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लेख
नाड़े का इतना भरोसा? || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)
Author Acharya Prashant
आचार्य प्रशांत
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आचार्य प्रशांत: छह-सात साल पहले भी यहाँ पर शिविर लगा था। (गंगा जी के किनारे ) थोड़ा लम्बा सा शिविर था, कम-से-कम हफ़्ते-दस दिन का रहा होगा। तो बहुत सारे उसमें पार्टिसिपेंट (प्रतिभागी ) थे, कुछ उसमें जवान लोग भी थे कॉलेजी, ऐसा ही पूरा गंगा का बहाव था। तब दिन में चार-चार सत्र हुआ करें, सुबह पाँच बजे से सत्र शुरू हो जाएँ, रात में भी बारह बजे, एक बजे, दो बजे तक चलें। लोगों को सोने को भी कम मिले मगर बड़ी मौज रहती थी।

दिन के समय पर धूप कड़ी हो जाए। रात में ठंडक हो जाती थी, दिन में धूप। तो दिन में लोग ऐसे ही गंगा में नहाने के लिए आएँ। तो जो वहाँ पर कैंप के मैनेजर थे उन्होंने एक-दो गार्ड्स (सुरक्षाकर्मी) नियुक्त कर दिए और वो गार्ड्स क्या करते थे कि ऐसे ही अपना वो तट पर रहें और वहाँ पर किसी चट्टान से या किसी और चीज़ से एक बहुत मोटी रस्सी बाँध दी उन्होंने। और उन्होंने ये कर दिया कि जो भी लोग नहाने जा रहे हैं वो उस रस्सी को हमेशा पकड़े रहेंगे।

अब इस स्थिति को समझिए, स्थिति क्या है कि गंगा हैं, तेज़ बहाव है और जवान लोग हैं, उनका मन कर रहा है बहाव में अन्दर तक चले जाएँ, वो रुकने को राजी नहीं कि भई किनारे पर रहो। वो अन्दर तक चले जाएँ तो फिर इन्तज़ाम ये किया गया कि एक रस्सी है जो किनारे से बँधी हुई है और उस रस्सी को पकड़े रहना फिर कितना भी गहरे चले जाओगे नुक़सान नहीं होगा बल्कि मौज ले पाओगे, आनन्द ले पाओगे, बस जो रस्सी है किनारे वाली उसको छोड़ना मत।

तो ठीक है,‌ तो रस्सी इतनी लम्बी थी कि लाइन से कई लोग उसको पकड़ लेते थे थोड़ी-थोड़ी दूरी पर और रस्सी अन्दर तक अपना चली जाती थी नदी में। तो अपना लोग उस रस्सी को पकड़े हुए हैं और अपना बह रहे हैं, जितनी दूर तक रस्सी जाती है काफ़ी दूर तक जाती थी। तो एक सज्जन थे वो सबसे आगे-आगे, कतार है उन लोगों की जिन्होंने रस्सी पकड़ रखी है उनमें वो सबसे आगे-आगे। थोड़ी देर में देखा गया कि वो बहे चले जा रहे हैं तो पीछे वालों ने चिल्लाकर पूछा कि भाई रस्सी पकड़ रखी है नहीं पकड़ रखी है, बहे कैसे चले जा रहे हो तुम? तो वो बोलते हैं बिलकुल पकड़ रखी है, बिलकुल पकड़ रखी है, तो ठीक है।

एक मिनट बाद ग़ौर किया गया कि वो और आगे बहा जा रहा है। तो शक हुआ कि इतनी लम्बी तो रस्सी नहीं है इतनी दूर कैसे पहुँच गया वो। तो पूछा गया, क्या पकड़ रखा है? बोलता है, रस्सी ही पकड़ रखी है और उसको पूरा भरोसा है कि उसने रस्सी पकड़ रखी है और वो बहेगा नहीं, और वो दिख रहा है बहा जा रहा है। तो फिर जो गार्ड थे किनारे पर तैराक वो कूदे फिर गए उसके पास और उसको हाथ पकड़कर खींचकर ले आये। जब हाथ पकड़कर खींचकर ले आए तो पूछा गया कि तूने पकड़ क्या रखा था और कुछ नहीं पकड़ रखा था तो झूठ क्यों बोल रहा था कि रस्सी पकड़ रखी है?

बोला नहीं, रस्सी पकड़ रखी थी। ज़रा सा और सवाल किये गये तो पता चला कि यह जनाब पजामा ही पहनकर के कूद गए थे जाने इनके पास लोवर्स थे जिसमें नाड़ा जैसा कुछ होता है और इन्होंने अपना ही नाड़ा पकड़ रखा था। तो ये अपना ही नाड़ा पकड़े हुए थे। रस्सी की जगह ये सज्जन अपना ही नाड़ा पकड़े हुए थे और इनको पूरा भरोसा था कि ये बहेंगे नहीं और बहे जा रहे थे। तो ख़ैर इनकी किसी तरीक़े से जान बचायी गार्ड ने, तैराक ने।

ऐसी ही है नदी, ऐसा ही रहता है हमारा रवैया और ऐसे ही कभी ज़िन्दगी की नदी में हमारी जान बचती है, कभी नहीं बचती है। ये जीवन की नदी है आपको इसमें प्रवेश तो करना ही पड़ेगा, ज़िन्दा होने का मतलब ही यही है कि आपको इस नदी में उतरना ही पड़ेगा। उतरने में मज़ा बहुत है, छप-छप करिए पानी में बड़ा आनन्द है, एकदम प्रसन्नता आ जाती है। और अगर छप-छप करते-करते आपने तैरना सीख लिया तो आप नदी को फिर पार भी कर जाते हैं लेकिन अगर आपको तैरना नहीं आता, अगर आपमें होशियारी नहीं है, विज़्डम नहीं है तो यही नदी फिर आपको लील भी लेती है और जीवन को बहुत बुरा अन्त देती है।

जो लोग सीखने की शुरुआत कर रहे हों और जो लोग सीखने में ही आनन्द भी पाना चाहते हों कि सीखते भी जाएँ और मौज भी आती जाए; उनके लिए बहुत ज़रूरी है कि इस पार से जो रस्सी दी गयी है उसका साथ न छोड़ें, तब तक न छोड़ें जब तक तैरना सीख ही न जाएँ। जब तैरना सीख जाएँ तब छोड़ दीजिएगा। रस्सी आपको उस पार तक तो वैसे भी नहीं ले जा सकती पर जब तक आपको तैरना नहीं आया है तब तक रस्सी आपको सहारा ज़रूर देगी, आपकी रक्षा करके रखेगी।

अहंकार क्या करता है? अहंकार ख़ुद को ही पकड़ लेता है, वो अपना ही नाड़ा पकड़ लेता है जैसा उन भाई साहब ने करा था। वो अपना ही नाड़ा पकड़े रहता है, वो अपने ही भरोसे रहता है, वो आत्मविश्वास से भरा रहता है, वो किसी की मदद स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। वो कहता है हम देख लेंगे, नदी है न हम ख़ुद पार करेंगे, अपने बूते पार करेंगे।

कितना ज़्यादा अजीब है, हास्यास्पद है और साथ-ही-साथ खौफ़नाक है वो दृश्य जहाँ एक आदमी रस्सी की जगह अपना नाड़ा पकड़कर सोच रहा है कि अब मैं डूबूँगा नहीं, मैं बच जाऊँगा। अहंकार का यही मतलब है, अपना ही नाड़ा पकड़े रहना और सोचना कि मैं बच जाऊँगा, सोचना कि बहुत बड़ा सहारा मुझे मिला हुआ है। अपने से बाहर का सहारा हमें चाहिए ताकि एक दिन वो आ सके जब हमको उस सहारे की कोई ज़रूरत ना बचे। लेकिन वो दिन आता है प्रयास, प्रतीक्षा, साधना के बाद, उससे पहले ही अगर अपने अहंकार के चलते, व्यर्थ के आत्मविश्वास के चलते सहारा छोड़ दिया और अपना ही नाड़ा पकड़ लिया तो बहुत बूरा डूबेंगे।

अब जब भी मन में बहुत इगो (अहंकार) उठे, तो एक ऐसे आदमी को याद कर लीजिएगा जो इस नदी के बीचों-बीच है। इसकी (नदी की) आप ताक़त देखिए, इसकी आप गति देखिए और इसके बीचों-बीच एक नौ-सिखिया है आत्मविश्वास से भरपूर और उससे पूछा जा रहा है कि तू ठीक है? बोल रहा है, बिलकुल ठीक हूँ मैं रस्सी पकड़ा हुए हूँ न, और वह क्या पकड़े हुए है? अपना ही नाड़ा। अपना ही नाड़ा पकड़कर सोच रहा है कि मुझे तो किसी बाहर वाले का सहारा मिला हुआ है, किसी बहुत बड़ी ताक़त का सहारा मिला हुआ है।

अपने पर भरोसा करना अच्छी बात है पर पहले अपने को इस लायक बनाओ कि अपने पर भरोसा कर सको और अपने को इस लायक बनाने के लिए सर झुकाकर के विनम्रता से उन सब की मदद लो जो तुम्हें तुम्हारे पाँवों पर चलने लायक बना सकते हैं, जो तुम्हें तुम्हारे बूते तैरने के लायक बना सकते हैं और वैसे लोग पिछले हज़ारों साल में बहुत हुए हैं। वो प्रेमवश, करुणावश बहुत सीखें छोड़ गए हैं तुम्हारे लिए। उन सीखों का आदर करो, स्वीकार करो, जानो, समझो, जो भेंट दी गई है उसको ग्रहण करो और वो भेंट कोई बोझ नहीं है तुम्हारे ऊपर, जब उस भेंट से पूरा फ़ायदा उठा लो तो उसको किनारे रख देना। कौन कह रहा है कि तुम रस्सी जन्मभर पकड़े ही रहो, जब बिलकुल दिखने लगे कि अब हम तैरने लग गए हैं अपने भरोसे तब छोड़ देना रस्सी पर उससे पहले नहीं, उससे पहले छोड़ दिया तो बात प्राणघाती हो जाएगी।

ये तो फिर शिविर में चुटकुला बन गया था कि भाई साहब अपना नाड़ा पकड़कर के बहे जा रहे थे। वो बच गए भाई साहब इसलिए चुटकुला बन गया था नहीं बचे होते तो त्रासदी थी, ट्रैजिडी थी, एक जवान जान जाती। और वह भी बच इसलिए नहीं गए कि उन्होंने बचने लायक कुछ करा था, वो भी बच इसलिए गए क्योंकि दूसरों ने ही सहारा दिया, दूसरे ही सतर्क थे, दूसरों की ही करुणा थी उनके ऊपर, दूसरों ने ही सावधानी रखी और इसी पार के गार्ड ने जाकर के उनकी जान बचा ली।

याद रखना इसी पार के किसी शख़्स ने उनकी जान बचाई है, उनके अपने अहंकार ने उनकी जान नहीं बचाई। रस्सी भी इसी पार से आ रही थी और गार्ड भी इसी पार से आया। ले-देकर जान तो तुम्हारी किसी ऐसे ने ही बचाई जो इधर कहीं मज़बूती से गड़ा हुआ था या फिर जो नदी में तैरना जानता था। मैं बिलकुल समझता हूँ कि मदद लेना अहंकार को सुहाता नहीं है और मैं ये भी जानता हूँ कि लगातार मदद लेते रहना ये भी अहंकार की एक बीमारी है। हमें इन दोनों बीमारियों से बचना है; एक बीमारी ये होती है कि किसी पर डिपेंडेंट ही हो गये, निर्भर ही हो गये, लगातार मदद ही लिए जा रहे हैं। वो एक बीमारी है और एक बीमारी ये है कि ज़बरदस्ती का भरोसा इतना है अपने ऊपर की मदद लेने से ही इनकार और कर दिया कि नहीं हम ख़ुद ही देखेंगे, समझेंगे, जानेंगे, अपने भरोसे जो होगा करेंगे, इन दोनों बीमारियों से बचना है।

एक समय होता है मदद लेने का और अगर तुमने सही मदद ली है और मदद देने वाला सही है तो फिर अपनेआप एक समय आ जाता है जब तुम्हें दिख जाता है कि अब तो तुम हाथ जोड़कर कह सकते हो कि अब तुम्हें मदद लेने की ज़रूरत नहीं रही और जो मदद दे रहा है वो भी बहुत आनन्दित होगा उस दिन। वो भी कहेगा कि मैंने तुम्हें जो मदद दी वो सार्थक हुई और इसका प्रमाण ये है कि अब तुम्हें किसी मदद की ज़रूरत नहीं है। लेकिन वो दिन आने से पहले सुनने वालो अपने नाड़े के भरोसे बह मत जाना, ये जीवन गंगा है इसमें तुम्हें मुक्ति भी मिल सकती है और मौत भी। अब ये तुम्हें चुनना है कि तुम्हें क्या मिलेगा। बोध के भरोसे रहोगे तो मुक्ति मिलेगी और नाड़े के भरोसे रहोगे तो मौत मिलेगी।

चलो भाई अब ज़रा स्नान किया जाए, मारी जाए फिर डुबकी, तैयार? चलो।

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