाँच साल। चार-पाँच साल बाद हो रहा होगा। बीच-बीच में मैं संकेत करता रहता था, हवाला देता रहता था। लेकिन कभी पूरा-का-पूरा सत्र सन्तवाणी पर ही आयोजित नहीं हुआ।

तो आज हो रहा है और उसकी मुझे आतुरता तो हो रही है और आनंद-सा भी अनुभव हो रहा है बात के शुरू होने से पहले ही। लेकिन साथ में एक चीज़ और हो रही है जो सामान्यतया सत्रों से पहले मुझे अनुभव होती नहीं। और वो ये है कि जिसे कहेंगे थोड़ी सी नर्वसनेस (विकलता)। जैसे आपका कोई बहुत पुराना मित्र हो या प्रेमी हो और उससे आप कई सालों बाद मिलने जा रहे हों, तो थोड़ा सा धड़कन अपना एहसास कराने लगती है न? तो वैसे ही।

तो इनसे अब बहुत सालों बाद मुलाक़ात हो रही है इस रूप में; वैसे तो सदा साथ ही रहते हैं। पहाड़ों पर आप मिले होते, तो आपको नचा भी दिया होता। यहाँ पर वो बात नहीं हो पाएगी, पर कम-से-कम गाइएगा।

चलिए, कुछ मूल बातें। आप अगर अष्टावक्र गीता पढ़ेंगे, तो उसमें आपको अहम्, जीव, जगत, संसार और सत्य-ब्रह्म-आत्मा, इनसे बहुत भिन्न कोई बात मिलेगी नहीं। तो वहाँ पर चूकने की कोई सम्भावना ही नहीं है। क्योंकि अष्टावक्र बहुत तरह के अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करते ही नहीं। उनको पता है कि तीन ही होते हैं, कौनसे तीन?

कौन से तीन?

श्रोतागण: प्रकृति, अहम् और आत्मा।

आचार्य: तो इन तीन से वो बाहर जाते ही नहीं। इन तीन से वो बाहर जाते ही नहीं। अधिक-से-अधिक ये करेंगे कि अहम् को कभी पुरुष बोल देंगे, कभी जीव बोल देंगे। ठीक है? और जगत की ओर इशारा करने के लिए कभी कह देंगे कि बुदबुदा है, कभी कह देंगे कि फ़ेन है, कभी कह देंगे, ‘लहर है’। कभी जगत के लिए कह देंगे कि संसार है, कभी कह देंगे प्रकृति है।

तो वहाँ पर अर्थ न समझने की सम्भावना बहुत कम है क्योंकि अर्थ एकदम स्पष्ट है गणित के किसी समीकरण की तरह। और अहम् को आत्मा की ओर ले जाना ही लक्ष्य है। आत्मा के लिए कभी सत्य, कभी ब्रह्म, कभी परमात्मा। इससे दूर वो कभी जाते ही नहीं।

तो आप ये नहीं पाएँगे कि अष्टावक्र की बात को विकृत करके, उसका अनर्थ करके कहीं उद्धृत किया गया है, ऐसा नहीं होगा। क्योंकि वो बात अपनेआप को उपलब्ध ही नहीं कराती है विकृति के लिए। ठीक है? वहाँ बहुत ज़्यादा बात सांकेतिक है ही नहीं; स्पष्ट है, प्रत्यक्ष।

फिर आप आएँ श्रीमद्भगवद्गीता में। भगवद्गीता में आप पाते हैं कि संकेतों का स्थान थोड़ा बढ़ जाता है। और वहाँ फिर अपनेआप को बार-बार याद दिलाना पड़ता है कि जो भी बात कही जा रही है, वो इन्हीं तीन के संदर्भ में कही जा रही है और इन तीन से ज़रा भी हटना नहीं है।

लेकिन भगवद्गीता को लेकर विकृतियाँ हुई हैं, नासमझियाँ हुई हैं। जो बात कही जा रही है, उसका बहुत विपरीत अर्थ भी किया गया है। वजह यही रही है कि वहाँ पर बहुत सारे इशारों का, संकेतों का इस्तेमाल हुआ है।

और इशारा देने वाले का तो काम है इशारा देना, समझने वाले का काम होता है इशारा समझना। समझने वाला अगर न समझ पाये, तो अर्थ का अनर्थ और गुड़ का गोबर हो सकता है। और वो भगवद्गीता में बहुधा हुआ भी है क्योंकि हम कृष्ण की बात को ठीक से समझ नहीं पाए हैं। उन्होंने किसी शब्द का इस्तेमाल कुछ बताने के लिए करा है, हमने उसका कुछ और ही अर्थ निकाल लिया है।

अब आते हैं सन्तवाणी पर। यहाँ आप पाएँगे कि जितने सांसारिक शब्द हो सकते हैं, स्थितियाँ हो सकती हैं, वो सब मौजूद हैं। अभी मैं बाहर से सुन रहा था; हम गा रहे थे, “नैहरवा हमका न भावे।” अब 'नैहर' माने क्या होता है? मायका। अब ये जो मायका है, अष्टावक्र में तो कहीं मिलता नहीं। आप पूरी अष्टावक्र-संहिता छान डालिए, उसमें मायका कहीं नहीं मिलेगा; न पति जैसा कुछ मिलेगा। भगवद्गीता में भी मायके की तो कोई बात नहीं आती है। पर जब आप संतों के यहाँ जाते हैं, तो यहाँ सब आ जाता है — चूल्हा-चौका, मायका, ससुराल, पति, बच्चा, ससुर, सास, परिवार, संसार। आप जो बोलें, वो सब आपको मिल जाएगा और वो जितना मिलेगा, वो इशारा कर रहा है मात्र तीन की तरफ़।

सन्तों ने तो ज़मीन की भाषा में बात करी है और इसीलिए अध्यात्म को लोगों तक ले आने में वो ऋषियों से ज़्यादा सफल रहे हैं। उन्होंने आपके जीवन की भाषा में बात करी है, तो उन्होंने प्रतीक भी वही सब उठाए हैं जिनसे हमारा रोज़ का सरोकार रहता है। कपड़े, साड़ी, ताना-बाना, बाल, आँखें, पशु-पक्षी, बकरी, भेड़, घोड़ा, गधा, जन्म, मृत्यु, बाज़ार। ये सब आपको सन्तों के यहाँ मिल जाएँगे और वो उनको इस तरह से अपने गीतों में पिरोते हैं कि गीत कई तलों पर काम करता है। एक तो है ही उसका गहनतम और आत्यंतिक तल जहाँ बस तीन बसते हैं।

पर वो तल अगर नहीं भी समझ में आये, तो भी उस गीत की रचना ऐसी की गयी है; उसकी जो अभिकल्पना है, डिज़ाइन (प्रारूप) है, वो ऐसा है कि आपको गीत में रस आ ही जाएगा बिना उसका पूरा और उच्चतम अर्थ जाने हुए भी।

समझिएगा। आप पूरा-पूरा गीत को नहीं भी समझ रहे हैं, तो भी आप उसको गुनगुना सकते हैं। कुछ तो बात उसमें संगीत की है, लयात्मकता की है; और कुछ बात ये है कि जो बात बोली है, वो कई तलों पर काम कर रही है। कई तलों पर।

अब जैसे यही है: “नैहरवा हमका न भावै। साईं की नगरी परम अति सुन्दर जहाँ कोई आवै न जावै।”

आप नहीं भी समझ पा रहे हैं कि ये बात किस सन्दर्भ में कही गयी है, तो भी ये बात बहुत बार एक आम युवती पर लागू होती है जो पति का घर छोड़कर के मायके आयी हुई है और वहाँ कह रही है कि भाई, अब मायका नहीं पसंद आ रहा है, साईं की नगरी ही बढ़िया है। साईं माने? पति। जो पति का घर है वही ठीक है।

तो आप उसको बिना पूरा अर्थ जाने भी अगर गाते रहें, गुनगुनाते रहें, तो आपका कोई नुक़सान नहीं हो जाएगा। नुक़सान तो नहीं होगा, लेकिन जो उससे उच्चतम प्राप्ति की सम्भावना है, उससे आप चूक जाएँगे, वंचित रह जाएँगे; ये हो जाएगा।

कुछ बहुत बुरा नहीं होगा; ऐसा नहीं होगा कि आप उस भजन को गाने के बाद किसी हानि का शिकार हो गये। हानि तो कुछ नहीं होगी, लेकिन जो लाभ हो सकता था अधिक-से-अधिक, उससे आप वंचित रह सकते हैं; ये ज़रूर हो जाएगा। समझ रहे हैं बात को?

तो लॉस (हानि) तो नहीं होगा, अपॉरच्यूनिटी लॉस (अवसर की हानि) ज़रूर है।

हमारा प्रयास रहेगा कि हम पूरी गहराई से समझने के बाद, फिर उसको गाएँ। और तब जो उसमें बात बनती है, तब आप यहाँ शब्दोच्चारित करते जाते हो और भीतर मन शुद्ध होता जाता है; और वही इस साहित्य का प्रयोजन है। नहीं तो, ये तो बहुत आसान है कि एक रसीली-सी, मादक-सी धुन हो और उस पर भजन के बोलों को पिरो दिया गया हो और आप उसको गाने लगें, नाचने लगें, जैसा बहुधा होता है। और नृत्य का, संगीत का अपना एक मज़ा होता है। अर्थ न भी समझ में आ रहा हो, तो भी मन थोड़ा हल्का हो जाता है नाच-गाकर। होता है न?

पर हमारा उद्देश्य उससे अलग है। हम जानना चाहते हैं वो बात जो वो हमें बताना चाहते थे। मनोरंजन में और सतही रस में हमारी रुचि कम है। हम जो गहनतम रस है, उसको चखना चाहते हैं। ठीक है?

चलिए, पहले समझेंगे। फिर ये लोग (भजन गाने वाले स्वयंसेवक) मौजूद हैं, ये अपना बढ़िया इनका अभ्यास है; ये लोग गाएँगे। कल रातभर ये लोग अभ्यास ही कर रहे थे, मुझे बताया।

“नैहरवा हमका नहीं भावे।” जिस जगह पर शरीर का जन्म होता है। जहाँ शरीर का जन्म हुआ है — नैहर।

तो क्या हुआ नैहर? ये संसार जहाँ की मिट्टी से ये शरीर उठा है। जो बात यहाँ बोली जा रही है वो वेदान्त का गूढ़तम सत्य है। क्या? उठते तो आप मिट्टी से हो, लेकिन आपकी रचना कुछ ऐसी है कि प्रेम आपको आकाश से होता है। और मिट्टी के जगत और आकाश के जगत की कहानियाँ बिलकुल अलग-अलग हैं, नियम-क़ायदे बिलकुल अलग-अलग हैं, दृश्य बिल्कुल अलग-अलग हैं, स्थितियाँ बिलकुल अलग-अलग हैं। समझ में आ रही है बात?

नाता आपका दोनों से है, ठीक वैसे जैसे आमतौर पर एक महिला का नाता दोनों से होता है — मायके से भी और ससुराल से भी। लेकिन एक वो जगह है जहाँ बस जन्म हुआ है शरीर का और एक वो जगह है जहाँ प्रेम का नाता है।

तो सन्तों ने ऐसा देखा है कि ये दुनिया बस आपके शरीर को जन्म देती है, यहाँ प्रेम नहीं पाओगे। यहाँ प्रेम नहीं पाओगे, दिल नहीं लगा सकते यहाँ पर। और ये भी नहीं कह सकते कि यहाँ से कोई रिश्ता है ही नहीं क्योंकि इसी की मिट्टी से तो खड़े हुए हो।

लेकिन पैदा भले ही यहाँ हुए हो, यहीं मर जाने के लिए नहीं पैदा हुए हो। भले ही जन्म भौतिक है शरीर का, लेकिन उसी शरीर के साथ जो चेतना पैदा होती है वो चेतना शरीर से, शरीर की मिट्टी से, जगत से, प्रकृति से मुक्ति माॅंगती है। उसको आसमान से प्यार है। और जिसे प्यार हो, उसे तुम उसके प्रेमी से मिलने नहीं दो, तो उस बेचारे का बड़ा दम घुटता है।

और हम सब अपना ही दम घोंटते हैं। कैसे? जहाँ पैदा हुए थे, अपनेआप को वहीं सीमित रखकर; माने क़ैद रखकर। कैसे पैदा हुए थे? भौतिक, मटीरियल।

जो व्यक्ति अपने जीवन को भौतिक के अतिरिक्त न कोई कामना देता है, न लक्ष्य, न प्रेम; वो अपना दम, अपना गला घोंट रहा है। उसकी हालत वैसे ही होती है जैसे किसी बंजर प्रेमहीन मन की।

“नैहरवा हमका न भावे।” इतने में पूरी मनुष्यता की स्थिति का वर्णन कर दिया कबीर साहब ने। कोई नहीं है जिसको ये जगत भाता है। बस कुछ हैं जो अपनेआप को धोखा देते रहते हैं और दिलासा देते रहते हैं और कहते रहते हैं बढ़िया है दुनिया मेरी, बढ़िया है। सब अच्छा चल रहा है, सब बहुत अच्छा है।

और कुछ होते हैं जो साहस के साथ स्वीकार कर लेते हैं, अभिव्यक्त कर लेते हैं कि नहीं भाई, मामला ठीक नहीं है; अच्छा तो यहाँ किसी को लग ही नहीं सकता। ये जगत वो जगह है ही नहीं हम जिसके लिए पैदा हुए हैं। ये जगत वो जगह हो सकती है हम जिसमें पैदा हुए हैं, पर ये वो जगह नहीं है हम जिसके लिए पैदा हुए हैं। यहाँ नहीं मन लगता, मन कुछ और माँगता रहता है लगातार। और दुनिया अधिक-से-अधिक क्या दे पाती है? कपड़ा-लत्ता, पद-प्रतिष्ठा। एक शरीर को दूसरा शरीर मिल जाएगा, उसको हम रिश्ते-नाते बोल देते हैं। शरीर से ही कुछ विचार, कुछ भावनाएँ उठ जाएँगी, वो हमको लगने लग जाता है कि बड़ी सूक्ष्म बातें हैं; पर वो भी सब भौतिक ही बातें हैं, उनमें नहीं मन लगना है।

नैहर माने वो सबकुछ जो मन की परिधि में आ सकता है। मन स्वयं को ही पसंद नहीं करता क्योंकि वो उन चीज़ों से भरा हुआ है जिनकी उसे कोई दरकार नहीं। कोई भी व्यक्ति अपनी स्थिति को पसंद नहीं कर सकता है अगर उसकी स्थिति में बस भौतिक चीज़ें ही मौजूद हैं।

“नैहरवा हमका न भावे।” इसका अर्थ ये है कि हम स्वयं को न भावें। मैं कौन हूँ? मैं भी इसी जगत की तरह बिलकुल भौतिक, मटेरियल हूँ। जो भी कुछ मेरे मन में चलता रहता है, वो कहाँ से आता है? संसार से ही तो आता है।

क्या मन की सामग्री में ऐसा कुछ भी है जो दुनिया का नहीं है? नहीं! क्या मन की सामग्री में ऐसा कुछ भी है जो इस शरीर से नहीं उठा? नहीं! सबकुछ वही है। तो कैसे अच्छी लगेगी दुनिया और कैसे अच्छा लगेगा मन और कैसे सान्त्वना मिलेगी उन सब विचारों से, बातों से जो मन में चलती रहती हैं? आप ऊँची-से-ऊँची कल्पना या कामना कर लीजिए; उससे दो क्षण का सुख मिल जाएगा, उसके बाद फिर वही ऊब और उदासी।

“नैहरवा हमका न भावे”, बात यही है कि ज़िन्दगी हमको नहीं भाती। हम स्वयं को नहीं भाते। क्यों नहीं भाते? क्योंकि कुछ बेमेल कर डाला है। जिसका जो भोजन नहीं, उसको वो खिला दिया है; जिसकी जहाँ जगह नहीं, उसको वहाँ बैठा दिया है; जिसको आकाश पर होना है, उसको धरती पर तमाम बन्धनों में बाँध दिया है।

और भूल की वजह? भूल की वजह ये कि हम सोचते हैं कि जो जहाँ पैदा हुआ है, वहीं का तो हो गया। वही भूल तो हम पूरी ज़िन्दगी करते हैं न? हम सोचते हैं कि भौतिक अस्तित्व हमारा या दूसरों का हमारी उच्चतम कामना की ओर संकेत करता है; नहीं करता।

अपनेआप को आईने में देखेंगे, तो बस मिट्टी दिखाई देती है। मिट्टी दिखाई देती है, इसका अर्थ ये नहीं है कि आपको मिट्टी ही चाहिए; यहाँ भूल हो जाती है। सिर्फ़ इसलिए कि आँखें सिर्फ़ चीज़ों को देख पाती हैं और ख़ुद को भी देखती हैं तो बस कपड़ों को देखती हैं, शरीर को देखती हैं, खाल को देखती हैं। बहुत कर लेंगे कुछ प्रबन्ध, एक्सरे वगैरह, तो हड्डी को देख लेंगी। पर आँखें इस मिट्टी के भीतर जो तड़प है, उसको कभी नहीं देख पातीं।

हम समझ ही नहीं पाते कि हमें सचमुच चाहिए क्या। एहसास तो होता रहता है कि कुछ ग़लत है, कहीं कमी है; और जितना हमें एहसास होता है कि कमी है, उतना हम सोचते हैं कि हम जिस दिशा में जा रहे हैं, उस दिशा में जाने की हमारी गति में कमी है। हम ये नहीं समझ पाते कि दिशा को पहचानने में ही कमी हो गयी।

हम कौनसी दिशा जाते हैं? हम भौतिक दिशा जाते हैं। भौतिक दिशा का मतलब ये मान्यता कि चीज़ों को पाकर संतुष्टि मिल जाएगी; हम इस दिशा जाते हैं। ये दिशा ही ग़लत है।

अब कल्पना करिए उस व्यक्ति की जो ग़लत‌ दिशा जा रहा हो और ग़लत दिशा जाने के कारण परेशानी झेल रहा हो। और जब उसे परेशानी होती है तो निष्कर्ष क्या निकालता है? वो निष्कर्ष ये निकालता है कि शायद मेरी गति में कमी है, इसलिए मुझे परेशानी हो रही है। ये हर आम आदमी की स्थिति है।

आपको जीवन में निराशा होती है, कुंठा होती है, बेचैनी होती है, दुःख होता है; तो आप आमतौर पर अपनी दिशा नहीं बदलते। आप बस जिस दिशा जा रहे हो, उसी दिशा में और प्रयत्न करना शुरू कर देते हो, और हाथ-पाँव मारना शुरू कर देते हो; और तेज़ गति से बढ़ना शुरू कर देते हो। सोचते हो कि जल्दी नहीं कर रहा न, इसलिए देर हो रही है। 'ग़लत दिशा में ही और गति, और स्पीड से बढ़ूँगा, तो कुछ मिल जाएगा।' ये तो और अनर्थ हो गया। यही करते हैं न हम?

कौन मानता है कि असफलता का कारण ये नहीं है कि लक्ष्य नहीं मिला? सबका यही कहना होता है न कि असफल हुए हैं, लक्ष्य नहीं मिला, असफल हो गये। सब यही मानते हैं न? ये कौन मानता है कि सफलता का असली कारण तो ये है कि लक्ष्य ग़लत था?

आप किसी से पूछो, 'दुखी क्यों हो?' तो वो कहेगा इच्छा पूरी नहीं हुई। कोई व्यक्ति और किसी कारण से दुखी होता है? हम कहते हैं इच्छा पूरी नहीं हुई, तो हम दुखी हैं। ये किसको समझ में आता है कि दुख का कारण है कि इच्छा ही ग़लत थी? जिसकी इच्छा करनी चाहिए, उसकी इच्छा कभी करी ही नहीं। और जिसकी इच्छा तुम कर रहे हो, वो मिले तो भी दुखी रहोगे, नहीं मिले तो भी दुखी रहोगे। जानने वालों ने कहा है कि मिल जाए तो शायद ज़्यादा दुखी रहोगे।

और जिसको प्रेम देना चाहिए था, उसको प्रेम कभी दिया नहीं। तो जानने वालों का प्रयास रहा है कि आपको बता पाएँ कि प्रेम का अधिकारी कौन है; कि अगर कामना करनी है, तो किसकी करो; कि लक्ष्य बनाना है, तो किधर को बनाओ।

और ये बात उन्होंने बड़े रसपूर्ण तरीक़े से बतायी है; वेदान्त को एकदम ज़मीन पर उतार दिया है आम आदमी के लिए।

“साईं की नगरी परम अति सुन्दर, जहाँ कोई आवे न जावे।”

जगह की कामना है मन को जहाँ ये आवागमन का खेल रुक जाए; जहाँ आदमी भरोसे के साथ निश्चिंत होकर बैठ जाए। ये जो दिनरात धुक-धुकी लगी रहती है कि कहीं कुछ खो न जाए, कहीं कोई अपना चला न जाए, कहीं कोई अनिष्ट आ न जाए; ये बन्द होनी चाहिए। यही आशंका तो सोने नहीं देती, जीने नहीं देती न?

“साईं की नगरी परम अति सुन्दर जहाँ कोई आवै न जावै।" न अनिष्ट के आने की आशंका, न स्वजन के खोने का डर। और इसी कारण वहाँ है परम सुन्दरता; वो परम सुन्दरता है ही इसलिए कि वहाँ पूरा भरोसा करा जा सकता है। निश्चिंत हुआ जा सकता है, सोया जा सकता है, विश्राम मिल सकता है। जगत में विश्राम नहीं मिलता है; जगत में लगातार आशंका बनी रहती है, उत्तेजना बनी रहती है। सो भी जाओ, तो सपने आते हैं।

“चाँद सूरज जहाँ पवन न पानी, को संदेसा पहुँचावै।” इस दुनिया में पैदा होने के कारण मैंने तो यहीं के रीति-रिवाज़ पकड़ लिये हैं। अब प्यार मुझे वहाँ से है, लेकिन शिक्षा-दीक्षा मुझे पूरी यहाँ की मिल गयी है। प्यार वहाँ से है, प्रशिक्षण यहाँ का है। तो मुझे तो प्रेम का क़ायदा भी नहीं आता। मैं उसको कैसे सम्बोधित करूँ?

यहाँ के लोगों ने तो कहा है कि जब कोई प्यारा हो, तो उसको बोल दो कि तू मेरा चाँद है, तू मेरा सूरज है। पर वहाँ, जहाँ से नेह लग गया है मेरा, वहाँ तो चाँद-सूरज होते ही नहीं। तो वहाँ उनको बोलूँगा कि तुम मेरे चाँद हो, तो बात बनेगी नहीं। वो कहेंगे, ‘चाँद माने क्या?’

इस दुनिया में हमारा प्रेम आदान-प्रदान जैसा होता है और वहाँ कोई आदान-प्रदान और व्यापार होता नहीं, लेन-देन। तो मैं अपनेआप को वहाँ अभिव्यक्त करूँ भी, तो कैसे करूँ? न हवा है, न संदेश ले जाने का कोई ज़रिया, न मानवकृत माध्यम हैं। ये जो कबूतर उड़कर प्रेमियों के संदेश एक-दूसरे को देते हैं, वहाँ तो ये भी नहीं है।

और मुझे यही सब आ गया है, बुरी आदतें सीख ली हैं मैंने इस दुनिया में। इन बुरी आदतों का नतीजा ये है कि जो अच्छा है, उस तक पहुँचने की मेरी सामर्थ्य ही सीमित हो गयी है। वहाँ की भाषा दूसरी है, वहाँ के क़ायदे, वहाँ की मर्यादा दूसरी है। और मैंने सारी भाषा और सारी मर्यादा इस दुनिया की सीख ली है। और इस दुनिया की मुद्रा उस दुनिया में चलती नहीं। इस दुनिया के क़ायदे और रीति-रिवाज़ वहाँ पर असफल हो जाते हैं। तो अब मैं यहाँ बैठी तो हुई हूँ कि प्रेम है उससे; पर न वो मिलता है, न मुझे कुछ सूझता है कि उस तक पहुँचूँ कैसे।

ये जीव मात्र की स्थिति है। ये जिसको कहा जा रहा है कि मैं बैठी हुई हूँ, वो इन तीन में कौन है? अहम्। ये स्पष्ट है सबको? ये किसकी दशा का वर्णन हो रहा है? अहम् की। ‘नैहर’ इसमें क्या है? प्रकृति। कितने लोग गीता के साथ हैं? सभी, लगभग; ठीक है। तो नैहर प्रकृति है। और चूँकि नैहर प्रकृति है, तो अब अगर मैं इसमें बोलूँ, 'चाँद-सूरज', तो आप तुरन्त क्या बोलेंगे? प्रकृति। पवन-पानी, आप क्या बोलेंगे?

श्रोतागण: प्रकृति।

आचार्य: साईं की नगरी?

श्रोतागण: आत्मा।

आचार्य: ठीक है? समझ में आ रही है बात? तो ये सारा खेल इन्हीं तीन का है। और जो भी गीत किसी अर्थ के हुए हैं, किसी रस, किसी सौंदर्य के हुए हैं, वो सब-के-सब गाये मात्र आत्मा के ही प्रति गए हैं। भले ही उनमें जो ढंग है, वो ऐसा हो कि लगे कि कोई स्त्री किसी पुरुष से या पुरुष किसी स्त्री से बात कर रहा है। पर रस और सौन्दर्य तो मात्र आत्मा में ही होता है; तो उधर को ही ये अभिव्यक्त है।

“दरद यह साईं को सुनावे।”

साईं कौन हैं?

श्रोतागण: आत्मा।

आचार्य: ठीक है?

दर्द क्या है?

दर्द क्या है?

अहम् का अनुभव जब वह? बोलिए, बोलिए, पूरा करते चलिए। जब वो आत्मा से दूर रहता है। तो हम कैसे पता करें कि किसी के जीवन में कितना दर्द है? कैसे पता करें? बस ये नाप लेना है कि उसकी आत्मा से दूरी कितनी है। अब इसी बात को ज़रा पलट दीजिए, इसकी कोरोलोरी (उपप्रमेय) निकालिए। कोई अगर बोले कि मेरे जीवन में दर्द बहुत है, तो सीधा आशय क्या है? आत्मा से दूरी बहुत है।

तो सूत्र ये हुआ यहाँ पर कि जो कि वो सूत्र की तरह नहीं बताएँगे; ऐसे‌ नहीं कहेंगे कि हाँ भाई, ये आठ सूत्र आपको दिये देते हैं। ये सन्तों का तरीक़ा नहीं है; वो बात-बात में बात बता जाते हैं, जो पकड़ ले वो पकड़ ले।

हम अपने दुःख के पीछे बहुत से कारण गिनाते हैं, वो बस एक तरीक़े का रेशनलाइजेशन (युक्तिकरण) है। कोई बोल देगा कि जो पद चाहिए था, नहीं मिल रहा है, इसलिए दुखी हैं; कोई बोलेगा, 'बहुत तरह की हसरतें थीं, वो पूरी नहीं हो रही हैं'; कोई बोलेगा, 'व्यापार में घाटा हो गया है'; कोई बोलेगा, 'भाई, कोई नौकरी चाहिए थी, कोई परीक्षा दे रहे थे, उतने सफल नहीं हुए'; कोई कहेगा, 'पारिवारिक कुछ उलझनें चल रही हैं, उसमें समस्या है, इसलिए दुख है।'

जब भी आप किसी को दुख के पीछे इस प्रकार के कारण गिनाते देखें, तो ऊपर से भले ही संवेदना व्यक्त कर दीजिएगा; भीतर से मुस्कुराइएगा। मुस्कुराइएगा क्योंकि आपके सामने झूठ बोला जा रहा है; खुल्ला झूठ बोल रहा है वो व्यक्ति। लेकिन वो आपकी संवेदना का भी अधिकारी है क्योंकि सम्भावना ये है कि वो ख़ुद भी नहीं जानता कि वह? साथ चलिए। वो ख़ुद भी नहीं जानता कि वह?

श्रोतागण: दुखी है।

आचार्य: अब जब ऐसी स्थिति आ जाती है तब जो ज्ञानी होता है, वो करुणा प्रदर्शित करता है। वो कहता है झूठ तो ये बोल रहा है, लेकिन इसे भी नहीं पता कि ये झूठ बोल रहा है। इस बेचारे को सचमुच लगता है कि दुखी इसलिए है क्योंकि इसे व्यापार में कुछ घाटा हो गया है या इसका बेटा नालायक निकल गया है या और कोई बात। ये सरासर झूठ है, दर्द की वजह सदा एक होती है; फ़र्क नहीं पड़ता दर्द किसको है और उसने जो कारण घोषित किया है, वो क्या है; नहीं फ़र्क पड़ता कि घोषित कारण क्या है, दर्द की वजह बस एक है।

अच्छा, किसकी-किसकी ज़िन्दगी में कोई दुख या दर्द है? (हँसते हुए) सबसे पहले मैं हाथ खड़ा करता हूँ न, नहीं तो बहुत लोग कह देंगे कि सर (आपका‌ क्या)। तो अभी आप से पूछा जाए कि अपने दुख का कारण बताइए, तो आप दस कारण लिख देंगे। उन दस कारणों में कभी भी ये होगा कि आत्मा से दूरी है, इसलिए है? नहीं होगा न? दसवें नम्बर का कारण भी आप ये न बताएँ! ऐसा ही है न?

तो महाराज आपको ये समझा रहे हैं कि सूची अपनी पूरी फाड़ दो। तुम्हारे दस-के-दस कारण झूठे हैं। तुम काहे को झूठ बोल रहे हो?

'क्यों इतने दुखी हो?'

'चश्मे का नम्बर बढ़ गया है।' 'पीठ में दर्द होने लग गया है।'

बेकार की बात! ऊपरी कारण हैं, सतही कारण हैं, झूठे कारण हैं। असली कारण बस एक है: जिससे प्रीत है, उस पर प्राण नहीं दे रहे। और ये कहलाती है बेवफ़ाई; और ये बड़ा गुनाह होता है कि प्रीत उससे है और खपे यहाँ हुए हो।

ये जो अधूरी, अपोषित प्रीति है, यही दर्द होती है। जहाँ के हो, उधर को जाने का उद्यम करने की जगह जहाँ के नहीं हो, वहाँ टेंट-तम्बू और गाड़ रहे हो ज़ोर से। समझ में आ रही है बात? ये लिख लेंगे सब?

कभी कोई तकलीफ़ हो, अपनेआप को झूठ मत बोलिएगा। तकलीफ़ की वजह एक ही होती है — उससे दूरी (ऊपर की ओर संकेत करते हुए)।

तो विचार करिएगा आज कि झूठ बोलने की वजह क्या, फ़ायदा क्या। कष्ट अनुभव हो रहा हो, फिर भी बीमार अपनेआप को बताए ही न कि वास्तविक बीमारी क्या है, तो क्या अपनेआप से झूठ बोलने से कष्ट कम हो जाता है क्या? बेहतर है न कि स्वीकार कर लो कि कष्ट ही यही है कि ग़लत फँसे बैठे हो; और कोई कष्ट नहीं होता।

“साईं की नगरी परम अति सुंदर। दरद ये साईं को सुनावै। आगे चले पंथ नहीं सूझै, पीछे दोष लगावे।”

और हम क्या करते हैं कि जब वहाँ जाने का कोई हमें रास्ता नहीं मिलता, तो हम यहाँ को दोष देने लग जाते हैं। यहाँ ‘आगे’ से आशय है ऊपर। वहाँ जाने का हमें जब कोई ज़रिया नहीं मिलता, तो हम बोल देते हैं कि अरे! नहीं, बात तो बहुत सही है आपकी आचार्य जी, लेकिन दुनिया की ज़िम्मेदारियाँ भी तो बहुत हैं न। तो उन्हीं के लिए बोला है।

आप जो बोलोगे वो आप दस हज़ार साल पहले भी बोल रहे थे। आप आज के थोड़े ही हो। न आप आज के हो, न ये आज के हैं; सब पता नहीं कब से रहे हैं!

तो ये बात आपने इनको भी जाकर बोली। तो उन्होंने कहा, "हाँ, आगे चले पंथ नहीं सूझे और पीछे दोष लगावे।" ‘पीछे’ से आशय है, ये दुनिया जहाँ से आप उठे हो; पीछे माने जिसने आपको अतीत दिया है पूरा। जिसने आपको पूरा अतीत दिया है, समय दिया है जिसने आपको; समय की पूरी ये धारा (दी है), इसको दोष देने लग जाते हैं।

'नहीं, नहीं। हम भी जानते हैं, गीता हमने भी पढ़ी है। व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य है कि वो मुक्ति का प्रयत्न करे, यही लिखा है न भगवद्गीता में?' 'हाँ।' 'लेकिन क्या करें? नुन्नू की नौकरी, नुन्नी का ब्याह और उनकी माँ बड़ी इमोशनल है। क्या करें?'

अब उनकी माँ के पास जाओ, नुन्नू-नुन्नी की (तो वो कहतीं हैं), 'अरे, मैं तो हमेशा से जानती हूँ कि भगवद् प्राप्ति का यत्न करना चाहिए। लेकिन इनको भी तो देखना पड़ता है न! बीपी हाई है, बात-बात में घबरा जाते हैं; पीठ का दर्द है और डायबिटीज़ आ गई है आजकल।'

ये बात आप पंद्रहवीं शताब्दी, चौदहवीं शताब्दी में भी बोल रहे थे जब साहब बातें करते थे। तो आपने वहाँ जाकर भी यही बोला था कि वो उनके बीपी और डायबिटीज़ हैं। तो बोले, “आगे चले पन्थ नहीं सूझे, पीछे दोष लगावे।” किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? या फिर, 'नहीं, मैं तो पैदा ही ऐसे घर में हुआ जहाँ पर कोई आध्यात्मिक बात होती नहीं थी, इसलिए मेरा बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) नहीं है।' प्यार बैकग्राउंड से किया जाता है? बैकग्राउंड से प्यार करना सीखोगे? या प्यार ऐसे होता है कि ज़िन्दा हो, जीव हो, दिल है, धड़कता है; इसलिए प्रेम है। या ये बोलोगे कि नहीं, वह तो, देखिए, वो लोग तो लक्की (सौभाग्यशाली) होते हैं जिनके घर में ही उनको कुछ बता दिया जाता है। आचार्य जी, आपके पास तो था न? पिताजी की लाइब्रेरी थी, तो आपने ये सब पढ़ लिया; इसलिए आपको प्यार हो गया। पढ़-पढ़कर होता है? लाइब्रेरी (पुस्तकालय) में प्यार पनपेगा-फूलेगा? दोष है, तो बस चुनाव का। और ये वेदान्त का एक और सूत्र है — किसी और को दोष मत देना। फँसे तुम प्रकृति में हुए हो, लेकिन दोष प्रकृति को नहीं दे सकते।

प्रकृति कर्ता नहीं होती, प्रकृति के पास चुनाव का? बोलो, बोलो; ये अप्लाइड (प्रायोगिक) गीता है। अगर यहाँ नहीं समझ में आ रहा, तो मतलब गीता नहीं समझ में आयी है। फँसे आप प्रकृति में होते हैं, लेकिन दोष कभी भी प्रकृति का नहीं होता क्योंकि प्रकृति के पास चयन का अधिकार नहीं होता। अगर आप फँसे हैं, तो आपको फँसाया नहीं गया है; फँसने का चुनाव करा है आपने। तो इधर-उधर दोष देना बन्द करें। समझ में आ रही है बात? और अगर आप फँसे हैं, तो उसके पीछे सदा स्वार्थ होता है और स्वार्थ के पीछे सदा अज्ञान होता है।

स्वार्थ का अर्थ ही होता है अपना स्वार्थ न समझना। जो जानता ही नहीं कि उसका हित कहाँ है, वो स्वार्थ के पीछे भागता है।

जो अपना सच्चा स्वार्थ नहीं जानता, वो साधारण स्वार्थ के पीछे भागता है। तो जब कोई बोले कि वो स्वार्थी है, साधारण, जैसा होता है सामान्य स्वार्थी; तो जान लो ये वो स्वार्थी है जो जानता ही नहीं कि उसका असली स्वार्थ कहाँ पर है।

जो अपना नुक़सान कर रहा हो, उसको स्वार्थी बोलते हैं। जिसको लगे कि अपना लाभ करता है, लेकिन वो करता बात-बात में अपना नुक़सान है; उसको बोलते हैं स्वार्थी। तो अगर हम फँसे हैं, तो उसकी वजह है स्वार्थ। और स्वार्थ के पीछे हमने कहा — वजह होती है अपना असली हित न जानना, माने अज्ञान। अब अज्ञान के पीछे क्या वजह होती है? 'अज्ञान के पीछे भी वजह होती है क्या?' हाँ, होती है; बिलकुल होती है।

अच्छा, हमने बात करी थी, जब भक्ति सूत्रों पर चर्चा कर रहे थे, कि ज्ञान किससे उठता है? प्रेम से। पकड़कर चलिएगा, बात बिलकुल गणित जैसी है। ज्ञान, हमने कहा, किससे उठता है? प्रेम नहीं होगा, तो ज्ञान नहीं हो सकता। तो अगर आप कह रहे हैं कि आप स्वार्थी हैं और स्वार्थी होने का कारण अज्ञान है, तो अज्ञान कहाँ से आता होगा? ओहो! अगर ज्ञान प्रेम से आता है, तो अज्ञान कहाँ से आता होगा? अप्रेम से!

तो प्रेम एक चुनाव होता है। प्रकृति में आपको जो होता है, उसे कहते हैं — मोह। मोह माने धोखा। प्रकृति में आपको प्रेम बस हो जाता है, आपको चुनाव नहीं करना होता। आप प्रेम में पड़ जाते हैं, गिर जाते हैं, फिसल जाते हैं। वहाँ आपने कोई चुनाव नहीं करा, वहाँ हो गया। जहाँ बस कुछ स्वयमेव हो जाए, वो मोह है। ये परिभाषाएँ लिखते चलिए: जो ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाए, वो मोह है; मोह माने भ्रम। जहाँ आपका एक चैतन्य चुनाव सम्मिलित हो, मात्र वही प्रेम है। इसीलिए मैं बार-बार बोलता हूँ: प्रेम सीखना पड़ता है।

प्राकृतिक रूप से ख़ुद ही जो हो जाता है, उसे प्रेम नहीं कहते। ये जो एक उम्र के आने पर होने लग जाता है, उसे प्रेम नहीं कहते। माँ ने बच्चे को जन्म दिया; बच्चे के प्रति उसकी जो भावना होती है, प्राकृतिक, उसको प्रेम नहीं कहते। बच्चा एक उम्र तक माँ से आसक्त रहता है, उसको प्रेम नहीं कहते। आप युवा हैं, आपने किसी को देखा और आपने कहा, 'लव एट फर्स्ट साइट!' (पहली नज़र में प्यार); वो प्रेम नहीं होता, वो सब कुछ तो ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाता है। हो ही नहीं सकता कि माँ को बच्चा हो और उससे ममता न हो; वो ममता प्रेम थोड़े ही है। हो ही नहीं सकता कि छोटा बच्चा हो और वो माँ से न चिपके; वो चिपकना प्रेम थोड़े ही है। हो ही नहीं सकता कि नया-नया जोड़ा हो, और वो एक-दूसरे को पकड़े न रहें; वो पकड़ प्रेम थोड़ी ही है, वो सब तो स्वयं ही हो जाता है।

और जो स्वयं ही एक प्रक्रियाबद्ध तरीक़े से एक प्रोसेस के अंतर्गत होता रहता हो, उसको ही तो प्रकृति कहते हैं न? प्रकृति में क्या होता है? चाँद अपनेआप उग जाता है, आपने करा क्या? नदी अपनेआप बहती है, दिल अपनेआप धड़कता है। खाना खा लीजिए, खाना अपनेआप पच जाता है। पेड़-पौधे अपनेआप बड़े हो जाते हैं, पत्ते अपनेआप झड़ जाते हैं। गति वहाँ अपनेआप चलती रहती है। जो अपनेआप हो जाए, वो प्रकृति कहलाती है। जो प्रेम बस हो गया अपनेआप — आपको पता भी नहीं चला क्या हो गया, क्यों हो गया, कैसे हो गया — वो कोई प्राकृतिक घटना घटी है। जैसे खाना पचा हो, जैसे पलकें झपकी हों, जैसे नींद आ गयी हो, जैसे डकार ले ली हो खाने के बाद।

ये समझ में आ रही है बात?

तो बन्धन का कारण प्रकृति नहीं है, बन्धन का कारण आपका चुनाव है। प्रेम का चयन करना पड़ता है, प्रेम कोई मीठी-मीठी स्वयं घट जाने वाली जादुई घटना नहीं है। प्रेम में अगर होश सम्मिलित नहीं है, तो प्रेम झूठा है। ये अलग बात है कि प्रेम होश को उस ऊँचाई पर ले जाता है, जहाँ होश खोने लग जाता है। और ये दो बहुत अलग-अलग बातें हैं।

आप बेहोश हों, ये दोनों स्थितियों में सम्भव है। एक, आपका होश इतना बढ़ गया कि आप होश के अतीत निकल गये, आगे। एक ये बात हो सकती है और एक ये बात हो सकती है कि आपका होश इतना गिर गया कि आप बिलकुल जड़ हो गये, चेतनाहीन और विचारहीन हो गये।

अक्सर जो लोग चेतनाहीन हो जाते हैं, जड़ हो जाते हैं, उन्हें ये भ्रम हो जाता है कि उन्हें सच्चा इश्क़ हुआ है। वो सच्चा इश्क़ थोड़े ही हुआ है, वो तो वैसी-सी बात है कि नशा कर लिया। नशा कर लेने के बाद भी कुछ समय के लिए तो यही लगता होगा कि भाई, अब चले गये, सारे दुख-दर्द चले गये। चले थोड़े ही गये हैं, अभी उतरेगा। वो लौटकर आते हैं। समझ में आ रही है बात ये? तो इसे हम गाएँगे तो है ही, पर ये साधारण कोई गीत नहीं है।

ये अपनेआप में जैसे एक पूरा ग्रन्थ हो, अपनेआप में जैसे ये उपनिषदों का सार हो। और ये बात विशेषतया मात्र इसी गीत के बारे में नहीं कह रहा, ये बात सब गीतों पर लागू होती है। उसमें पैठने वाली प्रज्ञा चाहिए, बस।

“केहि विधि ससुरे जाऊँ मोरि सजनी, बिरह जोर जलावै, विषय रस नाच नचावे।”

'कैसे जाऊँ?' कोई हितैषी है इसी दुनिया में, उससे पूछ रहा कि कैसे जाऊँ उसके घर, ससुराल? कैसे जाऊँ वहाँ? अब दो बहुत विपरीत ताक़तों के बीच में फँसी हुई हूँ मैं।

अच्छा, ये अहम् को यहाँ स्त्रीलिंग से क्यों सम्बोधित किया जा रहा है? हम तो यही कहते हैं न कि अहम् है, अहम् प्रकृति का बेटा है, हमने तो ऐसे ही बात करी है आज तक। सन्तों ने लेकिन उससे थोड़ी और गूढ़ बात करी; उन्होंने कहा कि अहम् का अपना कोई लिंग नहीं है। लेकिन प्रकृति को उन्होंने कहा स्त्रीलिंग है; कारण — वो माता है। प्रकृति सबको जन्म देती है न? तो प्रकृति माँ है। तो प्रकृति का लिंग तो निश्चित रूप से स्त्रीलिंग है।

और अहम् का अपना कुछ नहीं होता, अहम् जिससे जुड़ जाए, अहम् वही हो जाता है। अहम् जिससे जुड़ जाए, वही हो जाता है। अहम् अपनेआप में तो कुछ है नहीं, अपनेआप में तो मिथ्या है, है ही नहीं कुछ। वो जिससे जुड़ जाए, वही हो जाता है। ज़्यादातर मामलों में अहम् किससे जुड़ा होता है? प्रकृति से जुड़ा होता है। चूँकि वो प्रकृति से ही जुड़ा है, तो इसीलिए अहम् को स्त्री कह करके ही सम्बोधित करा।

तो इसलिए सदा यही होगा कि अरे, वो पिया हैं और मैं सजनी हूँ। और चूँकि प्रकृति स्त्री है क्योंकि माता है, तो इसीलिए भेद दिखाने के लिए, वैपरीत्य दिखाने के लिए कह दिया कि वो जो है आत्मा, उसको कह दिया वो पुरुष है। समझ में आ रही है बात न?

प्रकृति स्त्री क्यों है? वजह बता दी है: जन्म देती है, मृत्यु देती है, माँ है वह। तो वो अगर स्त्री है और विपरीत दिखाना है कि उससे अलग, बिलकुल भिन्न, अलग एक आयाम है, तो उसको फिर कह दिया पुरुष। और अहम् चूँकि प्रकृति के साथ ही चिपका हुआ है, तो अहम् को कह दिया कि फिर तू भी स्त्री है। तू भी स्त्री है। ठीक है?

“केहि विधि ससुरे जाऊँ मोरि सजनी, बिरह जोर जलावै, विषय रस नाच नचावे।”

'ये दो ताक़तें हैं जो भिन्न दिशाओं में खींच रही हैं मुझे। एक ओर तो विरह से जली जा रही हूँ।' हमने जिस दुःख की बात करी थी, उस दुःख के लिए एक और नाम है, लिख लीजिए — विरह; और कोई दुख किसी को नहीं होता। अभी हमने कहा था कि आपने दस दुखों की सूची बनायी हो, वो सूची झूठी है। दुख एक ही है। क्या? आत्मा से दूरी।

अब हम कह रहे हैं कि ये जो दुख है, आत्मा से दूरी, इसी के लिए नाम है — विरह या वियोग। तो एक ओर तो वो बुला रहा है, लेकिन दूसरी ओर ये विषय जो हैं, ये नचाए जा रहे हैं, नचाए जा रहे हैं। विषय नहीं नचा रहे हैं, विषयों में जो रस मैं ले रहा हूँ, वो रस मुझे नचा रहा है। और रस झूठा है, रस है नहीं। रस है नहीं।

“विषय रस नाच नचावे।” विषय तो विषय हैं, उनमें रस की अनुभूति किसको हो रही है? मुझे। तो दोष भी फिर किसका है? मेरा। विषय का दोष नहीं है; जहाँ रस है नहीं, वहाँ मैं झूठ-मूठ अपने को मूर्ख बनाकर रस लूँ, तो ग़लती तो मेरी है न? रस की थोड़े ही है।

तो उदाहरण दिया जाता है कुत्तों का, जो सूखी हड्डियाँ ले लेते हैं, जिनमें कोई रस नहीं है, एकदम सूख चुकी है। रस कैसा? सूखी हड्डी! और सूखी हड्डी लेकर के वो उसको चबाना शुरू कर देते हैं अपने पैने दाँतों से, ज़ोर-ज़ोर से उसको चबाते हैं। अब हड्डी ठोस है, सूखी है। तो उस हड्डी को चबाने से उनके मसूड़े छिल जाते हैं, कुत्तों के। उनके अपने मसूड़े छिल गये, मसूड़े छिल गये तो उनसे ख़ून आने लगता है। जब ख़ून आने लगता है, तो कुत्ता स्वयं को समझा लेता है कि देखो, मैंने हड्डी चबायी, तो कितना मुझे फल मिला। हड्डी में ही तो ख़ून था, वो देखो ख़ून मिला न मुझको! ये हड्डी सूखी नहीं थी, इस हड्डी में माँस था और माँस में ख़ून था। दोष किसको दें? हड्डी को कि कुत्ते को?

जहाँ कोई रस नहीं है, वहाँ हमने अपनेआप को समझा दिया है कि रस है। कुछ भी नहीं है जहाँ, वहाँ हम अपनेआप को बताये बैठे हैं कि कुछ है। इसको माया की कौनसी बात कहते हैं? जहाँ कुछ न हो, वहाँ तुम अपनेआप को बता दो कि कुछ है। क्या बोलते हैं? विक्षेप।

कुछ है ही नहीं, लेकिन अपनेआप को घोषित करे बैठे हो कि कुछ है। ठीक वैसे, जैसे हड्डी में रस? नहीं है। लेकिन अपनेआप को बता रखा है कि है। अरे, वो जो रस अनुभव हो रहा है न, वो तुम्हारा अपना ख़ून है! आ रही है बात समझ में? तो मैं फँसा हुआ हूँ। वो तो बुला रहा है, लेकिन यहाँ का लालच नहीं छूट रहा। आगे —

“बिन सतगुरु अपनों नहीं कोई, जो यह राह बतावै।”

अब वहाँ जाएँ कैसे? तो कह रहे हैं कि एक ही है अपना जो वहाँ की राह बताए — गुरु। उसके अलावा अपना कोई नहीं है।

या तो वो अपना है (जो वहाँ की राह बताए) या जो वहाँ तक ले जाए, वो अपना है; बाक़ी सब सपना है।

निर्गुण-निराकार या तो अपना है या वो सगुण-साकार अपना है जो निर्गुण-निराकार तक ले जाए। नहीं समझ में आ रही बात? आसमान वो जो निर्गुण है; निर्गुण माने, जो प्रकृति से अलग है। प्रकृति से अलग की बात इतनी क्यों करनी पड़ती है? क्योंकि बेटा, प्रकृति में तो कलेजा ही जलता है, नहीं तो कोई शौक थोड़े ही है कि निर्गुण की बात करें।

ये जो गुणों का जगत है, त्रिगुणात्मक जो ये जगत है, इसमें कलेजा जलाने के अलावा क्या करा है किसी ने? इसलिए बात करनी पड़ती है निर्गुण की। निर्गुण कोई दर्शन की, कोई ज्ञान-भर की बात नहीं है; वो बहुत ज़मीनी बात है। लोग कहते हैं न कि निर्गुण की क्यों बात करते हो, सगुण क्यों नहीं हो सकता? क्योंकि भाई साहब, जो कुछ सगुण है, वो जान ले लेता है; इसलिए नहीं हो सकता।

'नहीं, सत्य को निराकार ही क्यों होना चाहिए?' क्योंकि जो कुछ साकार है, हमने आज़माकर देख लिया है और जो कुछ साकार है, उसी को माया और मिथ्या बोलते हैं। धोखा देता है, ज़िन्दगी बर्बाद कर देता है; इसलिए सत्य को निर्गुण-निराकार होना पड़ता है।

जिन्होंने पहली बार कहा कि सत्य निर्गुण ही है और अगम है और अगोचर है और अदृश्य है, उन्होंने किसी वजह से कहा होगा न? नहीं तो स्वाभाविक वृत्ति तो यही होती है कि कह दो कि यही दुनिया है, यही सत्य है और जो ऊँचे-से-ऊँचा है, वो इस दुनिया में मिलेगा। तो जो ऊँचा भी है, वो फिर सगुण ही है, साकार ही है क्योंकि इसी दुनिया का है। पहली बात तो यही होगी न?

मैं आपसे बोलूँ कि मुझे आप कोई क़ीमती चीज़ लाकर दीजिए। आपकी पहली वृत्ति, पहली प्रतिक्रिया क्या होगी? आप इधर-उधर खोजोगे, आप बाज़ार में खोजने जाओगे, आप लोगों से पूछोगे कि हाँ भई, बताओ ऊँची चीज़ कौन-सी है, इनको लाकर के ख़रीद करके देनी है। यही तो करोगे न? आप ये तो बिलकुल नहीं सोचोगे तत्काल कि जो सबसे ऊँची चीज़ है, वो तो निर्गुण है। ऐसा सोचोगे क्या? नहीं सोचोगे न?

लेकिन कुछ लोग थे जिन्होंने दुनिया की सब चीज़ों पर प्रयोग करके देख लिया। और उनमें बुद्धि बहुत तीव्र और तीक्ष्ण थी; उन्होंने देख लिया कि यहाँ तो जो कुछ भी है, उससे दिल भरता नहीं। तो फिर उन्होंने कहा कि फिर ठीक है, इसका मतलब दिल को इस दुनिया के पार जो है, उसकी तलाश है। 'इस दुनिया के पार कुछ है, हमें कैसे पता?' क्योंकि दिल को उसकी तलाश है। 'नहीं, दिल को उसकी तलाश है, ये कैसे पता?'

क्योंकि इस दुनिया में जो कुछ भी है, दिल को उसकी तलाश नहीं है; ये सीधा सा तर्क है। इस दुनिया में जो कुछ भी है, उससे तो दिल भरता नहीं। तो माने यहाँ जो कुछ भी है, उसकी तो हमें नहीं है तलाश। पर तलाश तो है। तो फिर निश्चित रूप से इस दुनिया के जो पार है, उसकी तलाश है। क्योंकि तलाश तो है ही न? मैं कैसे कह दूँ कि प्यास नहीं लग रही? मुझे प्यास लग रही है, ठीक है? मुझे प्यास लग रही है और मैं नहीं झुठला सकता कि प्यास लग रही है। दर्द का अनुभव है मुझे, कण्ठ सूख रहा है।

और ये दुनिया है; इस मेज़ की सतह, ये क्या है? ये दुनिया है। और इस पर अट्ठारह तरह के पदार्थ रखे हैं पेय, पीने के लिए। मैं सब आज़मा लेता हूँ और ये भी समझ जाता हूँ कि इन अट्ठारह से अट्ठारह हज़ार भी बनाए जा सकते हैं। कैसे? इन्हीं को थोड़ा-बहुत आपस में अलग-अलग अनुपात में मिलाकर के। इन्हीं को अलग-अलग अनुपात में, रेशियो में मिला-मिलाकर अट्ठारह से अट्ठारह हज़ार अलग-अलग तरीक़े के पेय पदार्थ बनाए जा सकते हैं। लेकिन मैं समझ गया हूँ कि मूल तो ये अट्ठारह ही हैं और इन अट्ठारह को मैंने चखकर देख लिया, पर प्यास मिटी नहीं। तो निश्चित-सी बात है कि मुझे प्यास लगी है किसी ऐसी चीज़ की जो इस मेज़ पर मौजूद?

श्रोतागण: नहीं है।

आचार्य: तो इसलिए कहा — निर्गुण-निराकार, उससे है प्यार। जो साकार है वो प्यास बुझाता नहीं। समझ में आ रही है बात यह? लेकिन वहाँ तक ले जाने के लिए मैं विधि क्या लगाऊँ? तो फिर जानने वालों ने कहा तुम्हारे काम का वही है, तुम्हारे लिए विधि वही अच्छी है जो सिर्फ़ तुम्हें एक दिशा में ही ले जाए। जो तुम्हें उस दिशा में ले जाए, उस विधि को गुरु कहा गया है।

गुरु विधि-मात्र है, व्यक्ति मात्र नहीं है। गुरु बस एक तरीक़ा है जिसको अपनाना होता है और फिर छोड़ देना होता है। सीढ़ी की तरह है, पुल की तरह है; एक युक्ति है, एक तरक़ीब है। उसका प्रयोग करना होता है, वो राह दिखाता है। न तो वो स्वयं चल सकता है राह पर आपके लिए, न वो आपकी मंज़िल बन सकता है। गुरु का काम बस इतना है कि आपको राह दिखा दे। राह पर चलना भी आपका काम है और मंज़िल पर जो प्रियतम बैठा है, वो भी आपका ही है।

आप बहुत आग्रह करेंगे, तो गुरु इतना कर सकता है कि आपके साथ-साथ चल दे। लेकिन फिर भी चलना आपको ही पड़ेगा; गुरु आपको कन्धे पर बैठाकर नहीं पहुँचा देगा। और मंज़िल तक पहुँचना भी आपको ही है क्योंकि वो जो प्रेम प्रसंग है, वो आपका है, एकदम व्यक्तिगत है। गुरु वहाँ क्या करेगा, कबाब में हड्डी!

तो जब आप मंज़िल पर पहुँच जाते हैं और आस-पास देखते हैं, तो पाते हैं कि गुरु गया। ग़ायब है, अब नहीं है। उसको वहाँ क्या करना? उसका काम था आपको वहाँ तक पहुँचा देना, फिर वहाँ से हट जाता है। हट जाता है, इसी बात को कुछ लोगों ने ऐसे कहा है कि वो जो मंज़िल थी, वो उसी में लीन हो जाता है; ऐसे हट जाता है। समझ में आ रही है बात?

कहने वालों ने फिर ऐसे भी कह दिया कि वो जो ऊपर बैठा है, आपका प्रियतम — अब ये एक प्रकार की कल्पना है, काव्यात्मकता है, नाटकीयता है। कह दिया कि आप नीचे से इतना बिलखते हो, इतना पुकारते हो, झूठ हैं आपके सारे बहाने; लेकिन दर्द तो आपको अनुभव हो ही रहा है। तो ऊपर से कहता है कि अच्छा चलो, तुम्हारे लिए कुछ प्रबन्ध कर देते हैं। तो वो नीचे कुछ प्रबन्ध कर देता है, उस प्रबन्ध को गुरु कहते हैं। पर मैं नहीं चाहता आप ऐसे सोचें; ऐसे सोचेंगे तो फिर कह देंगे कि उसने प्रबन्ध किया नहीं। 'अरे, काहे फँसे हुए हो? ऊपर गये क्यों नहीं अभी तक?' 'क्योंकि उसने प्रबन्ध अभी किया नहीं।'

तो मैं नहीं चाहता आप ऐसे सोचें कि गुरु उसके द्वारा किया गया प्रबन्ध है। कहने वाले तो ऐसे भी कह देते हैं कि वही जो निर्गुण है, वो सगुण होकर गुरु-रूप में आ जाता है। वो सब मत सोचिए, क्योंकि ऐसे सोचकर के आप ज़िम्मेदारी उस पर डाल रहे हैं। और मैं बार-बार बोला करता हूँ कि चुनाव आपका है, ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लीजिए; चुनाव आपको करना है, उसके ऊपर मत डालिए ज़िम्मेदारी।

“बिन सतगुरु अपनों नहीं कोई जो यह राह बतावै। कहत कबीर सुनो भाई साधो, सुपने में (न) प्रीतम आवे।।"

अब ये दो हैं इसके वर्ज़न (संस्करण): एक है "सपने में प्रीतम आवै", एक है "सपने न प्रीतम आवै।" और दोनों का ही बहुत ऊँचा अर्थ करा जा सकता है।

“तपन यह तन की बुझावै।” आप ऐसे भी कह सकते हो कि आपका जो गहरे-से-गहरा सपना है, माने आपकी जो एकदम मूल कामना है, मूल सपना है, वो प्रीतम का है। कि आप वैसे तो बहुत चीज़ें चाहते हो, लेकिन आप चाहते सचमुच मात्र आत्मा को हो; कहने को आप ऐसे भी कह सकते हो। और अगर ऐसे पढ़ना है कि "सपने न प्रीतम आवै", तो उसका अर्थ होगा कि साधारण कामनाओं में प्रीतम नहीं समाता है। तो दोनों अर्थ आप लिख लीजिए। अगर आप कहेंगे कि "सपने न प्रीतम आवै", तो अर्थ होगा जो हमारे साधारण सपने होते हैं, माने साधारण लौकिक इच्छाएँ; उनमें सत्य नहीं समाता है। बल्कि जो आपकी साधारण इच्छाएँ हैं, ये आपको आपकी मंज़िल से दूर ही रखती हैं।

और अगर कहना है "सपने में प्रीतम आवै", तो उससे आशय होगा कि वही तो है जिसको आप अपनी सब कामनाओं में तलाश रहे हो; बस आपकी कामनाएँ अन्धी हैं। कृष्ण कहते हैं न कि आप जिस भी देवी-देवता के पास जाते हो, जो भी आपका इष्ट है, आराध्य है, उसकी ओर आप मेरी ही तलाश में जाते हो।

तलाश उसी की है, पर जिधर को जा रहे हो उसकी तलाश में, उधर वो नहीं है। स्पष्ट हो रही है बात? ये वेदान्त ही है।

वेदान्त ही है और जो इसका सही अर्थ पकड़ ले, उसी ने गीता को गुना है। नहीं तो श्लोक बाँचने वाला पंडित हो जाना तो बहुत आसान है। जिसको इसमें और सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग में अंतर दिखाई पड़ता हो, उसने न अभी कृष्ण को समझा है, न कबीर को।

“तपन यह तन की बुझावै।”

ये जो तन की तपन है — अब फिर गीता की बात कर रहे हैं। गीता में तन की तपन के लिए सीधा-सीधा शब्द आता है। क्या? विगतज्वर। अन्यत्र एक और आता है — गतज्वर; और आता है — मुक्तज्वर।

ये जो ज्वर है, यही वेदान्त का एक तरह से प्रतिपाद्य विषय है — 'तापत्रय से मुक्ति'। ताप माने ज्वर। कि तीन तरह के ताप होते हैं, तीन तरह के दुख और वो दुख तुम्हारे नहीं मिटेंगे उन सब हरकतों के साथ, जिनमें तुम फँसे हुए हो। तुम करते चलो जो कर रहे हो; जिस दिशा में तुम जा रहे हो उस दिशा में और गति से भागो। तुम्हें लग रहा है कि तुम दुख मिटाने के लिए भाग रहे, दुख बढ़ेगा ही उससे। तो, “तपन ये तन की बुझावै”।

और यहाँ भी बड़ी सूक्ष्म बात है और बड़े हल्के से, चुपके से इशारा कर दिया है। हम आमतौर पर कहते हैं कि मन की तपन है। भाई, तन की तपन के लिए कौन अध्यात्म के पास जाता है? उसके लिए तो डॉक्टर हैं, चिकित्सक हैं। हम कहते हैं मन की तपन है। साहब कह रहे हैं, 'तन की तपन है'। इससे वो हमें क्या बता रहे हैं? सूत्र क्या निकला? कि जिसको आप मन बोलते, तन ही तो है। आप बोलते हो कि मन में भावना उठी हो; मन की भावना नहीं है वह, तन की भावना है। आप बोलते हो मन में विचार उठा; वो मन का विचार नहीं है, वो तन का विचार है। इसीलिए तो स्त्री की भावना एक होती है, पुरुष की भावना अलग होती है क्योंकि दोनों के तन अलग-अलग हैं। लेकिन हमको ऐसा लगता है कि बात तन की थोड़े ही है, बात देह की थोड़े ही है; बात तो मानसिक है। वो मानसिक नहीं है, वो शारीरिक ही है। आपको जो कुछ भी अनुभव हो रहा है, वो एक शारीरिक गतिविधि है।

यही कारण है कि जब शरीर नहीं रहता तो, कोई अनुभव भी नहीं रहता। अगर मन का तन से कुछ भिन्न अस्तित्व होता, तो तन के बाद भी मन को बचना चाहिए था न? पर हम तो ये जानते हैं कि तन पर ज़रा सी अगर चोट पड़ जाती है, तो मन पर भी चोट पड़ जाती है। हम तो ये जानते हैं कि इंजेक्शन देकर अगर तन को बेहोश कर दिया जाए, तो मन भी सुन्न पड़ जाता है। मन का तन से कोई भिन्न अस्तित्व नहीं है। समझ में आ रही है बात? जो ये जान गया, वो तन-मन दोनों से मुक्त हो जाता है।

और भारत में ये बड़ा अन्धविश्वास रहा है कि तन के बाद भी मन शेष रहता है, कि तन के बाद भी कुछ बच जाता है। और ज्ञानियों ने हमें समझाया है कि बेटा, बचेगो तो तब न, जब पहले रहा हो। बचेगा तो तब न, जब पहले रहा हो। तुम बोलते हो कि एक भीतर होता है कुछ जो कि बच जाता है, उसी का फिर पुनर्जन्म होता है।

और जानने वालों ने आपसे कहा है कि पुनर्जन्म तो तब होगा न, जब ये वाला जन्म हो। अरे, यही जन्म नहीं है, पुनर्जन्म कहाँ से होगा? पुनर्जन्म किसी का हो, इसके लिए सर्वप्रथम कोई होना तो चाहिए न? नहीं समझ में आ रही बात?

आप इस जन्म में भी जिसको अपना प्राण बोलते हो, जिसको जीवात्मा बोलते हो; वास्तव में मिथ्या है, वैसा कुछ है नहीं, कुछ भी नहीं है। कुछ नहीं है, नथिंग। जब अभी नहीं है, तो आगे कहाँ से हो जाएगा? आगे कुछ हो, उसके लिए अभी तो कुछ होना चाहिए न? पुनर्जन्म छोड़ दो, ये जन्म भी नक़ली है। तो पुनर्जन्म असली कहाँ से हो जाएगा? जब यही जन्म मिथ्या है, अहम् मिथ्या है न? जब अहम् मिथ्या है, संसार मिथ्या है, ये जगत, ये जन्म मिथ्या है, तो पुनर्जन्म कहाँ से हो जाएगा? तन-मात्र है!

तन-मात्र है, तो भीतर फिर कौन तड़प महसूस करता है? वो चेतना है! वो तन से उठी है, उसका स्वभाव ज्ञान है। वो इसीलिए दर्द का अनुभव कर रही है क्योंकि वो जान नहीं रही है कि भले ही वो तन से उठी है, पर उसकी मंज़िल तन नहीं है। और कोई बात नहीं है। जिसको आप चेतना कहते हैं, वो शरीर से भिन्न अस्तित्व में नहीं रह सकती।

इसीलिए शरीर के बाद मुक्ति जैसा कुछ नहीं होता। मुक्त यदि है, तो शरीर रहते ही है। शरीर के बाद मुक्ति नहीं होती, हो ही नहीं सकती। शरीर के बाद मुक्त होने के लिए कोई बचता ही नहीं, तो कौन मुक्त होगा? तो शरीर रहते कौन रोता है मुक्त होने के लिए? भ्रम! भ्रम को ही तो मुक्त होना है, और कौन होगा! शरीर के बाद तो भ्रम भी नहीं बचता। शरीर रहते, कौन रहता है? भ्रम। उसी भ्रम का नाम है जीवात्मा। उसी भ्रम को तो स्वयं से मुक्ति चाहिए।

और स्वयं से मुक्ति का साधन होता है ज्ञान। हमारा होना ही मूल भ्रम है, लेकिन हम इतने ज़बरदस्त लोग हैं कि हम ये तो मानते ही हैं कि अभी हम हैं, हम ये भी मानते हैं कि मौत के बाद भी हम रहेंगे। और दुनिया के लगभग सभी धर्मों ने मौत के बाद की किसी-न-किसी रूप में ज़िन्दगी की कल्पना करी है। और ज्ञानियों ने ऐसे सिर पकड़कर देखा है, बोल रहे हैं, 'तू अभी तो है नहीं, तू मरने के बाद कहाँ से बचेगा?'

ये ऐसी-सी बात है कि आप हो बिलकुल फटेहाल, एक नम्बर के ग़रीब; जेबें सिर्फ़ खाली ही नहीं हैं, फटी हुई हैं, और आपने अपनी पैंट दी धुलने को और जब पैंट धुल कर आयी, तो आप उसमें तलाश रहे हो कि जेब में कितना है, बचा कितना है। बहुत लोगों का होता है न नोट वगैरह जेब में छोड़ देते हैं, फिर धुलकर आता है तो ऐसे निकलता है चिपका हुआ सौ रुपए, दो हज़ार रुपए का नोट। वो (गरीब) तलाश रहे हैं कि पैंट की जेब में नोट कितना बचा। पागल! उसमें था कब? उसमें था कब? कुछ होगा, तब न बचेगा? कुछ था ही नहीं! हम अभी भी कुछ नहीं हैं, हम मृत्यु के बाद कहाँ से कुछ बच जाएँगे?

हम अभी भी कुछ नहीं हैं, ये स्वीकारिए सबसे पहले। ये जन्म ही मिथ्या है, तो और कोई जन्म सत्य कहाँ से हो जाएगा? मुक्ति फिर किसके लिए है? दोहराइए, मुक्ति किसके लिए है? वो जो भ्रमित बैठा है कि कुछ है, मुक्ति उसके लिए है। तुम्हारी मुक्ति का अर्थ क्या है? इसी भ्रम से मुक्ति कि कुछ है।

मुक्ति का अर्थ है ये जान लेना कि तुम हो ही नहीं। मुक्ति का अर्थ और कुछ नहीं होता, मुक्ति का अर्थ होता है यही जान लेना कि कुछ है ही नहीं; शरीर भर है और कुछ नहीं है। भावना अगर उठ रही है, तो शरीर है; कष्ट हो रहा है, तो शरीर है, और कुछ नहीं। जो ये जान गया, वो मुक्त है।

कल अष्टावक्र के साथ थे हम, वो बोल रहे थे कि निराशा के घोर क्षण में भी, ख़ूब निराश होकर भी जो अहम् में विश्वास नहीं करता, वो मुक्त है। मतलब समझिएगा।

वो जानता है कि निराशा तो है, ऐसा नहीं कि निराशा अब बची ही नहीं। निराशा है, पर वो जान जाता है कि निराशा मेरे लिए नहीं है। निराशा एक प्रक्रिया मात्र है, जो शरीर के लिए है; मैं निराशा से मुक्त हूँ। क्या निराशा नहीं होती मुक्त पुरुष को? होती है। क्या दुःख नहीं होता? होता है। लेकिन उसको नहीं होता। वो कहता है कि मुझे नहीं है। निराश है कोई, मैं नहीं निराश हूँ। बात समझिएगा। मैं निराश क्यों नहीं हूँ? क्योंकि मैं हूँ ही नहीं! ये ‘मैं’ भाव ही सबसे पहला मूल झूठ है; मैं हूँ ही नहीं। 'हाँ, कोई निराश है; मैं निराश नहीं हूँ।' 'कोई निराश है। मैं निराश नहीं हूँ, कोई निराश है।' समझ में आ रही है बात ये?

तो इतनी बड़ी बात और इतना सहज इशारा कर दिया है कि तपन ये तन की बुझावै। चाहते तो लिख देते तपन ये मन की बुझावै, नहीं लिखा।

समझने वाले के लिए एक ये छोटी सी पंक्ति पर्याप्त होगी जीवन की सारी गुत्थी सुलझाने को। जो न समझें, वो उम्र भर गाते रहें; गाने से कुछ नहीं मिलता, समझने से मिलता है। और समझ कर फिर गाने का जो रस होता है, वो अलग होता है।

बोध ही सबकुछ है। भूलिएगा नहीं कि जो दुःख का अनुभव करता है, वो भीतर का एक? बोलिए! भ्रम है। चूँकि दुःख भ्रम के कारण है, इसलिए दुःख से छुटकारा सिर्फ़ और सिर्फ़ ज्ञान से ही हो सकता है। न जानने के कारण ही दुःख है और दुःख हटेगा फिर कैसे? जानकर हटेगा; जो भीतर बैठा है न, वो ये नहीं जानता कि वो नहीं है। हैं! (आश्चर्य का नाटकीय रूपांतर करते हुए) और यही तो उसको जतवाना है कि बेटा, तुम हो ही नहीं। तुम यूँही हवा-हवाई हो। तुम्हारा काम है बस दावा ठोकना; तुम्हारा काम है कर्ताभाव प्रदर्शित करना। जो तुम करते भी नहीं, उसको तुम कहते हो, ‘मैंने किया’। तुम हो नहीं, तुम झूठ-मूठ यूँही खड़े हो जाते हो बस। प्राकृतिक जो घटनाएँ होती हैं, उनके साथ बस तुम अपना? बोलिए! नाम जोड़ देते हो।

शरीर को भूख लगी है, तुम बोल देते हो मुझे भूख लगी है; तुमने क्या करा है इसमें? तुम्हें मोह हो जाता है और वो एक प्राकृतिक बात है। तुम कहते थे, ‘मुझे मोह हो गया’। तुमने क्या करा है इसमें? जब हम कहते हैं कि अहम् का काम है चुनाव करना, तो आप क्या समझ रहे हैं? अगर वो है ही नहीं, तो सिर्फ़ एक चुनाव है जो वो कर सकता है। क्या? ये स्वीकारना कि मैं हूँ ही नहीं।

जब हम बार-बार कहते हैं न कि सही चुनाव करो, सही चुनाव करो; इतनी बार मैं बोलता हूँ आपसे, तो आप समझिए कि मैं क्या बोल रहा हूँ। मैं बोल रहा हूँ कि वो चुनाव करो जो तुम्हें बता दे कि तुम हो नहीं। इससे आप भी समझिए कि कौनसा चुनाव सही है और कौन-सा चुनाव ग़लत है; कौन सी संगति सही है और कौन-सी संगति ग़लत है। वो चुनाव और वो संगति सही है जो आपको बार-बार याद दिलाते चलें कि आप नहीं हो।

और वो चुनाव और वो संगति आपके लिए बहुत बुरी हैं जो आपको ये एहसास कराते चलें कि आप कुछ हो। जो आपका होना मिटा दे, वो संगति आपके लिए सही है। जो आपका होना बढ़ा दे, वो संगति आपके लिए बहुत बुरी है। जिसके साथ बैठकर के आप खो जाओ; गाते हैं न बाबा बुल्ले शाह — “अब हम गुम हुए, हम गुम हुए, प्रेम नगर की सैर।” जिसके साथ बैठकर के गुम हो सको, ‘मैं’ मिट सके, वो संगति सही है। और जिसके साथ बैठकर के और हो जाओ, अपनी हस्ती और प्रबल हो जाए, कुछ होने का भाव और सघन हो जाए; वो संगति आपके लिए बहुत बुरी है। समझ में आ रही है बात?

एक ही फिर पुण्य हुआ, क्या? 'न होना।' और एक ही पाप हुआ, क्या? 'होना।' होना ही पाप है, न होना ही पुण्य है। आत्मा फिर क्या है? आपके न होने को आत्मा कहते हैं। जब हमने कहा कि वो संगति भली है जो आपको ग़ुम कर दे, इससे आशय क्या है? उनकी संगति से बचो जो आपमें किसी पहचान, किसी आइडेंटिटी का संचार करते हैं। क्योंकि अहम् अकेले नहीं ज़िन्दा रहता, वो हमेशा ‘मैं’ के साथ कुछ जोड़कर ज़िन्दा रहता है। आप किसी के पास जाते हो और वो ज़ोर से चिल्लाकर आपसे बोलता है: ‘अरे भाभी', ये आपके लिए कुसंगति है, उसने आपको कुछ बना दिया। जो आपको कुछ बना दे, वो आपके लिए बुरा; जो आपको कुछ बना दे, वो आपके लिए बुरा है।

आप बैठे हुए हो, मान लो आप चेतना की तरह बैठे हो; बस एक इंसान हो, अभी सुन रहे हो। यहाँ से कोई मोहक-आकर्षक स्त्री-पुरुष गुज़र जाता है। अगर स्त्री गुज़री है, तो वो पुरुषों को पुरुष बना देगी और अगर कोई आकर्षक पुरुष गुज़रा है, तो स्त्रियों को स्त्री बना देगा। ये कुसंगति हो गयी। उसने आपको कुछ? बना दिया। जो आपको कुछ बना दे, वो आपके लिए बहुत बुरा है। जो आपको कोई आइडेंटिटी दे दे, कोई नाम दे दे, कोई हस्ती दे दे; वो आपके लिए बुरा है, उसे ही कुसंगति कहते हैं। और जो आपको आपकी पहचानों से, आइडेंटिटीज़ से मुक्त कर दे; वो सुसंगति है आपके लिए।

बाक़ी सारी जटिलताएँ हटा दीजिए, बस याद रखिए कि कृष्ण बार-बार आपको तीन याद रखने को बोल रहे हैं। कम-से-कम अगर गीता आप मेरे साथ पढ़ रहे हैं, तो इन तीन के अलावा किसी चौथे की बात नहीं करनी है। यही तीन हैं बस और इन तीन में भी आपका सरोकार प्राथमिक किससे है? अहम् से। और किस आशय से सरोकार है? इस अहम् का क्या करना है? मिटाना भी नहीं है, जानना है कि ये है ही नहीं। मिटाओगे तो उसको जो होगा। पागल! जो है ही नहीं, उसे कहाँ से मिटाओगे? सबसे मुश्किल है उसको मिटाना जो नहीं है। बहुत सारे साधक तो इसी में मर जाते हैं।

मैं आपसे बोलूँ कि ये जो छत है, ये तोड़ दीजिए। आपको मुश्किल होगी, पर आप तोड़ सकते हैं। पर मैं आपसे बोलूँ कि ये छत से ये जो यहाँ पर कंगूरा लटक रहा है, शैंडिलियर ; लटक रहा है न बहुत बड़ा? इसको तोड़ दीजिए। आप और पूरी दुनिया पूरा जीवन प्रयत्न करते रहेंगे, सफल नहीं हो पाएँगे। क्यों? क्योंकि वो कुछ लटक नहीं रहा! जो है ही नहीं, उसको कैसे मिटाओगे?

अहम् को मिटाना नहीं होता। इसलिए जो साधनाएँ हैं बहुत क़िस्म की, ये व्यर्थ जाती हैं। आप उसको मिटाने के लिए साधना कर रहे हो जो है ही नहीं।

ज्ञान काम आता है! ज्ञान में बस जान लेते हो कि है ही नहीं। जब है ही नहीं, तो मिटाएँ किसको? और मिटाने का संकल्प भी कौन कर रहा था? ‘मैं’ ही तो कर रहा था। और मैं तो? हूँ ही नहीं। न मैं हूँ, न मिटाने वाली वस्तु है। तो ये पूरा प्रपंच क्या है? 'भक!' और ये जो ‘भक’ है आपका, यही आख़िरी शब्द होता है आपका, यही समाधि है। आई सी द पॉइंटलेसनेस ऑफ़ इट (मैं इसकी निरर्थकता देखता हूँ)। ‘भक’ माने पॉइंटलेसनेस।

एक तरह से सबकुछ इसी में समा जाता है — ‘भक!’ जैसे कि अभी समझ में आया कि बात कितनी मूर्खता की थी! 'भक!' बस, सब ख़त्म।

ये वो क्षण होता है जब जगत आपके लिए मिट जाता है। आप भी मिट गये, जगत भी मिट गया, मुक्ति भर है। अब आनंद है, अब जीवन मुक्त हो कर जियो। खेलो! अब दुनिया आपकी है।

वो ‘भक’ हमसे बोला नहीं जाता, 'भक' बड़ी बेपरवाही की बात है: ‘भक!, आई डोंट केयर’ (मुझे परवाह नहीं); वो हमसे होते ही नहीं। ‘आई’ के साथ बोला जाने वाला ये अकेला वाक्य है जो आई को ख़त्म कर देता है — ‘आय डोंट केयर।’ क्योंकि आई ज़िन्दा ही रहता है सिर्फ़ केयर में।

अगर उसके ऊपर तनाव न हो, परेशानियाँ न हों, तो मर जाता है। जैसे ही वो बोलता है कि आई डोंट केयर , वो ख़ुद भी मिट जाता है। तो ज़िन्दगी भर नहीं बोल पाता कि आई डोंट केयर। वो तो उसको तो अपनी इज़्ज़त की परवाह होती है। होगा कि कोई आपको दो गाली दे जाए, आप बोलें कि आई डोंट केयर ? हो नहीं पाता न?

छोटी-छोटी बातें जहाँ कोई आपका अपमान नहीं कर रहा है, वहाँ आपको अपमान लग जाता है। यही तो है उसको मानना जिसकी कोई हस्ती नहीं। तुम कह रहे हो कि तुम्हें चोट लग गयी। ये ऐसी-सी बात है कि जब बोले कोई कि मेरे अहंकार को चोट लग गयी… वो ऐसी-सी बात है कि मैं शिकायत करूँ कि कोई आया और मुझे मार गया। कहाँ? मेरे चौथे हाथ पर चोट लगी है। मेरे चौथे हाथ पर चोट लगी है! बताओ मैं झूठ क्यों बोल रहा हूँ? क्योंकि चौथा हाथ है ही नहीं।

तो कोई आकर दो गाली दे जाए और आपको चोट लग जाए, तो वो ऐसा ही है जैसा आपके चौथे हाथ पर चोट लगी हो। तुम्हें चोट लग कैसे सकती है? चौथा हाथ तो होता ही नहीं। अहंकार पर चोट लग कैसे सकती है? अहंकार तो होता ही नहीं! तो चोट कैसे लगी? 'भक!' बस ख़त्म।

दी अटर पॉइंटलेसनेस ऑफ आर्टिफीशियली रेज़िंग दैट विच इज़ नॉट (जो नहीं है उसे ऊपर उठाने की पूर्ण निरर्थकता)। जो है ही नहीं, उसको ज़िन्दा रखे हुए हो, रखे हुए हो, रखे हुए हो। अरे, बीमार को भी ज़िन्दा रखते हो तो कम-से-कम उसमें प्राण होते हैं इसलिए। जो है ही नहीं, उसको ज़िन्दा कैसे रख लिया? कैसे? 'कैसी लगी मेरी वो बात जो मैंने चार घंटे पहले बोली थी?' बोली ही नहीं! तो कैसी क्या लगेगी?

ज़ेन कहता है कि अपना वो चेहरा याद करो जो जन्म से पहले था, वो तुम्हारा असली चेहरा है। अपना वो चेहरा याद करो जो तुम्हारे जन्म से पहले था। जवाब क्या है? है ही नहीं! बस आपको यही बता रहे हैं कि आप हो ही नहीं। जो है नहीं, उसको लेकर के इतने बड़े-बड़े इन्शुरेंस और इतनी तकलीफ़ें, इतनी परवाह, इतनी चिंताएँ?

'जीभ जल गई है, चाय बहुत गर्म थी। मैं बेचारा कितना दुखी, कितना अभागा हूँ।' झूठा हूँ मैं। क्योंकि चाय तो है ही नहीं। चाय तो नहीं ही है, भीतर कोई जलने वाला भी नहीं है। फ़ालतू का झूठ। तो मुक्ति किसको चाहिए? जो है नहीं, पर झूठ बोलकर के अपनी हस्ती को घोषित करे रहता है; वो न होते हुए भी बोलता है कि मैं हूँ। वो ऐसा मायावी, ऐसा तिलिस्मी है, इसी को माया बोलते हैं: कि वो है नहीं, लेकिन होकर के दुखी भी अनुभव कर लेता है। उसको उसी से राहत-निजात दिलानी है।

'तू जा, तू पागल है! तू है ही नहीं, लेकिन फिर भी बना बैठा है।' काहे के लिए? बस दुख भोगने के लिए। ऐसा भी नहीं कि होकर के तुझे कुछ मिल रहा है। दुःख मिल रहा है बस, पर ज़बरदस्ती बने बैठा है बस कि मैं तो कुछ हूँ। बात पूरी स्पष्ट है अब यहाँ पर? अब इसको गाएँगे, तो बस गीत रहेगा, ध्वनि रहेगी, मद रहेगा या बोध भी रहेगा? चलिए।

(भजन मण्डली द्वारा भजन गायन होता है)

नैहरवा हमका न भावे हमका न भावे नैहरवा नैहरवा, नैहरवा, नैहरवा, नैहरवा।

साईं की नगरी परम अति सुन्दर जहाँ कोई आवे न जावै चाँद सूरज जहाँ पवन न पानी कौ संदेसा पहुँचावै दरद यह साईं को सुनावै नैहरवा…

ये अभी कोई प्रेम वाली बात नहीं थी। इसमें आतुरता-उन्मुक्तता कम थी और झिझक ही ज़्यादा थी। इनकी तरफ़ से भी, आपकी तरफ़ से भी। अरे, आवाज़ को ज़रा खोलो; बेसुरे हो जाओ, कोई बात नहीं। अभी आगे आएगा न, “जिस तन लगिया इश्क़ कमाल, नाचे बेसुर ते बेताल।” बेसुरे हो जाओ, बेताल हो जाओ; कोई बात नहीं, झिझकना बुरी बात है।

और ये जो बात हो रही है, वो उच्चतम है। इसमें भी आप झिझकोगे, तो करोगे क्या? और जो बाक़ी काम होते हैं उल्टे-पुल्टे ज़िन्दगी के, उसमें तो झिझकते नहीं। यहाँ पर ऐसे हैं, जैसे कोई आपका स्टिंग ऑपरेशन करके आपका वीडियो डाल देगा कि देखो, ये गाते पकड़े गये। गंदे आदमी, आध्यात्मिक गाना गा रहे थे।

आप लोगों (भजन मण्डली) की भी आवाज़ दबी हुई है। ये उद्घोषणा होती है न; ये एक डिक्लेरेशन होता है, स्वीकारोक्ति — 'हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ! आई डू! क़ुबूल है!' तो बड़ा सकुचा रहे हैं, कैसे बोल दें! वो भी सबके सामने! लाज आती है। फिर से गाइए, ढंग से; चलिए।

नैहरवा हमका न भावे हमका न भावे नैहरवा नैहरवा, नैहरवा, नैहरवा, नैहरवा

साईं की नगरी परम अति सुन्दर जहाँ कोई आवे न जावै चाँद सूरज जहाँ पवन न पानी कौ संदेसा पहुँचावै दरद यह साईं को सुनावै नैहरवा…

आगे चले पंथ नहीं सूझे पीछे दोष लगावै केहि बिधि ससुरे जाऊँ मोरी सजनी बिरहा जोर जरावै विषय रस नाच नचावै दरद ये साईं को सुनावै नैहरवा…

बिन सतगुरू अपनों नहीं कोई जो ये राह बतावै कहत कबीरा सुनो भाई साधो सपने न पीतम आवै तपन ये जिया की बुझावै नैहरवा…

आचार्य: बताइए।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने बताया कि जब अहम् या ‘मैं’ मंज़िल पर पहुँचता है, तब पाता है कि गुरु जो उसको ये पथ दिखा रहा था, वो विलीन हो जाता है। और कबीर साहब कहते हैं:

"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय।।"

मुझे पहले ऐसा लगता था कि कबीर साहब ऐसे द्वंद्व में फँसे हैं कि गुरु की अनुकम्पा को शुक्रिया करें या गोविन्द को शुक्रिया करें। लेकिन अब समझ में आया कि वो इसलिए कह रहे हैं 'काके लागूँ पाय', क्योंकि गुरु है ही नहीं, वहाँ बचा नहीं है। तो इसपर थोड़ा अगर प्रकाश डालें।

आचार्य: जब पाँव पड़ना है, तब तक मिलन थोड़े ही हुआ है? पाँव पड़ने की बात तो तभी तक है न जब तक अभी सत्य, आत्मा, गोविन्द, जो बोल लो, उनसे दूरी है। जब तक अभी जानते नहीं, तभी तक तो गुरु की आवश्यकता भी है और गुरु से नाता भी है न? सत्य, यहाँ कबीर साहब कह रहे हैं, मंज़िल हो सकता है। पर तुम्हारे लिए उपयोग का तो वो है न जो तुम्हें मंज़िल तक ले जाए। और उपलब्ध भी वही है जो मंज़िल तक ले जाए। मंज़िल के पाँव भी कैसे पड़ोगे? मंज़िल से तो तुम बहुत दूर हो। मंज़िल को नमन करने के लिए भी कुछ उसकी जान-पहचान होनी चाहिए, कुछ उसका रंग-ढंग पता होना चाहिए, चेहरा-मोहरा कुछ ज्ञान में होना चाहिए। तुम्हें मंज़िल का क्या पता?

अभी पूछा जाए कि मुक्ति कैसी होती है, तो क्या बताओगे? कुछ उल्टी-पुल्टी कहानी तो बता दोगे, और क्या करोगे? और कहानियाँ सबके पास होती हैं। तो जहाँ आपको पहुँचना है, वो जगह इतनी दूर है, इतनी अजेय है और इतनी अनिवर्चनीय है कि उसकी बात करना मूर्खता सी है। और उपयोगिता तो बिलकुल भी नहीं है उसकी बात करने की। गुरु उपयोगी है, बस ये बात है। जो उपयोगी है, उससे सम्बन्ध बनाने को कह रहे हैं ताकि वो तुमको वहाँ पहुँचा दे जहाँ तुम जाना चाहते हो।

लेकिन जो उपयोगी है, उसको ही मंज़िल नहीं बना लेना है। ये दो बातें याद रखनी हैं। राह एक चीज़ है और मंज़िल दूसरी चीज है। साधन एक चीज़ है, साध्य दूसरी चीज़ है।

प्र: फिर आपने बताया कि अहम् जो होता है, वो भ्रम है। यह, ऐसा गुरुजन कहते हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि अहम् है। अहम् ये बात जान ले कि जो भीतर का भ्रम है, उसे लगता है कि वो है; जबकि वो हैं नहीं। बहुत सालों, दो-तीन साल पहले मुण्डकोपनिषद् पर आपने बताया था कि आई सी दैट आई डोन्ट एग्ज़िस्ट (मैं देखता हूँ कि मेरा अस्तित्व नहीं है)। एंड यू फॉल साइलेंट (और तुम चुप हो जाते हो)।

आचार्य: एंड देन, आई डू नॉट रीमेन एनी मोर टू सी एनीथिंग मोर (और फिर, मैं और कुछ देखने के लिए नहीं रह जाता)। एक बार ये देख लो कि तुम नहीं हो, उसके बाद कुछ और देखने के लिए तुम्हारी न आवश्यकता बचती है, न अस्तित्व; उसके बाद मुक्ति है।

और मुक्ति का अर्थ होता है जीवन का पूरी सम्पूर्णता में तुमको उपलब्ध हो जाना।

प्र: बस आख़िरी बात — आपने समझाया कैसे अहम् को स्त्रीलिंग बताया गया है। वो अहम् असली में कुछ नहीं है, लेकिन चूँकि वो प्रकृति से लिप्त है, इसलिए उसे लगता है कि वो है।

आपने गीता में समझाया था कि अहम् जो है, फ़्री रेडिकल की तरह है। वो जिससे, जिसके पास जुड़ेगा, वैसा हो जाएगा, जैसे भृंगी कीड़ा। वो जिसको देखता है, वैसा हो जाता है। अब मेरा प्रश्न है कि जब मैं वैसा हो गया हूँ, मैं पूरी तरह उसमे रम गया हूँ, अब मुझे कैसे याद आएगा कि वास्तव में मैं ऐसा हूँ नहीं? या…

आचार्य: तुम तपते हुए तवे पर बैठ जाओ, तुम्हें कैसे याद आएगा कि तुम्हें वहाँ नहीं बैठना है? कैसे याद आएगा?

प्र: दर्द।

आचार्य: और फिर ज़ोर से बोलोगे, “नैहरवा हमका न भावै”।

प्र: इसी पर एक प्रतिप्रश्न करना चाहूँगा। ऐसा भले ही सन्तजन कहते हैं कि संसार जल रहा है, लेकिन मुझे तो उसमें आनंद आ सकता है। मतलब आनंद नहीं, सुख तो लग ही सकता है।

आचार्य: इसी को माया कहते हैं। वो तुम्हें उसका भी अनुभव करा देती है, जो नहीं है। सुख नहीं है, पर तुमको कुछ समय के लिए, कुछ स्थितियों में ऐसा लग सकता है कि सुख है। रस नहीं था, उसके जबड़े में, चोट लग रही थी, उसका जबड़ा छिल रहा था। उसके ही जबड़े से ख़ून आ रहा था, लेकिन कुत्ते को क्या लग रहा था? कि हड्डी में रस है।

तो जहाँ रस नहीं भी है, वहाँ तुम्हें लग सकता है कि रस है और तुम प्रसन्न भी रह सकते हो कुछ समय तक। लेकिन वो प्रसन्नता उस कुत्ते जैसी ही है। अभी थोड़ी देर में जबड़ा एकदम लहुलुहान होकर के जब… कितनी देर तक वो अपनेआप को आश्वस्त करे रहेगा कि सब ठीक है? पता तो लगेगा ही न?

प्र: ये मेरा टेक अवे रहेगा (ये मैं यहाँ से लेकर के जाऊँगा) कि नैहरवा गरम तवे जैसा है। धन्यवाद!

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